मंगलवार, 28 अक्टूबर 2008

रोशनी लेके अंधेरों से लड़ोगे कैसे

रोशनी लेके अंधेरों से लड़ोगे कैसे.
ख़ुद अंधेरों में हो ये देख सकोगे कैसे।
ज़ाफ़रानी नज़र आते हैं जो गुलहाए-चमन.
उनमें है ज़ह्र, तो ये बात कहोगे कैसे.
चाँद गहनाया है, ठिठरी सी नज़र आती है रात,
मन्ज़िलें दूर हैं, राहों में चलोगे कैसे.
घर के फूलों से कहो सीखें न काँटों का चलन,
वरना फिर ऐसे बियाबाँ में रहोगे कैसे.
यूँ ही अल्फ़ाज़ में अंगारे अगर भरते रहे,
शोले भड़केंगे हरेक सम्त, बचोगे कैसे.
वक़्त लग जाता है किरदार बनाने में बहोत,
इतना गिर जाओगे नीचे तो उठोगे कैसे।
आइना सामने रख देगा ज़माना जिस रोज़,
अपनी तस्वीर पे सोचो कि हंसोगे कैसे.
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सूरदास के रूहानी नग़मे / शैलेश ज़ैदी [क्रमशः 8]

[50]
शोभित कर नवनीत लिए.
घुटुरुनि चलत रेनू तन मंडित, मुख दधि लेप किए.
चारु कपोल, लोल लोचन, गोरोचन तिलक दिए.
लट लटकनि मनु मत्त मधुप गन, मादक मधुहिं पिए.
कठुला कंठ, बज्र, केहरि-नख, राजत रुचिर हिये.
धन्य 'सूर', एकौ पल इहिं सुख, का सतकल्प जिए.


फबते हैं श्याम हाथ में मक्खन लिए हुए.
लिपटी है धूल जिस्म में चलते हैं घुटनियों,
मुंह को दही का लेप है आरास्ता किए.
दिलकश हैं गाल, आंखों की शोखी है दीदा-जेब,
माथे पे खुशबुओं का तिलक हैं दिए हुए.
चहरे के दोनों सिम्त हैं काली घनी लटें,
भंवरे हों जैसे फूलों के जामो-सुबू पिए.
नाखुन हैं शेर के जो बजर बट्टूओं के साथ,
माला गले की, हुस्न को देती है ज़ाविए.
ऐ 'सूर' इस खुशी का है इक लमहा भी बहोत,
नाहक कोई हज़ार बरस किस लिए जिए.

[51]
मैया ! मैं नहिं माखन खायौ.
ख्याल परै ये सखा सबै मिलि, मेरे मुख लपटायौ.
देखि तुही सींके पर भाजन, ऊंचे धरि लटकायौ.
हौं जु कहत नान्हें कर अपने, मैं कैसे करि पायौ.
मुख दधि पोंछ, बुद्धि इक कीन्हीं, दोना पीठि दुरायौ.
डारि सोंटि, मुसकाइ जसोदा, स्यामहि कंठ लगायौ.
लाल बिनोद मोद मन मोह्यौ, भक्ति प्रताप दिखायौ.
'सूरदास' जसुमति कौ यह सुख, सिव बिरंचि नहिं पायौ.


माँ! मैं सच कहता हूँ, मैंने नहीं खाया मक्खन.
हाँ ख़याल आता है, अहबाब ने मिलकर बाहम,
था शरारत में मेरे मुंह पे लगाया मक्खन.
तुम ही ख़ुद देखो कि लटकाती हैं ऊंचाई पर,
मटकियाँ ग्वालनें, छींके पे जतन से रख कर,
अपने इन नन्हें से हाथों से बताओ तो भला,
कैसे मैं इतनी बलंदी पे पहोंच सकता हूँ.
कर लिया साफ़, लगा था जो दही होंटों पर,
और चालाकी से दोने को छुपाया पीछे.
फ़ेंक कर बेत, जशोदा ने खुशी से बढ़कर,
श्याम को सीने से लिपटा लिया बादीदए-तर.
'सूर' हासिल है जो इस वक़्त जशोदा को खुशी,
देवताओं ने भी सच पूछिए पायी न कभी.

[52]
मैया ! मोहिं दाऊ बहुत खिझायौ.
मोसों कहत, मोल कौं लीन्हौं, तू जसुमति कब जायौ.
कहा करौं इहि रिसि के मारे, खेलन हौं नहिं जात.
पुनि-पुनि कहत, कौन है माता, को है तेरौ तात.
गोरे नन्द, जसोदा गोरी, तू कत स्यामल गात.
चुटकी दै-दै ग्वाल नचावत, हंसत, सबै मुसकात.
तू मोही कौं मारन सीखी, दाउहिं कबहूँ न खीझै.
मोहन मुख रिस की यह बातैं, जसुमति सुनि-सुनि रीझै.
सुनहु कान्ह! बलभद्र चबाई, जनमत ही कौ धूत.
'सूर' स्याम मोहि गोधन की सौं, हौं माता तू पूत.


माँ! मुझे करते हैं बलराम परीशान सदा.
कहते हैं मुझसे, तुझे मोल है ले आया गया.
बत्न से कब तू जशोदा के हुआ है पैदा.
क्या करूँ मैं कि इसी खफगी से आजिज़ आकर.
खेलने के लिए साथ उनके नहीं जा पाता.
पूछते रहते हैं रह-रह के बराबर मुझसे.
कौन अम्मा है तेरी, कौन है तेरा बाबा.
नन्द भी गोरे हैं, गोरी हैं जशोदा भी बहोत.
सांवला रंग तेरे जिस्म का फिर कैसे हुआ.
चुटकी ले-ले के सभी ग्वाल नचाते हैं मुझे.
हँसते हैं मुझपे, कि इसमें उन्हें आता है मज़ा.
तूने सीखा है फ़क़त मेरी पिटाई करना.
भाई पर क्यों नहीं आता कभी तुझको गुस्सा.
मुंह से मोहन के, ये खफगी भरी बातें सुनकर,
दिल जशोदा का, खुशी ऐसी मिली, झूम उठा.
प्यार से बेटे को लिपटा के जशोदा ने कहा.
गौर से श्याम सुनो, पूछो न बलभद्र है क्या.
जानते सब हैं कि पैदाइशी शैतान है वो,
बस इधर की है उधर बात लगाता फिरता.
'सूर' के श्याम! मैं गोधन की क़सम खाती हूँ,
मैं ही अम्मा हूँ तेरी, तू है मेरा ही बेटा.

[53]
बृंदाबन देख्यो नन्द नंदन, अतिहि परम सुख पायौ.
जहँ-जहँ गाय चरति ग्वालनि संग, तह-तहं आपुन धायौ.
बलदाऊ मोकों जनि छाँडौ़, संग तुम्हारे ऐहौं.
कैसेहु आज जसोदा छाँड्यो, काल्हि न आवन पैहौं.
सोवत मोकौ टेर लेहुगे, बाबा नन्द दुहाई.
'सूर' स्याम बिनती करि बल सौं, सखन समेत सुनाई.


बृंदाबन का देखके मंज़र, नन्द के बेटे ने सुख पाया.
जहाँ-जहाँ भी ग्वालों के संग, गायें चरती दिखलाई दीं.
वहाँ-वहाँ खुश हो-होकर ख़ुद, खुश-ज़ौक़ी से दौड़ के आया.
बलदाऊ मुझको मत छोड़ो, साथ तुम्हारे आऊंगा मैं,
आज किसी सूरत से, जशोदा माँ ने इजाज़त दी है मुझको.
कल तुमने गर छोड़ दिया तो, यहाँ न आने पाऊंगा मैं.
सोते से भी जगा लेना तुम, बाबा नन्द का वास्ता तुमको,
'सूरदास' बलराम से मिन्नत करके श्याम ने सबको रिझाया.

[54]
जसुमति दौरि लिए हरि कनियाँ.
आजु गयौ मेरौ गई चरावन, हौं बलि जाऊं निछनियाँ.
मो कारन कछु आन्यो है बलि, बन फल तोरि नन्हैया.
तुमहि मिले मैं अति सुख पायौ, मेरे कुंवर कन्हैया.
कछुक खाहु जो भावै मोहन, दै री माखन रोटी.
'सूरदास' प्रभु जीवहु जुग-जुग, हरि हलधर की जोटी.


श्याम को दौड़कर गोद में भर लिया.
प्यार से माँ जशोदा ने फिर ये कहा,
जाके गायें चरा लाया बेटा मेरा.
क्यों न हो जाऊं मैं आज इसपर फ़िदा.
लूँ बालाएं, उतारूं मैं सदक़ा तेरा.
ऐ मेरे लाल! मेरे लिए भी कोई,
तोड़कर नन्हे हाथों से जंगल का फल,
अपने हमराह लेकर तू आया है क्या.
मिल गया तू मुझे हर खुशी मिल गई,
मेरा नन्हाँ कुंवर है कन्हाई मेरा.
थक गया होगा तू, भूक होगी लगी,
जो भी अच्छा लगे खा ले ऐ महलक़ा.
खादिमा है कहाँ, देर करती है क्यों,
मेरे मोहन को मक्खन से रोटी खिला.
'सूर' कहते हैं बस यूँ ही क़ायम रहे,
ऐ खुदा! श्याम-हलधर की जोड़ी सदा.

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शुक्रवार, 24 अक्टूबर 2008

दीपावली की शुभ कामनाएं

दीप मल्लिका पर्व यह, सब को दे आनंद।
मंगलमय जीवन बने, रहे न कोई द्वंद।
दीप-शिखा की ज्योति में, मन का हो उल्लास।
बढे परस्पर स्नेह से, भारत का विशवास।
देता है शुभ कामना, युग-विमर्श परिवार।
होंगे सपने आपके, निश्चय ही साकार।
भेज रहे हैं आपतक, शब्दों के मिष्ठान,
आस्वादन से हो मुखर, होंठों की मुस्कान।
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YUG-VIMARSH

गुरुवार, 23 अक्टूबर 2008

ज़मीन की इन कुशादा पेशानियों पे कुछ सिल्वटें मिलेंगी.

ज़मीन की इन कुशादा पेशानियों पे कुछ सिल्वटें मिलेंगी.
सदी के सफ़्फ़ाक तेवरों की, लहू भरी आहटें मिलेंगी.
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दिलों में शुबहात के दरीचे, खुलेंगे इस तर्ह रफ़्ता-रफ़्ता,
निगाहों में दोस्तों की अनजानी अजनबी करवटें मिलेंगी.
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ये रास्ते हमको लेके जायेंगे ऐसे वीरान जंगलों में,
जहाँ हमारे ही जिस्मों की बरगदों से लटकी लटें मिलेंगी.
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हमारे दिल में भी है ये ख्वाहिश, कि चाँद को हम भी छू के देखें,
हमें ये शायद ख़बर नहीं है, हमें वहाँ तलछटें मिलेंगी.
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तबाहियों से तड़प रहे है जो उनके घर कोई जाए कैसे,
वहाँ फ़क़त चीखते हुए दर, कराहती चौखटें मिलेंगी.
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गमे-दौराँ, गमे-जानाँ, गमे-जाँ है कि नहीं./ जाफ़र ताहिर

गमे-दौराँ, गमे-जानाँ, गमे-जाँ है कि नहीं.
दिल-सिताँ सिलसिलए-ग़म-ज़दगां है कि नहीं.
हर नफ़स बज़्मे-गुलिस्ताँ में ग़ज़ल-ख्वाँ था कभी,
हर नफ़स नाला-कशां, नौहा-कुनाँ है कि नहीं.
हर ज़बाँ पर था कभी तज़्करए-दौरे-बहार,
हर ज़बाँ शिक्वागरे-जौरे-खिजाँ हैं कि नहीं.
मय-चकाँ, बादा-फ़िशां, थे लबे-गुलरंग कभी,
लबे-गुलरंग पे ज़ख्मों का गुमाँ है कि नहीं.
दश्ते-वहशत से नहीं कम ये जहाने-गुलो-बू,
सूरते रेगे-रवां, उम्र रवां है कि नहीं.
न तो बुलबुल की नवा है, न सदाए-ताउस,
सहने-गुलज़ार में अब अम्नो-अमां है कि नहीं.
ज़िन्दगी कुछ भी सही, फिर भी बड़ी दौलत है,
मौत सी शै भी यहाँ जिन्से-गराँ है कि नहीं.
ज़ुल्म चुपचाप सहे जाओगे आख़िर कब तक,
ऐ असीराने क़फ़स ! मुंह में ज़बाँ है कि नहीं.
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काश मैं तेरे हसीं हाथ का कंगन होता / वसी शाह

काश मैं तेरे हसीं हाथ का कंगन होता,
तू बड़े प्यार से, चाओ से बड़े मान के साथ,
अपनी नाज़ुक सी कलाई में चढाती मुझको,
और बेताबी से फुरक़त के खिजां लम्हों में,
तू किसी सोच में डूबी जो घुमाती मुझको,
मैं तेरे हाथ की खुशबू से महक सा जाता,
जब कभी जोश में आकर मुझे चूमा करती,
तेरे होंटों की मैं हिद्दत से दाहक सा जाता।
रात को जब भी तू नींदों के सफर पर जाती,
मैं तेरे कान से लगकर कई बातें करता,
तेरी जुल्फों को तेरे गाल को चूमा करता।
जब भी तू बन्दे-क़बा खोलती मैं खुश होकर,
अपनी आंखों को तेरे हुस्न से खीरा करता.
मुझको बेताब सा रखता तेरी चाहत का नशा,
मैं तेरी रूह के गुलशन में महकता रहता.
मैं तेरे जिस्म के आँगन में खनकता रहता.
कुछ नहीं तो यही बेनाम सा बंधन होता.
काश मैं तेरे हसीं हाथ का कंगन होता।
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बुधवार, 22 अक्टूबर 2008

नदियाँ दरिया से जाकर जिस वक़्त मिली होंगी।

नदियाँ दरिया से जाकर जिस वक़्त मिली होंगी।
अपनी किस्मत पर इठलाकर झूम उठी होंगी।
किरनें चाँद की घर के आँगन से कुछ कहती हैं.
फूलों ने वो राज़ की बातें खूब सुनी होंगी।
मयखाने में रिन्दों की आंखों में आंसू हैं,
साक़ी की गुस्ताख़ निगाहें उनपे हँसी होंगी।
उस घनश्याम ने ओट में लेकर चाँद सी राधा को,
आंसू की बूँदें रुखसारों से पोंछी होंगी।
रात की सारी रोशनियाँ ही क़ातिल होती हैं.
परवानों की लाशें सुब्हों ने देखी होंगी।
ठंडी-ठंडी नर्म हवाएं अपनी पलकों से,
दिल की राहों के कांटे चुनकर रोई होंगी।

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आसमानों ने समंदर की कमी महसूस की.

आसमानों ने समंदर की कमी महसूस की.
इस ज़मीं के सामने बेचारगी महसूस की.
आज छत पर मेहरबाँ होकर उतर आया था चाँद,
उससे कुछ बातें हुईं, कुछ ज़िन्दगी महसूस की.
उसकी बातों में कशिश ऐसी थी, जी भरता न था,
दिल ने सूनी वादियों में रोशनी महसूस की,
पाया जब मैंने हवाओं को तड़प से बदहवास,
उनके सीने में कोई बरछी चुभी महसूस की.
बंद थे मुद्दत से कुछ खस्ता लिफ़ाफ़ों में खुतूत,
पढ़के जब देखा, अनोखी ताज़गी मह्सूस की.
ये सदी 'जाफ़र' हुई जब मुझसे महवे-गुफ्तुगू,
इसके मक़सद में कहीं गारत-गरी महसूस की.
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हरेक शख्स का अपना निसाब होता है

हरेक शख्स का अपना निसाब होता है।
मज़े उसी के हैं जो कामयाब होता है।
शराफ़तों से कहाँ ज़िन्दगी गुज़रती है,
यक़ीन कीजिये जीना अज़ाब होता है।
वो मोती सीप के सीने से जो निकलता है,
उसी के चेहरे पे कुदरत का आब होता है।
जिसे ज़माने की रफ़तार का पता ही न हो,
वो मेरे जैसा ही खाना-ख़राब होता है।
सिवाय उसके, किसी की ज़रा भी फ़िक्र नहीं,
न जाने कैसा ये दौरे-शबाब होता है।
कभी वो चुभता है काँटों की तर्ह सीने में,
कभी खिला हुआ मिस्ले-गुलाब होता है।
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मंगलवार, 21 अक्टूबर 2008

काली चींटी / अल्तमश मोतमुलअश्बाल [कहानी]

आप अल्तमश जी हैं ? लोहे का बाहरी दरवाजा खोलते हुए एक छोटी सी बच्ची ने सवाल किया।

क्या आप मुझे जानती हैं ? मैंने उत्सुकतावश प्रश्न का उत्तर देने के बजाय उसका गाल थपथपाते हुए सवाल दाग़ दिया।

लीजिये, आपको क्यों नहीं जानूंगी, कुछ देर पहले आपही का तो फोन आया था ?

अभी मैं कुछ और कहता कि तस्मीना गर्ग बाहर आगयीं ।आइये, अन्दर आइये, आप इसे नहीं जानते, ये काली चींटी है।ड्राइंगरूम में सोफे पर बैठते हुए मैंने काली चींटी को ध्यान से देखा। मुश्किल से दो फिट का कद, चमकता काला रंग, आठ-नौ बरस से अधिक की नहीं रही होगी, भाषा इतनी साफ और आवाज़ ऐसी खनकदार कि बस सुनते रहिये। मैं तस्मीना से उनकी खैरियत पूछना बिल्कुल भूल गया और तस्मीना भी काली चींटी के कारनामे सुनाने में खो गयीं।

काली चींटी का वास्तविक नाम सबा था। तीन भाई-बहनों मे सबसे छोटी थी। माँ-बाप पड़ोस में ही एक झुग्गी-नुमा टीन-शेड में रहते थे। तस्मीना के गोरे-चिट्टे लहीम-शहीम डील-डौल के सामने वह सचमुच एक चींटी सी ही लगती थी। लेकिन तस्मीना का ख़याल था कि लाल चींटी बहोत जोरों से काटती है और काली चींटी से किसी तरह का कोई खतरा नहीं होता। तस्मीना ने इसीलिए सबा का नाम काली चींटी रखा था। वो भी अपने इस नाम से बहोत खुश थी। फिर सबा की एक खूबी यह भी थी कि घर में कोई मेहमान आजाय, तस्मीना को हिलना भी नहीं पड़ता था। वह ट्रे में अच्छा-खासा नाश्ता लगाकर सलीके से चाय या काफी के साथ मेहमान के सामने सजा देती थी। यह ट्रेनिंग शायद तस्मीना ने ही उसे दी थी।काली चींटी का तौर-तरीका देखकर मेरी दिलचस्पी उसमें कुछ ज्यादा ही बढ़ गयी थी। उसकी वजह एक यह भी थी कि मैं इससे पहले ऐसी किसी बच्ची से नहीं मिला था। दिल्ली का शायद ही कोई ऐसा चर्चित लेखक बचा हो जिसे वह न जानती हो। इतना ही नहीं, वह किस स्तर का लेखक है इस सम्बन्ध में भी वह अपनी बड़ी नपी-तुली राय रखती थी। तस्मीना का ख्याल था कि लोगों की बातें सुन-सुन कर उसने यह सब-कुछ सीख लिया है। मैं उसकी बातों पर मुग्ध भी था और आश्चर्य-चकित भी। अभी तीसरी कक्षा में पढने वाली बच्ची और इतनी बड़ी-बड़ी बातें। दिल्ली की एक साहित्यिक पत्रिका के सम्पादक के सम्बन्ध में कहने लगी–अल्तमश जी ! आप ही बताइये, इस पत्रिका के संस्थापक की कुछ निश्चित मर्यादाएँ थीं या नहीं ? और अपने समय में इसका एक विशेष स्थान था या नहीं ? कुछ तो लिहाज़ रखना था संपादक महोदय को इन बातों का।

मैं भला अपनी असहमति क्या व्यक्त करता, उसकी हाँ में हाँ मिला दी। उसका चेहरा खिल उठा। उसके जामुनी सियाह रंग पर संतोष और प्रसन्नता के बिम्ब साफ देखे जा सकते थे।

उस दिन तस्मीना के घर से लौटने के बाद मैं रात की गाड़ी से लखनऊ के लिए रवाना हो गया। वहाँ व्यस्तताएं इतनी बढ़ गयीं कि काली चींटी का ध्यान ही न रहा। एक दिन टाइम्स ऑफ़ इंडिया में मैंने नौ-दस वर्ष की बच्ची की एक तस्वीर देखी. किसी बड़े बिजनेसमैन की बेटी थी. उसका परिचय वास्तु-शिल्प की एक दक्ष परामर्शदात्री के रूप में कराया गया था. यह भी बताया गया था की विदेशों में लोग उसके परामर्श को विशेष आदर देते हैं. मुझे अकस्मात काली चींटी का ध्यान आ गया. यदि वह भी किसी ऐसे ही घर में जन्मी होती तो इस से किसी दृष्टि से कम न होती.

दस-बारह वर्ष गुज़र गए. मैं नोकरी से सेवामुक्त होकर बनारस अपने पुश्तैनी मकान में रहने चला आया. मकान की हालत खासी ख़राब थी. जहाँ मरम्मत से काम चल सकता था, मरम्मत करा दी. बाथरूम और किचन में काम कुछ ज़्यादा बढ़ गया. बच्चों की जिद थी इसलिए नए तौर-तरीके की चीज़ें लगवानी पड़ीं. पीछे के लंबे चौड़े बरामदे में बेटे ने बड़े साइज़ का फ्लैट टी वी लाकर लगा दिया. लड़कियों की शादी जौनपुर और गाजीपुर में हुई थी. लखनऊ की तुलना में उन्हें बनारस आने में अधिक आसानी थी. नतीजे में ईद, बकरीद और मुहर्रम में घर खासा भरा-भरा सा रहता था.मुझे टी वी सीरियलों में कोई दिलचस्पी नहीं थी. हाँ कभी कभी बच्चों के बहुत कहने पर कुछ देर के लिए बैठ ज़रुर जाता था. इस साल ईद और दीवाली की छुट्टियाँ ऐसी हुईं की बेटा बहू और बच्चों के साथ बनारस आ गया. छोटी बेटी भी गाजीपुर से आ गई थी. पल-पल पर नाना दादा की आवाजों से घर गूँज रहा था. मुझे इन आवाजों से बहुत ताक़त मिलती थी. फरमाइशें, शिकायतें, रूठना, ज़रा-ज़रा सी बात पर क़हक़हे लगाना, अजब दिलचस्प दुनिया थी बच्चों की जिसमें घुल-मिलकर मैं भी बच्चों जैसा हो गया था।

एक दिन मेरी छोटी नवासी तूबा उछलती-कूदती मेरे पास आई । कहने लगी, 'नाना ! आज नौ बजे स्टार चैनल पर एक ड्रामा आएगा- काबुल की खुश्बू. आप भी देखियेगा.

ऐसी क्या ख़ास बात है इस ड्रामे में जो आप मुझसे देखने को कह रही हैं ?

ख़ास बात है जभी तो कह रही हूँ।

अच्छा ! ज़रा मैं भी कुछ सुनूँ

इस में शहंशाह बाबर है। बड़े-बड़े हाथी हैं. और घोडे ऐसे शानदार हैं के बस देखते रहिये. मैं ने इसका ट्रेलर देखा है.

फिर तो मैं ज़रुर देखूँगा।

और नाना ! इसमें तोपें भी हैं. और ज़बरदस्त लड़ाई भी है.

गुड, मज़ा आ जाएगा ये सब देख कर॥

मैं ने तूबा को प्यार से लिपटा लिया. लेकिन दूसरे ही पल वह ख़ुद को छुडा कर अलग खड़ी हो गई. नाना, आप ने शेव नहीं किया है. आपकी दाढ़ी चुभती है.

मैं ने अपनी दाढ़ी छू कर देखी. वाकई बढ़ी हुई थी. मैं कुछ कहता, इस से पहले तूबा जा चुकी थी. नौ बजने में अभी दो-चार मिनट बाकी थे. अचानक जुनैद की आवाज़ सुनाई दी दादा ! मैं आ जाऊँ ?

ओ हो, आईये , ज़रूर आईये.

चलिए ड्रामा आने वाला है. आप सीरियल तो देखते नहीं. माम ने कहा दादा को बुला लाओ.

जुनैद ने मेरा हाथ पकड़ कर खींचना शुरू कर दिया। मैं जुनैद के साथ जा कर पीछे के बरामदे मे एक कुर्सी पर बैठ गया. वहां दुल्हन, बेटी नसरीन और बच्चे पहले से मेरा इंतज़ार कर रहे थे.

ड्रामा शुरू हुआ। बाबर की आरामगाह. पास बैठे हकीम साहब. दायें जानिब हाथ बांधे शालीनता से खडा शहजादा हुमायूं. ज़िंदगी और मौत के फासले तय करती शमा की धुंधली रोशनी. दर्द से भरे वाद्य की हलकी-हलकी आवाज़. फिर कुछ क्षणों बाद बाबर के चेहरे की मुस्कराहट का क्लोज़प और फ्लैशबैक. चारों ओर से पर्वतों से घिरे बागों, झरनों, नदियों, नहरों के दृश्य, पर्वत की चोटी पर शाह काबुल नामक किला.पर्वत के नगर वाले छोर की तरफ़ तीन खूबसूरत आब्शार,पास में ही ख्वाजा शम्सुद्दीन जांबाज़ का मजार और ख्वाजा खिज्र की क़दमगाह. सब से गुज़रता हुआ कैमरा किले के एक उद्यान में ठहर गया. पार्श्व में मीठी आवाज़ में शीर्ष गीत चल रहा था –

“किले की ये फिजा रिन्दों के खाली जाम भर देगी

मैं काबुल हूँ नदी परबत शहर बागात, सब कुछ हूँ।”

उद्यान में अपनी पत्नी माहम बेगम के साथ कुछ चिंतित मुद्रा में बाबर टहल रहा था. "काबुल को फतह करने में जिस बाबर को मुतलक दुश्वारी नही हुई, हिन्दोस्तान की फतःयाबी का ख्वाब उसके लिए आज भी अधूरा है." बाबर की आवाज़ में कुछ बेचैनी थी.

गेती सितानी ! आपने तो कभी वह्मोगुमान में भी मायूसियों को दाखिल नहीं होने दिया। और फिर आप ही ने तो मुझ से फरमाया था के जिस बादशाह के लिए अल्लाह की मेहरबानियाँ मददगार हों तो तमाम दुनिया के बदमाश मिलकर भी उसे खौफज़दा नहीं कर सकते.

हाँ मैं ने इस मजमून के कुछ शेर तुम्हें सुनाये थे।

मुझे अशआर तो याद नहीं रहते लेकिन जहाँ तक ख़याल है दूसरे शेर का मफ्हूम कुछ इस तरह था के अल्लाह ने बादशाह की हैसियत से आपको अपनी मदद के जौशन (कवच) और रह्मानियत (कृपाशीलता) के ताज से नवाजा है.

हाँ बात तो आपकी सौ फीसदी दुरुस्त है.

और गेती सितानी ! याद कीजिए वह मौक़ा जब शाहजादा कामरान की शादी के बाद आपने शहर आरा बाग़ में दो रिकात नमाज़ अदा करके दुआ मांगी थी " रब्बुलइज्ज़त, तू कार्साज़ है। अगर हिन्दोस्तान की हुकूमत से मुझे फैज़याब करना चाहता है तो तोहफे की शक्ल में हिन्दोस्तान से पान के बीडे और आम मेरे पास भिजवा दे.

हाँ, मुझे बखूबी याद है के मेरी दुआ कुबूल हुई थी और दौलत खां ने तोहफे में ये तबर्रुकात अहमद खां सरबनी के हाथों मेरे पास भिजवाये थे. बाबर के चेहरे पर मुस्कराहट दौड़ गयी थी.

माहम बेगम ने गेती सितानी को खुश देख कर संवाद जारी रखते हुए कहा- अल्लाह को हिन्दोस्तान की ज़फर्याबी अगर मंजूर न होती तो आप कासिम बेग की इस दरख्वास्त पर हरगिज़ खुश न होते के दिलदार बेगम के यहाँ शाहजादे की पैदाइश हिन्दोस्तान की फतह के लिए फाले-नेक है. आप ने इसे एक मुबारक खबर तसलीम करते हुए बेटे का नाम हिंदाल रखा था.

बादशाह ने खुश होकर माहम बेगम को सीने से लगा लिया।

दृश्य बदलता है और युद्ध की तैय्यारियां शुरू हो जाती हैं। काबुल से दस हज़ार अश्वारोहियों के साथ फिरदौस मकानी बाबर बादशाह निकल पड़े. दौलत खान के सहयोग से लाहौर तक पहुँचते-पहुँचते एक भारी सेना साथ हो गई. पंजाब, सरहिंद एवं हिसार सभी अधीन होते चले गए. पानीपत के मैदान में इब्राहिम लोदी के साथ घमासान युद्ध हुआ. इब्राहिम की सेना के कई अमीर भाग कर बाबर की सेना में शामिल हो गए. हामिद खान चार हज़ार अश्वारोहियों सहित फिरदौस मकानी की सहायतार्थ पहुँच गया. इब्राहिम लोदी वीरता के साथ लड़ता हुआ मारा गया. दिलावर खान ने उसके मरने की ख़बर जब सुलतान को दी तो फिरदौस मकानी ख़ुद उसके जनाजे पर तशरीफ़ ले गए॥ मैय्यत धूल और रक्त मी सनी हुई थी. ताज कहीं पडा था और आफ्ताब्रीर (छत्र) कहीं. फिरदौस मकानी ने फ़रमाया -तेरी शुजाअत लायके-तारीफ है. मैय्यत को ज़र्बफ्त के थान में लपेटा गया और पूरी इज्ज़त के साथ दफ्न किया गया. मैदान, फिरदौस मकानी की फतह के नारों से गूंज रहा था.

कैमरा लौट कर सम्राट बाबर की आरामगाह पर केंद्रित हो गया था. तबीब ने दवाओं से निराश होकर तस्बीह पढ़ना शुरू कर दी थी. सम्राट के होंठों पर हलकी सी थरथराहट आई. मूर्छा टूट रही थी.

सम्राट ने ऑंखें खोलीं और शाहजादा हुमायूं की तरफ़ देख कर पूछा, तुम कब आए?फिरदौस मकानी ने जिस वक्त तलब किया था. हुमायूं ने शालीनता से संक्षिप्त सा उत्तर दिया.

हाँ मैं तुम्हारा मुन्तजिर था। आज मैं तुम्हें अपना वली-अहद मुक़र्रर करता हूँ. हिन्दोस्तान की सरज़मीन का खास ख़याल रखना. इसे काबुल की खुश्बू से नवाज़ते रहना. और देखो अपने भाइयों से कभी जंग न करना. अगर वो कुछ ग़लत भी हों तो दर्गुज़र कर देना. आवाज़ धीमी पड़ती जा रही थी.

हवा का एक तेज़ झोंका आरामगाह में दाखिल हुआ और शमा गुल हो गई. टी वी स्क्रीन पर आहिस्ता-आहिस्ता कुछ नाम उभर रहे थे.

प्रेरणा-स्रोत - तस्मीना गर्ग

पट कथा लेखन - सबा

निर्देशन- सबा

स्क्रीन के इन अक्षरों ने मुझे दूर, बहुत दूर अतीत के कुछ खुबसूरत क्षणों के सामने खड़ा कर दिया. सबा और तस्मीना गर्ग का नाम एक साथ देखकर मेरे दिमाग में कहीं काली चींटी रेंग गई थी.

अब्बू आप कहाँ खो गए ? मैं बेटी की आवाज़ पर चौंका।

मुस्कुराने की कोशिश करते हुए मैं ने बेटी की तरफ़ देखा. मुझे महसूस हुआ जैसे उस के दायें हाथ की गोरी-चिट्टी कलाई पर एक काली चींटी रेंग रही है. मुझे लगा के मैं दिल्ली में हूँ और तस्मीना मुझसे कह रही हैं, लाल चींटी बहोत ज़ोर से काटती है. काली चींटी से किसी तरह का कोई खतरा नहीं होता.
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