रात, ख़्वाबों में कोई चाँद था ऐसा निकला.
देखते ही शबे-फ़ुर्क़त का जनाज़ा निकला.
साफ़ दो साए गुज़रते नज़र आए मुझको,
वह्म था मेरा, वहाँ मैं तने-तनहा निकला.
क़फ़से-जिस्म में रहना इसे मंज़ूर नहीं,
नफ़्स उड़ने को तड़पता सा परिंदा निकला.
सुब्ह की ठंडी हवाओं ने लिए क्या बोसे,
शाख़ पर फूल जो निकला, तरो-ताज़ा निकला.
वक़्त बहरूपिया है, रोज़ बदल लेता है भेस,
कल फ़रिश्ते सा लगा, आज दरिंदा निकला.
हर तरह दिल ने किया उसकी बुजुर्गी का लिहाज़,
सामने उसके कोई लफ्ज़ न बेजा निकला.
मोतबर, आजकल अहबाब में कोई न रहा,
कैसी उम्मीद थी उस शख्स से, कैसा निकला.
अक़्ल से फ़िक्र को हासिल है तवाजुन का वक़ार,
फ़ने-तहरीर में हर शख्स अधूरा निकला.
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शबे-फुरक़त=वियोग की रात, वह्म=भ्रम, तने-तनहा=अकेला, क़फ़से-जिस्म=शरीर का पिंजरा, मंज़ूर=स्वीकार, नफस=आत्मा, बोस=चुम्बन, दरिंदा=हिंसक पशु, बेजा=अनावश्यक, मोतबर= विश्वसनीय, अहबाब=मित्र, शख्स=व्यक्ति, अक्ल=विवेक, तवाजुन=संतुलन, वकार=मान-मर्यादा, फने-तहरीर=लेखन-कला,