गुरूर उसको न था हुस्न का, मगर कुछ था.
कि वो हरेक की नज़रों से बाखबर कुछ था.
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इन आँधियों में कोई ऐसी ख़ास बात न थी,
गिला सा फिर भी गुलों की ज़बान पर कुछ था.
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सुखन-शनास था, अच्छा-बुरा परखता था,
मेरे कलाम का उसपर कहीं असर कुछ था.
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मैं खाली हाथ था, फिर भी वो चाहता था मुझे,
ज़माना समझा मेरे पास मालो-ज़र कुछ था.
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वो चंद लमहों को आया तो डबडबा सी गई,
कहीं तो शिकवा तुझे मेरी चश्मे तर, कुछ था.
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परिंदे आने लगे थे शजर की शाखों पर,
कि इनकी खुशबुओं में सूरते-समर कुछ था.
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शनिवार, 11 अक्टूबर 2008
गुरूर उसको न था हुस्न का, मगर कुछ था.
ज़मीर बेचता मैं तो अज़ीज़ रखते सभी.
ज़मीर बेचता मैं तो अज़ीज़ रखते सभी।
सुनाते शौक़ से मेरे हुनर के क़िस्से सभी।
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किसी से कुछ भी कहो, इसमें हर्ज ही क्या है,
मैं याद रखता हूँ नाहक़ तुम्हारे वादे सभी।
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बलंद उहदों पे हो, जो भी जी में आये, करो,
वहाँ पहोंचके, कहे जाते हैं फ़रिश्ते सभी।
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अब और ठेस न पहोंचाओ ऐसी बातों से,
हमारे सीने के हैं ज़ख्म ताज़े-ताज़े सभी।
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वो कहिये बारिशों ने ये ज़मीन तर कर दी,
क़हत के खौफ से मायूस हो चुके थे सभी।
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दिखा के हौस्लए-ज़ीस्त, उसने रख ली हया,
तुम्हारी नज़रों में शायद गिरे-पड़े थे सभी।
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मेरे ही शेर वो क्यों बार-बार पढता है,
मुझे तो याद नहीं है कि हम मिले थे कभी।
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लायी हयात आये, क़ज़ा ले चली चले / इब्राहीम ज़ौक़ [पुरानी शराब]
लायी हयात आये, क़ज़ा ले चली, चले।
अपनी खुशी न आये, न अपनी खुशी चले।
बेहतर तो है यही कि न दुनिया से दिल लगे,
पर क्या करें जो काम न बे-दिल्लगी चले।
हो उमरे- खिज्र भी तो कहेंगे बवक़्ते-मर्ग,
हम क्या रहे यहाँ, अभी आये अभी चले।
दुनिया ने किसका राहे-फना में दिया है साथ,
तुम भी चले चलो युंही, जबतक चली चले।
कम होंगे इस बिसात पे हम जैसे बद-क़िमार,
जो चाल हम चले वो निहायत बुरी चले।
जाते हवाए-शौक़ में हैं इस चमन से 'जोक,'
अपनी बला से बादे-सबा जब कभी चले।
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शुक्रवार, 10 अक्टूबर 2008
नावक अंदाज़ जिधर दीदए-जानां होंगे / मोमिन खां मोमिन [पुरानी शराब]
परिंदों की ज़बाँ पहले के दानिशवर समझते थे.
परिंदे भी हमारी गुफ्तगू अक्सर समझते थे.
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वो फ़नकारा थी, बांसों पर तनी रस्सी पे चलती थी,
तमाशाई थे हम और उसको पेशा-वर समझते थे.
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शजर को आँधियों की साजिशों का इल्म था शायद,
कि पत्ते तक हवाओं के सभी तेवर समझते थे.
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हकीकत में हमारे जैसा इक इन्सान था वो भी,
मगर अखलाक था ऐसा कि जादूगर समझते थे.
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वो सहरा शह्र की नब्जों में अक्सर साँस लेता था,
हमीं नादाँ थे उसको शह्र के बाहर समझते थे.
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छतें, आँगन दरो-दीवार सब थे खंदा-ज़न हम पर,
हमें हैरत है, हम क्यों उसको अपना घर समझते थे.
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वो एक शोर सा ज़िन्दाँ में रात भर क्या था / शमीम हनफ़ी
गुरुवार, 9 अक्टूबर 2008
मैं बारिशों से भरे बादलों को देखता हूँ
शऊरे-दर्द से पुर काविशों को देखता हूँ.
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तड़पते ख़ाक पे ताज़ा गुलों को देखता हूँ.
हया से दुबकी हुई, दहशतों को देखता हूँ.
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उभर सका न कोई लफ्ज़ जिनपे आकर भी,
मैं थरथराते हुए उन लबों को देखता हूँ.
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दिलों को बाँट दिए और ख़ुद रहीं खामोश,
तअल्लुकात की उन सरहदों को देखता हूँ.
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मैं अपनी यादों की वीरानियों के गोशे में,
पुराने, आंसुओं से पुर खतों को देखता हूँ.
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न आई हिस्से में जिनके ये रोशनी, ये हवा,
चलो मैं चलके कुछ ऐसे घरों को देखता हूँ.
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जो कुछ न होके भी सब कुछ हैं दौरे-हाज़िर में,
ख़ुद अपनी आंख से उन ताक़तों को देखता हूँ।
सुनो! मैं थक गया हूँ / रेहान अहमद
मेरी पलकों पे अबतक कुछ अधूरे ख्वाब जलते हैं
मेरी नींदों में तेरे वस्ल के रेशम उलझते हैं,
मेरे आंसू मेरे चेहरे पे तेरे ग़म को लिखते हैं,
मेरे अन्दर कई सदियों के सन्नाटों का डेरा है,
मेरे अल्फाज़ बाहें वा किए मुझको बुलाते हैं,
मगर मैं थक गया हूँ
और मैंने
खामुशी की गोद में सर रख दिया है।
मैं बालों में तुम्हारे
हिज्र की नर्म उंगलियाँ महसूस करता हूँ।
मेरी पलकों पे जलते ख्वाब हैं अब राख की सूरत,
तुम्हारे वस्ल का रेशम भी अब नींदें नहीं बुनता,
मेरी आंखों में जैसे सर्द मौसम का बसेरा है,
मुझे अन्दर के सन्नाटों में गहरी नींद आई है।
सुनो! इस याद से कह दो
मुझे कुछ देर सोने दे।
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हवा टूटे हुए पत्तों को आवारा समझती है
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ग़म की बारिश ने भी / मुनीर नियाज़ी
तू ने मुझको खो दिया, मैंने तुझे खोया नहीं।
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नींद का हल्का गुलाबी सा खुमार आंखों में था,
यूँ लगा जैसे वो शब को देर तक सोया नहीं।
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हर तरफ़ दीवारोदर और उनमें आंखों का हुजूम,
कह सके जो दिल की हालात वो लबे-गोया नहीं।
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जुर्म आदम ने किया, और नसले-आदम को सज़ा,
काटता हूँ ज़िन्दगी भर मैंने जो बोया नहीं।
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जानता हूँ एक ऐसे शख्स को मैं भी मुनीर,
ग़म से पत्थर हो गया लेकिन कभी रोया नहीं।
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