शनिवार, 20 सितंबर 2008

मिला था साथ बहोत मुश्किलों से

मिला था साथ बहोत मुश्किलों से उसका मुझे।
न रास आया मगर जाने क्यों ये रिश्ता मुझे।
चढ़ा रहे थे उसे जब सलीब पर कुछ लोग,
मुझे लगा था कि उसने बहोत पुकारा मुझे।
महज़ वो दोस्त नहीं था, वो और भी कुछ था,
अकेला शख्स था जिसने कहा फ़रिश्ता मुझे।
मुंडेर पर जो कबूतर हैं उनको देखता हूँ,
कहीं न भेजा हो उसने कोई संदेसा मुझे।
जो रात गुज़री है वो सुब्ह से भी अच्छी थी,
जो सुब्ह आई है लगती है कितनी सादा मुझे।
न जाने चाँदनी क्यों आ गई थी बिस्तर पर,
न जाने चाँद ने क्यों रात भर जगाया मुझे।
दिखा रहा था जो तस्वीर मुझको माज़ी की,
मिला था रात गए ऐसा एक परिंदा मुझे।
लिबासे-बर्ग शजर ने उतार फेंका है,
वो अपनी तर्ह कहीं कर न दे बरहना मुझे।
कुबूल हो गई आख़िर मेरी दुआ जाफ़र,
तवक़्क़ोआत से उसने दिया ज़ियादा मुझे.
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1 टिप्पणी:

Udan Tashtari ने कहा…

चढ़ा रहे थे उसे जब सलीब पर कुछ लोग,
मुझे लगा था कि उसने बहोत पुकारा मुझे।


--बहुत उम्दा!!