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शुक्रवार, 18 जुलाई 2008

कहैं एक एकन सों कहाँ जाई का करी ? [तुलसी] / प्रो. शैलेश ज़ैदी

कितनी बेचैनी और छटपटाहट है तुलसी की इस पंक्ति में – “कहैं एक एकन सों कहाँ जाई का करी ?” और यह छटपटाहट जीविका विहीन लोगों की है. उन लोगों की है जो यदि किसान हैं तो उनकी स्थिति ‘पूस की रात’ के हलकू से भी कहीं अधिक दयनीय है. हलकू भले ही तीन रूपए का कम्बल न खरीद पाया हो, और पूस की रात में सरदी से ठिठुर गया हो, पर वह इस अनुभव से नहीं गुज़रा - 'आगि बड़वागि तें बड़ी है आगि पेट की'. उसके सामने कम-से-कम एक रास्ता तो है, खेती नहीं न सही, कहीं मजदूरी कर लेगा. किंतु ये वो लोग हैं जिनके सामने कोई रास्ता भी नहीं है -'खेती न किसान को, भिखारी को न भीख भली / बनिक को बनिज, न चाकर को चाकरी.' हो सकता है की तुलसी के पाठक यह समझते हों कि महामारी और दुर्भिक्ष जैसी प्राकृतिक आपदाओं ने यह स्थिति पैदा कर दी हो, किंतु तथ्य यह नहीं है. तथ्य यदि ऐसा होता और केवल दुर्भिक्ष या महामारी की बात होती, तो इन विपत्तियों के घेरे में खड़े होकर तुलसी कुछ वैसी ही बात करते जैसी ब्रेख्त ने 1945 के जर्मनी के विषय में की थी - 'घरों के भीतर प्लेग से मौत है / घरों के बाहर ठण्ड से मौत है / तब हमारा ठिकाना कहाँ हो ?
ब्रेख्त की इन पंक्तियों ने मुझे 1985 की अपनी एक ग़ज़ल का एक शेर याद दिला दिया - 'बारिश से बच बचा के जो घर में पनाह लूँ / हर सिम्त से मकान टपकता दिखायी दे.' यहाँ भी स्थिति वही है कि ठिकाना कहीं नहीं है. न गैरों के बीच न अपनों के बीच. कहाँ जाएँ ? क्या करें ? किंतु तुलसी के यहाँ जो बे-ठिकाना लोग हैं, वह भूख से पीड़ित हैं. बेरोज़गारी ने उन्हें पूरी तरह तोड़ दिया है. ऐसा नहीं है कि उनकी आंखों के सामने पेट भरे लोग नहीं हैं. हैं और भारी संख्या में हैं. उन्होंने ख़ुद अपनी आंखों से देखा है कि - 'छाछी को ललात जे वे राम नाम के प्रसाद / खात खुनसात सोंधे दूध की मलाई हैं.' यह ऐसा ही है जैसे दुनिया भर के काले धंधे करके लोग बड़े- बड़े प्रासाद खड़े कर लेते हैं और इसे भगवान की कृपा बताते हैं. तुलसी भली प्रकार जानते हैं की "ऊंच-नीच करम, धरम अधरम करि" भूख और बेरोज़गारी मिटायी जा सकती है. किंतु उन्हें यह मार्ग अपनाना पसंद नहीं है. ब्रेख्त को भी पसंद नहीं है. - 'मेरा कुछ भी करना / मुझे भर पेट खाने का हक नहीं देता / संयोग है कि मैं बच गया हूँ / वे कहते हैं मुझसे खाओ-पियो, मस्त रहो / है तो सब कुछ / पर कैसे खाऊं-पियूँ / कैसे खा सकता हूँ वह / जिसे छीना गया है किसी भूखे से / और मेरा पानी का गिलास / किसी प्यास से मरने वाले का है.' हो सकता है कि तुलसी के समक्ष भी यही स्थिति रही हो. किंतु उनका स्वभाव अपने भीतर क्रान्ति की वह चिंगारी न भर सका हो जो इक़बाल या ब्रेख्त के स्वभाव में थी. इक़बाल ने तो स्पष्ट शब्दों में कह दिया "जिस खेत से दहकाँ (किसान) को मयस्सर न हो रोज़ी / उस खेत के हर खोशए-गंदुम (गेहूं की बाली) को जला दो." ब्रेख्त ने भी कहा है - "जब मैं शहर आया / वहाँ गड़बड़ थी / भूख का राज्य था / मैं लोगों के बीच विद्रोह के समय आया / और उन्हीं के साथ कर बैठा विद्रोह."
तुलसी की मनःस्थिति गोदान के होरी की मनःस्थिति से भिन्न नहीं है. होरी गोबर को समझाता है कि जवानी में विद्रोह की उठान उसके मन में भी थी, किंतु समय के थपेडों ने उसे शिथिल कर दिया. ऐसा नहीं है कि विद्रोह के भाव होरी के यहाँ बिल्कुल मुर्दा हो चुके हैं. पर इतने वर्षों तक मर-खप कर उसने जो अनुभव प्राप्त किए हैं, उनके आधार पर वह बेटे के विद्रोह भाव को दबाना चाहता है. इसलिए वह गोबर के समक्ष बार-बार भगवान का सहारा लेता है - 'भगवान ने जब गुलाम बना दिया है तो अपना क्या बस है ?' तुलसी भी ऊंचो मन, ऊंची रूचि, भाग नीचो निपट ही' की विवशता स्वीकार करते हुए 'साहिब समर्थ को सुसेवक' बने रहना चाहते हैं और स्पष्ट शब्दों में कहते हैं - 'बचन बनाई कहौं, हौं गुलाम राम को.'
तुलसी की विडम्बना यह है कि "बड़े कुसमाज राज आजु लौं जो पाये दिन" किंतु दोष किसे दिया जाय ? कलिकाल ने तो सम्पूर्ण सृष्टि में गडबडी फैला रखी है- "कासौं कीजे रोष ? दीजै दोष काहि ? पाहि राम / कियो कलिकाल कुलि खलल, खलक ही" और यह कलिकाल कुछ और नहीं है, आपाधापी और घपलों का नाम है. मर्यादाओं को ताक पर रख देने का नाम है. अयोग्य व्यक्तियों के सुयोग्य कहे जाने का नाम है. दूसरों के मुंह से कौर छीन कर अपनी तिजोरियां भरते रहने का नाम है. किंतु "समरथ को नहिं दोस गुसाईं" कहकर चुप्पी साध लेना तुलसी के स्वभाव की सीमा नहीं है. वे चाहते तो पंडित राज जगन्नाथ की भांति "दिल्लीश्वरो वा जगदीश्वरो वा" का कलियुगीन भजन गा सकते थे. किंतु उन्होंने "पाणौ महाशायक चारु चापं" तथा "अतुलित बलधामं हेम शैलाभ देहं" का स्मरण किया. यह शक्ति जगाने का एक प्रयास नहीं है तो और क्या है ? "बीर बिहीन मही मैं जानी" का उदघोष करके ऐसा ही एक प्रयास राजा जनक ने भी किया था.
वस्तुतः तुलसीयुगीन यथार्थ आजके यथार्थ से बहुत भिन्न नहीं है. समस्या यह है कि आज ही की तरह तुलसीयुगीन राज्य की स्थिति शतरंज की बिसात जैसी है जिसकी सभी चालें उन लोगों के हाथ में हैं जो मर्यादा-विहीन हैं. जिनके लिए नैतिक मूल्यों का कोई अर्थ नहीं है. अब समस्या उनकी है जो इस संसार को ईश्वर द्बारा रचित 'बाज़ी' या खेल समझते हैं. ऐसे लोगों को थक-हार कर भाग्यवाद में ही शरण लेनी पड़ती है. उर्दू कवि मीर तक़ी मीर जब यह कहते हैं " नाहक़ हम मजबूरों पर यह तुहमत है मुख्तारी की / जो चाहें सो आप करे हैं हमको अबस बदनाम किया." तो प्रतीत होता है कि यह मनुष्य हर दृष्टि से बेबस और मजबूर है. इसके अधिकार में कुछ नहीं है. ईश्वर की इच्छा के बगैर एक पत्ता भी नहीं हिल सकता.यहाँ अकर्मण्यता और नैराश्य को बढ़ावा मिलता है. किंतु मिर्जा गालिब जब कहते हैं "बाजीचए-अतफ़ाल है दुनिया मेरे आगे / होता है शबो-रोज़ तमाशा मेरे आगे."तो खेल और तमाशे की स्थिति बदल जाती है. दुनिया को बच्चों का खेल समझने वाला कवि अपने परिपक्व होने का न केवल रेखांकन करता है, अपितु हस्तक्षेप करने के अपने अधिकार को भी अक्षुण रखता है.
हस्तक्षेप तो तुलसी भी करना चाहते है. किंतु शतरंज रुपी राज्य की बिसात उन्होंने पहले कभी नहीं देखी. इस बिसात पर खेलने वालों ने सम्पूर्ण समाजको काठ के मुहरों की तरह निष्प्राण बना दिया है. "सतरंज को सो राज, काठ को सबै समाज / महाराज बाजी रची प्रथम न हती." अब यह 'महाराज' यदि स्वयं परमात्मा हैं जिनका काम ही बाज़ी रचते रहना है तो उन्होंने ऐसी बाज़ी तो पहले कभी नहीं रची. यह आश्चर्य और विस्मय की स्थिति है.किंतु यह 'महाराज' यदि युगीन शासक है, और शतरंज की बिसात यदि शासन-व्यवस्था है, तो ऐसी शासन व्यवस्था तो कभी देखने-सुनने में नहीं आई जिसने सम्पूर्ण समाज को काठ की तरह बेहिस और बेजान बना दिया हो. विचार-शून्य ! विवेक-शून्य ! अब ऐसे समाज में तुलसी विद्रोह की चिंगारी भरना भी चाहें तो किस प्रकार भरें. ?
ब्रिटिश राज्य के अत्याचारों को सहज रूप से झेलती हिन्दी कविता भी आह, कराह और रुदन की परिधियों में घूमती रही. क्रान्ति के स्वर से उसका साक्षात्कार नहीं हुआ. निराला की 'भिक्षुक' और 'तोड़ती पत्थर' जैसी कवितायेँ यथार्थ के स्तर पर स्टिल फोटोग्राफी करती अवश्य दिखायी दीं, किंतु पीठ से मिले पेट और भूख मिटाने के लिए मुट्ठी भर दाने की तलाश में लकुटिया टेकते भिक्षुक तथा श्यामल शरीर, भरे-बंधे यौवन और झुकी आंखों के साथ निरंतर हथौडा चलाती स्त्री में सौन्दर्य का परमोत्कर्ष ही देखती रहीं. विद्रोह या क्रान्ति की कोई चिनगारी इन कविताओं के भीतर से नहीं फूटती.
आज़ादी के बाद जिस उच्च शिक्षा प्रणाली ने हमारे बीच स्थान बनाया उसमें अंग्रेजों के बाद कुछ भी नया जोड़ने का प्रयास हमने नहीं किया. और इस आज़ादी को हथियाने वाले गिने-चुने लोगों ने शतरंज की बिसात कुछ ऐसी बिछाई की तुलसीयुगीन बिसात भी इसके सामने तुच्छ पड़ गई. इस देश में शताब्दियों से विभिन्न जातियों के लोग अपनी परंपरागत प्रतिभा, क्षमता, कला और शिल्प की विशिष्टता और पहचान के साथ आपसी सहयोग से एक-दूसरे का दुःख-सुख बाँटते हुए जिंदगी जी रहे थे. जातियाँ यहाँ सामजिक और प्रशासनिक व्यवस्था को कायम रखने के लिए थीं. इनमें जाती-प्रथा की गंध न होकर सामजिक व्यवस्था की ध्वनि थी. वर्ण के नाम पर उच्च और निम्न का ब्राहमणों द्वारा निर्मित भेद अवश्य था. किंतु सामाजिक व्यवस्था में निम्न वर्ण का योग कुछ कम नहीं था. ब्रिटिश राज्य में हलकी सी जागरूकता का लाभ उठाकर निम्न वर्णों ने अपनी निरंतर अपमान सहती छवि कुछ ठीक करने का प्रयास किया. ज्योतिबा फूले और डॉ. अम्बेडकर के प्रयास से इन्हें खुली हवा का एहसास हुआ. देश की राजनीति में हिन्दुओं मुसलामानों के पलडे को हलका और भारी करने की इनकी भूमिका स्पष्ट दिखायी देने लगी.
1932 की गोलमेज़ कांफ्रेंस के स्थगित किए जाने के बाद ब्रिटेन के प्रधानमंत्री मैकडोनाल्ड ने ईसाइयों, मुसलामानों और सिखों की तरह अछूतों के लिए कम्युनल एवार्ड की घोषणा की और पृथक निर्वाचन मंडल की स्थापना पर बल दिया. उन्हें आम हिन्दुओं से इतर एक अल्पसंख्यक समूह मानकर सुरक्षित स्थानों से पृथक प्रतिनिधित्व का अधिकार दिया गया. गांधीजी इस निर्णय से तिलमिला उठे. यदि सवर्ण हिन्दुओं से अलग हरिजनों की एक स्वतंत्र अल्पसंख्यक जाति बन गई, तो हिन्दुओं के लिए कल वही स्थिति आ सकती है जो आज मुसलामानों को लेकर है. गांधीजी की सोंच का आधार यही था. इसलिए 20 सितम्बर 1932 से उन्होंने हरिजनों के आग प्रतिनिधित्व की योजना को रोकने के लिए अनशन प्रारम्भ कर दिया और साथ ही आत्मदाह करने तक की घोषणा कर दी. शीघ्र ही 'पूना पैक्ट' के रूप में उन्हें सफलता मिली और हिन्दुओं की जनरल सीटों में ही हरिजनों के संरक्षण की व्यवस्था की गई. हरिजन भी प्रसन्न हो गए कि उनका प्रतिनिधित्व प्रायः दूना हो गया. उच्च वर्णों और हरिजनों के प्रतिनिधियों ने पैक्ट पर हस्ताक्षर कर दिए. अब सरकार को भला क्या आपत्ति हो सकती थी. हरिजन संतुष्ट कि उन्हें हिंदू मान लिया गया. सवर्ण संतुष्ट कि मुसलामानों के प्रतिनिधित्व की तुलना में उनकी शक्ति क्षीण होने से बच गई.
किंतु यह पैक्ट हरिजनों की समस्या को सुला देने की एक आकर्षक लोरी से अधिक कुछ नहीं था. फलस्वरूप आधुनिक भारत में हरिजन कहे जाने वाले हिंदू न तो परंपरागत भारतीय जाति-व्यवस्था का ही अंग बने रह सके न सवर्ण हिन्दुओं के बीच सम्मान पूर्वक सिर उठाकर चलने योग्य माने गए. हाँ इतना अवश्य हुआ कि उनको व्यवस्थित रखने के लिए उनके लिए आरक्षण की पन्द्रह वर्ष की सुनिश्चित अवधि, समय-समय पर बढ़ाई जाती रही और स्वाधीन भारत में मुसलामानों की भांति (पाकिस्तान बन जाने के कारण) आरक्षण के अधिकार से वंचित नहीं किए गए. कदाचित इसी लिए वे कभी बौद्ध, कभी ईसाई और कभी मुसलमान बन जाने की धमकी देकर वर्चस्ववादी सवर्ण हिन्दुओं को तिलमिला देते हैं और अपनी बहुत सी मांगें मनवा लेने में सक्षम हैं.
1947 से पूर्व का भारत का जो भी इतिहास उपलब्ध है उससे यही संकेत मिलता है कि यवनों, हूणों, शकों, कुषाणों, पहलवों, वाहलीकों, गुर्जरों, मौर्यों, गुप्तवंशजों, गोरियों, लोदियों, सैयदों, खिलजियों, मुगलों, डचों और अंग्रेजों आदि ने भले ही यहाँ शासन किया हो, किंतु यहाँ की जाति व्यवस्था को किसी ने गडमड करने का प्रयास नहीं किया. सभी ने शिल्पी और विशिष्ट कला सक्षम जातियों की उपयोगिता को समझा और प्रशासन की एक शक्ति के रूप में इनकी क्षमताओं और शिल्प-कौशल का न केवल लाभ उठाया अपितु इनके प्रति घृणा भाव कभी पनपने नहीं दिया.
आधुनिक शिक्षा संस्थाओं के आकर्षण ने जहाँ प्रत्येक जाति और व्यवसाय के व्यक्ति को उसका लाभ उठाने का अवसर दिया, वहीं धर्म, साहित्य, ज्योतिष, दर्शन, वैद्यक आदि की सैकड़ों वर्षों से परंपरागत शिक्षा का लाभ उठाने वाली जातियों ने इसे अपने विशेषाधिकार में हस्तक्षेप समझा. स्थिति यदि यही बनी रहती तो ब्राह्मणेतर जातियों को आधुनिक ज्ञान-विज्ञानं की शिक्षा का अधिकतम लाभ मिलने की संभावनाएं बनी रहतीं. किंतु कट्टरपंथी ब्राह्मण समुदाय के चक्रव्यूह को तोड़कर बंगाल और महाराष्ट्र के कुछ सिरफिरे भविष्य दर्शी ब्राहमणों ने आधुनिक शिक्षा और ज्ञान-विज्ञानं का लाभ उठाने की पहल की और छोटी समझी जाने वाली जातियों को आधुनिक शिक्षा का जितना लाभ मिलना चाहिए था उससे उन्हें लाभान्वित नहीं होने दिया.
बंगाल और महाराष्ट्र में चूँकि आधुनिक शिक्षा का प्रचार-प्रसार पहले हुआ इसलिए टकराव की स्थिति भी वहाँ पहले बनी. यह ठीक है कि इस स्थिति ने हरिजन कही जाने वाली तथा अन्य छोटी समझी जाने वाली जातियों में तेजस्वी और प्रतिभाशाली व्यक्तित्व पैदा किए. यह भी ठीक है कि सुविधा प्राप्त करके हरिजन और अन्य पिछड़ी जातियों के अनेक युवक प्रशासनिक तंत्र में उच्च पदों पर आसीन हुए और कहीं-कहीं अपनी सशक्त भूमिकाएं भी निभायीं.किंतु यह मुट्ठी भर ऊपर आए हुए लोग अपने जातिगत पेशे से जुड़े नीचे के लोगों से इतने कट गए कि इन 'क्रीमी लेयारों' को अलग करके देखने पर इनके परम्परागत पेशे से जुड़े लोगों की स्थिति और भी दयनीय हो गई.
भारत में आधुनिक शिक्षा का प्रारम्भ अंग्रेजों ने अपने निजी हितों को ध्यान में रखकर किया था. इसलिए इस देश की जाति-व्यवस्था को आधुनिक शिक्षा की पृष्ठभूमि में रख कर देखने की उन्हें आवश्यकता नहीं पड़ी. जहाँ एक ओर उन्होंने लडाका जातियों को पहचानते हुए उनकी क्षमता का समूचा लाभ उठाने के उद्देश्य से भारतीय सेना में 'राजपूत रेजिमेंट', 'गोरखा रेजिमेंट,' 'पठान रेजिमेंट,' और 'सिख रेजिमेंट बनाए वहीं इस तथ्य पर ध्यान नहीं दिया कि विभिन्न पेशों से जुड़ी जातियों को उनकी क्षमता से मेल खाती ज्ञान-विज्ञान की शाखाओं में यदि प्रोत्साहित किया जाय तो कहीं अधिक लाभ उठाया जा सकता है. उदाहरण स्वरूप यदि टेक्सटाइल से सम्बद्ध शिक्षा में बुनकरों को आरक्षण दिया जाय तो उनकी प्रतिभा अधिक निखर कर सामने आएगी. आज़ादी के बाद अंग्रेजों की दी हुई शिक्षा प्रणाली को ज्यों-का-त्यों लागू रखा गया, इसलिए भारतीय सरकार की दृष्टि भी इस तथ्य की ओर नहीं गई. हाँ पाकिस्तान बन जाने और मुसलामानों की 'वतन-परस्ती' को संदेह की दृष्टि से देखे जाने के कारण भारतीय सेना से 'पठान रेजिमेंट' का अस्तित्व समाप्त हो गया. सिखों पर जब संदेह किया गया तो सेना में उनकी भरती का प्रतिशत भी बहुत घटा दिया गया. हाँ ब्राह्मण जैसी जाति, जिसका युद्धभूमि से कभी दूर का रिश्ता भी नहीं था,परिस्थितियों का लाभ उठाकर सेना के उच्च-से-उच्च पदों पर जमकर बैठ गई.
मशीनीकरण और औद्योगिक विकास का लाभ उठाकर स्वतंत्र भारत में सवर्ण और संपन्न शिक्षित जातियों ने पेशों से जुड़ी जातियों के पेट पर लात मार दी और उनके मुंह का कौर भी छीन लिया. जुलाहे-बुनकर कपड़े बुनने में दक्ष थे. ब्राहमणों ठाकुरों आदि ने इस का और तकनीक से सम्बद्ध उच्च उपाधियां प्राप्त कीं और टेक्सटाइल इंजिनियर कहलाये. कुम्हारों के काम की उच्च योग्यता प्राप्त करके सिरेमिक्स इंजिनियर बने. गाँव में चमाइनें बच्चा पैदा करने और नाड़ काटने का काम करती थीं. वही काम जब एम्.बी.बी.एस. करके उच्च वर्ण की कन्याओं ने किया तो गाइनकलोजिस्ट कहलाईं. जर्राही का पेशा अपनाकर रक्त और मांस से घृणा करने वाली ब्राह्मण जाति की संतानें 'सर्जन' बन गयीं. चमडों का काम और जूते बनाना चमारों का व्यवसाय था. किंतु वही काम करके उच्च वर्ण के लोग लेदर इंजिनियर और शू टेकनालजिस्ट बन गए. और तो और हज्जामों नाइयों की रोटी छीनकर 'ब्यूटी पार्लर' खोले गए. रंगरेजों और धोबियों की रोज़ी पर लात मारकर सवर्ण संतानें 'डायर्स एंड ड्राईक्लीनार्स' बन गयीं.गोया पूरी कलात्मकता से शिल्पकारों को मजदूर में तब्दील कर दिया गया और उनके पेशे के सभी हुनर अपनाकर भी सवर्ण जातियाँ सवर्ण बनी रहीं.
कितनी विचित्र है आधुनिक भारत की शतरंज की यह बिसात जिसपर 'हरिजन समाज,' धोबी समाज', 'कुम्हार समाज,' जुलाहा-बुनकर समाज', 'लोहार समाज' गोया कि इस प्रकार के सभी शिल्पी समाज ऐसे काठ के मुहरे हैं जिन्हें बिसात से बाहर डाल दिया गया है. उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए जो वातावरण अपेक्षित था वह उन्हें दिया नहीं गया. वोकेशनल एजुकेशन के इंटीग्रेटेड प्रोग्राम उनके लिए बनाए नहीं गए. तुलसीदास यह स्थिति देखते तो शायद आज उन्हें फिर से कहना पड़ता- "महाराज बाजी रची प्रथम न हति." होना यह चाहिए था कि ज्ञान विज्ञानं साहित्य दर्शन ज्योतिष आदि की परंपरागत आधुनिक उच्च शिक्षा सवर्ण और साधन संपन्न जातियों के लिए विशिष्ट होती और वोकेशनल तथा तक्नीकीय शिक्षा की हाईस्कूल के बाद ही इंटिग्रेटेड ग्रेजुएट तथा पोस्ट ग्रेजुएट योजनाएं विभिन्न परंपरागत पेशों से जुड़ी जातियों के लिए विशिष्ट होतीं. फिर समाज में सभी का जीवन-स्तर एक साथ ऊपर उठता. किंतु हमारी शिक्षा योजनाओं ने इन जातियों की रही-सही कमर भी तोड़ दी. आज स्पांसर्ड सीट, एन.आर.आई. सीट और पेमेंट सीट के नाम पर वोकेशनल और तकनीकी शिक्षा संपन्न जातियों के घर की लौंडी बनकर रह गई है. छोटे किसान, बढई, धोबी, कुम्हार, बुनकर इत्यादि बेरोजगार होकर नई रोज़ी की तलाश में भूख से बिलबिला रहे हैं और तुलसी की इस उक्ति को चरितार्थ कर रहे हैं -"कहैं एक एकन सों कहाँ जाई का करी ?"
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श्री अनुनाद सिंह का विचार है [इंदौर]
भारतीय जाति-व्यवस्था और आधुनिक व्यवसायों का इतना अर्थपूर्ण विशलेषण मैं पहली बार पढ़ पाया हूँ. लेखक की एक-एक बात अन्दर तक छू गई. मैं ने कहीं पढ़ा था कि आचार्य प्रफुल्ल चन्द का मत है कि भारत में पता नहीं कैसे ऐसी स्थिति बनी कि विभिन्न व्यवसायों ( और उनसे सम्बद्ध लोगों ) को हीन दृष्टि से देखा जाने लगा और शुद्ध मानसिक जुगाली के कार्य को श्रेष्ठ माना जाने लगा. यही हमारे पिछडेपन का आरम्भ था. अन्यथा पश्चिम में अर्थशास्त्र के जिस 'कार्य का विभाजन' (डिवीज़न आफ लेबर) का सिद्धांत काफ़ी बाद में लागू किया गया, भारत में कम-से-कम दो हज़ार वर्ष पहले से लागू था.