अमीर खुसरो के बाद हिन्दुस्तानी ग़ज़ल की मस्ती का एहसास कबीर की शायरी में होता है। कबीर के कलाम में उनकी दो-एक गज़लें बेसाख्ता ज़हन पर अपना तअस्सुर छोड़ती हैं. उनकी एक काबिले-तवज्जुह ग़ज़ल है- "हमन हैं इश्क मस्ताना, हमन को होशियारी क्या / रहें आजाद या जग से, हमन दुनिया से यारी क्या. इसी ज़मीन में चंद अशआर, कबीर से ज़हनी कुर्बत रखते हुए तहरीर किए थे जिन्हें पेश कर रहा हूँ [ज़ैदी जाफ़र रज़ा]
हमन की बात समझेंगे, ये मुल्ला क्या पुजारी क्या।
हमन के वास्ते इनकी, खुशी क्या नागवारी क्या।
हमन के दिल में झांके तो सही कोई किसी लम्हा,
हमन दुनिया से क्या लेना, हमन को दुनियादारी क्या।
डुबोकर ख़ुद को देखो, इश्क़ की मस्ती के साग़र में,
समझ जाओगे तुम भी शैख़, हल्का क्या है भारी क्या।
हथेली पर लिए जाँ को, हमन तो फिरते रहते हैं,
हमन की राह रोकेगी, जहाँ की संगबारी क्या।
शराबे इश्क़ की लज्ज़त, कोई जाने तो क्या जाने,
ये मय सर देके मिलती है, यहाँ शह क्या भिकारी क्या।
हमन ख्वाबीदगी में भी, हैं पाते लुत्फे-बेदारी,
हमन को रक्से-मस्ती क्या, हमन की आहो-ज़ारी क्या।
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3 टिप्पणियां:
ज़ैदी जाफ़र रज़ा को पढ़वाने का आप को बहुत शुक्रिया. बहुत जबरदस्त!!
इसके मुत्तालिक़ एक अपने शेर की ज़हमत दे रहा हूँ, मुलाहिज़ा हो -
वसी-उल-क़ल्ब ही जाने है क्या राज़े-निहां इसका,
हरम में कौन बसता है ठिकाना देर है किसका.
मैं चकित हूँ कि कबीर ने भी ग़ज़ल कही। अगर उनकी कही कोई मुकम्मल ग़ज़ल किसी की जानकारी में हो तो पढ़ना चाहूँगा।
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