तीन ग़ज़लें
[ 1 ]
गमे-आशिकी से कह दो, रहे-आम तक न पहोंचे
मुझे खौफ है ये तुहमत, मेरे नाम तक न पहोंचे.
मैं नज़र से पी रहा था, तो ये दिल ने बद-दुआ दी
तेरा हाथ जिंदगी भर, कभी जाम तक न पहोंचे.
नई सुब्ह पर नज़र है, मगर आह ये भी डर है,
ये सहर भी रफ़ता-रफ़ता, कहीं शाम तक न पहोंचे.
वो नवाए-मुज़महिल क्या, न हो जिसमें दिल की धड़कन
वो सदाए-अहले-दिल क्या, जो अवाम तक न पहोंचे.
उन्हें अपने दिल की खबरें, मेरे दिल से मिल रही हैं,
मैं जो उनसे रूठ जाऊं, तो पयाम तक न पहोंचे
ये अदाए-बेनियाज़ी, तुझे बे-वफ़ा मुबारक
मगर ऐसी बे-रुखी क्या, कि सलाम तक न पहोंचे.
जो नक़ाबे-रुख हटा दी, तो ये क़ैद भी आगा दी,
उठे हर निगाह लेकिन, कोई बाम तक न पहोंचे.
वही इक ख़मोश नगमा, है शकील जाने-हस्ती,
जो जुबान तक न आए, जो कलाम तक न पहोंचे.
[ 2 ]
मेरी जिंदगी पे न मुस्कुरा, मुझे जिंदगी का अलम नहीं.
जिसे तेरे गम से हो वास्ता, वो खिज़ाँ बहार से कम नहीं
मुझे रास आयें खुदा करे, यही इश्तिबाह की सा'अतें
उन्हें एतबार-वफ़ा तो है, मुझे एतबार-सितम नहीं.
वही कारवां वही रास्ते, वही जिंदगी वही मरहले,
मगर अपने अपने मुकाम पर, कभी तुम नहीं कभी हम नहीं.
न वो शाने-जब्रे-शबाब है, न वो रंगे क़ह्रो-इताब है,
दिले-बेकरार पे इन दिनों, है सितम यही कि सितम नहीं.
न फ़ना मेरे न बका मेरी, मुझे ऐ शकील न ढूँडिए,
मैं किसी का हुस्नो-ख़याल हूँ, मेरा कुछ वुजूदो-अदम नहीं.
[ 3 ]
शायद आगाज़ हुआ फिर किसी अफ़साने का.
हुक्म आदम को है जन्नत से निकल जाने का.
उनसे कुछ कह तो रहा हूँ मगर अल्लाह न करे
वो भी मफहूम न समझें मेरे अफ़साने का.
देखना देखना ये हज़रते-वाइज़ ही न हों,
रास्ता पूछ रहा है कोई मयखाने का.
बे त'अल्लुक़ तेरे आगे से गुज़र जाता हूँ,
ये भी इक हुस्ने-तलब है तेरे दीवाने का.
हश्र तक गर्मिए-हंगामए-हस्ती है शकील
सिलसिला ख़त्म न होगा मेरे अफ़साने का.
***************
गुरुवार, 24 जुलाई 2008
बुधवार, 23 जुलाई 2008
शकेब जलाली की ग़ज़लें
[ 1 ]
आके पत्थर तो मेरे सहन में दो-चार गिरे
जितने उस पेड़ के फल थे पसे-दीवार गिरे
ऐसी दहशत थी फ़िज़ाओं में खुले पानी की
आँख झपकी भी नहीं हाथ से पतवार गिरे.
मुझको गिरना है तो मैं अपने ही क़दमों में गिरुं
जिस तरह सायंए-दीवार पे दीवार गिरे
तीरगी छोड़ गई दिन में उजाले के खुतूत
ये सितारे मेरे घर टूट के बेकार गिरे.
देख कर अपने दरो-बाम लरज़ उठता हूँ
मेरे हमसाये में जब भी कोई दीवार गिरे
[ 2 ]
जाती है धूप उजले परों को समेट के
ज़ख्मों को अब गिनूंगा मैं बिस्तर पे लेट के
मैं हाथ की लकीरें मिटाने पे हूँ बज़िद
गो जनता हूँ नक्श नहीं ये सिलेट के
दुनिया को कुछ ख़बर नहीं क्या हादसा हुआ
फेंका था उसने संग गुलों में लपेट के
फौवारे की तरह न उगल दे हरेक बात
कम-कम वो बोलते हैं जो गहरे हैं पेट के
[ 3 ]
मुरझा के काली झील में गिरते हुए भी देख
सूरज हूँ मेरा रंग मगर दिन ढले भी देख.
कागज़ की कतरनों को भी कहते हैं लोग फूल
रंगों का एतबार है क्या सूंघ के भी देख.
हर चन्द राख हो के बिखरना है राह में
जलते हुए परों से उड़ा हूँ मुझे भी देख.
तूने कहा न था कि मैं कश्ती पे बोझ हूँ
तलवों में जो हवा के हैं वो आबले भी देख.
इन्सान नाचता है यहाँ पुतलियों के रंग
दुनिया में आ गया है तो इसके मज़े भी देख.
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आके पत्थर तो मेरे सहन में दो-चार गिरे
जितने उस पेड़ के फल थे पसे-दीवार गिरे
ऐसी दहशत थी फ़िज़ाओं में खुले पानी की
आँख झपकी भी नहीं हाथ से पतवार गिरे.
मुझको गिरना है तो मैं अपने ही क़दमों में गिरुं
जिस तरह सायंए-दीवार पे दीवार गिरे
तीरगी छोड़ गई दिन में उजाले के खुतूत
ये सितारे मेरे घर टूट के बेकार गिरे.
देख कर अपने दरो-बाम लरज़ उठता हूँ
मेरे हमसाये में जब भी कोई दीवार गिरे
[ 2 ]
जाती है धूप उजले परों को समेट के
ज़ख्मों को अब गिनूंगा मैं बिस्तर पे लेट के
मैं हाथ की लकीरें मिटाने पे हूँ बज़िद
गो जनता हूँ नक्श नहीं ये सिलेट के
दुनिया को कुछ ख़बर नहीं क्या हादसा हुआ
फेंका था उसने संग गुलों में लपेट के
फौवारे की तरह न उगल दे हरेक बात
कम-कम वो बोलते हैं जो गहरे हैं पेट के
[ 3 ]
मुरझा के काली झील में गिरते हुए भी देख
सूरज हूँ मेरा रंग मगर दिन ढले भी देख.
कागज़ की कतरनों को भी कहते हैं लोग फूल
रंगों का एतबार है क्या सूंघ के भी देख.
हर चन्द राख हो के बिखरना है राह में
जलते हुए परों से उड़ा हूँ मुझे भी देख.
तूने कहा न था कि मैं कश्ती पे बोझ हूँ
तलवों में जो हवा के हैं वो आबले भी देख.
इन्सान नाचता है यहाँ पुतलियों के रंग
दुनिया में आ गया है तो इसके मज़े भी देख.
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लेबल:
ग़ज़ल
कबीर के अध्ययन की समालोचनात्मक पूर्व-पीठिका / प्रो. शैलेश ज़ैदी
कबीर का काव्य यद्यपि विवाद का विषय नहीं है, फिर भी हिन्दी में कबीर के अध्ययन की स्थिति बहुत स्वस्थ नहीं कही जा सकती. आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कबीर विषयक अपनी अवधारणाएँ स्थापित करते समय एक सीमा तक संतुलन बनाए रखने का प्रयास किया. उनका विचार था कि " जो ब्रह्म हिन्दुओं की विचार-पद्धति में ज्ञान मार्ग का एक निरूपण था, उसी को कबीर ने सूफियों के ढर्रे पर उपासना का ही विषय नहीं, प्रेम का विषय भी बनाया और उसकी प्राप्ति के लिए हठयोगियों की साधना का समर्थन किया. इस प्रकार उन्होंने भारतीय ब्रह्मवाद के साथ, सूफियों के भावात्मक रहस्यवाद और वैष्णवों के अहिंसावाद तथा प्रपत्तिवाद का मेल करके अपना पंथ खड़ा किया." (हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ0 77 ).
शुक्ल जी के ज्ञान की सीमाएं भारतीय ब्रह्मवाद तथा हठयोग साधना तक थीं. सूफियों के एकत्ववादी चिंतन (वह्दतुल्वुजूद का दर्शन) से वे पूर्णतः अनभिज्ञ थे. फिर वैष्णवों के जिस अहिंसावाद की उन्होंने यहाँ चर्चा की है, तुलसी एवं सूर जैसे आदर्श वैष्णव कवियों का मूयांकन करते समय वे इसका उल्लेख तक नहीं करते. वैष्णव इतिहास तो नरसंहार से भरा पड़ा है. राक्षसों का वध, राम-रावण युद्ध, कौरव-पांडव संग्राम, सभी स्थलों पर नरसंहार की लीला है. और यह सब कुछ असत्य को कुचलने और सत्य को स्थापित करने के लिए किया गया है. वैष्णव इतिहास सत्य के लिए प्राण देना और मर-मिटाना नहीं सिखाता, प्राण लेना और शत्रु का नामो-निशान तक मिटा देना सिखाता है. परशुराम जी क्षत्रियों का संहार करते हैं. यहाँ सत्य और असत्य का क्या आधार है, स्पष्ट नहीं होता. वैष्णवों के सभी इष्टदेव सशस्त्र दिखाए जाते हैं, जिन्हें देखकर अहिंसा की कोई कल्पना भी नहीं की जा सकती. देवियाँ भी कहीं रक्त पीती हैं, कहीं रक्त का स्नान करती हैं, कहीं रक्त का टीका लगाती हैं और गले में मुंडमाल पहनती हैं. आचार्य शुक्ल को, सम्भव है यहाँ भी अहिंसावाद की गंध मिली हो. रह गई बात प्रपत्तिवाद की. सूफी प्रभाव के पूर्व प्रपत्ति का प्रवेश व्यावहारिक स्तर पर वैष्णव चिंतन में नहीं मिलता. सूफी चिंतन का तो आधार ही प्रपत्ति एवं निग्रह है.
आचार्य रामचंद्र शुक्ल की दृष्टि में कबीर में जो कुछ 'बे-ढब' है उसमें सूफियों का प्रभाव है. शुक्ल जी की लीक पीटने वाले हिन्दी आलोचक सूरदास तुलसीदास आदि को रहस्यवादी कहना अनुपयुक्त और असंगत मानते हैं. शुक्ल जी की दृष्टि में "रहस्यवादी चिंतन पैगम्बरी मत मानने वाले देशों में विकसित हुआ. भारत में ऐसी बेढब जरूरत ही नहीं पडी." (चिंतामणि भाग 2, पृ0 81) कबीर और जायसी में रहस्यवाद को मान्यता देने और सूर तथा तुलसी के काव्य को भक्ति की एक विशिष्ट परिभाषा के भीतर मूल्यांकित करने की यह परम्परा किसी तर्क अथवा प्रमाण को स्वीकार करने के पक्ष में नहीं है. कदाचित इसीलिए "कबीर का भक्ति काव्य" अथवा "सूफी भक्ति काव्य" जैसे शीर्षक वाली एक भी पुस्तक हिन्दी में उपलब्ध नहीं है. हो भी नहीं सकती. कारण यह है कि वैष्णव चिंतन एक ही बात को पीढी-दर-पीढी बार-बार दुहराकर केवल यह स्थापित करना चाहता है कि 'प्रस्थानत्रयी' से इतर जो कुछ भी है, उसे भक्ति की परिधि में नहीं रखा जा सकता.
डॉ. रामकुमार वर्मा रहस्यवाद की जड़ें 'हिन्दुओं के अद्वैतवाद" में देखने के पक्षधर हैं. उनके विचार से "कबीर का रहस्यवाद हिन्दुओं के अद्वैतवाद और मुसलमानों के सूफी मत पर आश्रित है." (कबीर का रहस्यवाद, पृ0 25). प्रतीत होता है कि डॉ. रामकुमार वर्मा को अद्वैतवाद से मिलते-जुलते दर्शन की लम्बी स्वस्थ परम्परा सूफियों के यहाँ एक सिरे से दिखायी ही नहीं दी. थोड़े से उलट-फेर के साथ यह आचार्य शुक्ल के विचारों की पुनरावृत्ति मात्र है. जायसी ग्रंथावली में आचार्य शुक्ल ने स्पष्ट लिखा है - "निर्गुण शाखा के संत कबीर, दादू आदि संतों की परम्परा में ज्ञान का जो थोड़ा बहुत अनुभव है, वह भारतीय वेदान्त का है, पर प्रेमतत्व बिल्कुल सूफियों का है."(पृ0 162).डॉ. रामकुमार वर्मा आचार्य शुक्ल की इसी अवधारण को इन शब्दों में व्यक्त करते हैं -"उन्होंने (कबीर ने) अद्वैतवाद से माया और चिंतन तथा सूफी मत से प्रेम लेकर अपने रहस्यवाद की सृष्टि की." (कबीर का रहस्यवाद, पृ0 25). यहाँ मध्ययुगीन इतिहास विशेषज्ञ प्रो. इरफान हबीब की यह अवधारणा भी विचारणीय है कि "कबीर पर शंकर के वेदान्त की बात हम स्वीकार नहीं करते.क्योंकि हमने पाया है कि इस काल तक यह बहुत प्रचारित नहीं था तथा कबीर के पदों पर भी उसका कोई प्रभाव दिखाई नहीं पड़ता. कबीर के यहाँ 'माया' अपने पूर्ववर्ती रूप 'लालच' के अर्थ में प्रस्तुत की गई है, भ्रम के रूप में नहीं." (मध्यकालीन लोकवादी एकेश्वरवाद तथा उसका मानवीय स्वरुप, अभिनव भारती (अलीगढ़, 1992-93) पृ0 9).
कबीर के असहमतिमूलक आक्रोश को दबा देने की भावना से उन्हें "संसार से विमुखता का उपदेश देने वाला योगी" भी कहा गया. जबकि तथ्य यह है कि कबीर ने जहाँ ब्राह्मणों के वर्चस्व को स्वीकार नहीं किया और उनपर खुलकर चोटें कीं, वहीं योगियों की अनेक बातों को घृणित दृष्टि से देखा और अपनी प्रखर असहमति व्यक्त की. वस्तुतः कबीर को संसार से विमुखता का उपदेश देने वाला योगी वही कह सकता है जो 'संसार' और 'सांसारिकता' के बीच कोई अन्तर नहीं करता. संसार से विमुख होना वैरागियों की प्रवृत्ति है और सांसारिकता का तिरस्कार और विरोध सूफी संतों का स्वभाव है. संसार से विमुख होना अपनी उन दुर्बलताओं की स्वीकृति है जो कहीं भय से और कहीं लोभवश मनुष्य को सच्चाई पर अडिग नहीं रहने देती. यह एक पलायनवादी दृष्टि है. सांसारिकता का तिरस्कार और विरोध वही कर सकता है जो ठोस चारित्रिक धरातल पर खड़ा हो और जिसमें बड़े-से-बड़ा जोखिम उठाने का साहस हो. जिसमें निद्रा और गफलत में पड़े समुदाय को झकझोर कर जगाने का जीवट हो. जो मानवाधिकार के प्रति सजग हो. सांसारिकता मनुष्य की समष्टि-वृत्ति को सुला देती है. सांसारिकता में लिप्त मनुष्य अपने 'स्व' में इतना घिर जाता है कि किसी प्रकार का शोषण करने में उसे संकोच नहीं होता. इसीलिए जो सांसारिकता से विमुख होता है वह कबीर की तरह ऊंचे स्वर में यह कहने का साहस रखता है -"जे घर फूंकै आपना, चलै हमारे साथ."
कबीर को व्यक्तिवादी बताना और उनकी साधना को व्यक्तिगत साधना का नाम देना, कबीर के क़द को छोटा करने का एक सोचा-समझा षड़यंत्र है और यह षड़यंत्र वही कर सकता है जिसे कबीर का एक साधारण जुलाहा होना खलता है. जो अपनी काल्पनिक अटकलों के आधार पर कबीर की जड़ें "बैरागियों" और "जोगियों" में देखने के लिए प्रयत्नशील है. ऐसे लोगों को कबीर की ललकार टीस बनकर चुभती है. "तुम ब्रह्मण होने का गर्व क्यों करते हो, मैं भी काशी का जुलाहा हूँ. तुम मेरे ज्ञान की थाह भी नहीं पा सकते. इसलिए मेरे ज्ञान को चुनौती मत दो."
कबीर के असहमतिमूलक आक्रोश का क्रांतिकारी स्वर आज अपनी प्रासंगिकता को जिस प्रकार गहरा रहा है, वह भी एक वर्ग को सह्य नहीं है. बल इस बात पर दिया जा रहा है कि कबीर का महत्त्व हिन्दी साहित्य में उनके कवि होने के कारण है, इसलिए उनपर विचार अंततः एक कवि के रूप में होना चाहिए. संत कवि और कवि संत रूप में, न कि समाज सुधारक या सामजिक क्रान्तिकारी के रूप में. यह वर्त्तमान साहित्यिक चिंतन के खिलाफ एक खुली साजिश है. इस साजिश में निर्गुण धारा की ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रति उस विरक्ति की स्पष्ट झलक है जो इस शाखा की रचनाओं का साहित्य होना स्वीकार नहीं करती. जिसे इन रचनाकारों की भाषा और शैली 'अव्यवस्थित' और 'ऊट-पटांग' दिखायी देती है. जिसे 'इन कवियों में भक्ति रस में मग्न करने वाली सरसता खोजने पर भी नहीं मिलती.' यह साजिश बार-बार दुहराना चाहती है कि "संस्कृत-बुद्धि, संस्कृत ह्रदय और संस्कृत वाणी का वह विकास इस शाखा में नहीं जो शिक्षित समाज को आकर्षित कर सके."
विचारणीय यह है कि यह 'सुसंस्कृत शिक्षित समाज' कहाँ और किस बौद्धिक गुफा में बंद है जिसे कबीर की रचनाएँ आकृष्ट नहीं करतीं ? विचारणीय यह भी है कि भक्ति रस में मग्न करने वाली सरसता किस दिशा का संकेत करती है और साहित्य के मूल्यांकन के किन प्रतिमानों को प्रतिष्ठित करना चाहती है ? स्पष्ट है कि यह साजिश तथाकथित भक्ति रस में मग्न करने वाली सरसता पर साहित्यिकता की मुहर लगाती है और भक्ति के नाम पर किए जाने वाले ढोंग को उकेरने वाली कविता को साहित्यिकता से खारिज कर देती है.
कबीर हों या जायसी, सूर और तुलसी, साहित्य में इनका महत्त्व निश्चय ही इनके कवि होने के कारण है. इस बात पर भला किसे आपत्ति हो सकती है. किसी धर्म विशेष के लोकरक्षक का चरित्र-काव्य लिखने से कोई कवि बड़ा नहीं हो जाता और रस, छंद, अलंकार के बंधनों को तोड़ कर कम्युनिकेटिव फोर्स को ही कसौटी मान लेने से कोई कवि छोटा नहीं कहा जा सकता. कविता का प्रतिपाद्य मानव होता है, भगवान नहीं. आश्चर्य है कि जिस कविता में आदि, मध्य और अवसान तक घोषित रूप से भगवान ही प्रतिपाद्य हो, वह आचार्य शुक्ल को भक्ति रस में पूरी तरह मग्न कर देती है. किंतु वह कविता जो जन-जन के मनोभावों से जुड़कर आध्यात्मिक स्तर पर गति प्राप्त करती है, जिसमें जीवन के तनावों-संघर्षों का सहानुभूतिपरक यथार्थ चित्रण है, जो मनुष्य और मनुष्य के बीच की भेदक रेखाओं को मिटाते हुए समानता पर आधारित प्रेम संबंधों की पोषक है, जिसमें आत्म-गौरव और आत्मविश्वास को विकसित करने की क्षमता है, आचार्य शुक्ल और उनके जैसे 'सुसंस्कृत शिक्षित समाज' को आकृष्ट नहीं करती. कबीर की कविता मनुष्य में हिंदुत्व अथवा इस्लामत्व नहीं जगाती. वह मनुष्य को उसके मनुष्य होने की पहचान देने का प्रयास करती है. हिंदुत्व और इस्लामत्व जगाने वाली कविता हिन्दुओं और मुसलमानों के लिए अलग-अलग पूजनीय और आदरणीय तो हो सकती है, साहित्य की परिधियों में रखकर उसे मूल्यांकित नहीं किया जा सकता.
कबीर ने अपने समकालीन हिन्दुओं और मुसलामानों से आँखें मिलाकर बात की. संवाद की स्थितियां बनायीं. उनकी कथनी और करनी का अन्तर देखकर क्षुब्ध भी हुए. वे चाहते थे कि यह मनुष्य जिसे परमात्मा ने सोचने-समझने और निर्णय लेने की शक्ति प्रदान की है, सुषुप्तावस्था से बाहर निकले. अपने मनुष्य होने के गौरव को समझे. बाह्य प्रदर्शनों से जुडी आस्थाओं की अलगाववादी जंजीरें तोड़कर धर्म की मूल चेतना से साक्षात्कार करे और परम सत्ता के एकत्व को मन की गहराइयों से पहचानने का प्रयास करे.
कबीर के समय तक सिद्धों, नाथों और योगियों के विभिन्न सम्प्रदाय जिनका सीधा टकराव ब्राह्मण धर्म से था, आम जनता में अपनी साख बना चुके थे. तांत्रिक बौद्ध धर्म से विक्सित सहजिया सम्प्रदाय डॉ. शशिभूषण दास गुप्त की दृष्टि में 'गुह्य साधना वाले योगि-सम्प्रदाय का बौद्ध प्रभावित रूप था' ( आब्स्क्योर रेलिजस कल्ट्स [1962], भूमिका, पृ0 33-34). इस गुह्य साधना का प्रवेश बंगाल के 'बाउल सम्प्रदाय', वैष्णव सहजिया सम्प्रदाय, नाथ सम्प्रदाय और धर्म सम्प्रदाय में तो हो ही चुका था, सूफी साधकों में भी इसके प्रति पर्याप्त आकर्षण था. वह ब्राह्मण धर्म जो दसवीं शताब्दी ई० तक अपनी गहरी जड़ें जमा चुका था, इन सम्प्रदायों के ब्राह्मण तथा वेद विरोधी रुख से ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी तक चरमरा गया था. वैष्णव सहजिया सम्प्रदाय की भाँति यद्यपि सहजिया सूफी नामक कोई सम्प्रदाय विकसित नहीं हुआ था, किंतु सैद्धांतिक स्तर पर चिश्तिया सम्प्रदाय के भीतर-भीतर अनेक ऐसी साधना पद्धतियाँ प्रवेश कर चुकी थीं जिनके प्रकाश में कुछ भारतीय सूफियों को सहजिया सूफियों की श्रेणी के अंतर्गत रखा जा सकता है.
सरहपाद ने अपने समय के धार्मिक वातावरण का जिन शब्दों में चित्रण किया है यदि उसका सूक्ष्मावलोकन किया जाय तो स्पष्ट संकेत मिलता है कि कबीर के समय तक उसकी अनेक बातें विद्यमान थीं. शैव, जैन तथा क्षपणक आदि मतावलंबियों के प्रभाव में पर्याप्त कमी आ गई थी और नाथ सम्प्रदाय के विकास के साथ इन सम्प्रदायों में प्रचलित अनेक पद्धतियाँ नाथ योगियों ने अपना ली थीं. सहज साधना में 'तीनों भुवनों की रचना करने वाले चित्त की शुद्धि' पर विशेष बल दिया जाता था. सरहपाद की अवधारणा थी कि 'जब नाद, बिन्दु अथवा चन्द्र और सूर्य के महलों का अस्तित्व नहीं और चित्तराज भी स्वभावतः मुक्त है, तब फिर सरल मार्ग का परित्याग कर वक्र मार्ग ग्रहण करना कहाँ तक उचित कहा जा सकता है. जो कुछ ब्रह्माण्ड में है वह सभी पिंड में भी है. परम तत्व की प्राप्ति के लिए पिंड पर विजय परम आवश्यक है.' ( हजारी प्रसाद द्विवेदी, नाथ सम्प्रदाय, पृ0 14). गोरखनाथ के समय तक नाथयोगियों के मध्य सहजयानी एवं शैव परम्पराएं पूरी तरह प्रवेश पा चुकी थीं.
तेरहवीं शताब्दी ईस्वी के प्रारंभ से ही सूफियों और योगियों के मध्य वैचारिक आदान-प्रदान और परस्पर चुनौतियों की स्थिति बनने लगी थी. योगियों और सिद्धों के चमत्कारों की चर्चा भारत से बाहर गज़नी, ईरान, खुरासान और तुर्किस्तान में भी होती थी. बाबा फरीद की खानकाह में बड़ी संख्या में योगी आते थे. शेख निजामुद्दीन औलिया प्रत्येक धर्म को आदर की दृष्टि से देखते थे. उन्होंने कहा भी था -"हर क़ौमे-रास्त-राहे, दीने व् किब्लागाहे" अर्थात प्रत्येक धर्म का अपना सीधा मार्ग है, अपनी आचार संहिता है और अपना उपासना स्थल है. वे योगियों और सिद्धों की गुह्य साधना से बहुत अधिक प्रभावित थे.(विस्तार के लिए देखिये हसन निजामीकृत फवायादुल-फुवाद पृ0 250-258). उन्हें इन योगियों से ज्ञान प्राप्त करने में सुखद आनंद का अनुभव होता था. शेख नसीरुद्दीन (मृ0 1366 ई0) ने श्वांस-प्रश्वांस के नियमन का ज्ञान योगियों से प्राप्त किया था. ( हमीद कलंदर, खैरुल-मजालिस,पृ 59-60 ). सैयद मुहम्मद अशरफ जहांगीर सिमनानी (मृ0 1346 ई0) के ग्रंथों में योगियों से संपर्क की अनेक झांकियां उपलब्ध हैं.
पंद्रहवीं शताब्दी तक आते-आते गोरखपंथी योगियों ने आन्दोलन चलाया कि समस्त पीर-पैगम्बर गोरखनाथ के चेले हैं. उनकी यह मान्यता भी चर्चा का विषय बनी कि हज़रत मुहाम्मद (स.) का पालन-पोषण गोरखनाथ ने किया था. उनका यह भी दावा था कि गोरखनाथ का मूल नाम 'बाबा रैन हाजी' था. ये गोरखपंथी मुसलामानों के साथ रोजा रखते थे और नमाज़ पढ़ते थे तथा हिन्दुओं के समूह में पूजा-पाठ करते थे. (मुहसिन फानी, दबिस्ताने-मज़ाहिब, (लखनऊ 1904), पृ0 179-80). इब्ने-बतूता ने 1335 ई0 में मुहम्मद बिन तुगलक के दरबार में एक योगी को हवा में उड़ते देखा था.(सैयद अतहर अब्बास रिज़वी, तुगलक कालीन भारत, भाग 1, पृ0 268).
महत्वपूर्ण बात यह है कि सूफियों और योगियों के मध्य वैचारिक आदान-प्रदान की भाषा हिन्दवी थी. शेख हमीदुद्दीन नागोरी और बाबा फरीद के घरों में भी हिन्दवी का प्रचलन था. आश्चर्य की बात यह है कि पंद्रहवीं शताब्दी ईस्वी तक सूफियों और वैष्णव आचार्यों के मध्य आपसी बात-चीत का कोई संकेत नहीं मिलता. वैष्णव भक्तों ने योगियों के साथ भी वैसे सम्बन्ध विकसित नहीं किए जैसे सूफियों के योगियों के साथ थे. वैष्णव परम्परा ब्राह्मणेतर तत्वचिन्तकों के समाज से पूरी तरह कटी हुई थी. कबीर के अध्ययन के लिए इन तथ्यों को दृष्टि में रखना अनिवार्य है.
ध्यान देने की बात यह भी है कि चौदहवीं शताब्दी ईस्वी में सूफियों, सिद्धों और नाथयोगियों से इतर तदयुगीन सामजिक जीवन में क़ल्न्दारों, हैदारियों और ज़्वालकियों की सशक्त भूमिका थी. यह लोग सामान्य रूप से दरवेश कहलाते थे. हैदरी कलंदर गर्दन और कान में लोहे के कड़े पहनते थे और नमाज़-रोजा जैसी किसी इस्लामी इबादत से कोई सम्बन्ध नहीं रखते थे. कुछ कलंदर ऐसे भी थे जो दाढी, मूछें और भवें तक मुंडवा लेते थे. इनके आक्रोश से सभी आतंकित थे और इनके विरुद्ध मुंह खोलने का साहस किसी में नहीं था. कलंदर शेख अबूबक्र तूसी इन्द्रप्रस्थ के समीप यमुना तट पर खानकाह बनाकर रहते थे. बू अली कलंदर (मृ0 १३२४ ई0) जिनकी आस्थाएं कबीर से बहुत भिन्न नहीं थीं, विशुद्ध एकत्ववादी (मुवह्हिद) थे. भक्ति के भावावेश में उन्होंने अपनी सभी पुस्तकें नदी में फ़ेंक दीं और दरवेश बन गए. कबीर भी बू अली कंदर की भाँति -"कबीर पढिबा दूरि करि, पुस्तक देइ बहाइ" का सुझाव देते हैं. दुखद स्थिति यह है कि मध्य युगीन हिन्दी साहित्य के अध्येता कबीर का अध्ययन करते समय कबीर युगीन समाज के इन महत्वपूर्ण पहलुओं पर सिरे से विचार ही नहीं करते. मेरी दृष्टि में कबीर का अध्ययन कबीर साहित्य की पूर्वपीठिका को समझे बिना किया ही नहीं जा सकता.
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'हिन्दी के मध्ययुगीन मुस्लिम कवि' पुस्तक से साभार
लेबल:
कबीर / प्रो. शैलेश ज़ैदी
हबीब जालिब की दो ग़ज़लें
[ 1 ]
और सब भूल गए हर्फे-सदाक़त लिखना
रह गया काम हमारा ही बगावत लिखना
न सिले की न सताइश की तमन्ना हमको
हक में लोगों के हमारी तो है आदत लिखना.
हम ने तो भूलके भी शह का कसीदा न लिखा
शायद आया इसी खूबी की बदौलत लिखना.
दह्र के ग़म से हुआ रब्त तो हम भूल गए
सर्व-क़ामत की जवानी को क़यामत लिखना.
कुछ भी कहते हैं कहें शह के मुसाहिब 'जालिब'
रंग रखना यही अपना, इसी सूरत लिखना
[ 2 ]
ये ठीक है कि तेरी गली में न आयें हम.
लेकिन ये क्या कि शहर तेरा छोड़ जाएँ हम.
मुद्दत हुई है कूए बुताँ की तरफ़ गए,
आवारगी से दिल को कहाँ तक बचाएँ हम.
शायद बकैदे-जीस्त ये साअत न आ सके
तुम दास्ताने-शौक़ सुनो और सुनाएँ हम.
उसके बगैर आज बहोत जी उदास है,
'जालिब' चलो कहीं से उसे ढूँढ लायें हम.
****************************
और सब भूल गए हर्फे-सदाक़त लिखना
रह गया काम हमारा ही बगावत लिखना
न सिले की न सताइश की तमन्ना हमको
हक में लोगों के हमारी तो है आदत लिखना.
हम ने तो भूलके भी शह का कसीदा न लिखा
शायद आया इसी खूबी की बदौलत लिखना.
दह्र के ग़म से हुआ रब्त तो हम भूल गए
सर्व-क़ामत की जवानी को क़यामत लिखना.
कुछ भी कहते हैं कहें शह के मुसाहिब 'जालिब'
रंग रखना यही अपना, इसी सूरत लिखना
[ 2 ]
ये ठीक है कि तेरी गली में न आयें हम.
लेकिन ये क्या कि शहर तेरा छोड़ जाएँ हम.
मुद्दत हुई है कूए बुताँ की तरफ़ गए,
आवारगी से दिल को कहाँ तक बचाएँ हम.
शायद बकैदे-जीस्त ये साअत न आ सके
तुम दास्ताने-शौक़ सुनो और सुनाएँ हम.
उसके बगैर आज बहोत जी उदास है,
'जालिब' चलो कहीं से उसे ढूँढ लायें हम.
****************************
लेबल:
ग़ज़ल
शैलेश जैदी की नई ग़ज़लें
[ 1 ]
अदृश्य थे, मगर थे बहुत से सहारे साथ.
निश्चिन्त हो गया हूँ कि तुम हो हमारे साथ.
मीठा भी और खारा भी पानी का है स्वभाव,
सुनता हूँ मैं समुद्र में हैं दोनों धारे साथ.
याद आता है भंवर में कई लोग थे घिरे,
लेकिन पहुँच न पाया कोई भी किनारे साथ.
संसद में हो न पायी अविश्वास मत की जीत,
विद्रोहियों को दुःख है नहीं थे सितारे साथ.
मित्रों के शत्रु-भाव से महसूस ये हुआ,
कितने थे अर्थ-हीन वो दिन जो गुज़ारे साथ.
चिल्लाई घर की भूख तो हड़ताल रुक गई,
सच्चाइयों का देते भी कबतक बिचारे साथ.
[ 2 ]
ये गली सीधी चली जाती है उसके द्वार तक'
जाँ गँवा बैठे हैं इसमें सूरमा किरदार तक.
जिसके हाथों में संभल पाती न हो पतवार तक
उससे क्यों आशा करूँ ले जायेगा उस पार तक.
भाव कविता का समझकर तृप्त हो जाते हैं लोग
कोई अब जाता कहाँ है अर्थ के विस्तार तक.
कुछ तो निश्चय ही हुआ ऐसा कि जिसके बाद से,
मेरी दुनिया हो गई सीमित मेरे संसार तक.
धडकनों के शब्दकोशों को उलट कर देखिये
इसके सारे शब्द ले जाते हैं मन को प्यार तक.
मैंने साहस करके उसको पास जा कर छू लिया,
हो गए थे सुर्ख उसके रेशमी रुखसार तक.
क्रान्ति के दावों में क्यों होती है कमज़ोरी की गंध,
क्रान्ति की हर चेतना सीमित है क्यों ललकार तक.
*********************
अदृश्य थे, मगर थे बहुत से सहारे साथ.
निश्चिन्त हो गया हूँ कि तुम हो हमारे साथ.
मीठा भी और खारा भी पानी का है स्वभाव,
सुनता हूँ मैं समुद्र में हैं दोनों धारे साथ.
याद आता है भंवर में कई लोग थे घिरे,
लेकिन पहुँच न पाया कोई भी किनारे साथ.
संसद में हो न पायी अविश्वास मत की जीत,
विद्रोहियों को दुःख है नहीं थे सितारे साथ.
मित्रों के शत्रु-भाव से महसूस ये हुआ,
कितने थे अर्थ-हीन वो दिन जो गुज़ारे साथ.
चिल्लाई घर की भूख तो हड़ताल रुक गई,
सच्चाइयों का देते भी कबतक बिचारे साथ.
[ 2 ]
ये गली सीधी चली जाती है उसके द्वार तक'
जाँ गँवा बैठे हैं इसमें सूरमा किरदार तक.
जिसके हाथों में संभल पाती न हो पतवार तक
उससे क्यों आशा करूँ ले जायेगा उस पार तक.
भाव कविता का समझकर तृप्त हो जाते हैं लोग
कोई अब जाता कहाँ है अर्थ के विस्तार तक.
कुछ तो निश्चय ही हुआ ऐसा कि जिसके बाद से,
मेरी दुनिया हो गई सीमित मेरे संसार तक.
धडकनों के शब्दकोशों को उलट कर देखिये
इसके सारे शब्द ले जाते हैं मन को प्यार तक.
मैंने साहस करके उसको पास जा कर छू लिया,
हो गए थे सुर्ख उसके रेशमी रुखसार तक.
क्रान्ति के दावों में क्यों होती है कमज़ोरी की गंध,
क्रान्ति की हर चेतना सीमित है क्यों ललकार तक.
*********************
लेबल:
हिन्दी ग़ज़ल
मंगलवार, 22 जुलाई 2008
ज़ैदी जाफ़र रज़ा की ताज़ा ग़ज़लें
[ 1 ]
ज़ह्र पी लेते हैं क्यों लोग परीशां होकर
हम तो खुशहाल रहे बे-सरो-सामां होकर
लौट आओगे कभी इसका गुमां था किसको
एक टक देख रहा हूँ तुम्हे हैरां होकर
उसकी महफ़िल में सुखनवर तो कई थे लेकिन
उसका दिल जीत लिया मैं ने ग़ज़लख्वां होकर
शहर में रात गए आगज़नी होती रही
घर में हम क़ैद रहे मिशअले-ज़िनदां होकर
ज़ुल्म के सामने झुक जाऊं ये मंज़ूर नहीं
मैं न टूटूंगा किसी तरह हरासां होकर
दिल की गहराइयों में प्यार था जो सिमटा हुआ
तेरे चेहरे पे खिला चाहे-ज़नखदाँ होकर
[ 2 ]
वो कल था साथ तो फिर आज ख्वाब सा क्यों है
बगैर उसके ये जीना अज़ाब सा क्यों है
कहाँ गया वो कोई तो बताये उसका पता
दिलो-दमाग में इक इज्तराब सा क्यों है
हम एक साथ भी हैं और दूर दूर भी हैं
हमारे दरमियाँ आख़िर हिजाब सा क्यों है
उसे ख़बर है के आंखों में क्यों खुमार सा है
वो जनता है के चेहरा गुलाब सा क्यों है
बुरा न माने अगर वो तो उस से पूछ लूँ मैं
के मुझ पे लुत्फो-करम बे-हिसाब सा क्यों है
वो तुम से मिलने से पहले तो खुश-सलीका था
हुआ ये क्या उसे खाना-ख़राब सा क्यों है
ये राह्बर हैं तो क्यों फासले से मिलते हैं
रुखों पे इनके नुमायाँ नकाब सा क्यों है
[ 3 ]
दिल खिंच रहा है फिर उसी तस्वीर की तरफ़.
हो आयें चलिए मीर तकी मीर की तरफ़.
कहता है दिल कि एक झलक उसकी देख लूँ,
उठता है हर क़दम रहे-शमशीर की तरफ़.
मैं चख चुका हूँ खाना-तबाही का ज़ायका,
जाऊँगा अब न लज़्ज़ते-तामीर की तरफ़.
इक ख्वाब है कि आंखों में आता है बार-बार,
इक खौफ है कि जाता है ताबीर की तरफ़.
हालात शहरे-दिल से जिसे छीन ले गए
मायल है अब भी दिल उसी जागीर की तरफ़.
जिद थी मुझे कि उससे करूँगा न इल्तिजा,
क्यों देखता मैं कातिबे-तकदीर की तरफ़
******************************
ज़ह्र पी लेते हैं क्यों लोग परीशां होकर
हम तो खुशहाल रहे बे-सरो-सामां होकर
लौट आओगे कभी इसका गुमां था किसको
एक टक देख रहा हूँ तुम्हे हैरां होकर
उसकी महफ़िल में सुखनवर तो कई थे लेकिन
उसका दिल जीत लिया मैं ने ग़ज़लख्वां होकर
शहर में रात गए आगज़नी होती रही
घर में हम क़ैद रहे मिशअले-ज़िनदां होकर
ज़ुल्म के सामने झुक जाऊं ये मंज़ूर नहीं
मैं न टूटूंगा किसी तरह हरासां होकर
दिल की गहराइयों में प्यार था जो सिमटा हुआ
तेरे चेहरे पे खिला चाहे-ज़नखदाँ होकर
[ 2 ]
वो कल था साथ तो फिर आज ख्वाब सा क्यों है
बगैर उसके ये जीना अज़ाब सा क्यों है
कहाँ गया वो कोई तो बताये उसका पता
दिलो-दमाग में इक इज्तराब सा क्यों है
हम एक साथ भी हैं और दूर दूर भी हैं
हमारे दरमियाँ आख़िर हिजाब सा क्यों है
उसे ख़बर है के आंखों में क्यों खुमार सा है
वो जनता है के चेहरा गुलाब सा क्यों है
बुरा न माने अगर वो तो उस से पूछ लूँ मैं
के मुझ पे लुत्फो-करम बे-हिसाब सा क्यों है
वो तुम से मिलने से पहले तो खुश-सलीका था
हुआ ये क्या उसे खाना-ख़राब सा क्यों है
ये राह्बर हैं तो क्यों फासले से मिलते हैं
रुखों पे इनके नुमायाँ नकाब सा क्यों है
[ 3 ]
दिल खिंच रहा है फिर उसी तस्वीर की तरफ़.
हो आयें चलिए मीर तकी मीर की तरफ़.
कहता है दिल कि एक झलक उसकी देख लूँ,
उठता है हर क़दम रहे-शमशीर की तरफ़.
मैं चख चुका हूँ खाना-तबाही का ज़ायका,
जाऊँगा अब न लज़्ज़ते-तामीर की तरफ़.
इक ख्वाब है कि आंखों में आता है बार-बार,
इक खौफ है कि जाता है ताबीर की तरफ़.
हालात शहरे-दिल से जिसे छीन ले गए
मायल है अब भी दिल उसी जागीर की तरफ़.
जिद थी मुझे कि उससे करूँगा न इल्तिजा,
क्यों देखता मैं कातिबे-तकदीर की तरफ़
******************************
लेबल:
ग़ज़ल
ग़ज़ल : अदा बदायूनी
होंटों पे कभी उनके मेरा नाम ही आये.
आये तो सही बर-सरे-इल्ज़ाम ही आये.
हैरान हैं, लब-बस्तः हैं, दिल-गीर हैं गुंचे,
खुश्बू की ज़बानी तेरा पैगाम ही आये.
लम्हाते-मसर्रत हैं तसौवुर से गुरेज़ाँ,
याद आये हैं जब भी गमो-आलाम ही आये.
तारों से सजा लेंगे रहे-शहरे-तमन्ना,
मक्दूर नहीं सुब्ह, चलो शाम ही आये.
यादों के, वफाओं के, अकीदों के, ग़मों के,
काम आये जो दुनिया में तो इस नाम ही आये.
क्या राह बदलने का गिला हमसफ़रों से,
जिस राह चले तेरे दरो-बाम ही आये.
थक-हार के बैठे हैं सरे-कूए-तमन्ना,
काम आये तो फिर जज़्बए-नाकाम ही आये.
बाकी न रहे साख 'अदा' दश्ते-जुनूँ की,
दिल में अगर अंदेशए-अंजाम ही आये.
******************
आये तो सही बर-सरे-इल्ज़ाम ही आये.
हैरान हैं, लब-बस्तः हैं, दिल-गीर हैं गुंचे,
खुश्बू की ज़बानी तेरा पैगाम ही आये.
लम्हाते-मसर्रत हैं तसौवुर से गुरेज़ाँ,
याद आये हैं जब भी गमो-आलाम ही आये.
तारों से सजा लेंगे रहे-शहरे-तमन्ना,
मक्दूर नहीं सुब्ह, चलो शाम ही आये.
यादों के, वफाओं के, अकीदों के, ग़मों के,
काम आये जो दुनिया में तो इस नाम ही आये.
क्या राह बदलने का गिला हमसफ़रों से,
जिस राह चले तेरे दरो-बाम ही आये.
थक-हार के बैठे हैं सरे-कूए-तमन्ना,
काम आये तो फिर जज़्बए-नाकाम ही आये.
बाकी न रहे साख 'अदा' दश्ते-जुनूँ की,
दिल में अगर अंदेशए-अंजाम ही आये.
******************
लेबल:
ग़ज़ल
सोमवार, 21 जुलाई 2008
राहत इन्दौरी की दो गज़लें
[ 1 ]
कितनी पी कैसे कटी रात मुझे होश नहीं
रात के साथ गई बात मुझे होश नहीं
मुझको ये भी नहीं मालूम कि जाना है कहाँ
थाम ले कोई मेरा हाथ कुझे होश नहीं
आंसुओं और शराबों में गुजारी है हयात
मैं ने कब देखी थी बरसात मुझे होश नहीं
जाने क्या टूटा है, पैमाना कि दिल है मेरा
बिखरे-बिखरे हैं खयालात मुझे होश नहीं
[ 2]
लोग हर मोड़ पे रुक-रुक के संभलते क्यों हैं
इतना डरते हैं तो फिर घर से निकलते क्यों हैं
मैं न जुगनू हूँ, दिया हूँ न कोई तारा हूँ
रोशनी वाले मेरे नाम से जलते क्यों हैं
नींद से मेरा त'अल्लुक़ ही नहीं बरसों से
ख्वाब आ आ के मेरी छत पे टहलते क्यों हैं
मोड़ होता है जवानी का संभलने के लिए
और सब लोग यहीं आके फिसलते क्यों हैं
***********************
कितनी पी कैसे कटी रात मुझे होश नहीं
रात के साथ गई बात मुझे होश नहीं
मुझको ये भी नहीं मालूम कि जाना है कहाँ
थाम ले कोई मेरा हाथ कुझे होश नहीं
आंसुओं और शराबों में गुजारी है हयात
मैं ने कब देखी थी बरसात मुझे होश नहीं
जाने क्या टूटा है, पैमाना कि दिल है मेरा
बिखरे-बिखरे हैं खयालात मुझे होश नहीं
[ 2]
लोग हर मोड़ पे रुक-रुक के संभलते क्यों हैं
इतना डरते हैं तो फिर घर से निकलते क्यों हैं
मैं न जुगनू हूँ, दिया हूँ न कोई तारा हूँ
रोशनी वाले मेरे नाम से जलते क्यों हैं
नींद से मेरा त'अल्लुक़ ही नहीं बरसों से
ख्वाब आ आ के मेरी छत पे टहलते क्यों हैं
मोड़ होता है जवानी का संभलने के लिए
और सब लोग यहीं आके फिसलते क्यों हैं
***********************
लेबल:
ग़ज़ल
शनिवार, 19 जुलाई 2008
सूरदास के रूहानी नग़मे /शैलेश ज़ैदी [क्रमशः 2]
[ 8 ]
जाकौ मन लाग्यौ नन्दलालहिं ताहि और नहिं भावै हो.
जौ लौ मीन दूध मैं डारै बिनु जल नहिं सचु पावै हो.
अति सुकुमार डोलै रस भीनौ सो रस जाहि पियावै हो.
ज्यों गूंगौ गुर खाई अधिक रस सुख सवाद न बतावै हो.
जैसे सरिता मिलै सिन्धु कौ बहुरि प्रवाह न आवै हो.
ऐसे सूर कमल लोचन तैं चित नहिं अनत डुलावै हो.
नन्द के लाल से लौ जिसने लगाई हो उसे और कुछ अच्छा न लगे
जैसे मछली को अगर दूध में डालो तो वो बे आब के ज़िन्दा न लगे
जैसे पीने पे मए-इश्क़ नशा ऐसा चढ़े हाजते-दुनिया न लगे
जैसे गूंगे को मज़ा गुड की हलावत का बताने की भी पर्वा न लगे.
जैसे मिलते ही समंदर में नदी अपनी रवानी से भी बेगानः लगे.
'सूर' वैसे ही कमल जैसे नयन वाले से मुंह मोड़ना ज़ेबा न लगे.
[ 9 ]
प्रभूजी ! मोरे औगुन चित न धरौ.
सम दरसी है नाम तुम्हारौ, सोई पार करौ.
इक लोहा पूजा मैं राखत, इक घर बधिक परौ.
सो दुबिधा पारस नहिं जानत, कंचन करत खरौ.
इक नदिया इक नार कहावत, मैलौ नीर भरौ.
जब मिलिगे तब एक बरन है, गंगा नाम परौ.
तन माया जिउ ब्रह्म कहावत, सूर सु मिलि बिगरौ.
कै इनकौ निर्धार कीजियै, कै प्रन जात टरौ.
यारब ! मेरी खताओं पे मत कीजियो निगाह.
यकसां सभी को चाहते हैं आप या इलाह
औरों के साथ बख्शियो मेरे भी सब गुनाह.
इक लोहा वो है रखते हैं पूजा में सब जिसे
इक लोहा वो भी है जिसे दुनिया छुरी कहे.
पारस ये फर्क करना नहीं जानता कभी.
सोना बना के करता है दोनों को क़ीमती.
पानी है वो भी जो है नदी में रवां-दवां
पानी ही गंदे नालों में लेता है हिचकियाँ
दरिया में जाके दोनों ही दरिया सिफ़त हुए
गंगा का नाम पा गए गंगा-सिफ़त हुए.
जिस्मे-बशर को कहते हैं फ़ानी तमाम लोग.
पर रूह को हैं देते बक़ा का मक़ाम लोग
ऐ 'सूर' ! कीजिये भी खुदारा ये फ़ैसला.
इक साथ रहके दोनों हैं कैसे जुदा-जुदा ?
बिगडे कहीं न बात मसावात के बगैर.
रहमत पे आंच आये न यारब हो सब की खैर.
[ 10 ]
अब हौं सब दिसि हेरि रह्यौ.
राखत नाहिं कोऊ करुनानिधि, अति बल ग्राह गह्यौ.
सुर नर सब स्वारथ के गाहक, कत सम आनि करै.
उडगन उदित तिमिर नहिं नासत, बिन रवि रूप धरै.
इतनी बात सुनत करुनामय, चक्र गहे कर धाए.
हति गज सत्रु सूर के स्वामी, ततछन सुख उपजाए.
अब मैं तलाश करके हरेक सिम्त थक गया.
ऐ साहिबे-करम ! न कोई काम आ सका.
ताक़त से गर्दिशों ने शिकंजे में कस लिया.
इंसानों-देवता जो मिले, ख़ुदग़रज़ मिले.
ज़हमत कोई हमारे लिए क्यों भला करे.
मिटता नहीं अँधेरा तुलूए-नुजूम से
जब निकले आफ़ताब उजाला हो धूम से.
सुनते ही इतनी बात, रहीमी को आया जोश
हाथों में चक्र लेके उडाये सभी के होश.
दुश्मन था फीलतन उसे फ़िल्फ़ौर मारकर.
आका ने 'सूर' बख्श दीं खुशियाँ तमामतर.
[ 11 ]
स्याम गरीबन हूँ के गाहक.
दीनानाथ हमारे ठाकुर, सांचे प्रीति निबाहक.
कहा बिदुर की जाति पाति कुल, प्रेम प्रीति के लाहक.
कह पांडव के घर ठकुराई, अर्जुन के रथ बाहक.
कहा सुदामा कै धन हौं तो, सत्य प्रीति के बाहक.
'सूरदास' सठ तातैं हरि भजि, आरत के दुःख दाहक.
घनश्याम हैं ग़रीबों के बेमिस्ल खैरख्वाह.
मुहताज उनको अपना समझते हैं बादशाह.
आका बनाए रखते हैं उल्फत की रस्मो-राह.
क्या था बिदुर का कौमों-क़बीलाओ-खानदान
आका को उसके प्यार से था प्यार बे पनाह
मालिक नहीं थे दौलतो-सर्वत के पांडव
अर्जुन के रथ को हांक रहे थे बलंद्जाह.
गुरबत में कट रही थी सुदामा की जिंदगी.
आका ने उसके साथ किया प्यार से निबाह.
कहते हैं 'सूर' करले हरी का भजन बद-अक्ल.
दुःख जलके राख होंगे, धुलेंगे सभी गुनाह.
[ 12 ]
बिनती करत मरत हौं लाज.
नख सिख लौं मेरी यह देही, है अति पाप जहाज.
और पतित आवत न आंखितर, देखत अपनौ साज.
तीनौं पन भरि ओर निबाह्यो, तऊ न आयो बाज.
पाछे भयो न आगैं ह्वैहै, सब पतितन सिरताज.
नरकौ भज्यो नाम सुनि मेरौ, पीठि दई जमराज.
अबलौं नान्हे नून्हे तारे, सब स्रम बृथा अकाज.
साँचे बिरद 'सूर' के तारत, लोकनि लोक अवाज.
शर्म आती है मुझे आपसे मिन्नत करते.
जिस्म ये पाँव से सर तक है गुनाहों का जहाज़.
मुझ सा बदकार जहाँ में नहीं मिलता कोई.
देखता जब हूँ मैं जीने के सब अपने अंदाज़.
मैंने बचपन में, जवानी में, बुढापे में सदा.
खूब जमकर किए छोटे-बड़े कितने ही गुनाह.
आज भी आता नहीं अपने तरीकों से मैं बाज़.
न हुआ पहले न आइन्दा कभी होगा कोई.
मैं हूँ सरताज जहाँ भर के गुनाहगारों का.
नाम सुनकर मेरा दोज़ख को भी डर लगता है.
मलकुल्मौत भी पास आने से घबराते हैं.
आजतक आपने बेकार ही ज़हमत की है.
छोटे-मोटे से गुनाहगारों पे रहमत की है.
'सूर' पर रहमो-करम हो तो कोई बात बने.
आप कहलायेंगे रहमान सही मानों में.
गूँज उटठेगी सदा ख़ल्क़ के काशानों में.
[ 13 ]
हरि सौं ठाकुर और न जन कौ.
जिहिं जिहिं बिधि सेवक सुख पावै, तिहिं बिधि राखत मन कौं.
भूख भये भोजन जु उदर कौं, तृषा तोय पट तन कौं.
लग्यो फिरत सुरभी ज्यों सुत संग, औचट गुनि गृह बन कौं.
परम उदार चतुर चिंतामनि , कोटि कुबेर निधन कौं.
राखत है जन को परतिज्ञा, हाथ पसारत कन कौं.
संकट परें तुरत उठि धावत, परम सुभट निज पन कौं.
कोटिक करै एक नहि मानै, सूर महा कृतघन कौं.
हरी जैसा नहीं कोई अवामुन्नास का आक़ा
खुशी बन्दे को जैसे भी मिले रखते हैं दिल उसका
शिकम की भूख मिट जाए, गिज़ा की इसलिए पैदा
बनाया आब ताके रह न जाए कोई भी प्यासा
बरहना जिस्म ढक देते हैं कपडों से मेरे मौला
लगी रहती है जैसे गाय हरदम साथ बछडों के
सताते हैं उसे जंगल में घर की फ़िक्र के झोंके
बहोत हैं नर्म दिल, हिकमत में यकता, बंदा-परवर हैं
ग़रीबों के लिए आक़ा कुबेरों से भी बढ़कर हैं
जो बन्दे हाथ फैलाते हैं, रखते हैं भरम उनका
मुसीबत में हैं आते दौड़कर, वादे के हैं पुख्ता
करोड़ों नेकियों के बाद भी ऐ 'सूर' दुनिया में
जो हैं कमज़र्फ़ एहसाँ मानते हरगिज़ नहीं उनका.
[ 14 ]
प्रभु हौं बड़ी बेर कौ ठाढौ
और पतित तुम जैसे तारे, तिनही मैं लिखि काढौ
जुग जुग बिरद यहै चलि आयै, टेरि कहत हौं यातैं.
मरियत लाज पाँच पतितनि मैं, हौं अब कहौं घटी कातैं.
कै प्रभु हारि मानि कै बैठौ, कै करौ बिरद सही.
'सूर' पतित जौ झूठ कहत है, देखौ खोजि बही.
खुदाया मैं करम का हूँ तुम्हारे मुंतज़िर कब से.
शिफाअत और बदकारों की तुमने जिस तरह की है.
शिफाअत मेरी भी कर दो मेरे आक़ा उसी ढब से.
अज़ल से सब तुम्हारी रहमतों का ज़िक्र करते हैं.
जभी तो हम भी बख्शिश के लिए फरियाद करते हैं.
हया से मर रहा हूँ आसियों की इस जमाअत में.
नहीं कमतर किसी से, देर फिर क्यों है शिफाअत में.
या अपनी हार को तस्लीम करके बैठ जा यारब.
या फिर शाने- करीमीं का कोई जलवा दिखा यारब.
ग़लत कहता हूँ मैं गर 'सूर' ख़ुद को आसिए- बदतर.
तो फिर आमाल मेरा देख ले तू खोलकर दफ़्तर.
*************************क्रमशः
जाकौ मन लाग्यौ नन्दलालहिं ताहि और नहिं भावै हो.
जौ लौ मीन दूध मैं डारै बिनु जल नहिं सचु पावै हो.
अति सुकुमार डोलै रस भीनौ सो रस जाहि पियावै हो.
ज्यों गूंगौ गुर खाई अधिक रस सुख सवाद न बतावै हो.
जैसे सरिता मिलै सिन्धु कौ बहुरि प्रवाह न आवै हो.
ऐसे सूर कमल लोचन तैं चित नहिं अनत डुलावै हो.
नन्द के लाल से लौ जिसने लगाई हो उसे और कुछ अच्छा न लगे
जैसे मछली को अगर दूध में डालो तो वो बे आब के ज़िन्दा न लगे
जैसे पीने पे मए-इश्क़ नशा ऐसा चढ़े हाजते-दुनिया न लगे
जैसे गूंगे को मज़ा गुड की हलावत का बताने की भी पर्वा न लगे.
जैसे मिलते ही समंदर में नदी अपनी रवानी से भी बेगानः लगे.
'सूर' वैसे ही कमल जैसे नयन वाले से मुंह मोड़ना ज़ेबा न लगे.
[ 9 ]
प्रभूजी ! मोरे औगुन चित न धरौ.
सम दरसी है नाम तुम्हारौ, सोई पार करौ.
इक लोहा पूजा मैं राखत, इक घर बधिक परौ.
सो दुबिधा पारस नहिं जानत, कंचन करत खरौ.
इक नदिया इक नार कहावत, मैलौ नीर भरौ.
जब मिलिगे तब एक बरन है, गंगा नाम परौ.
तन माया जिउ ब्रह्म कहावत, सूर सु मिलि बिगरौ.
कै इनकौ निर्धार कीजियै, कै प्रन जात टरौ.
यारब ! मेरी खताओं पे मत कीजियो निगाह.
यकसां सभी को चाहते हैं आप या इलाह
औरों के साथ बख्शियो मेरे भी सब गुनाह.
इक लोहा वो है रखते हैं पूजा में सब जिसे
इक लोहा वो भी है जिसे दुनिया छुरी कहे.
पारस ये फर्क करना नहीं जानता कभी.
सोना बना के करता है दोनों को क़ीमती.
पानी है वो भी जो है नदी में रवां-दवां
पानी ही गंदे नालों में लेता है हिचकियाँ
दरिया में जाके दोनों ही दरिया सिफ़त हुए
गंगा का नाम पा गए गंगा-सिफ़त हुए.
जिस्मे-बशर को कहते हैं फ़ानी तमाम लोग.
पर रूह को हैं देते बक़ा का मक़ाम लोग
ऐ 'सूर' ! कीजिये भी खुदारा ये फ़ैसला.
इक साथ रहके दोनों हैं कैसे जुदा-जुदा ?
बिगडे कहीं न बात मसावात के बगैर.
रहमत पे आंच आये न यारब हो सब की खैर.
[ 10 ]
अब हौं सब दिसि हेरि रह्यौ.
राखत नाहिं कोऊ करुनानिधि, अति बल ग्राह गह्यौ.
सुर नर सब स्वारथ के गाहक, कत सम आनि करै.
उडगन उदित तिमिर नहिं नासत, बिन रवि रूप धरै.
इतनी बात सुनत करुनामय, चक्र गहे कर धाए.
हति गज सत्रु सूर के स्वामी, ततछन सुख उपजाए.
अब मैं तलाश करके हरेक सिम्त थक गया.
ऐ साहिबे-करम ! न कोई काम आ सका.
ताक़त से गर्दिशों ने शिकंजे में कस लिया.
इंसानों-देवता जो मिले, ख़ुदग़रज़ मिले.
ज़हमत कोई हमारे लिए क्यों भला करे.
मिटता नहीं अँधेरा तुलूए-नुजूम से
जब निकले आफ़ताब उजाला हो धूम से.
सुनते ही इतनी बात, रहीमी को आया जोश
हाथों में चक्र लेके उडाये सभी के होश.
दुश्मन था फीलतन उसे फ़िल्फ़ौर मारकर.
आका ने 'सूर' बख्श दीं खुशियाँ तमामतर.
[ 11 ]
स्याम गरीबन हूँ के गाहक.
दीनानाथ हमारे ठाकुर, सांचे प्रीति निबाहक.
कहा बिदुर की जाति पाति कुल, प्रेम प्रीति के लाहक.
कह पांडव के घर ठकुराई, अर्जुन के रथ बाहक.
कहा सुदामा कै धन हौं तो, सत्य प्रीति के बाहक.
'सूरदास' सठ तातैं हरि भजि, आरत के दुःख दाहक.
घनश्याम हैं ग़रीबों के बेमिस्ल खैरख्वाह.
मुहताज उनको अपना समझते हैं बादशाह.
आका बनाए रखते हैं उल्फत की रस्मो-राह.
क्या था बिदुर का कौमों-क़बीलाओ-खानदान
आका को उसके प्यार से था प्यार बे पनाह
मालिक नहीं थे दौलतो-सर्वत के पांडव
अर्जुन के रथ को हांक रहे थे बलंद्जाह.
गुरबत में कट रही थी सुदामा की जिंदगी.
आका ने उसके साथ किया प्यार से निबाह.
कहते हैं 'सूर' करले हरी का भजन बद-अक्ल.
दुःख जलके राख होंगे, धुलेंगे सभी गुनाह.
[ 12 ]
बिनती करत मरत हौं लाज.
नख सिख लौं मेरी यह देही, है अति पाप जहाज.
और पतित आवत न आंखितर, देखत अपनौ साज.
तीनौं पन भरि ओर निबाह्यो, तऊ न आयो बाज.
पाछे भयो न आगैं ह्वैहै, सब पतितन सिरताज.
नरकौ भज्यो नाम सुनि मेरौ, पीठि दई जमराज.
अबलौं नान्हे नून्हे तारे, सब स्रम बृथा अकाज.
साँचे बिरद 'सूर' के तारत, लोकनि लोक अवाज.
शर्म आती है मुझे आपसे मिन्नत करते.
जिस्म ये पाँव से सर तक है गुनाहों का जहाज़.
मुझ सा बदकार जहाँ में नहीं मिलता कोई.
देखता जब हूँ मैं जीने के सब अपने अंदाज़.
मैंने बचपन में, जवानी में, बुढापे में सदा.
खूब जमकर किए छोटे-बड़े कितने ही गुनाह.
आज भी आता नहीं अपने तरीकों से मैं बाज़.
न हुआ पहले न आइन्दा कभी होगा कोई.
मैं हूँ सरताज जहाँ भर के गुनाहगारों का.
नाम सुनकर मेरा दोज़ख को भी डर लगता है.
मलकुल्मौत भी पास आने से घबराते हैं.
आजतक आपने बेकार ही ज़हमत की है.
छोटे-मोटे से गुनाहगारों पे रहमत की है.
'सूर' पर रहमो-करम हो तो कोई बात बने.
आप कहलायेंगे रहमान सही मानों में.
गूँज उटठेगी सदा ख़ल्क़ के काशानों में.
[ 13 ]
हरि सौं ठाकुर और न जन कौ.
जिहिं जिहिं बिधि सेवक सुख पावै, तिहिं बिधि राखत मन कौं.
भूख भये भोजन जु उदर कौं, तृषा तोय पट तन कौं.
लग्यो फिरत सुरभी ज्यों सुत संग, औचट गुनि गृह बन कौं.
परम उदार चतुर चिंतामनि , कोटि कुबेर निधन कौं.
राखत है जन को परतिज्ञा, हाथ पसारत कन कौं.
संकट परें तुरत उठि धावत, परम सुभट निज पन कौं.
कोटिक करै एक नहि मानै, सूर महा कृतघन कौं.
हरी जैसा नहीं कोई अवामुन्नास का आक़ा
खुशी बन्दे को जैसे भी मिले रखते हैं दिल उसका
शिकम की भूख मिट जाए, गिज़ा की इसलिए पैदा
बनाया आब ताके रह न जाए कोई भी प्यासा
बरहना जिस्म ढक देते हैं कपडों से मेरे मौला
लगी रहती है जैसे गाय हरदम साथ बछडों के
सताते हैं उसे जंगल में घर की फ़िक्र के झोंके
बहोत हैं नर्म दिल, हिकमत में यकता, बंदा-परवर हैं
ग़रीबों के लिए आक़ा कुबेरों से भी बढ़कर हैं
जो बन्दे हाथ फैलाते हैं, रखते हैं भरम उनका
मुसीबत में हैं आते दौड़कर, वादे के हैं पुख्ता
करोड़ों नेकियों के बाद भी ऐ 'सूर' दुनिया में
जो हैं कमज़र्फ़ एहसाँ मानते हरगिज़ नहीं उनका.
[ 14 ]
प्रभु हौं बड़ी बेर कौ ठाढौ
और पतित तुम जैसे तारे, तिनही मैं लिखि काढौ
जुग जुग बिरद यहै चलि आयै, टेरि कहत हौं यातैं.
मरियत लाज पाँच पतितनि मैं, हौं अब कहौं घटी कातैं.
कै प्रभु हारि मानि कै बैठौ, कै करौ बिरद सही.
'सूर' पतित जौ झूठ कहत है, देखौ खोजि बही.
खुदाया मैं करम का हूँ तुम्हारे मुंतज़िर कब से.
शिफाअत और बदकारों की तुमने जिस तरह की है.
शिफाअत मेरी भी कर दो मेरे आक़ा उसी ढब से.
अज़ल से सब तुम्हारी रहमतों का ज़िक्र करते हैं.
जभी तो हम भी बख्शिश के लिए फरियाद करते हैं.
हया से मर रहा हूँ आसियों की इस जमाअत में.
नहीं कमतर किसी से, देर फिर क्यों है शिफाअत में.
या अपनी हार को तस्लीम करके बैठ जा यारब.
या फिर शाने- करीमीं का कोई जलवा दिखा यारब.
ग़लत कहता हूँ मैं गर 'सूर' ख़ुद को आसिए- बदतर.
तो फिर आमाल मेरा देख ले तू खोलकर दफ़्तर.
*************************क्रमशः
लेबल:
काव्यानुवाद ; शैलेश ज़ैदी
शुक्रवार, 18 जुलाई 2008
कहैं एक एकन सों कहाँ जाई का करी ? [तुलसी] / प्रो. शैलेश ज़ैदी
कितनी बेचैनी और छटपटाहट है तुलसी की इस पंक्ति में – “कहैं एक एकन सों कहाँ जाई का करी ?” और यह छटपटाहट जीविका विहीन लोगों की है. उन लोगों की है जो यदि किसान हैं तो उनकी स्थिति ‘पूस की रात’ के हलकू से भी कहीं अधिक दयनीय है. हलकू भले ही तीन रूपए का कम्बल न खरीद पाया हो, और पूस की रात में सरदी से ठिठुर गया हो, पर वह इस अनुभव से नहीं गुज़रा - 'आगि बड़वागि तें बड़ी है आगि पेट की'. उसके सामने कम-से-कम एक रास्ता तो है, खेती नहीं न सही, कहीं मजदूरी कर लेगा. किंतु ये वो लोग हैं जिनके सामने कोई रास्ता भी नहीं है -'खेती न किसान को, भिखारी को न भीख भली / बनिक को बनिज, न चाकर को चाकरी.' हो सकता है की तुलसी के पाठक यह समझते हों कि महामारी और दुर्भिक्ष जैसी प्राकृतिक आपदाओं ने यह स्थिति पैदा कर दी हो, किंतु तथ्य यह नहीं है. तथ्य यदि ऐसा होता और केवल दुर्भिक्ष या महामारी की बात होती, तो इन विपत्तियों के घेरे में खड़े होकर तुलसी कुछ वैसी ही बात करते जैसी ब्रेख्त ने 1945 के जर्मनी के विषय में की थी - 'घरों के भीतर प्लेग से मौत है / घरों के बाहर ठण्ड से मौत है / तब हमारा ठिकाना कहाँ हो ?
ब्रेख्त की इन पंक्तियों ने मुझे 1985 की अपनी एक ग़ज़ल का एक शेर याद दिला दिया - 'बारिश से बच बचा के जो घर में पनाह लूँ / हर सिम्त से मकान टपकता दिखायी दे.' यहाँ भी स्थिति वही है कि ठिकाना कहीं नहीं है. न गैरों के बीच न अपनों के बीच. कहाँ जाएँ ? क्या करें ? किंतु तुलसी के यहाँ जो बे-ठिकाना लोग हैं, वह भूख से पीड़ित हैं. बेरोज़गारी ने उन्हें पूरी तरह तोड़ दिया है. ऐसा नहीं है कि उनकी आंखों के सामने पेट भरे लोग नहीं हैं. हैं और भारी संख्या में हैं. उन्होंने ख़ुद अपनी आंखों से देखा है कि - 'छाछी को ललात जे वे राम नाम के प्रसाद / खात खुनसात सोंधे दूध की मलाई हैं.' यह ऐसा ही है जैसे दुनिया भर के काले धंधे करके लोग बड़े- बड़े प्रासाद खड़े कर लेते हैं और इसे भगवान की कृपा बताते हैं. तुलसी भली प्रकार जानते हैं की "ऊंच-नीच करम, धरम अधरम करि" भूख और बेरोज़गारी मिटायी जा सकती है. किंतु उन्हें यह मार्ग अपनाना पसंद नहीं है. ब्रेख्त को भी पसंद नहीं है. - 'मेरा कुछ भी करना / मुझे भर पेट खाने का हक नहीं देता / संयोग है कि मैं बच गया हूँ / वे कहते हैं मुझसे खाओ-पियो, मस्त रहो / है तो सब कुछ / पर कैसे खाऊं-पियूँ / कैसे खा सकता हूँ वह / जिसे छीना गया है किसी भूखे से / और मेरा पानी का गिलास / किसी प्यास से मरने वाले का है.' हो सकता है कि तुलसी के समक्ष भी यही स्थिति रही हो. किंतु उनका स्वभाव अपने भीतर क्रान्ति की वह चिंगारी न भर सका हो जो इक़बाल या ब्रेख्त के स्वभाव में थी. इक़बाल ने तो स्पष्ट शब्दों में कह दिया "जिस खेत से दहकाँ (किसान) को मयस्सर न हो रोज़ी / उस खेत के हर खोशए-गंदुम (गेहूं की बाली) को जला दो." ब्रेख्त ने भी कहा है - "जब मैं शहर आया / वहाँ गड़बड़ थी / भूख का राज्य था / मैं लोगों के बीच विद्रोह के समय आया / और उन्हीं के साथ कर बैठा विद्रोह."
तुलसी की मनःस्थिति गोदान के होरी की मनःस्थिति से भिन्न नहीं है. होरी गोबर को समझाता है कि जवानी में विद्रोह की उठान उसके मन में भी थी, किंतु समय के थपेडों ने उसे शिथिल कर दिया. ऐसा नहीं है कि विद्रोह के भाव होरी के यहाँ बिल्कुल मुर्दा हो चुके हैं. पर इतने वर्षों तक मर-खप कर उसने जो अनुभव प्राप्त किए हैं, उनके आधार पर वह बेटे के विद्रोह भाव को दबाना चाहता है. इसलिए वह गोबर के समक्ष बार-बार भगवान का सहारा लेता है - 'भगवान ने जब गुलाम बना दिया है तो अपना क्या बस है ?' तुलसी भी ऊंचो मन, ऊंची रूचि, भाग नीचो निपट ही' की विवशता स्वीकार करते हुए 'साहिब समर्थ को सुसेवक' बने रहना चाहते हैं और स्पष्ट शब्दों में कहते हैं - 'बचन बनाई कहौं, हौं गुलाम राम को.'
तुलसी की विडम्बना यह है कि "बड़े कुसमाज राज आजु लौं जो पाये दिन" किंतु दोष किसे दिया जाय ? कलिकाल ने तो सम्पूर्ण सृष्टि में गडबडी फैला रखी है- "कासौं कीजे रोष ? दीजै दोष काहि ? पाहि राम / कियो कलिकाल कुलि खलल, खलक ही" और यह कलिकाल कुछ और नहीं है, आपाधापी और घपलों का नाम है. मर्यादाओं को ताक पर रख देने का नाम है. अयोग्य व्यक्तियों के सुयोग्य कहे जाने का नाम है. दूसरों के मुंह से कौर छीन कर अपनी तिजोरियां भरते रहने का नाम है. किंतु "समरथ को नहिं दोस गुसाईं" कहकर चुप्पी साध लेना तुलसी के स्वभाव की सीमा नहीं है. वे चाहते तो पंडित राज जगन्नाथ की भांति "दिल्लीश्वरो वा जगदीश्वरो वा" का कलियुगीन भजन गा सकते थे. किंतु उन्होंने "पाणौ महाशायक चारु चापं" तथा "अतुलित बलधामं हेम शैलाभ देहं" का स्मरण किया. यह शक्ति जगाने का एक प्रयास नहीं है तो और क्या है ? "बीर बिहीन मही मैं जानी" का उदघोष करके ऐसा ही एक प्रयास राजा जनक ने भी किया था.
वस्तुतः तुलसीयुगीन यथार्थ आजके यथार्थ से बहुत भिन्न नहीं है. समस्या यह है कि आज ही की तरह तुलसीयुगीन राज्य की स्थिति शतरंज की बिसात जैसी है जिसकी सभी चालें उन लोगों के हाथ में हैं जो मर्यादा-विहीन हैं. जिनके लिए नैतिक मूल्यों का कोई अर्थ नहीं है. अब समस्या उनकी है जो इस संसार को ईश्वर द्बारा रचित 'बाज़ी' या खेल समझते हैं. ऐसे लोगों को थक-हार कर भाग्यवाद में ही शरण लेनी पड़ती है. उर्दू कवि मीर तक़ी मीर जब यह कहते हैं " नाहक़ हम मजबूरों पर यह तुहमत है मुख्तारी की / जो चाहें सो आप करे हैं हमको अबस बदनाम किया." तो प्रतीत होता है कि यह मनुष्य हर दृष्टि से बेबस और मजबूर है. इसके अधिकार में कुछ नहीं है. ईश्वर की इच्छा के बगैर एक पत्ता भी नहीं हिल सकता.यहाँ अकर्मण्यता और नैराश्य को बढ़ावा मिलता है. किंतु मिर्जा गालिब जब कहते हैं "बाजीचए-अतफ़ाल है दुनिया मेरे आगे / होता है शबो-रोज़ तमाशा मेरे आगे."तो खेल और तमाशे की स्थिति बदल जाती है. दुनिया को बच्चों का खेल समझने वाला कवि अपने परिपक्व होने का न केवल रेखांकन करता है, अपितु हस्तक्षेप करने के अपने अधिकार को भी अक्षुण रखता है.
हस्तक्षेप तो तुलसी भी करना चाहते है. किंतु शतरंज रुपी राज्य की बिसात उन्होंने पहले कभी नहीं देखी. इस बिसात पर खेलने वालों ने सम्पूर्ण समाजको काठ के मुहरों की तरह निष्प्राण बना दिया है. "सतरंज को सो राज, काठ को सबै समाज / महाराज बाजी रची प्रथम न हती." अब यह 'महाराज' यदि स्वयं परमात्मा हैं जिनका काम ही बाज़ी रचते रहना है तो उन्होंने ऐसी बाज़ी तो पहले कभी नहीं रची. यह आश्चर्य और विस्मय की स्थिति है.किंतु यह 'महाराज' यदि युगीन शासक है, और शतरंज की बिसात यदि शासन-व्यवस्था है, तो ऐसी शासन व्यवस्था तो कभी देखने-सुनने में नहीं आई जिसने सम्पूर्ण समाज को काठ की तरह बेहिस और बेजान बना दिया हो. विचार-शून्य ! विवेक-शून्य ! अब ऐसे समाज में तुलसी विद्रोह की चिंगारी भरना भी चाहें तो किस प्रकार भरें. ?
ब्रिटिश राज्य के अत्याचारों को सहज रूप से झेलती हिन्दी कविता भी आह, कराह और रुदन की परिधियों में घूमती रही. क्रान्ति के स्वर से उसका साक्षात्कार नहीं हुआ. निराला की 'भिक्षुक' और 'तोड़ती पत्थर' जैसी कवितायेँ यथार्थ के स्तर पर स्टिल फोटोग्राफी करती अवश्य दिखायी दीं, किंतु पीठ से मिले पेट और भूख मिटाने के लिए मुट्ठी भर दाने की तलाश में लकुटिया टेकते भिक्षुक तथा श्यामल शरीर, भरे-बंधे यौवन और झुकी आंखों के साथ निरंतर हथौडा चलाती स्त्री में सौन्दर्य का परमोत्कर्ष ही देखती रहीं. विद्रोह या क्रान्ति की कोई चिनगारी इन कविताओं के भीतर से नहीं फूटती.
आज़ादी के बाद जिस उच्च शिक्षा प्रणाली ने हमारे बीच स्थान बनाया उसमें अंग्रेजों के बाद कुछ भी नया जोड़ने का प्रयास हमने नहीं किया. और इस आज़ादी को हथियाने वाले गिने-चुने लोगों ने शतरंज की बिसात कुछ ऐसी बिछाई की तुलसीयुगीन बिसात भी इसके सामने तुच्छ पड़ गई. इस देश में शताब्दियों से विभिन्न जातियों के लोग अपनी परंपरागत प्रतिभा, क्षमता, कला और शिल्प की विशिष्टता और पहचान के साथ आपसी सहयोग से एक-दूसरे का दुःख-सुख बाँटते हुए जिंदगी जी रहे थे. जातियाँ यहाँ सामजिक और प्रशासनिक व्यवस्था को कायम रखने के लिए थीं. इनमें जाती-प्रथा की गंध न होकर सामजिक व्यवस्था की ध्वनि थी. वर्ण के नाम पर उच्च और निम्न का ब्राहमणों द्वारा निर्मित भेद अवश्य था. किंतु सामाजिक व्यवस्था में निम्न वर्ण का योग कुछ कम नहीं था. ब्रिटिश राज्य में हलकी सी जागरूकता का लाभ उठाकर निम्न वर्णों ने अपनी निरंतर अपमान सहती छवि कुछ ठीक करने का प्रयास किया. ज्योतिबा फूले और डॉ. अम्बेडकर के प्रयास से इन्हें खुली हवा का एहसास हुआ. देश की राजनीति में हिन्दुओं मुसलामानों के पलडे को हलका और भारी करने की इनकी भूमिका स्पष्ट दिखायी देने लगी.
1932 की गोलमेज़ कांफ्रेंस के स्थगित किए जाने के बाद ब्रिटेन के प्रधानमंत्री मैकडोनाल्ड ने ईसाइयों, मुसलामानों और सिखों की तरह अछूतों के लिए कम्युनल एवार्ड की घोषणा की और पृथक निर्वाचन मंडल की स्थापना पर बल दिया. उन्हें आम हिन्दुओं से इतर एक अल्पसंख्यक समूह मानकर सुरक्षित स्थानों से पृथक प्रतिनिधित्व का अधिकार दिया गया. गांधीजी इस निर्णय से तिलमिला उठे. यदि सवर्ण हिन्दुओं से अलग हरिजनों की एक स्वतंत्र अल्पसंख्यक जाति बन गई, तो हिन्दुओं के लिए कल वही स्थिति आ सकती है जो आज मुसलामानों को लेकर है. गांधीजी की सोंच का आधार यही था. इसलिए 20 सितम्बर 1932 से उन्होंने हरिजनों के आग प्रतिनिधित्व की योजना को रोकने के लिए अनशन प्रारम्भ कर दिया और साथ ही आत्मदाह करने तक की घोषणा कर दी. शीघ्र ही 'पूना पैक्ट' के रूप में उन्हें सफलता मिली और हिन्दुओं की जनरल सीटों में ही हरिजनों के संरक्षण की व्यवस्था की गई. हरिजन भी प्रसन्न हो गए कि उनका प्रतिनिधित्व प्रायः दूना हो गया. उच्च वर्णों और हरिजनों के प्रतिनिधियों ने पैक्ट पर हस्ताक्षर कर दिए. अब सरकार को भला क्या आपत्ति हो सकती थी. हरिजन संतुष्ट कि उन्हें हिंदू मान लिया गया. सवर्ण संतुष्ट कि मुसलामानों के प्रतिनिधित्व की तुलना में उनकी शक्ति क्षीण होने से बच गई.
किंतु यह पैक्ट हरिजनों की समस्या को सुला देने की एक आकर्षक लोरी से अधिक कुछ नहीं था. फलस्वरूप आधुनिक भारत में हरिजन कहे जाने वाले हिंदू न तो परंपरागत भारतीय जाति-व्यवस्था का ही अंग बने रह सके न सवर्ण हिन्दुओं के बीच सम्मान पूर्वक सिर उठाकर चलने योग्य माने गए. हाँ इतना अवश्य हुआ कि उनको व्यवस्थित रखने के लिए उनके लिए आरक्षण की पन्द्रह वर्ष की सुनिश्चित अवधि, समय-समय पर बढ़ाई जाती रही और स्वाधीन भारत में मुसलामानों की भांति (पाकिस्तान बन जाने के कारण) आरक्षण के अधिकार से वंचित नहीं किए गए. कदाचित इसी लिए वे कभी बौद्ध, कभी ईसाई और कभी मुसलमान बन जाने की धमकी देकर वर्चस्ववादी सवर्ण हिन्दुओं को तिलमिला देते हैं और अपनी बहुत सी मांगें मनवा लेने में सक्षम हैं.
1947 से पूर्व का भारत का जो भी इतिहास उपलब्ध है उससे यही संकेत मिलता है कि यवनों, हूणों, शकों, कुषाणों, पहलवों, वाहलीकों, गुर्जरों, मौर्यों, गुप्तवंशजों, गोरियों, लोदियों, सैयदों, खिलजियों, मुगलों, डचों और अंग्रेजों आदि ने भले ही यहाँ शासन किया हो, किंतु यहाँ की जाति व्यवस्था को किसी ने गडमड करने का प्रयास नहीं किया. सभी ने शिल्पी और विशिष्ट कला सक्षम जातियों की उपयोगिता को समझा और प्रशासन की एक शक्ति के रूप में इनकी क्षमताओं और शिल्प-कौशल का न केवल लाभ उठाया अपितु इनके प्रति घृणा भाव कभी पनपने नहीं दिया.
आधुनिक शिक्षा संस्थाओं के आकर्षण ने जहाँ प्रत्येक जाति और व्यवसाय के व्यक्ति को उसका लाभ उठाने का अवसर दिया, वहीं धर्म, साहित्य, ज्योतिष, दर्शन, वैद्यक आदि की सैकड़ों वर्षों से परंपरागत शिक्षा का लाभ उठाने वाली जातियों ने इसे अपने विशेषाधिकार में हस्तक्षेप समझा. स्थिति यदि यही बनी रहती तो ब्राह्मणेतर जातियों को आधुनिक ज्ञान-विज्ञानं की शिक्षा का अधिकतम लाभ मिलने की संभावनाएं बनी रहतीं. किंतु कट्टरपंथी ब्राह्मण समुदाय के चक्रव्यूह को तोड़कर बंगाल और महाराष्ट्र के कुछ सिरफिरे भविष्य दर्शी ब्राहमणों ने आधुनिक शिक्षा और ज्ञान-विज्ञानं का लाभ उठाने की पहल की और छोटी समझी जाने वाली जातियों को आधुनिक शिक्षा का जितना लाभ मिलना चाहिए था उससे उन्हें लाभान्वित नहीं होने दिया.
बंगाल और महाराष्ट्र में चूँकि आधुनिक शिक्षा का प्रचार-प्रसार पहले हुआ इसलिए टकराव की स्थिति भी वहाँ पहले बनी. यह ठीक है कि इस स्थिति ने हरिजन कही जाने वाली तथा अन्य छोटी समझी जाने वाली जातियों में तेजस्वी और प्रतिभाशाली व्यक्तित्व पैदा किए. यह भी ठीक है कि सुविधा प्राप्त करके हरिजन और अन्य पिछड़ी जातियों के अनेक युवक प्रशासनिक तंत्र में उच्च पदों पर आसीन हुए और कहीं-कहीं अपनी सशक्त भूमिकाएं भी निभायीं.किंतु यह मुट्ठी भर ऊपर आए हुए लोग अपने जातिगत पेशे से जुड़े नीचे के लोगों से इतने कट गए कि इन 'क्रीमी लेयारों' को अलग करके देखने पर इनके परम्परागत पेशे से जुड़े लोगों की स्थिति और भी दयनीय हो गई.
भारत में आधुनिक शिक्षा का प्रारम्भ अंग्रेजों ने अपने निजी हितों को ध्यान में रखकर किया था. इसलिए इस देश की जाति-व्यवस्था को आधुनिक शिक्षा की पृष्ठभूमि में रख कर देखने की उन्हें आवश्यकता नहीं पड़ी. जहाँ एक ओर उन्होंने लडाका जातियों को पहचानते हुए उनकी क्षमता का समूचा लाभ उठाने के उद्देश्य से भारतीय सेना में 'राजपूत रेजिमेंट', 'गोरखा रेजिमेंट,' 'पठान रेजिमेंट,' और 'सिख रेजिमेंट बनाए वहीं इस तथ्य पर ध्यान नहीं दिया कि विभिन्न पेशों से जुड़ी जातियों को उनकी क्षमता से मेल खाती ज्ञान-विज्ञान की शाखाओं में यदि प्रोत्साहित किया जाय तो कहीं अधिक लाभ उठाया जा सकता है. उदाहरण स्वरूप यदि टेक्सटाइल से सम्बद्ध शिक्षा में बुनकरों को आरक्षण दिया जाय तो उनकी प्रतिभा अधिक निखर कर सामने आएगी. आज़ादी के बाद अंग्रेजों की दी हुई शिक्षा प्रणाली को ज्यों-का-त्यों लागू रखा गया, इसलिए भारतीय सरकार की दृष्टि भी इस तथ्य की ओर नहीं गई. हाँ पाकिस्तान बन जाने और मुसलामानों की 'वतन-परस्ती' को संदेह की दृष्टि से देखे जाने के कारण भारतीय सेना से 'पठान रेजिमेंट' का अस्तित्व समाप्त हो गया. सिखों पर जब संदेह किया गया तो सेना में उनकी भरती का प्रतिशत भी बहुत घटा दिया गया. हाँ ब्राह्मण जैसी जाति, जिसका युद्धभूमि से कभी दूर का रिश्ता भी नहीं था,परिस्थितियों का लाभ उठाकर सेना के उच्च-से-उच्च पदों पर जमकर बैठ गई.
मशीनीकरण और औद्योगिक विकास का लाभ उठाकर स्वतंत्र भारत में सवर्ण और संपन्न शिक्षित जातियों ने पेशों से जुड़ी जातियों के पेट पर लात मार दी और उनके मुंह का कौर भी छीन लिया. जुलाहे-बुनकर कपड़े बुनने में दक्ष थे. ब्राहमणों ठाकुरों आदि ने इस का और तकनीक से सम्बद्ध उच्च उपाधियां प्राप्त कीं और टेक्सटाइल इंजिनियर कहलाये. कुम्हारों के काम की उच्च योग्यता प्राप्त करके सिरेमिक्स इंजिनियर बने. गाँव में चमाइनें बच्चा पैदा करने और नाड़ काटने का काम करती थीं. वही काम जब एम्.बी.बी.एस. करके उच्च वर्ण की कन्याओं ने किया तो गाइनकलोजिस्ट कहलाईं. जर्राही का पेशा अपनाकर रक्त और मांस से घृणा करने वाली ब्राह्मण जाति की संतानें 'सर्जन' बन गयीं. चमडों का काम और जूते बनाना चमारों का व्यवसाय था. किंतु वही काम करके उच्च वर्ण के लोग लेदर इंजिनियर और शू टेकनालजिस्ट बन गए. और तो और हज्जामों नाइयों की रोटी छीनकर 'ब्यूटी पार्लर' खोले गए. रंगरेजों और धोबियों की रोज़ी पर लात मारकर सवर्ण संतानें 'डायर्स एंड ड्राईक्लीनार्स' बन गयीं.गोया पूरी कलात्मकता से शिल्पकारों को मजदूर में तब्दील कर दिया गया और उनके पेशे के सभी हुनर अपनाकर भी सवर्ण जातियाँ सवर्ण बनी रहीं.
कितनी विचित्र है आधुनिक भारत की शतरंज की यह बिसात जिसपर 'हरिजन समाज,' धोबी समाज', 'कुम्हार समाज,' जुलाहा-बुनकर समाज', 'लोहार समाज' गोया कि इस प्रकार के सभी शिल्पी समाज ऐसे काठ के मुहरे हैं जिन्हें बिसात से बाहर डाल दिया गया है. उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए जो वातावरण अपेक्षित था वह उन्हें दिया नहीं गया. वोकेशनल एजुकेशन के इंटीग्रेटेड प्रोग्राम उनके लिए बनाए नहीं गए. तुलसीदास यह स्थिति देखते तो शायद आज उन्हें फिर से कहना पड़ता- "महाराज बाजी रची प्रथम न हति." होना यह चाहिए था कि ज्ञान विज्ञानं साहित्य दर्शन ज्योतिष आदि की परंपरागत आधुनिक उच्च शिक्षा सवर्ण और साधन संपन्न जातियों के लिए विशिष्ट होती और वोकेशनल तथा तक्नीकीय शिक्षा की हाईस्कूल के बाद ही इंटिग्रेटेड ग्रेजुएट तथा पोस्ट ग्रेजुएट योजनाएं विभिन्न परंपरागत पेशों से जुड़ी जातियों के लिए विशिष्ट होतीं. फिर समाज में सभी का जीवन-स्तर एक साथ ऊपर उठता. किंतु हमारी शिक्षा योजनाओं ने इन जातियों की रही-सही कमर भी तोड़ दी. आज स्पांसर्ड सीट, एन.आर.आई. सीट और पेमेंट सीट के नाम पर वोकेशनल और तकनीकी शिक्षा संपन्न जातियों के घर की लौंडी बनकर रह गई है. छोटे किसान, बढई, धोबी, कुम्हार, बुनकर इत्यादि बेरोजगार होकर नई रोज़ी की तलाश में भूख से बिलबिला रहे हैं और तुलसी की इस उक्ति को चरितार्थ कर रहे हैं -"कहैं एक एकन सों कहाँ जाई का करी ?"
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ब्रेख्त की इन पंक्तियों ने मुझे 1985 की अपनी एक ग़ज़ल का एक शेर याद दिला दिया - 'बारिश से बच बचा के जो घर में पनाह लूँ / हर सिम्त से मकान टपकता दिखायी दे.' यहाँ भी स्थिति वही है कि ठिकाना कहीं नहीं है. न गैरों के बीच न अपनों के बीच. कहाँ जाएँ ? क्या करें ? किंतु तुलसी के यहाँ जो बे-ठिकाना लोग हैं, वह भूख से पीड़ित हैं. बेरोज़गारी ने उन्हें पूरी तरह तोड़ दिया है. ऐसा नहीं है कि उनकी आंखों के सामने पेट भरे लोग नहीं हैं. हैं और भारी संख्या में हैं. उन्होंने ख़ुद अपनी आंखों से देखा है कि - 'छाछी को ललात जे वे राम नाम के प्रसाद / खात खुनसात सोंधे दूध की मलाई हैं.' यह ऐसा ही है जैसे दुनिया भर के काले धंधे करके लोग बड़े- बड़े प्रासाद खड़े कर लेते हैं और इसे भगवान की कृपा बताते हैं. तुलसी भली प्रकार जानते हैं की "ऊंच-नीच करम, धरम अधरम करि" भूख और बेरोज़गारी मिटायी जा सकती है. किंतु उन्हें यह मार्ग अपनाना पसंद नहीं है. ब्रेख्त को भी पसंद नहीं है. - 'मेरा कुछ भी करना / मुझे भर पेट खाने का हक नहीं देता / संयोग है कि मैं बच गया हूँ / वे कहते हैं मुझसे खाओ-पियो, मस्त रहो / है तो सब कुछ / पर कैसे खाऊं-पियूँ / कैसे खा सकता हूँ वह / जिसे छीना गया है किसी भूखे से / और मेरा पानी का गिलास / किसी प्यास से मरने वाले का है.' हो सकता है कि तुलसी के समक्ष भी यही स्थिति रही हो. किंतु उनका स्वभाव अपने भीतर क्रान्ति की वह चिंगारी न भर सका हो जो इक़बाल या ब्रेख्त के स्वभाव में थी. इक़बाल ने तो स्पष्ट शब्दों में कह दिया "जिस खेत से दहकाँ (किसान) को मयस्सर न हो रोज़ी / उस खेत के हर खोशए-गंदुम (गेहूं की बाली) को जला दो." ब्रेख्त ने भी कहा है - "जब मैं शहर आया / वहाँ गड़बड़ थी / भूख का राज्य था / मैं लोगों के बीच विद्रोह के समय आया / और उन्हीं के साथ कर बैठा विद्रोह."
तुलसी की मनःस्थिति गोदान के होरी की मनःस्थिति से भिन्न नहीं है. होरी गोबर को समझाता है कि जवानी में विद्रोह की उठान उसके मन में भी थी, किंतु समय के थपेडों ने उसे शिथिल कर दिया. ऐसा नहीं है कि विद्रोह के भाव होरी के यहाँ बिल्कुल मुर्दा हो चुके हैं. पर इतने वर्षों तक मर-खप कर उसने जो अनुभव प्राप्त किए हैं, उनके आधार पर वह बेटे के विद्रोह भाव को दबाना चाहता है. इसलिए वह गोबर के समक्ष बार-बार भगवान का सहारा लेता है - 'भगवान ने जब गुलाम बना दिया है तो अपना क्या बस है ?' तुलसी भी ऊंचो मन, ऊंची रूचि, भाग नीचो निपट ही' की विवशता स्वीकार करते हुए 'साहिब समर्थ को सुसेवक' बने रहना चाहते हैं और स्पष्ट शब्दों में कहते हैं - 'बचन बनाई कहौं, हौं गुलाम राम को.'
तुलसी की विडम्बना यह है कि "बड़े कुसमाज राज आजु लौं जो पाये दिन" किंतु दोष किसे दिया जाय ? कलिकाल ने तो सम्पूर्ण सृष्टि में गडबडी फैला रखी है- "कासौं कीजे रोष ? दीजै दोष काहि ? पाहि राम / कियो कलिकाल कुलि खलल, खलक ही" और यह कलिकाल कुछ और नहीं है, आपाधापी और घपलों का नाम है. मर्यादाओं को ताक पर रख देने का नाम है. अयोग्य व्यक्तियों के सुयोग्य कहे जाने का नाम है. दूसरों के मुंह से कौर छीन कर अपनी तिजोरियां भरते रहने का नाम है. किंतु "समरथ को नहिं दोस गुसाईं" कहकर चुप्पी साध लेना तुलसी के स्वभाव की सीमा नहीं है. वे चाहते तो पंडित राज जगन्नाथ की भांति "दिल्लीश्वरो वा जगदीश्वरो वा" का कलियुगीन भजन गा सकते थे. किंतु उन्होंने "पाणौ महाशायक चारु चापं" तथा "अतुलित बलधामं हेम शैलाभ देहं" का स्मरण किया. यह शक्ति जगाने का एक प्रयास नहीं है तो और क्या है ? "बीर बिहीन मही मैं जानी" का उदघोष करके ऐसा ही एक प्रयास राजा जनक ने भी किया था.
वस्तुतः तुलसीयुगीन यथार्थ आजके यथार्थ से बहुत भिन्न नहीं है. समस्या यह है कि आज ही की तरह तुलसीयुगीन राज्य की स्थिति शतरंज की बिसात जैसी है जिसकी सभी चालें उन लोगों के हाथ में हैं जो मर्यादा-विहीन हैं. जिनके लिए नैतिक मूल्यों का कोई अर्थ नहीं है. अब समस्या उनकी है जो इस संसार को ईश्वर द्बारा रचित 'बाज़ी' या खेल समझते हैं. ऐसे लोगों को थक-हार कर भाग्यवाद में ही शरण लेनी पड़ती है. उर्दू कवि मीर तक़ी मीर जब यह कहते हैं " नाहक़ हम मजबूरों पर यह तुहमत है मुख्तारी की / जो चाहें सो आप करे हैं हमको अबस बदनाम किया." तो प्रतीत होता है कि यह मनुष्य हर दृष्टि से बेबस और मजबूर है. इसके अधिकार में कुछ नहीं है. ईश्वर की इच्छा के बगैर एक पत्ता भी नहीं हिल सकता.यहाँ अकर्मण्यता और नैराश्य को बढ़ावा मिलता है. किंतु मिर्जा गालिब जब कहते हैं "बाजीचए-अतफ़ाल है दुनिया मेरे आगे / होता है शबो-रोज़ तमाशा मेरे आगे."तो खेल और तमाशे की स्थिति बदल जाती है. दुनिया को बच्चों का खेल समझने वाला कवि अपने परिपक्व होने का न केवल रेखांकन करता है, अपितु हस्तक्षेप करने के अपने अधिकार को भी अक्षुण रखता है.
हस्तक्षेप तो तुलसी भी करना चाहते है. किंतु शतरंज रुपी राज्य की बिसात उन्होंने पहले कभी नहीं देखी. इस बिसात पर खेलने वालों ने सम्पूर्ण समाजको काठ के मुहरों की तरह निष्प्राण बना दिया है. "सतरंज को सो राज, काठ को सबै समाज / महाराज बाजी रची प्रथम न हती." अब यह 'महाराज' यदि स्वयं परमात्मा हैं जिनका काम ही बाज़ी रचते रहना है तो उन्होंने ऐसी बाज़ी तो पहले कभी नहीं रची. यह आश्चर्य और विस्मय की स्थिति है.किंतु यह 'महाराज' यदि युगीन शासक है, और शतरंज की बिसात यदि शासन-व्यवस्था है, तो ऐसी शासन व्यवस्था तो कभी देखने-सुनने में नहीं आई जिसने सम्पूर्ण समाज को काठ की तरह बेहिस और बेजान बना दिया हो. विचार-शून्य ! विवेक-शून्य ! अब ऐसे समाज में तुलसी विद्रोह की चिंगारी भरना भी चाहें तो किस प्रकार भरें. ?
ब्रिटिश राज्य के अत्याचारों को सहज रूप से झेलती हिन्दी कविता भी आह, कराह और रुदन की परिधियों में घूमती रही. क्रान्ति के स्वर से उसका साक्षात्कार नहीं हुआ. निराला की 'भिक्षुक' और 'तोड़ती पत्थर' जैसी कवितायेँ यथार्थ के स्तर पर स्टिल फोटोग्राफी करती अवश्य दिखायी दीं, किंतु पीठ से मिले पेट और भूख मिटाने के लिए मुट्ठी भर दाने की तलाश में लकुटिया टेकते भिक्षुक तथा श्यामल शरीर, भरे-बंधे यौवन और झुकी आंखों के साथ निरंतर हथौडा चलाती स्त्री में सौन्दर्य का परमोत्कर्ष ही देखती रहीं. विद्रोह या क्रान्ति की कोई चिनगारी इन कविताओं के भीतर से नहीं फूटती.
आज़ादी के बाद जिस उच्च शिक्षा प्रणाली ने हमारे बीच स्थान बनाया उसमें अंग्रेजों के बाद कुछ भी नया जोड़ने का प्रयास हमने नहीं किया. और इस आज़ादी को हथियाने वाले गिने-चुने लोगों ने शतरंज की बिसात कुछ ऐसी बिछाई की तुलसीयुगीन बिसात भी इसके सामने तुच्छ पड़ गई. इस देश में शताब्दियों से विभिन्न जातियों के लोग अपनी परंपरागत प्रतिभा, क्षमता, कला और शिल्प की विशिष्टता और पहचान के साथ आपसी सहयोग से एक-दूसरे का दुःख-सुख बाँटते हुए जिंदगी जी रहे थे. जातियाँ यहाँ सामजिक और प्रशासनिक व्यवस्था को कायम रखने के लिए थीं. इनमें जाती-प्रथा की गंध न होकर सामजिक व्यवस्था की ध्वनि थी. वर्ण के नाम पर उच्च और निम्न का ब्राहमणों द्वारा निर्मित भेद अवश्य था. किंतु सामाजिक व्यवस्था में निम्न वर्ण का योग कुछ कम नहीं था. ब्रिटिश राज्य में हलकी सी जागरूकता का लाभ उठाकर निम्न वर्णों ने अपनी निरंतर अपमान सहती छवि कुछ ठीक करने का प्रयास किया. ज्योतिबा फूले और डॉ. अम्बेडकर के प्रयास से इन्हें खुली हवा का एहसास हुआ. देश की राजनीति में हिन्दुओं मुसलामानों के पलडे को हलका और भारी करने की इनकी भूमिका स्पष्ट दिखायी देने लगी.
1932 की गोलमेज़ कांफ्रेंस के स्थगित किए जाने के बाद ब्रिटेन के प्रधानमंत्री मैकडोनाल्ड ने ईसाइयों, मुसलामानों और सिखों की तरह अछूतों के लिए कम्युनल एवार्ड की घोषणा की और पृथक निर्वाचन मंडल की स्थापना पर बल दिया. उन्हें आम हिन्दुओं से इतर एक अल्पसंख्यक समूह मानकर सुरक्षित स्थानों से पृथक प्रतिनिधित्व का अधिकार दिया गया. गांधीजी इस निर्णय से तिलमिला उठे. यदि सवर्ण हिन्दुओं से अलग हरिजनों की एक स्वतंत्र अल्पसंख्यक जाति बन गई, तो हिन्दुओं के लिए कल वही स्थिति आ सकती है जो आज मुसलामानों को लेकर है. गांधीजी की सोंच का आधार यही था. इसलिए 20 सितम्बर 1932 से उन्होंने हरिजनों के आग प्रतिनिधित्व की योजना को रोकने के लिए अनशन प्रारम्भ कर दिया और साथ ही आत्मदाह करने तक की घोषणा कर दी. शीघ्र ही 'पूना पैक्ट' के रूप में उन्हें सफलता मिली और हिन्दुओं की जनरल सीटों में ही हरिजनों के संरक्षण की व्यवस्था की गई. हरिजन भी प्रसन्न हो गए कि उनका प्रतिनिधित्व प्रायः दूना हो गया. उच्च वर्णों और हरिजनों के प्रतिनिधियों ने पैक्ट पर हस्ताक्षर कर दिए. अब सरकार को भला क्या आपत्ति हो सकती थी. हरिजन संतुष्ट कि उन्हें हिंदू मान लिया गया. सवर्ण संतुष्ट कि मुसलामानों के प्रतिनिधित्व की तुलना में उनकी शक्ति क्षीण होने से बच गई.
किंतु यह पैक्ट हरिजनों की समस्या को सुला देने की एक आकर्षक लोरी से अधिक कुछ नहीं था. फलस्वरूप आधुनिक भारत में हरिजन कहे जाने वाले हिंदू न तो परंपरागत भारतीय जाति-व्यवस्था का ही अंग बने रह सके न सवर्ण हिन्दुओं के बीच सम्मान पूर्वक सिर उठाकर चलने योग्य माने गए. हाँ इतना अवश्य हुआ कि उनको व्यवस्थित रखने के लिए उनके लिए आरक्षण की पन्द्रह वर्ष की सुनिश्चित अवधि, समय-समय पर बढ़ाई जाती रही और स्वाधीन भारत में मुसलामानों की भांति (पाकिस्तान बन जाने के कारण) आरक्षण के अधिकार से वंचित नहीं किए गए. कदाचित इसी लिए वे कभी बौद्ध, कभी ईसाई और कभी मुसलमान बन जाने की धमकी देकर वर्चस्ववादी सवर्ण हिन्दुओं को तिलमिला देते हैं और अपनी बहुत सी मांगें मनवा लेने में सक्षम हैं.
1947 से पूर्व का भारत का जो भी इतिहास उपलब्ध है उससे यही संकेत मिलता है कि यवनों, हूणों, शकों, कुषाणों, पहलवों, वाहलीकों, गुर्जरों, मौर्यों, गुप्तवंशजों, गोरियों, लोदियों, सैयदों, खिलजियों, मुगलों, डचों और अंग्रेजों आदि ने भले ही यहाँ शासन किया हो, किंतु यहाँ की जाति व्यवस्था को किसी ने गडमड करने का प्रयास नहीं किया. सभी ने शिल्पी और विशिष्ट कला सक्षम जातियों की उपयोगिता को समझा और प्रशासन की एक शक्ति के रूप में इनकी क्षमताओं और शिल्प-कौशल का न केवल लाभ उठाया अपितु इनके प्रति घृणा भाव कभी पनपने नहीं दिया.
आधुनिक शिक्षा संस्थाओं के आकर्षण ने जहाँ प्रत्येक जाति और व्यवसाय के व्यक्ति को उसका लाभ उठाने का अवसर दिया, वहीं धर्म, साहित्य, ज्योतिष, दर्शन, वैद्यक आदि की सैकड़ों वर्षों से परंपरागत शिक्षा का लाभ उठाने वाली जातियों ने इसे अपने विशेषाधिकार में हस्तक्षेप समझा. स्थिति यदि यही बनी रहती तो ब्राह्मणेतर जातियों को आधुनिक ज्ञान-विज्ञानं की शिक्षा का अधिकतम लाभ मिलने की संभावनाएं बनी रहतीं. किंतु कट्टरपंथी ब्राह्मण समुदाय के चक्रव्यूह को तोड़कर बंगाल और महाराष्ट्र के कुछ सिरफिरे भविष्य दर्शी ब्राहमणों ने आधुनिक शिक्षा और ज्ञान-विज्ञानं का लाभ उठाने की पहल की और छोटी समझी जाने वाली जातियों को आधुनिक शिक्षा का जितना लाभ मिलना चाहिए था उससे उन्हें लाभान्वित नहीं होने दिया.
बंगाल और महाराष्ट्र में चूँकि आधुनिक शिक्षा का प्रचार-प्रसार पहले हुआ इसलिए टकराव की स्थिति भी वहाँ पहले बनी. यह ठीक है कि इस स्थिति ने हरिजन कही जाने वाली तथा अन्य छोटी समझी जाने वाली जातियों में तेजस्वी और प्रतिभाशाली व्यक्तित्व पैदा किए. यह भी ठीक है कि सुविधा प्राप्त करके हरिजन और अन्य पिछड़ी जातियों के अनेक युवक प्रशासनिक तंत्र में उच्च पदों पर आसीन हुए और कहीं-कहीं अपनी सशक्त भूमिकाएं भी निभायीं.किंतु यह मुट्ठी भर ऊपर आए हुए लोग अपने जातिगत पेशे से जुड़े नीचे के लोगों से इतने कट गए कि इन 'क्रीमी लेयारों' को अलग करके देखने पर इनके परम्परागत पेशे से जुड़े लोगों की स्थिति और भी दयनीय हो गई.
भारत में आधुनिक शिक्षा का प्रारम्भ अंग्रेजों ने अपने निजी हितों को ध्यान में रखकर किया था. इसलिए इस देश की जाति-व्यवस्था को आधुनिक शिक्षा की पृष्ठभूमि में रख कर देखने की उन्हें आवश्यकता नहीं पड़ी. जहाँ एक ओर उन्होंने लडाका जातियों को पहचानते हुए उनकी क्षमता का समूचा लाभ उठाने के उद्देश्य से भारतीय सेना में 'राजपूत रेजिमेंट', 'गोरखा रेजिमेंट,' 'पठान रेजिमेंट,' और 'सिख रेजिमेंट बनाए वहीं इस तथ्य पर ध्यान नहीं दिया कि विभिन्न पेशों से जुड़ी जातियों को उनकी क्षमता से मेल खाती ज्ञान-विज्ञान की शाखाओं में यदि प्रोत्साहित किया जाय तो कहीं अधिक लाभ उठाया जा सकता है. उदाहरण स्वरूप यदि टेक्सटाइल से सम्बद्ध शिक्षा में बुनकरों को आरक्षण दिया जाय तो उनकी प्रतिभा अधिक निखर कर सामने आएगी. आज़ादी के बाद अंग्रेजों की दी हुई शिक्षा प्रणाली को ज्यों-का-त्यों लागू रखा गया, इसलिए भारतीय सरकार की दृष्टि भी इस तथ्य की ओर नहीं गई. हाँ पाकिस्तान बन जाने और मुसलामानों की 'वतन-परस्ती' को संदेह की दृष्टि से देखे जाने के कारण भारतीय सेना से 'पठान रेजिमेंट' का अस्तित्व समाप्त हो गया. सिखों पर जब संदेह किया गया तो सेना में उनकी भरती का प्रतिशत भी बहुत घटा दिया गया. हाँ ब्राह्मण जैसी जाति, जिसका युद्धभूमि से कभी दूर का रिश्ता भी नहीं था,परिस्थितियों का लाभ उठाकर सेना के उच्च-से-उच्च पदों पर जमकर बैठ गई.
मशीनीकरण और औद्योगिक विकास का लाभ उठाकर स्वतंत्र भारत में सवर्ण और संपन्न शिक्षित जातियों ने पेशों से जुड़ी जातियों के पेट पर लात मार दी और उनके मुंह का कौर भी छीन लिया. जुलाहे-बुनकर कपड़े बुनने में दक्ष थे. ब्राहमणों ठाकुरों आदि ने इस का और तकनीक से सम्बद्ध उच्च उपाधियां प्राप्त कीं और टेक्सटाइल इंजिनियर कहलाये. कुम्हारों के काम की उच्च योग्यता प्राप्त करके सिरेमिक्स इंजिनियर बने. गाँव में चमाइनें बच्चा पैदा करने और नाड़ काटने का काम करती थीं. वही काम जब एम्.बी.बी.एस. करके उच्च वर्ण की कन्याओं ने किया तो गाइनकलोजिस्ट कहलाईं. जर्राही का पेशा अपनाकर रक्त और मांस से घृणा करने वाली ब्राह्मण जाति की संतानें 'सर्जन' बन गयीं. चमडों का काम और जूते बनाना चमारों का व्यवसाय था. किंतु वही काम करके उच्च वर्ण के लोग लेदर इंजिनियर और शू टेकनालजिस्ट बन गए. और तो और हज्जामों नाइयों की रोटी छीनकर 'ब्यूटी पार्लर' खोले गए. रंगरेजों और धोबियों की रोज़ी पर लात मारकर सवर्ण संतानें 'डायर्स एंड ड्राईक्लीनार्स' बन गयीं.गोया पूरी कलात्मकता से शिल्पकारों को मजदूर में तब्दील कर दिया गया और उनके पेशे के सभी हुनर अपनाकर भी सवर्ण जातियाँ सवर्ण बनी रहीं.
कितनी विचित्र है आधुनिक भारत की शतरंज की यह बिसात जिसपर 'हरिजन समाज,' धोबी समाज', 'कुम्हार समाज,' जुलाहा-बुनकर समाज', 'लोहार समाज' गोया कि इस प्रकार के सभी शिल्पी समाज ऐसे काठ के मुहरे हैं जिन्हें बिसात से बाहर डाल दिया गया है. उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए जो वातावरण अपेक्षित था वह उन्हें दिया नहीं गया. वोकेशनल एजुकेशन के इंटीग्रेटेड प्रोग्राम उनके लिए बनाए नहीं गए. तुलसीदास यह स्थिति देखते तो शायद आज उन्हें फिर से कहना पड़ता- "महाराज बाजी रची प्रथम न हति." होना यह चाहिए था कि ज्ञान विज्ञानं साहित्य दर्शन ज्योतिष आदि की परंपरागत आधुनिक उच्च शिक्षा सवर्ण और साधन संपन्न जातियों के लिए विशिष्ट होती और वोकेशनल तथा तक्नीकीय शिक्षा की हाईस्कूल के बाद ही इंटिग्रेटेड ग्रेजुएट तथा पोस्ट ग्रेजुएट योजनाएं विभिन्न परंपरागत पेशों से जुड़ी जातियों के लिए विशिष्ट होतीं. फिर समाज में सभी का जीवन-स्तर एक साथ ऊपर उठता. किंतु हमारी शिक्षा योजनाओं ने इन जातियों की रही-सही कमर भी तोड़ दी. आज स्पांसर्ड सीट, एन.आर.आई. सीट और पेमेंट सीट के नाम पर वोकेशनल और तकनीकी शिक्षा संपन्न जातियों के घर की लौंडी बनकर रह गई है. छोटे किसान, बढई, धोबी, कुम्हार, बुनकर इत्यादि बेरोजगार होकर नई रोज़ी की तलाश में भूख से बिलबिला रहे हैं और तुलसी की इस उक्ति को चरितार्थ कर रहे हैं -"कहैं एक एकन सों कहाँ जाई का करी ?"
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श्री अनुनाद सिंह का विचार है [इंदौर]
भारतीय जाति-व्यवस्था और आधुनिक व्यवसायों का इतना अर्थपूर्ण विशलेषण मैं पहली बार पढ़ पाया हूँ. लेखक की एक-एक बात अन्दर तक छू गई. मैं ने कहीं पढ़ा था कि आचार्य प्रफुल्ल चन्द का मत है कि भारत में पता नहीं कैसे ऐसी स्थिति बनी कि विभिन्न व्यवसायों ( और उनसे सम्बद्ध लोगों ) को हीन दृष्टि से देखा जाने लगा और शुद्ध मानसिक जुगाली के कार्य को श्रेष्ठ माना जाने लगा. यही हमारे पिछडेपन का आरम्भ था. अन्यथा पश्चिम में अर्थशास्त्र के जिस 'कार्य का विभाजन' (डिवीज़न आफ लेबर) का सिद्धांत काफ़ी बाद में लागू किया गया, भारत में कम-से-कम दो हज़ार वर्ष पहले से लागू था.
भारतीय जाति-व्यवस्था और आधुनिक व्यवसायों का इतना अर्थपूर्ण विशलेषण मैं पहली बार पढ़ पाया हूँ. लेखक की एक-एक बात अन्दर तक छू गई. मैं ने कहीं पढ़ा था कि आचार्य प्रफुल्ल चन्द का मत है कि भारत में पता नहीं कैसे ऐसी स्थिति बनी कि विभिन्न व्यवसायों ( और उनसे सम्बद्ध लोगों ) को हीन दृष्टि से देखा जाने लगा और शुद्ध मानसिक जुगाली के कार्य को श्रेष्ठ माना जाने लगा. यही हमारे पिछडेपन का आरम्भ था. अन्यथा पश्चिम में अर्थशास्त्र के जिस 'कार्य का विभाजन' (डिवीज़न आफ लेबर) का सिद्धांत काफ़ी बाद में लागू किया गया, भारत में कम-से-कम दो हज़ार वर्ष पहले से लागू था.
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