गुरुवार, 19 फ़रवरी 2009

हाथ मेरा थाम कर परछाइयां ले जायेंगी.

हाथ मेरा थाम कर परछाइयां ले जायेंगी.
ज़ह्न की ये वादियाँ जाने कहाँ ले जायेंगी.
ज़ुल्मतों के दरमियाँ से मंज़िलों तक एक दिन,
है यकीं मुझको मेरी बीनाइयां ले जायेंगी.
आस्मां पर फल, ज़मीं में हैं दरख्तों की जड़ें,
इनकी तह तक इश्क की पह्नाइयां ले जायेंगी.
ला-मकाँ की सरहदों से भी गुज़रना है मुहाल,
कुर्बतें इन सरहदों के दरमियाँ ले जायेंगी.
हिर्स में डूबे हुए हैं लोग सर से पाँव तक,
क्या ख़बर किसको, कहाँ, ये पस्तियाँ ले जायेंगी.
जो रहा महफूज़ तूफाँ में, सफीना और था,
अब किसी को क्या बचाकर कश्तियाँ ले जायेंगी।
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बुधवार, 18 फ़रवरी 2009

हमको समझ के बादए-गुलरंगो-मुश्कबू.

हमको समझ के बादए-गुलरंगो-मुश्कबू.
हसरत से राह में हैं खड़े रिंद चार सू.
आवाज़ उसकी घुलती गई मेरे जिस्म में,
बज्मे-तरब में बस वो अकेला था खुश-गुलू.
कोई तो लड़खडा गया पीकर बस एक जाम,
ज़िद थी किसी को पी के रहेंगे खुमो-सुबू.
आतिश की नज़्र हो गए खामोश-लब मकाँ,
सब बे-खता थे जिनका बहाया गया लहू.
ख्वाबीदगी में लेता रहा सिर्फ़ तेरा नाम,
बेदारियों में, तुझ से रहा महवे-गुफ्तुगू.
तेरी जबीं पे अब भी हैं मेरे लहू के दाग,
आईना रख के देख कभी अपने रू-ब-रू.
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बादए गुलरंगो-मुश्क-बू=कस्तूरी सुगंध वाली गुलाबी शराब, हसरत=लालसा, रिंद=शराबी, बज्मे-तरब=संगीत-गोष्ठी, खुमो-सुबू=शराब के घडे और मटके, आतिश=आग, खामोश-लब=चुप्पी साधे हुए, ख्वाबीदगी=सुषुप्तावस्था, बेदारियों=जाग्रतावस्था, महवे-गुफ्तुगू=बात-चीत में व्यस्त, जबीं= ललाट, रू-ब-रू. =चेहरे के सामन

मंगलवार, 17 फ़रवरी 2009

गुबार दिल पे न लो, दिल को साफ़ रहने दो.

गुबार दिल पे न लो, दिल को साफ़ रहने दो.
कोई ख़िलाफ़ अगर है, ख़िलाफ़ रहने दो.
मुआशेरा है, तो नाइत्तेफ़ाक़ियाँ भी हैं,
इसी तरह इन्हें ज़ेरे-गिलाफ़ रहने दो.
तमाम लोग अगर मुनहरिफ़ भी हो जायें,
सबब तलाश करो, इनहिराफ़ रहने दो.
लताफ़तों से जुबां की उन्हें तअल्लुक क्या,
दुरुस्त करते हो क्यों शीन-क़ाफ़, रहने दो.
वो सादा-लौह हैं, जो दुश्मनी निभाते हैं,
कराओ उनसे न कुछ एतराफ, रहने दो.
निशान बाक़ी रहेंगे, तो टीस उट्ठेगी,
न जुड़ सकेंगे दिलों के शिगाफ़, रहने दो.
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गुबार=धूल/गर्द, मुआशेरा=तहजीब/ समाज, ना-इत्तेफ़ाक़ियाँ=असहमतियां, ज़ेरे-गिलाफ़=खोल के नीचे, मुनहरिफ़=उद्दंड/सरकश.इनहिराफ़=उद्दंडता, लताफ़तों=कोमलता परक सौन्दर्य, तअल्लुक=सम्बन्ध, सादा-लौह=सीधे स्वभाव, एतराफ,=स्वीकृति, शिगाफ़=दरार.

सोमवार, 16 फ़रवरी 2009

आँखें वीरान सी हैं,चेहरा बियाबान सा है.

आँखें वीरान सी हैं, चेहरा बियाबान सा है.
इन फ़िज़ाओं में तड़पता कोई तूफ़ान सा है.
आओ घर लौट चलें कुछ नहीं रक्खा है यहाँ,
काफिला जीस्त का अब, बेसरो-सामान सा है.
उसका क्या है, किसी लम्हा भी खफ़ा हो जाये,
वक़्त आशुफ्ता-सरी में दिले-नादान सा है.
चन्द रोज़ों की मुलाक़ात में ठहराव कहाँ,
ये तअल्लुक़ तो घर आये किसी मेहमान सा है.
वो बताने पे था आमादा पुराने रिश्ते,
मैं मिला था कभी उससे मुझे कुछ ध्यान सा है.
किससे उल्फत थी, उसे तोड़ गया किसका फिराक,
क्या हुआ बाग़ को, क्यों चाक-गरीबन सा है.
सीधी बातें भी समझते नहीं दुनिया वाले,
कुछ कमी है कहीं, कुछ अक्ल का फ़ुक़्दान सा है.

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इससे पहले कि घटा आके यहाँ छा जाये.

इससे पहले कि घटा आके यहाँ छा जाये.
घर का बिखरा हुआ सामन समेटा जाये.
कोई अनजाना सा भय बैठ न जाये मन में,
किसी बच्चे को कभी इतना न डांटा जाये.
कैसा था स्वप्न जिसे देख के कुछ ऐसा लगा,
बेवजह जैसे अचानक कोई धमका जाये.
स्वार्थ के घोल में शब्दों को बनाओ न मधुर,
इनको सुन-सुन के कहीं कोई न उकता जाये.
उसको घर लौट के जाना है, वो चिंतित भी है,
कहीं बारिश न हो ऐसी कि वो घबरा जाये.
हमने देखा है समय को भी उगाते हुए फूल,
कल ये सम्भव है वो फिर अपने को दुहरा जाये.
मंजिलें उसकी मेरी एक हैं, उससे कह दो,
जब वो जाये तो मुझे साथ में लेता जाये.
एक ही दृश्य कहाँ तक कोई देखेगा भला,
सामने से मेरे ये दृश्य हटाया जाये।
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रविवार, 15 फ़रवरी 2009

विवादों को न दो विस्तार उल्झेंगी समस्याएँ.

विवादों को न दो विस्तार उल्झेंगी समस्याएँ.
निकालो युक्ति ऐसी लुप्त हों सारी समस्याएँ.
कभी फूलों से हम कुछ बात करते, तो पता चलता,
कि उनके सामने हैं आजकल कैसी समस्याएँ.
स्वतः संकीर्णताएं मन से निष्कासित नहीं होतीं,
कि ये सायास हैं पाली गयी अंधी समस्याएँ.
अंधेरों में न पथ का सूझना सामान्य होता है,
उजालों में न पथ सूझे तो हैं भारी समस्याएँ.
हमारा आज हमसे कह रहा था बात-बातों म,
न सोचो ऐसे मुद्दों पर जो थे कल की समस्याएँ.
गगन में बिजलियाँ चमकें तो स्वाभाविक सा लगता है,
किसी के मन में ऐसा हो तो हैं तीखी समस्याएँ.
मेरी कवि-मित्र ने मुझसे कहा मन में दुखी होकर,
ग़ज़ल कहने में हैं शैलेश जीटेढी समस्याएँ।

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शनिवार, 14 फ़रवरी 2009

भीगे हुए बालों को सुखाते हुए देखो.

भीगे हुए बालों को सुखाते हुए देखो.
उस चाँद को सूरज में नहाते हुए देखो.
जब डाले हरे पेड़ पे लहरा के दुपट्टा,
शाखाओं को बल खा के लजाते हुए देखो.
रक्षा में गुलाबों की उठा रक्खे हैं भाले,
इन टहनियों को स्वांग रचाते हुए देखो.
बच्चों को दुपहरी में घने नीम के नीचे,
निमकौलियों के ढेर लगाते हुए देखो.
उड़ती हुई आई है बगीचे में जो तितली,
फूलों से उसे बात बनाते हुए देखो.
जब रात हो गहरी उसे वीणा के सुरों पर,
मस्ती में भजन सूर के गाते हुए देखो.
मिल जाए वो बाज़ार में गर साथ किसी के,
घबरा के उसे आँख चुराते हुए देखो.
एकांत के अमृत को, विचारों के चषक में,
भर-भर के, मुझे पीते-पिलाते हुए देखो.
ये काया तो मिटटी की है, क्यों गर्व है इसपर,
इसको कभी मिटटी में समाते हुए देखो.
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शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2009

काव्य में अंतर्कथाएँ जो भी संदर्भित मिलीं.

काव्य में अंतर्कथाएँ जो भी संदर्भित मिलीं.
कुछ से हम अनभिज्ञ थे, पर कुछ बहुत चर्चित मिलीं.
उसके वक्तव्यों ने मुझको इस कदर प्रेरित किया,
कामियाबी की दिशाएँ सर्व-संभावित मिलीं.
जुगनुओं को घुप अंधेरों में हुई किसकी तलाश,
तितलियाँ दिन के उजालों तक ही क्यों सीमित मिलीं.
चाँदनी झरने में उतरी है नहाने के लिए,
सूर्य की किरनें भी दावानल से संवादित मिलीं.
दोपहर की धूप में मजदूर निर्धन औरतें,
अपनी काया से पसीना पोंछती, पीड़ित मिलीं.
मुद्दतों के बाद, जब आया मैं अपने गाँव में,
ज़िन्दगी की, भूमिकाएँ पूर्ण परिवर्तित मिलीं.
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हिन्दी ग़ज़ल ने उर्दू का घूंघट उठाया है.

हिन्दी ग़ज़ल ने उर्दू का घूंघट उठाया है.
आवाज़ आ रही है कि साजन पराया है.
शब्दों को ज़ेवरों की तरह छीन ले गया,
व्यवहार उसने मुझसे पुराना निभाया है.
आवारगी का रख दिया इल्ज़ाम मेरे सर,
आवारगी में जब कि स्वयं वो नहाया है.
मुझमें वो खोज लेता है अश्लीलता की बात,
बदनाम करने का ये नया ढंग लाया है.
कितनी ही सदियाँ हैं मेरे किरदार की गवाह,
ये ऐसा सत्य है जिसे सबने छुपाया है.
इतिहास मेरा भूल के, अपनों ने ही मुझे,
भाषा के कारावास में बंदी बनाया है.
मैं अपने संस्कारों से जीवित हूँ आज तक,
मुझको युवा समाज ही पहचान पाया है.
सच बोलियेगा, ऐसी कहीं मिल सकी मिठास,
गालिब को आपने भी बहुत गुनगुनाया है.
मैं चुप हूँ बस ये सोच के, आयेगा एक दिन.
देखेंगे सब कि मेरा ही वर्चस्व छाया है।
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गुरुवार, 12 फ़रवरी 2009

हर समय, आकर गुज़र जाता है, हर इंसान का.

हर समय, आकर गुज़र जाता है, हर इंसान का.
प्यार में लेकिन समय आता नहीं अवसान का.
इस अवस्था में, कि जब एकांत है मेरी नियति,
मोह विह्वल कर रहा है किस लिए संतान का.
दर्द, पीड़ा उलझनें, बेचैनियाँ, आवारगी,
ये तो बस पहला सबक़ है इश्क़ के सोपान का.
उसकी घूँघरदार अलकें प्रेम की ज़ंजीर हैं,
और मैं क़ैदी हूँ उसके रेशमी परिधान का.
खुल अगर जाये कभी सौन्दर्य का उसके रहस्य,
आदमी, दीवाना हो जाये, अनूठी शान का.
ये वो कारागार है जिससे नहीं मिलता फ़रार,
हर समय पहरा यहाँ रहता है उसके ध्यान का.
कौन सत्ता में है ये 'कमलेश्वर' को था पता,
कथ्य देता है गवाही 'कितने पाकिस्तान' का.
दोपहर की चिलचिलाती धूप में निकला हूँ मैं,
ध्यान आया जब मुझे तेरे सरोसामान का.
मुझसे अच्छे भी न जाने कितने आयेंगे अभी,
आखिरी गायक नहीं मैं इश्क के पादान का.
कौन लेता है युवावस्था में जिम्मेदारियां,
घर चलाना काम है बूढों के धर्म-ईमान का.
होश की बातें जो करते हैं न समझेंगे कभी,
मेरी मदहोशी, कथानक है मेरी पहचान का।
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