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शनिवार, 19 जुलाई 2008

सूरदास के रूहानी नग़मे /शैलेश ज़ैदी [क्रमशः 2]

[ 8 ]
जाकौ मन लाग्यौ नन्दलालहिं ताहि और नहिं भावै हो.
जौ लौ मीन दूध मैं डारै बिनु जल नहिं सचु पावै हो.
अति सुकुमार डोलै रस भीनौ सो रस जाहि पियावै हो.
ज्यों गूंगौ गुर खाई अधिक रस सुख सवाद न बतावै हो.
जैसे सरिता मिलै सिन्धु कौ बहुरि प्रवाह न आवै हो.
ऐसे सूर कमल लोचन तैं चित नहिं अनत डुलावै हो.


नन्द के लाल से लौ जिसने लगाई हो उसे और कुछ अच्छा न लगे
जैसे मछली को अगर दूध में डालो तो वो बे आब के ज़िन्दा न लगे
जैसे पीने पे मए-इश्क़ नशा ऐसा चढ़े हाजते-दुनिया न लगे
जैसे गूंगे को मज़ा गुड की हलावत का बताने की भी पर्वा न लगे.
जैसे मिलते ही समंदर में नदी अपनी रवानी से भी बेगानः लगे.
'सूर' वैसे ही कमल जैसे नयन वाले से मुंह मोड़ना ज़ेबा न लगे.
[ 9 ]
प्रभूजी ! मोरे औगुन चित न धरौ.
सम दरसी है नाम तुम्हारौ, सोई पार करौ.
इक लोहा पूजा मैं राखत, इक घर बधिक परौ.
सो दुबिधा पारस नहिं जानत, कंचन करत खरौ.
इक नदिया इक नार कहावत, मैलौ नीर भरौ.
जब मिलिगे तब एक बरन है, गंगा नाम परौ.
तन माया जिउ ब्रह्म कहावत, सूर सु मिलि बिगरौ.
कै इनकौ निर्धार कीजियै, कै प्रन जात टरौ.


यारब ! मेरी खताओं पे मत कीजियो निगाह.
यकसां सभी को चाहते हैं आप या इलाह
औरों के साथ बख्शियो मेरे भी सब गुनाह.
इक लोहा वो है रखते हैं पूजा में सब जिसे
इक लोहा वो भी है जिसे दुनिया छुरी कहे.
पारस ये फर्क करना नहीं जानता कभी.
सोना बना के करता है दोनों को क़ीमती.
पानी है वो भी जो है नदी में रवां-दवां
पानी ही गंदे नालों में लेता है हिचकियाँ
दरिया में जाके दोनों ही दरिया सिफ़त हुए
गंगा का नाम पा गए गंगा-सिफ़त हुए.
जिस्मे-बशर को कहते हैं फ़ानी तमाम लोग.
पर रूह को हैं देते बक़ा का मक़ाम लोग
ऐ 'सूर' ! कीजिये भी खुदारा ये फ़ैसला.
इक साथ रहके दोनों हैं कैसे जुदा-जुदा ?
बिगडे कहीं न बात मसावात के बगैर.
रहमत पे आंच आये न यारब हो सब की खैर.
[ 10 ]
अब हौं सब दिसि हेरि रह्यौ.
राखत नाहिं कोऊ करुनानिधि, अति बल ग्राह गह्यौ.
सुर नर सब स्वारथ के गाहक, कत सम आनि करै.
उडगन उदित तिमिर नहिं नासत, बिन रवि रूप धरै.
इतनी बात सुनत करुनामय, चक्र गहे कर धाए.
हति गज सत्रु सूर के स्वामी, ततछन सुख उपजाए.

अब मैं तलाश करके हरेक सिम्त थक गया.
ऐ साहिबे-करम ! न कोई काम आ सका.
ताक़त से गर्दिशों ने शिकंजे में कस लिया.
इंसानों-देवता जो मिले, ख़ुदग़रज़ मिले.
ज़हमत कोई हमारे लिए क्यों भला करे.
मिटता नहीं अँधेरा तुलूए-नुजूम से
जब निकले आफ़ताब उजाला हो धूम से.
सुनते ही इतनी बात, रहीमी को आया जोश
हाथों में चक्र लेके उडाये सभी के होश.
दुश्मन था फीलतन उसे फ़िल्फ़ौर मारकर.
आका ने 'सूर' बख्श दीं खुशियाँ तमामतर.
[ 11 ]
स्याम गरीबन हूँ के गाहक.
दीनानाथ हमारे ठाकुर, सांचे प्रीति निबाहक.
कहा बिदुर की जाति पाति कुल, प्रेम प्रीति के लाहक.
कह पांडव के घर ठकुराई, अर्जुन के रथ बाहक.
कहा सुदामा कै धन हौं तो, सत्य प्रीति के बाहक.
'सूरदास' सठ तातैं हरि भजि, आरत के दुःख दाहक.


घनश्याम हैं ग़रीबों के बेमिस्ल खैरख्वाह.
मुहताज उनको अपना समझते हैं बादशाह.
आका बनाए रखते हैं उल्फत की रस्मो-राह.
क्या था बिदुर का कौमों-क़बीलाओ-खानदान
आका को उसके प्यार से था प्यार बे पनाह
मालिक नहीं थे दौलतो-सर्वत के पांडव
अर्जुन के रथ को हांक रहे थे बलंद्जाह.
गुरबत में कट रही थी सुदामा की जिंदगी.
आका ने उसके साथ किया प्यार से निबाह.
कहते हैं 'सूर' करले हरी का भजन बद-अक्ल.
दुःख जलके राख होंगे, धुलेंगे सभी गुनाह.
[ 12 ]
बिनती करत मरत हौं लाज.
नख सिख लौं मेरी यह देही, है अति पाप जहाज.
और पतित आवत न आंखितर, देखत अपनौ साज.
तीनौं पन भरि ओर निबाह्यो, तऊ न आयो बाज.
पाछे भयो न आगैं ह्वैहै, सब पतितन सिरताज.
नरकौ भज्यो नाम सुनि मेरौ, पीठि दई जमराज.
अबलौं नान्हे नून्हे तारे, सब स्रम बृथा अकाज.
साँचे बिरद 'सूर' के तारत, लोकनि लोक अवाज.

शर्म आती है मुझे आपसे मिन्नत करते.
जिस्म ये पाँव से सर तक है गुनाहों का जहाज़.
मुझ सा बदकार जहाँ में नहीं मिलता कोई.
देखता जब हूँ मैं जीने के सब अपने अंदाज़.
मैंने बचपन में, जवानी में, बुढापे में सदा.
खूब जमकर किए छोटे-बड़े कितने ही गुनाह.
आज भी आता नहीं अपने तरीकों से मैं बाज़.
न हुआ पहले न आइन्दा कभी होगा कोई.
मैं हूँ सरताज जहाँ भर के गुनाहगारों का.
नाम सुनकर मेरा दोज़ख को भी डर लगता है.
मलकुल्मौत भी पास आने से घबराते हैं.
आजतक आपने बेकार ही ज़हमत की है.
छोटे-मोटे से गुनाहगारों पे रहमत की है.
'सूर' पर रहमो-करम हो तो कोई बात बने.
आप कहलायेंगे रहमान सही मानों में.
गूँज उटठेगी सदा ख़ल्क़ के काशानों में.
[ 13 ]
हरि सौं ठाकुर और न जन कौ.
जिहिं जिहिं बिधि सेवक सुख पावै, तिहिं बिधि राखत मन कौं.
भूख भये भोजन जु उदर कौं, तृषा तोय पट तन कौं.
लग्यो फिरत सुरभी ज्यों सुत संग, औचट गुनि गृह बन कौं.
परम उदार चतुर चिंतामनि , कोटि कुबेर निधन कौं.
राखत है जन को परतिज्ञा, हाथ पसारत कन कौं.
संकट परें तुरत उठि धावत, परम सुभट निज पन कौं.
कोटिक करै एक नहि मानै, सूर महा कृतघन कौं.

हरी जैसा नहीं कोई अवामुन्नास का आक़ा
खुशी बन्दे को जैसे भी मिले रखते हैं दिल उसका
शिकम की भूख मिट जाए, गिज़ा की इसलिए पैदा
बनाया आब ताके रह न जाए कोई भी प्यासा
बरहना जिस्म ढक देते हैं कपडों से मेरे मौला
लगी रहती है जैसे गाय हरदम साथ बछडों के
सताते हैं उसे जंगल में घर की फ़िक्र के झोंके
बहोत हैं नर्म दिल, हिकमत में यकता, बंदा-परवर हैं
ग़रीबों के लिए आक़ा कुबेरों से भी बढ़कर हैं
जो बन्दे हाथ फैलाते हैं, रखते हैं भरम उनका
मुसीबत में हैं आते दौड़कर, वादे के हैं पुख्ता
करोड़ों नेकियों के बाद भी ऐ 'सूर' दुनिया में
जो हैं कमज़र्फ़ एहसाँ मानते हरगिज़ नहीं उनका.
[ 14 ]
प्रभु हौं बड़ी बेर कौ ठाढौ
और पतित तुम जैसे तारे, तिनही मैं लिखि काढौ
जुग जुग बिरद यहै चलि आयै, टेरि कहत हौं यातैं.
मरियत लाज पाँच पतितनि मैं, हौं अब कहौं घटी कातैं.
कै प्रभु हारि मानि कै बैठौ, कै करौ बिरद सही.
'सूर' पतित जौ झूठ कहत है, देखौ खोजि बही.

खुदाया मैं करम का हूँ तुम्हारे मुंतज़िर कब से.
शिफाअत और बदकारों की तुमने जिस तरह की है.
शिफाअत मेरी भी कर दो मेरे आक़ा उसी ढब से.
अज़ल से सब तुम्हारी रहमतों का ज़िक्र करते हैं.
जभी तो हम भी बख्शिश के लिए फरियाद करते हैं.
हया से मर रहा हूँ आसियों की इस जमाअत में.
नहीं कमतर किसी से, देर फिर क्यों है शिफाअत में.
या अपनी हार को तस्लीम करके बैठ जा यारब.
या फिर शाने- करीमीं का कोई जलवा दिखा यारब.
ग़लत कहता हूँ मैं गर 'सूर' ख़ुद को आसिए- बदतर.
तो फिर आमाल मेरा देख ले तू खोलकर दफ़्तर.
*************************क्रमशः