सोमवार, 16 फ़रवरी 2009

आँखें वीरान सी हैं,चेहरा बियाबान सा है.

आँखें वीरान सी हैं, चेहरा बियाबान सा है.
इन फ़िज़ाओं में तड़पता कोई तूफ़ान सा है.
आओ घर लौट चलें कुछ नहीं रक्खा है यहाँ,
काफिला जीस्त का अब, बेसरो-सामान सा है.
उसका क्या है, किसी लम्हा भी खफ़ा हो जाये,
वक़्त आशुफ्ता-सरी में दिले-नादान सा है.
चन्द रोज़ों की मुलाक़ात में ठहराव कहाँ,
ये तअल्लुक़ तो घर आये किसी मेहमान सा है.
वो बताने पे था आमादा पुराने रिश्ते,
मैं मिला था कभी उससे मुझे कुछ ध्यान सा है.
किससे उल्फत थी, उसे तोड़ गया किसका फिराक,
क्या हुआ बाग़ को, क्यों चाक-गरीबन सा है.
सीधी बातें भी समझते नहीं दुनिया वाले,
कुछ कमी है कहीं, कुछ अक्ल का फ़ुक़्दान सा है.

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इससे पहले कि घटा आके यहाँ छा जाये.

इससे पहले कि घटा आके यहाँ छा जाये.
घर का बिखरा हुआ सामन समेटा जाये.
कोई अनजाना सा भय बैठ न जाये मन में,
किसी बच्चे को कभी इतना न डांटा जाये.
कैसा था स्वप्न जिसे देख के कुछ ऐसा लगा,
बेवजह जैसे अचानक कोई धमका जाये.
स्वार्थ के घोल में शब्दों को बनाओ न मधुर,
इनको सुन-सुन के कहीं कोई न उकता जाये.
उसको घर लौट के जाना है, वो चिंतित भी है,
कहीं बारिश न हो ऐसी कि वो घबरा जाये.
हमने देखा है समय को भी उगाते हुए फूल,
कल ये सम्भव है वो फिर अपने को दुहरा जाये.
मंजिलें उसकी मेरी एक हैं, उससे कह दो,
जब वो जाये तो मुझे साथ में लेता जाये.
एक ही दृश्य कहाँ तक कोई देखेगा भला,
सामने से मेरे ये दृश्य हटाया जाये।
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रविवार, 15 फ़रवरी 2009

विवादों को न दो विस्तार उल्झेंगी समस्याएँ.

विवादों को न दो विस्तार उल्झेंगी समस्याएँ.
निकालो युक्ति ऐसी लुप्त हों सारी समस्याएँ.
कभी फूलों से हम कुछ बात करते, तो पता चलता,
कि उनके सामने हैं आजकल कैसी समस्याएँ.
स्वतः संकीर्णताएं मन से निष्कासित नहीं होतीं,
कि ये सायास हैं पाली गयी अंधी समस्याएँ.
अंधेरों में न पथ का सूझना सामान्य होता है,
उजालों में न पथ सूझे तो हैं भारी समस्याएँ.
हमारा आज हमसे कह रहा था बात-बातों म,
न सोचो ऐसे मुद्दों पर जो थे कल की समस्याएँ.
गगन में बिजलियाँ चमकें तो स्वाभाविक सा लगता है,
किसी के मन में ऐसा हो तो हैं तीखी समस्याएँ.
मेरी कवि-मित्र ने मुझसे कहा मन में दुखी होकर,
ग़ज़ल कहने में हैं शैलेश जीटेढी समस्याएँ।

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शनिवार, 14 फ़रवरी 2009

भीगे हुए बालों को सुखाते हुए देखो.

भीगे हुए बालों को सुखाते हुए देखो.
उस चाँद को सूरज में नहाते हुए देखो.
जब डाले हरे पेड़ पे लहरा के दुपट्टा,
शाखाओं को बल खा के लजाते हुए देखो.
रक्षा में गुलाबों की उठा रक्खे हैं भाले,
इन टहनियों को स्वांग रचाते हुए देखो.
बच्चों को दुपहरी में घने नीम के नीचे,
निमकौलियों के ढेर लगाते हुए देखो.
उड़ती हुई आई है बगीचे में जो तितली,
फूलों से उसे बात बनाते हुए देखो.
जब रात हो गहरी उसे वीणा के सुरों पर,
मस्ती में भजन सूर के गाते हुए देखो.
मिल जाए वो बाज़ार में गर साथ किसी के,
घबरा के उसे आँख चुराते हुए देखो.
एकांत के अमृत को, विचारों के चषक में,
भर-भर के, मुझे पीते-पिलाते हुए देखो.
ये काया तो मिटटी की है, क्यों गर्व है इसपर,
इसको कभी मिटटी में समाते हुए देखो.
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शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2009

काव्य में अंतर्कथाएँ जो भी संदर्भित मिलीं.

काव्य में अंतर्कथाएँ जो भी संदर्भित मिलीं.
कुछ से हम अनभिज्ञ थे, पर कुछ बहुत चर्चित मिलीं.
उसके वक्तव्यों ने मुझको इस कदर प्रेरित किया,
कामियाबी की दिशाएँ सर्व-संभावित मिलीं.
जुगनुओं को घुप अंधेरों में हुई किसकी तलाश,
तितलियाँ दिन के उजालों तक ही क्यों सीमित मिलीं.
चाँदनी झरने में उतरी है नहाने के लिए,
सूर्य की किरनें भी दावानल से संवादित मिलीं.
दोपहर की धूप में मजदूर निर्धन औरतें,
अपनी काया से पसीना पोंछती, पीड़ित मिलीं.
मुद्दतों के बाद, जब आया मैं अपने गाँव में,
ज़िन्दगी की, भूमिकाएँ पूर्ण परिवर्तित मिलीं.
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हिन्दी ग़ज़ल ने उर्दू का घूंघट उठाया है.

हिन्दी ग़ज़ल ने उर्दू का घूंघट उठाया है.
आवाज़ आ रही है कि साजन पराया है.
शब्दों को ज़ेवरों की तरह छीन ले गया,
व्यवहार उसने मुझसे पुराना निभाया है.
आवारगी का रख दिया इल्ज़ाम मेरे सर,
आवारगी में जब कि स्वयं वो नहाया है.
मुझमें वो खोज लेता है अश्लीलता की बात,
बदनाम करने का ये नया ढंग लाया है.
कितनी ही सदियाँ हैं मेरे किरदार की गवाह,
ये ऐसा सत्य है जिसे सबने छुपाया है.
इतिहास मेरा भूल के, अपनों ने ही मुझे,
भाषा के कारावास में बंदी बनाया है.
मैं अपने संस्कारों से जीवित हूँ आज तक,
मुझको युवा समाज ही पहचान पाया है.
सच बोलियेगा, ऐसी कहीं मिल सकी मिठास,
गालिब को आपने भी बहुत गुनगुनाया है.
मैं चुप हूँ बस ये सोच के, आयेगा एक दिन.
देखेंगे सब कि मेरा ही वर्चस्व छाया है।
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गुरुवार, 12 फ़रवरी 2009

हर समय, आकर गुज़र जाता है, हर इंसान का.

हर समय, आकर गुज़र जाता है, हर इंसान का.
प्यार में लेकिन समय आता नहीं अवसान का.
इस अवस्था में, कि जब एकांत है मेरी नियति,
मोह विह्वल कर रहा है किस लिए संतान का.
दर्द, पीड़ा उलझनें, बेचैनियाँ, आवारगी,
ये तो बस पहला सबक़ है इश्क़ के सोपान का.
उसकी घूँघरदार अलकें प्रेम की ज़ंजीर हैं,
और मैं क़ैदी हूँ उसके रेशमी परिधान का.
खुल अगर जाये कभी सौन्दर्य का उसके रहस्य,
आदमी, दीवाना हो जाये, अनूठी शान का.
ये वो कारागार है जिससे नहीं मिलता फ़रार,
हर समय पहरा यहाँ रहता है उसके ध्यान का.
कौन सत्ता में है ये 'कमलेश्वर' को था पता,
कथ्य देता है गवाही 'कितने पाकिस्तान' का.
दोपहर की चिलचिलाती धूप में निकला हूँ मैं,
ध्यान आया जब मुझे तेरे सरोसामान का.
मुझसे अच्छे भी न जाने कितने आयेंगे अभी,
आखिरी गायक नहीं मैं इश्क के पादान का.
कौन लेता है युवावस्था में जिम्मेदारियां,
घर चलाना काम है बूढों के धर्म-ईमान का.
होश की बातें जो करते हैं न समझेंगे कभी,
मेरी मदहोशी, कथानक है मेरी पहचान का।
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मौसम भी तेरे हुस्न से रंगत चुराते हैं.

मौसम भी तेरे हुस्न से रंगत चुराते हैं.
खुशबू-बदन-लिबास की फरहत चुराते हैं.
जो अब्र बारिशों की हैं तह में छुपे हुए,
तेरा मिजाज, तेरी तबीअत चुराते हैं.
तेरे लबो-दहन का नमक चख चुके हैं जो,
एहसास में, ये कीमती दौलत चुराते हैं.
देखा है जाहिदों को तसौवुर से जाम के,
बेसाख्ता शराब की लज्ज़त चुराते हैं.
ये मेहरो-माह भी तो गिरफ़्तारे-इश्क हैं,
ये सुब्हो-शाम तेरी फ़ज़ीलत चुराते हैं.
नज़रों से इस जहान की अब तंग आ चुके,
लो आज हम भी अपनी शराफत चुराते हैं।
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बुधवार, 11 फ़रवरी 2009

आग वो कैसी थी जो आज भी कम होती नहीं.

आग वो कैसी थी जो आज भी कम होती नहीं.
अब ये सीने की जलन बाइसे-ग़म होती नहीं.
बात इक शब की है, लेकिन नहीं मिलते अल्फाज़,
दास्ताँ, जैसी कि थी, मुझसे रकम होती नहीं.
चन्द लम्हों की मुलाक़ात का इतना है असर,
उसके चेहरे से जुदा, दीदए- नम होती नहीं.
अब पिला देता है ख़ुद से वो मुझे जाम-पे-जाम,
अब तो पीने में ये गर्दन भी क़लम होती नहीं.
मुझमें और उसमें कोई फ़ास्ला बाक़ी न रहे,
ऐसी सूरत, किसी सूरत भी बहम होती नहीं.
कितने फ़नकारों ने तस्वीरें बनायीं उसकी,
एक तस्वीर भी हमरंगे-सनम होती नही
मेहरबाँ होके न होने दिया उसने मुझे दूर,
ज़िन्दगी मिस्ले-शबे-रंजो-अलम होती नही
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बाइसे-ग़म=दुख का कारण, अल्फाज़=शब्द, दास्ताँ=कथा, रक़म=लिखना, दीदए-नम=भीगी आँखें, क़लम होना=काटा जाना, बहम=एकत्र, फनकारों=कलाकारों, हमरंगे-सनम=महबूब के स्वभाव की, मेहरबाँ=कृपाशील, मिस्ले-शबे-रंजो-अलम=दुख और पीड़ा की रात जैसी.

मंगलवार, 10 फ़रवरी 2009

रात, ख़्वाबों में कोई चाँद था ऐसा निकला.

रात, ख़्वाबों में कोई चाँद था ऐसा निकला.
देखते ही शबे-फ़ुर्क़त का जनाज़ा निकला.
साफ़ दो साए गुज़रते नज़र आए मुझको,
वह्म था मेरा, वहाँ मैं तने-तनहा निकला.
क़फ़से-जिस्म में रहना इसे मंज़ूर नहीं,
नफ़्स उड़ने को तड़पता सा परिंदा निकला.
सुब्ह की ठंडी हवाओं ने लिए क्या बोसे,
शाख़ पर फूल जो निकला, तरो-ताज़ा निकला.
वक़्त बहरूपिया है, रोज़ बदल लेता है भेस,
कल फ़रिश्ते सा लगा, आज दरिंदा निकला.
हर तरह दिल ने किया उसकी बुजुर्गी का लिहाज़,
सामने उसके कोई लफ्ज़ न बेजा निकला.
मोतबर, आजकल अहबाब में कोई न रहा,
कैसी उम्मीद थी उस शख्स से, कैसा निकला.
अक़्ल से फ़िक्र को हासिल है तवाजुन का वक़ार,
फ़ने-तहरीर में हर शख्स अधूरा निकला.
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शबे-फुरक़त=वियोग की रात, वह्म=भ्रम, तने-तनहा=अकेला, क़फ़से-जिस्म=शरीर का पिंजरा, मंज़ूर=स्वीकार, नफस=आत्मा, बोस=चुम्बन, दरिंदा=हिंसक पशु, बेजा=अनावश्यक, मोतबर= विश्वसनीय, अहबाब=मित्र, शख्स=व्यक्ति, अक्ल=विवेक, तवाजुन=संतुलन, वकार=मान-मर्यादा, फने-तहरीर=लेखन-कला,