ग़ज़ल / ज़ैदी जाफ़र रज़ा / आँखें वीरान सी हैं लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
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सोमवार, 16 फ़रवरी 2009

आँखें वीरान सी हैं,चेहरा बियाबान सा है.

आँखें वीरान सी हैं, चेहरा बियाबान सा है.
इन फ़िज़ाओं में तड़पता कोई तूफ़ान सा है.
आओ घर लौट चलें कुछ नहीं रक्खा है यहाँ,
काफिला जीस्त का अब, बेसरो-सामान सा है.
उसका क्या है, किसी लम्हा भी खफ़ा हो जाये,
वक़्त आशुफ्ता-सरी में दिले-नादान सा है.
चन्द रोज़ों की मुलाक़ात में ठहराव कहाँ,
ये तअल्लुक़ तो घर आये किसी मेहमान सा है.
वो बताने पे था आमादा पुराने रिश्ते,
मैं मिला था कभी उससे मुझे कुछ ध्यान सा है.
किससे उल्फत थी, उसे तोड़ गया किसका फिराक,
क्या हुआ बाग़ को, क्यों चाक-गरीबन सा है.
सीधी बातें भी समझते नहीं दुनिया वाले,
कुछ कमी है कहीं, कुछ अक्ल का फ़ुक़्दान सा है.

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