सूरज की शुआएं शायद थीं आसेब-ज़दा ।
डर था के न हम हो जायें कहीं आसेब-ज़दा॥
हम कुछ बरसों से सोच के ये बेचैन से हैं,
आते हैं नज़र क्यों मज़हबो-दीं आसेब-ज़दा ॥
ये वक़्त है कैसा गहनाया गहनाया सा,
फ़िकरें हैं सभी अफ़्सुरदा-जबीं आसेब-ज़दा ॥
तख़ईल के चूने गारे से तामीर किया,
हमने जो मकाँ, हैं उसके मकीं आसेब-ज़दा ॥
महफ़ूज़ नहीं कुछ द्श्ते-बला के घेरे में,
हैराँ हूँ के हैं अफ़लाको-ज़मीं आसेब-ज़दा ॥
नाहक़ हैं परीशाँ-हाल से क्यों जाफ़र साहब,
इस दुनिया में कुछ भी तो नहीं आसेब-ज़दा॥
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