शनिवार, 6 दिसंबर 2008

लू के झक्कड़ सर्दियों में रात भर चलते रहे.

लू के झक्कड़ सर्दियों में रात भर चलते रहे.
गंध से बारूद की डर कर सभी दुबके रहे.
*******
धूएँ के बादल घुसे शयनायनों में बदहवास,
धड़कनों को मौत की चुप-चाप हम सुनते रहे.
*******
खून में लथ-पथ हवाएं बांचने आयीं कथा,
शब्द साँसों में पिघलकर देर तक रिसते रहे.
*******
लाल थे वीरांगनाओं के हुए थे जो शहीद,
हर जगह वातावरण में बस यही चर्चे रहे.
*******
क्या पता होते हैं ये वीभत्स हत्याकांड क्यों,
हम इन्हीं प्रश्नों के भीतर रात-दिन उलझे रहे.
*******
दैत्य सी छायाएं नेताओं की आयीं सामने,
उनके दुष्कृत्यों से होकर क्षुब्ध हम टूटे रहे.
**************

शुक्रवार, 5 दिसंबर 2008

देख कर वातावरण पहले तो थर्राई ग़ज़ल.



देख कर वातावरण पहले तो थर्राई ग़ज़ल.
प्रेम की सौगात लेकर फिर निकल आई ग़ज़ल.
*******
धूप मतला, छाँव मक़ता, शेर सुरभित क्यारियाँ,
गा रही थी आज मेरे घर की अंगनाई ग़ज़ल.
*******
लोग थे संत्रस्त खोकर शान्ति की पूँजी वहाँ,
कर रही थी हौले-हौले सबकी भरपाई ग़ज़ल.
*******
आपके, मेरे, सभी के चूम लेती है अधर,
सब विधाओं से अलग दिखती है हरजाई ग़ज़ल.
*******
जाने क्यों ख़ुद अपनी ही गहराइयों में खो गई,
नापने निकली समुन्दर की जो गहराई ग़ज़ल.
*******
लखनवी कुरते पहेनकर भी कभी तो देखिये,
सूई धागे की है हर बारीक तुरपाई ग़ज़ल.
*******
सारा अल्ल्हड़पन अकेले में था दर्पण के समक्ष,
जब मिली मुझसे तो सिमटी और शरमाई ग़ज़ल.
*******
मुग्ध होकर सुन रहा था मैं कई मित्रों के साथ,
सूर के पद और तुलसी की थी चौपाई ग़ज़ल.
*******
मुझको अब 'शैलेश' कोई भी लुभा सकता नहीं,
सामने है मेरी आंखों के वो गदराई ग़ज़ल.
**************

जोश में आकर बहुत कुछ यूँ तो हैं कहते सभी.

जोश में आकर बहुत कुछ यूँ तो हैं कहते सभी.
पर स्वयं को इस तरह देते हैं क्यों धोखे सभी.
*******
रेलवे स्टेशनों पर अब कुली मिलते नहीं,
अपना-अपना बोझ अच्छा है कि हैं ढोते सभी.
*******
आजके नेताओं की है सोच कैसी अटपटी,
बूँद भर पानी में खाते रहते हैं गोते सभी.
*******
राजनीतिक धर्म हो या धार्मिक हो राजनीति,
दोनों स्थितियों में केवल ज़ह्र हैं बोते सभी.
*******
प्रेम मानवता से हो या देश के भू-भाग से,
प्रेम अमृत है, इसे हैं मुफ़्त में खोते सभी.
*******
धार्मिकता के नशे में शत्रुता का बोध है,
आयातों, मंत्रों में रख लेते हैं हथगोले सभी.
*******
एकता की बात सदियों से किया करते हैं हम,
एकता के सूत्र में फिर भी नहीं बंधते सभी.
**************

अब किसे बनवास दोगे [ राम काव्य / पुष्प : 2 ]

पुष्प 2 : खाईं बहुत गहरी है

[एक]

बातें सभी करते हैं मायावी,
रहते हैं व्यस्त सब जुटाने में हथियार,
चाहते हैं होना एक-दूसरे पर हावी.
अर्थहीन शब्दों का
करते हैं आये दिन व्यापार.
विकसित, विकासशील और अल्पविकसित,
स्थिति सभी देशों की
लगभग है एक सी.

रेंगती है आसुरी मनोवृत्ति
सैकड़ों फनों के साथ.
चौड़े विशाल वक्षों के भीतर से
झाँकती हैं, चारों दिशाओं में
दैत्याकार शक्लें.
लम्बी जबानें,
लाल-लाल आँखें,
भूखी, अतृप्त-आत्माएँ.
जनवादी चेहरों से आती है
सुलगते बारुद की महक.
शक्ति-सम्पन्न देश
लम्बी नुकीली उंगलियों पर चलाते हैं
लहू की रेलगाड़ी -
छक-छक-छकाछक!
कांटे ही काँटे हैं,
सूझता नहीं है पथ.
छाया है चारों दिशाओं में अन्धकार.

व्याकुल, निराश, संत्रास-ग्रस्त पृथ्वी,
याचना की मूर्त्ति सी बनी,
सिर धुनती है,
चीखती चिल्लाती है,
काँप-काँप जाती है .
वैज्ञानिक विकास के रेतीले शिखरों पर
खड़े हुए देशों का संवेदन-शून्य मन,
खो चुका है आस्वादन
जीवन का,
उड़ता है आदमी हवा में
जैसे एक तिनका.
धरती और धरती के बीच
खाईं बहुत गहरी है.

[दो]
मैं करता हूँ महसूस
कि शायद मुझमें नहीं है
खाईं पाटने की ताकत.
जुटाना चाहता हूँ मैं अपनी मुटिठ्यों में,
आदमी का हक बाँटने की ताकत.
और जब देखता हूँ अपनी ढीली मुटिठ्यों को,
हथेली की रेखाएँ
रेंग जाती हैं मेरे भीतर.
तराशती हैं याददाश्तों के पत्थर.
उभारती हैं ताकतवर छवियाँ.
मुझे लगता है कि इन छवियों से मिलकर,
हो जाता है आसान,
आदमी को उसका हक बाँटना.
मुझे आता है याद
कि स्थितियाँ उस समय भी
लगभग ऐसी ही थीं,
फैला था इसी तरह आतंक पृथ्वी पर
चारों ओर,
आसुरी शक्तियों से प्रकम्पित थी धरती
इसी तरह.


मायावी घटाएँ,
भूमण्डल को घेरकर
कर रही थीं तारीक.
सुर और असुर शब्दों के बीच
पिस रही थी मानव की संस्कृति
इसी तरह
बारीक!
रेंगती थीं सैकड़ों फनों के साथ
लुंज-पुंज ! विशाक्त ! अपाहिज मान्यताएं.
वैसे तो सुर और असुर होना,
हो सकता है ईश्वरीय वरदान और
अभिशाप का नतीजा.
पर मनुष्य होना है ईश्वर की इच्छा
और ईश्वर की इच्छा
उसके वरदान और अभिशाप से
कहीं अधिक ताकतवर है.
क्योंकि वरदान है उसकी इच्छा के समक्ष
सिर झुकाने का पुरस्कार,
और अभिशाप इसी इच्छा की
अस्वीकृति पर
लगी हुई ठोकर ।
इसलिए वह जो सही अर्थों में मनुष्य है,
पूर्ण मानव है,
ईश्वरीय संस्कृति का उद्गम है,
मर्यादा पुरुषोत्तम है,
मानव का ही नहीं,
स्वयं ईश्वर का प्रियतम है,
उसकी यह पूर्णता ही
ईश्वरीय लीला है.
और यह लीला आदमी को देती है आज़ादी
आदमी की तरह जीने की.
पृथ्वी को करती है सुसंस्कृत.
मैं इसी लीला में देखता हूँ
सौन्दर्यशील ईश्वर के,
अनश्वर, असीम सौन्दर्य की छटा.
मैं इसी में करता हूँ महसूस
आदमी से आदमी के प्यार की घटा.

[तीन]
बांचती हैं यादें एक इतिहास।
सरयू के जल में नहायी अयोध्या की धरती,
होती है जीवन्त आंखों के समक्ष.
गूँजती हैं कानों में सौम्य किल्कारियाँ,
ध्वनियाँ बधावों की,
वेदों के मन्त्रों की,
ग्राम-ग्राम, नगर-नगर.
गूँजते हैं गीतों के मोहक स्वर,
आठ पहर.
आरती उतारती हैं वधुएं रघुनायक की.
हरा भरा दीखती है सारा भूमण्डल.
काँपने लगे हैं खल.
खेतों खलिहानों से उड़ती हैं जीवन की लहरें,
बाँचती हैं यादें एक इतिहास.
देखता हूँ मैं कि एक संवेदनशील मन,
आँखों में झूमता है जिसकी,
स्वस्थ जिन्दगियों का सावन.
बाँटता है राज्य-कोष से अपार धन राशि
जनता में,
वर्ण और जाति के भेदों से उठकर बहुत ऊपर,
भरता है प्रजा में आत्म-विश्वास
और फैला देता है अपने चेहरे का तेज
आम इनसानों के चेहरे पर.

[चार]

चुनता है प्रत्येक व्यक्ति अपने लिए
कोई न कोई एक व्यवसाय.
मैंने भी चुनी है एक शिक्षक की नियति.
मेरी यह नियति, मुझे गुजारती है,
अध्ययन-अध्यापन के मार्ग से
नित्य प्रति.
कभी कभी लगता है मुझको, कि मेरा ज्ञान
बन्द है उपाधियों के भीतर,
मथकर समुद्र कोई मुक्ता निकालने में
आज तक हूँ असमर्थ.
सागर के तट पर पड़े सीपों को
चुन-चुन कर,
मग्न हो जाता हूँ.
सीपों के भस्म से, मोती बनाता हूँ,
और उस मोती के आबदार होने की चर्चा
करता हूँ जोरदार शब्दों में.

किन्तु वह शिक्षाविद!
महर्षि विश्वामित्र,
सीप नहीं चुनता था,
मोती निकालता था सागर से,
जानता था मोतियों की पहचान.
सीमित नहीं था ज्ञान उसका मेरी तरह.
शब्दों से खेलता नहीं था वह,
तैरती थी शब्द-शब्द जीवन की सच्चाई
आखों में उसके.
आसुरी शक्तियों से आतंकित धरती को,
चाहता था देना आजादी.
विषाक्त जिन्दगियों में चाहता था भरना,
विश्वास का अमृत.
मिथिला प्रदेश ही नहीं, सम्पूर्ण देश
रखता था आशाएं उससे.
दाश्रथीय सागर के बहुमूल्य मोतियों
को चुनकर, वह
चाहता था, खाई में पड़ी मातृभूमि
को ऊपर उठाना,
राम और लक्ष्मण को पाकर वह
भरने लगा रंग, अपनी चाहों में.
गूँजीं वन खण्डों में
जगीन और काकनासुर की चींखें.
सुबाहु की हिचकियाँ.
असुरों का अस्तित्व हो गया धुआँ.
दूषित हवाओं में घुल गयी पूष्पों की महक.

पर में जब देखता हूँ आज !
महानगरों की दैत्याकार ऊँचाई,
खुले हुए जबड़ों का फैलाव,
फैलाव में ठुंसता जन समूह.
लगता है मुझे कि वन खण्डों से निकल कर
असुरों ने
ली है पनाह महानगरों में,
और धंस गये हैं
लम्बी-चौड़ी चहारदीवारियें से घिरी
इमारतों के भीतर.
मुझे लगता है कि वे जब खींचते हैं साँस,
तो हवा के साथ चली जाती है
पेट के गोदाम में,
ढेर सारी जनता.
और जब वे साँस छोड़ते हैं,
तो लग जाता है उसी जनता की हड्डियों का ढेर.
फिर एक बात ये भी है,
कि मुश्किल है इन असुरों की पहचान.
क्योंकि नहीं है आज हमारे बीच, कोई विश्वामित्र!
जो रखता हो राम और लक्ष्मण की परख,
और सिखा सकता हो उन्हें
बला और अतिबला मन्त्र !

[पांच]

यह ठीक है कि मैं नहीं हूं महर्षि विश्वामित्र,
शिक्षाविद होने का दावा भी नहीं है मुझे,
फिर भी मनोबल एक भरता है मुझ में
भारतीय संस्कृति का धवल पुंज,
राम का चरित्र !
मैं इस चरित्र को देखता हूँ-
दशरथ के आँगन में,
सरयू की धड़कन में,
ऋषियों के आश्रम में,
गंगा के सरगम में,
कुंज और कानन में,
जानकी के मन में,
जग-जग के जीवन में.

राम को परम ब्रह्म मानकर,
चाहता नहीं मैं बिठाना देवालय में.
राम ! मर्यादा पुरुषोत्तम, पूर्ण मानव हैं मेरे लिए,
राम को उतारा है मैंने संस्कारों में.
मुग्ध नहीं होता कभी
वाह्य सौन्दर्य पर मैं.
मोहती है मुझको सुंदरता मन की.
राम के चरित में असुन्दर नहीं है कुछ.
और वह जो सुन्दर है,
वही है प्रगतिशील!
गति सँवारता है वही जीवन की.

जनवादी वैचारिकता-
बन गयी है चर्चा का विषय आज.
सिर पर उठाये फिरता है उसे,
बाम पन्थी युवा समाज.
वैसे तो जनवादी होना शुभ लक्षण है,
पर जो समझता नहीं जनवादिता का अर्थ,
राम नहीं है, वह रावण है.

राम का समूचा व्यक्तित्व है
संस्कृति का रचना बिन्दु,
और यह संस्कृति प्रकृति से जनवादी है.
रचनात्माकता इस संस्कृति की,
जनकसुता सीता हैं.
भरत और लक्ष्मण हैं
जीवन्त छाया चित्र इसके.

परिचित नहीं हैं वाम-पंथी युवा पीढ़ी,
इस संस्कृति के रसायन से.
कट-सी गयी है अपने ही घर आँगन से.
अर्थ की धुरी पर घूमती हैं आज-
भौतिक मान्यताएं.
आर्थिक नियति बन गयी है,
नियति मानव की.
बाँधे नहीं बंधती हैं आर्थिक सीमाएं.
किसको सुनाएं कथाएं आत्मगौरव की.
सुनने-सुनाने के बीच,
खाईं बहुत गहरी है.
********क्रमशः

सोमवार, 1 दिसंबर 2008

तंग आ चुके हैं लोग इस आतंकवाद से.

तंग आ चुके हैं लोग इस आतंकवाद से.
अब देखना है होते हैं कैसे ये हादसे.
*******
वो शत्रु हो पड़ोस का या हो वो कोई और,
मिलता है उसका वंश कहीं मेघनाद से.
*******
साहस न करना इसकी परीक्षा का तुम कभी
लोहा ये आत्मबल का है निखरा खराद से.
*******
पड़ने न देंगे हम कभी आपस में कोई फूट,
हम मुक्त सम्प्रदायों के हैं हर विवाद से.
*******
मिटटी चटा दिया है तुम्हें हमने ताज में,
दहशत का नाम लोगे न तुम इसके बाद से.
*******
इस्लाम के हो नाम पे तुम बदनुमा कलंक,
शायद उपज तुम्हारी है दोज़ख की खाद से.
*******
वैसे तो हम सशक्त हैं, पर ये भी जान लो,
हम हैं अजेय धरती के आशीर्वाद से.
************

शुक्रवार, 28 नवंबर 2008

दहशतगर्दों के ख़त के जवाब में

अखबार में यह ख़बर पढ़कर कि दहशतगर्दों ने डेकन मुजाहिदीन के फर्जी नाम से मीडिया को एक ख़त भेजा था जिसमें अपना अभीष्ट स्पष्ट किया था यह नज़्म वुजूद में आई जिसे पेश किया जा रहा है.
तुमने ख़त भेजा है ईमेल के ज़रिए कि तुम्हें,
इन्तेक़मात मेरे मुल्क से लेने हैं,
बताना है कि इस्लाम को कमज़ोर न समझे कोई।
तुम नहीं जानते इस्लाम के मानी शायद,
तुमको तालीम मिली है किसी शैताँ की ज़बानी शायद।
तुमने जिन लोगों के हैं नाम लिए ख़त में वो सब
मेरी नज़रों में सियासतदां थे,
उनपे तालीमे-नबूवत का असर कुछ भी न था,
उनके इस्लाम में दहशत थी,
मुहब्बत का समर कुछ भी न था,
उनको ताक़त पे भरोसा था
जो आती है चली जाती है,
सल्तनत उनको थी हर लह्ज़ा अज़ीज़।
उनमें अखलाक की मामूली सी खुशबू भी न थी,
उनमें ईसार के जज्बे की कोई खू भी न थी।
ऐसे लोगों को है तहरीक कीबुनियाद बनाया तुमने,
अपना घर ख़ुद है जलाया तुमने।
तुमने हिन्दोस्तां को ठीक से समझा ही नहीं,
अज़मतें दर्ज किताबों में हैं इसकी
उन्हें देखा ही नहीं,
हम हैं क्या, तुमने ये जाना ही नहीं,
एक शायर ने कहा है क्या खूब-
"हिंद अस्त की नेमुल-बदले-फिरदौस अस्त,
आदम जे-बहिश्त बीं कि उफ़्ताद बे हिंद।"*
हिंद वो मुल्क है अल्लाह की खुशबू है जहाँ
बात ये मैं नहीं कहता, ये नबी का है कलाम
जिसको इकबाल ने तस्लीम किया और कहा-
"मीरे अरब को आई ठंडी हवा जहाँ से,
मेरा वतन वही है, मेरा वतन वही है"
इसलिए कहता हूँ मैं तुमसे कि बाज़ आ जाओ,
ये गुरूर अपना किसी और को जाकर दिखलाओ,
तुमने दहशत की मचा रक्खी थी धूम.
क्या हुआ हश्र तुम्हारा ये तुम्हें है मालूम.
हम नहीं जानते इस्लाम तुम्हारा क्या है,
हम जिस इस्लाम को हैं मानते,
देता है अमन का पैगाम।
और ये रोजे-अज़ल से है,
हमारे भी वतन का पैगाम।
******************
*भारत स्वर्ग का स्थानापन्न है. हज़रत आदम स्वर्ग से जिस पवित्र धरती पर उतारे गए वह भारत की ही धरती थी.

गुरुवार, 27 नवंबर 2008

ऐसे जांबाजों को करता हूँ सलाम.

वो सही मानों में जांबाज़ थे
जाँ अपनी गँवा बैठे फ़राइज़ के लिए,
ज़िन्दगी ने किया झुक-झुक के सलाम
मौत ने उनकी जवांमर्दी के क़दमों पे
गिराया ख़ुद को
और पाकीज़ा फ़राइज़ के कई बोसे लिए.
कूवतें देती रही मुल्क की तहज़ीब उन्हें,
नापसंदीदा हमेशा से थी तखरीब उन्हें,
उनमें था हौसला,
वो जानते थे क्या है वतन की इज़्ज़त.
खूँ में थी उनके रवां गंगो-जमन की इज़्ज़त.
उनको मालूम था
इक खेल सियासत का है दहशत-गर्दी.
लाज़मी है कि कुचल दें उसको,
मौत से अपनी मसल दें उसको.
बस यही सोच के वो
आसमाँ छूती हुई आग में भी कूद पड़े,
साँस जबतक थी लड़े, खूब लड़े.
ऐसे जांबाजों को करता हूँ सलाम.
इनसे रौशन है मेरे मुल्क का नाम.
*****************

नुक्ताचीनियाँ करना, सिर्फ़ हमने सीखा है.



नुक्ताचीनियाँ करना, सिर्फ़ हमने सीखा है.
मुल्क की हिफ़ाज़त की, कब किसी को पर्वा है.
*******
चन्द सरफिरे आकर, दहशतें हैं फैलाते,
बेखबर से रहते हैं, हम ये माजरा क्या है.
*******
मुत्तहिद अगर अब भी, हम हुए न आपस में,
ख्वाब फिर तरक्की का, देखना भी धोका है.
*******
अपने-अपने मज़हब के, गीत गाइए लेकिन,
इसको मान कर चलिए, मुल्क ये सभी का है.
*******
आज ये सियासतदाँ, करते हैं जो तकरीरें,
हमको मुश्तइल करना, ही तो इनका पेशा है.
*******
सोचते है हम आख़िर, जाएँ तो कहाँ जाएँ,
पीछे एक खायीं है, आगे एक दरया है.
*******
मुम्बई हो या देहली, सब जिगर के टुकड़े हैं,
इनपे आंच गर आए, दिल ही टूट जाता है.
*******
क्या हकीक़तें अपनी, हम समझ भी पायेंगे,
इस वतन का हर चप्पा, अपना एक कुनबा है.
**************

जाने कैसी ताक़तें हैं जो नचाती हैं हमें.

जाने कैसी ताक़तें हैं जो नचाती हैं हमें.
मौत की सौदागरी करना सिखाती हैं हमें.
*******
सिर्फ़ इंसानों पे क़ानूनों का होता है निफ़ाज़,
हरकतें वहशी दरिंदों की चिढ़ाती हैं हमें.
*******
अपना घर महफूज़ रखना हमने गर सीखा नहीं,
अपनी ही कमजोरियां ख़ुद तोड़ जाती हैं हमें.
*******
हम वो थे जिनसे मिली सारे जहाँ को रोशनी,
आज बद-आमालियाँ दर्पन दिखाती हैं हमें.
*******
मसअलों का हल कभी जज़बातियत होती नहीं,
कूवतें इदराक की पैहम बुलाती हैं हमें.
*******
शिकवा हमसाये से करते-करते हम तो थक गए,
उसकी लापर्वाइयां गैरत दिलाती हैं हमें.
*******
मुत्तहिद हो जाएँ हम ये वक़्त की आवाज़ है,
फ़र्ज़ की ललकारें ख़्वाबों से जगाती हैं हमें.
**************

बुधवार, 26 नवंबर 2008

इन्तक़ामोँ के ये खूनी हादसे थमते नहीं.

इन्तक़ामोँ के ये खूनी हादसे थमते नहीं.
इनके पीछे और कुछ है, ये महज़ हमले नहीं.
*******
पस्तियों के इस सफ़र का ख़ात्मा होगा कहाँ,
इस तरह के तो दरिन्दे भी कभी देखे नहीं.
*******
इस फ़िज़ा में भी हैं टी-वी चैनलों पर क़हक़हे,
ताजिरों पर हादसे कुछ भी असर करते नहीं.
*******
क्या बना सकते नहीं हम ऐसे बुनियादी उसूल,
जिनमें फ़ौरी फैसले हों, मनगढ़त क़िस्से नहीं.
*******
क्यों ये खुफ़िया ताक़तें ख्वाबीदगी में म्ह्व हैं,
इनके मालूमात अब तक के तो कुछ अच्छे नहीं.
*******
नफ़रतें यूँ ही अगर बढती रहीं तो एक दिन,
ये भी मुमकिन है हमें इन्सां कोई माने नहीं।

*******
कुछ कमी होगी यक़ीनन इस सियासी दौर की,
जितने नादाँ आज हैं हम, उतने नादाँ थे नहीं.
*****************