बुधवार, 30 जुलाई 2008

ख्वाब की तर्ह से है याद कि तुम आये थे / जगन्नाथ आज़ाद

ख्वाब की तर्ह से है याद कि तुम आये थे

जिस तरह दामने-मशरिक़ में सेहर होती है
ज़र्रे-ज़र्रे को तजल्ली की ख़बर होती है
और जब नूर का सैलाब गुज़र जाता है
रात भर एक अंधेरे में बसर होती है
कुछ इसी तर्ह से है याद कि तुम आये थे

जैसे गुलशन में दबे पाँव बहार आती है
पत्ती-पत्ती के लिए ले के निखार आती है
और फिर वक़्त वो आता है कि हर मौजे-सबा
अपने दामन में लिए गर्दो-गुबार आती है
कुछ इसी तर्ह से है याद कि तुम आये थे

जिस तरह महवे-सफर हो कोई वीराने में
और रस्ते में कहीं कोई खियाबाँ आ जाय
चन्द लम्हों में खियाबाँ के गुज़र जाने पर
सामने फिर वही दुनियाए-बियाबाँ आ जाय
कुछ इसी तर्ह से है याद कि तुम आये थे
**********************

वक़्त के हाथ बहोत लंबे हैं / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

चाँद सितारों की मईयत को
सूरज के ताबूत में रख कर
शाम के सूने कब्रिस्तान में गाड़ आते हैं
वक़्त के हाथ बहोत लंबे हैं
*********************

तुम्हें भुलाना भी चाहूँ तो किस तरह भूलूं / जावेद अख़तर

मैं भूल जाऊं तुम्हें अब यही मुनासिब है
मगर भुलाना भी चाहूँ तो किस तरह भूलूँ
कि तुम तो फिर भी हकीकत हो, कोई ख्वाब नहीं
यहाँ तो दिल का ये आलम है क्या कहूँ कमबख्त
भुला सका न ये वो सिलसिला जो था ही नहीं
वो इक ख़याल जो आवाज़ तक गया ही नही
वो एक बात जो मैं कह नहीं सका तुम से
वो एक रब्त जो हम में कभी रहा ही नहीं
मुझे है याद वो सब जो कभी हुआ ही नहीं
अगर ये हाल है दिल का तो कोई समझाए
तुम्हें भुलाना भी चाहूँ तो किस तरह भूलूं
कि तुम तो फिर भी हकीकत हो कोई ख्वाब नहीं
************************

वज़ीर आगा की एक ग़ज़ल

सितम हवा का अगर तेरे तन को रास नहीं
कहाँ से लाऊं वो झोंका जो मेरे पास नहीं
पिघल चुका हूँ तमाज़त में आफताब की मैं
मेरा वुजूद भी अब मेरे आस-पास नहीं
मेरे नसीब में कब थी बरहनगी अपनी
मिली वो मुझको तमन्ना कि बे-लिबास नहीं
किधर से उतरे कहाँ आके तुझ से मिल जाए
अभी नदी के चलन से तू रू-शनास नहीं
खुला पड़ा है समंदर किताब की सूरत
वही पढ़े इसे आकर जो ना-शनास नहीं
लहू के साथ गई तन-बदन की सब चहकार
चुभन सबा में नहीं है कली में बॉस नहीं
*****************************

शआरे-वफ़ा / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

सरे-रहगुज़र मुझको कीलों से जड़ दो
पिन्हाकर मुझे
पाँव में आहनी बेड़ियाँ क़ैद कर लो
पिलाओ मुझे
अपने सफ्फाको-बे-रहम हाथों से
ज़ह्रे-हलाहल
अज़ीयत मुझे चाहे जितनी भी पहोंचाओ
थक-हार कर बैठ जाओगे इक दिन
कि मैं आशनाए -शआरे-वफ़ा हूँ।
********************

तू मुझे इतने प्यार से मत देख / अली सरदार जाफ़री

तू मुझे इतने प्यार से मत देख
तेरी पलकों के नर्म साए में
धूप भी चांदनी सी लगती है
और मुझे कितनी दूर जाना है
रेत है गर्म, पाँव के छाले
यूँ दमकते हैं जैसे अंगारे
प्यार की ये नज़र रहे न रहे
कौन दश्ते-वफ़ा में जाता है
तेरे दिल को ख़बर रहे न रहे
तू मुझे इतने प्यार से मत देख
*****************

फ़राग़त / बलराज कोमल

यूँ तेरी निगाहों से गिला कुछ भी नहीं था
इस दिल ने तो बेकार यूँ ही बैठे-बिठाए
वीरानिए-लम्हात को बहलाने की ख़ातिर
अफ़साने गढे, बातें बनायी थीं हज़ारों
ये इश्क का अफसाना जो फिर छेड़ा है तू ने
बेकार है अब वक़्त कहाँ उसको सुनूँ मैं
जब तुमको फ़रागत न थी, अब मुझ को नहीं है।
**********************

आवारा सज्दे / कैफी आज़मी

इक यही सोज़े-निहां कुल मेरा सरमाया है
दोस्तों मैं किसे ये सोजे-निहां नज़्र करूँ
कोई क़ातिल सरे-मक़तल नज़र आता ही नहीं
किसको दिल नज़्र करूँ और किसे जां नज़्र करूँ

तुम भी महबूब मेरे तुम भी हो दिलदार मेरे
आशना मुझसे मगर तुम भी नहीं, तुम भी नहीं
ख़त्म है तुम पे मसीहा नफसी चारागरी
महरमे-दर्दे-जिगर तुम भी नहीं तुम भी नहीं

अपनी लाश आप उठाना कोई आसन नहीं
दस्तो-बाजू मेरे नाकारा हुए जाते हैं
जिन से हर दौर में चमकी है तुम्हारी देहलीज़
आज सज्दे वही आवारा हुए जाते हैं

दूर मंजिल थी मगर ऐसी भी कुछ दूर न थी
लेके फिरती रही रस्ते ही में वहशत मुझ को
एक ज़ख्म ऐसा न खाया कि बहार आ जाती
दार तक एके गया शौके-शहादत मुझ को

राह में टूट गया पाँव तो मालूम हुआ
जुज़ मेरे और मेरा राहनुमा कोई नहीं
एक के बाद खुदा एक चला आता था
कह दिया अक्ल ने तंग आके खुदा कोई नहीं
******************************

मंगलवार, 29 जुलाई 2008

परवेज़ फ़ातिमा की एक ग़ज़ल

उदास, सहमे हुए लोग, खामुशी हर सू
सदाएं सुनती हूँ क्यों आज मौत की हर सू
तड़पते ख्वाबों की उरियां-बदन इबारत से
सदाए-मर्सिया मिलती है गूंजती हर सू
चुभो के खंजरे-नफ़रत की नोक सीनों में
बरहना नाच रही है दरिंदगी हर सू
हमारे ख्वाब भी महफूज़ रह न पायेंगे
कि हमने ख़्वाबों की ताबीर देख ली हर सू
कहा किसी ने कि इस शहर से चली जाओ
यहाँ मिलेगी तुम्हें सिर्फ़ बेकली हर सू
समझ में कुछ नहीं आता मैं क्या करूँ 'परवेज़'
लगा रही है मुझे ज़ख्म, बेहिसी हर सू
********************

सोमवार, 28 जुलाई 2008

धमाके ये हर सिम्त क्यों हो रहे हैं ?/ मिश्कात आबिदी

बताये कोई लोग क्यों सो रहे हैं
ये बेचारगी किस लिए ढो रहे हैं
पड़ोसी को बस कोस कर रो रहे हैं
धमाके ये हर सिम्त क्यों हो रहे हैं

हुआ क्या जो इस दर्जा मजबूर हैं हम
क़दम क्यों उठाने से माजूर हैं हम
हकीकत से क्यों इस कदर दूर हैं हम
धमाके ये हर सिम्त क्यों हो रहे हैं

कहाँ से हैं आते ये जानों के दुश्मन
अमन शांती के तरानों के दुश्मन
हैं क्यों ये हमारे ठिकानों के दुश्मन
धमाके ये हर सिम्त क्यों हो रहे हैं

हुकूमत ने होंटों को सी क्यों लिया है
तकल्लुफ का आख़िर ये क्यों सिलसिला है
सही बात कहने में खतरा ही क्या है
धमाके ये हर सिम्त क्यों हो रहे हैं ?

तबाही का ये दौर कब तक चलेगा
इसी तर्ह क्या खून बहता रहेगा
या कोई कभी खुल के भी कुछ कहेगा
धमाके ये हर सिम्त क्यों हो रहे हैं ?

ज़रा जा के दहशत-पनाहों से पूछो
तशद्दुद-पसंदी के शाहों से पूछो
गला थाम कर कम-निगाहों से पूछो
धमाके ये हर सिम्त क्यों हो रहे हैं ?

ये उजड़े हुए घर ये जिस्मों के टुकड़े
कभी थे जो माँओं की आंखों के टुकड़े
हुए बेखता, बेगुनाहों के टुकड़े
धमाके ये हर सिम्त क्यों हो रहे हैं ?

हैं कातिल मेरे मुल्क के राहबर भी
जो करते नहीं कुछ, ये सब देख कर भी
कभी दहशतें पहोंचेंगी उनके घर भी
धमाके ये हर सिम्त क्यों हो रहे हैं ?
******************

नोशी गीलानी की ग़ज़लें

[ 1 ]
महताब रुतें आयें, तो क्या-क्या नहीं करतीं
इस उम्र में तो लड़कियां सोया नहीं करतीं
किस्मत जिन्हें का दे शबे-ज़ुल्मत के हवाले
आँचल वो किसी नाम का ओढा नहीं करतीं
कुछ लड़कियां अंजामे-नज़र होते हुए भी
जब घर से निकलती हैं तो सोचा नहीं करतीं
यां प्यास का इज़हार मलामत है गुनह है,
फूलों से कभी तितलियाँ पूछा नहीं करतीं
जो लड़कियां तारीक मुक़द्दर हों, कभी भी
रातों को दिए घर में जलाया नहीं करतीं.
[ 2 ]
तुमने तो कह दिया कि मुहब्बत नहीं मिली
मुझको तो ये भी कहने की मुहलत नहीं मिली
नींदों के देस जाते, कोई ख्वाब देखते
लेकिन दिया जलने से फुर्सत नहीं मिली
तुझको तो खैर शहर के लोगों का खौफ था
मुझको ख़ुद अपने घर से इजाज़त नहीं मिली
बेजार यूँ हुए कि तेरे उह्द में हमें
सब कुछ मिला सुकून की दौलत नहीं मिली
[ 3 ]
कोई मुझको मेरा भरपूर सरापा लादे.
मेरे बाजू, मेरी आँखें, मेरा चेहरा लादे
कुछ नहीं चाहिए तुझ से ऐ मेरी उम्रे-रवां
मेरा बचपन, मेरे जुगनू, मेरी गुडिया लादे.
जिसकी आँखें मुझे अन्दर से भी पढ़ सकती हों
कोई चेहरा तू मेरे शह्र में ऐसा लादे
कश्तीए-जां तो भंवर में है कई बरसों से
या खुदा अब तू डुबो दे या किनारा लादे
*****************

बस करता रहूँगा कर्म / गौरव अवस्थी

आज मैंने सोचा
क्यों न कर लिया जाय धर्म परिवर्तन !
परिवर्तित कर लेने से धर्म
सफल हो सकता है जीवन ।

हिंदू धर्म में मज़ा नही है ,
देवी देवताओं का पता नही है!
कितने यक्ष हैं कितने देवता ,
इनकी तो कोई थाह नही है !

कॉलेज की किताबें कम नही ,
फिर वेद पुराण पढने का समय कहाँ ?
ब्रह्मचर्य का पालन कर के
बनना नहीं है मुनिदेव !

फ़िर सोचा क्यों न मुस्लिम बन जाऊँ ,
महीने भर रोजा रक्खूं
और खूब बकरे खाऊन
रोज़ सुबह से शाम पाँच बार ,
अल्लाह अल्लाह पुकारूं !

न जाने कितनी बार ,
ताजियों के साथ मातम मनाऊंगा !
कहीं गलती से शिया बन गया,
तो सुन्नियों के हाथों मारा जाऊंगा!

फ़िर सोचा की सिक्ख बन जाऊंगा,
दाढ़ी अपनी लम्बी करूँगा,
और मूछें भी नही कटवाऊंगा !
पंजाब के अमृतसर में जा कर,
मक्के दी रोटी और सरसों का साग खाऊँगा!

तभी एक मोटे अकाली ने कहा,
हड्डियाँ तो हैं इसमें, पर मांस कहाँ है सारा?
कहीं दोबारा मरी कोई इंदिरा,
तो बेमौत मारा जाएगा बेचारा!

तभी एक ईसाई धर्म प्रचारक बोले,
की बन जाओ ईसाई!
जिंदा बच गए बेटा,
तो करोगे खूब कमाई!

बने ईसाई तो धन कमाओगे खूब सारा,
लेकिन गए गुजरात और उडीसा,
तो कोई रक्षक नही तुम्हारा!
हम घबराए, कुछ सकुचाये,
बोले, काहे डराते हो भाई?
वो बोला, गुजरात और उडीसा में
क्रिश्चियंस की होती है पिटाई!

तो बैठे-बैठे ही हमने सोच लिया,
कि नही बदलूँगा धर्म!
चिंता नही करूँगा फल की,
बस करता रहूँगा कर्म!
***********

रविवार, 27 जुलाई 2008

पसंदीदा ग़ज़लें / अदीम हाशमी

[ 1 ]
गम के हर इक रंग से मुझको शनासा कर गया
वो मेरा मोहसिन मुझे पत्थर से हीरा कर गया
हर तरफ़ उड़ने लगा तारीक सायों का गुबार
शाम का झोंका, चमकता शह्र मैला कर गया.
चाट ली किरनों ने मेरे जिस्म की सारी मिठास
मैं समंदर था वो सूरज मुझको सहरा कर गया.
एक लम्हे में भरे बाज़ार सूने हो गए,
एक चेहरा सब पुराने ज़ख्म ताज़ा कर गया.
रात भर हम रौशनी की आस में जागे 'अदीम'
और दिन आया तो आंखों में अँधेरा कर गया.
[ 2 ]
फासले ऐसे भी होंगे ये कभी सोचा न था.
सामने बैठा था मेरे, और वो मेरा न था.
ख़ुद चढा रक्खे थे तन पर अजनबीयत के गिलाफ
वरना कब इक दूसरे को हमने पहचाना न था.
ये सभी वीरानियाँ उसके जुदा होने से थीं,
आँख धुंधलाई हुई थी, शह्र धुंधलाया न था
सैकड़ों तूफ़ान लफ़्जों के दबे थे ज़ेरे-लब
एक पत्थर था खामोशी का कि जो हिलाता न था.
याद करके और भी तकलीफ होती थी 'अदीम'
अब सिवाए भूल जाने के कोई चारा न था.
[ 3 ]
शोर सा एक हर एक सिम्त बपा लगता है.
वो खमोशी है कि लम्हा भी सदा लगता है.
कितना सकित नज़र आता है हवाओं का बदन
शाख पर फूल भी पथराया हुआ लगता है.
चीख उठती हुई हर घर से नज़र आती है
हर मकां शह्र का, आसेब-ज़दा लगता है.
आँख हर रह से चिपकी ही चली जाती है,
दिल को हर मोड़ पे कुछ खोया हुआ अगता है.
सोचता हूँ, तो हर इंसान पुतानी सूरत
देखता हूँ तो हर इक शख्स नया लागता है.
देर से ढूंढ रहा हूँ फ़क़त इक शब् की पनाह
साफ़ इनकार हर इक दर पे लिखा लगता है.
जान तू किसके लिए अपनी गंवाता है 'अदीम'
खूबसूरत है वो, लेकिन तेरा क्या लगता है.
*********************

पसंदीदा नज़्में / साहिर लुधियानवी

1. तुम चली जाओगी
तुम चली जाओगी परछाइयां रह जायेंगी
कुछ न कुछ हुस्न की रानाइयां रह जायेंगी
तुम इसी झील के साहिल पे मिली हो मुझसे
जब भी देखूंगा यहीं मुझको नज़र आओगी
याद मिटती है न मंज़र कोई मिट सकता है
दूर जाकर भी तुम अपने को यहीं पाओगी.
2. सनाख्वाने-तकदीसे-मशरिक कहाँ हैं ?

ये कूचे ये नीलाम घर दिलकशी के
ये लुटते हुए कारवां जिंदगी के
कहाँ हैं कहाँ हैं मुहाफिज़ खुदी के
सनाख्वाने-तकदीसे-मशरिक कहाँ हैं ?

ये पुर-पेच गलियाँ, ये बे-ख्वाब बाज़ार
ये गुमनाम राही, ये सिक्कों की झंकार
ये इस्मत के सौदे, ये सौदों पे तकरार
सनाख्वाने-तकदीसे-मशरिक कहाँ हैं ?

तअफ़्फ़ुन से पुर, नीम-रौशन ये गलियाँ
ये मसली हुई अधखिली ज़र्द कलियाँ
ये बहकी हुई खोखली रंग-रलियाँ
सनाख्वाने-तकदीसे-मशरिक कहाँ हैं ?

वो उजले दरीचों में पायल की छन-छन
तनफ़्फ़ुस की उलझन पे तबले की धन-धन
ये बे-रूह कमरों में खांसी की ठन-ठन
सनाख्वाने-तकदीसे-मशरिक कहाँ हैं ?

ये गूंजे हुए क़ह्क़हे रास्तों पर
ये चारों तरफ़ भीड़ सी खिड़कियों पर
ये आवाज़े खिंचते हुए आंचलों पर
सनाख्वाने-तकदीसे-मशरिक कहाँ हैं ?

ये फूलों के गजरे ये पीकों के छींटे
ये बेबाक नज़रें ये गुस्ताख फिक़रे
ये ढलके बदन औ ये मद्कूक चेहरे
सनाख्वाने-तकदीसे-मशरिक कहाँ हैं ?

ये भूकी निगाहें हसीनों की जानिब
ये बढ़ते हुए हाथ सीनों की जानिब
लपकते हुए पाँव जीनों की जानिब
सनाख्वाने-तकदीसे-मशरिक कहाँ हैं ?

यहाँ पीर भी आ चुके हैं जवां भी
तनू-मंद बेटे भी, अब्बा मियाँ भी
ये बीवी भी है और बहेन भी है मां भी
सनाख्वाने-तकदीसे-मशरिक कहाँ हैं ?

मदद चाहती है ये हौवा की बेटी
यशोदा की हमजिंस राधा की बेटी
पयम्बर की उम्मत जुलेखा की बेटी
सनाख्वाने-तकदीसे-मशरिक कहाँ हैं ?

ज़रा मुल्क के रहबरों को बुलाओ
ये गलियां, ये कूचे, ये मंज़र दिखाओ
सनाख्वाने-तकदीसे-मशरिक कहाँ हैं ?

3. रह्बराने कौम के नाम

आओ कि आज गौर करें इस सवाल पर
देखे थे हमने जो वो हसीं ख्वाब क्या हुए
दौलत बढ़ी तो मुल्क में अफ्लास क्यों बढ़ा
खुश-हालीए-अवाम के असबाब क्या हुए
जो अपने साथ-साथ गए कूए-दार तक
वो दोस्त, वो रफीक, वो अहबाब क्या हुए
क्या मोल लग रहा है शहीदों के खून का
मरते थे जिन पे हम वो सजायब क्या हुए
बेकस बरहनगी को कफ़न तक नहीं नसीब
जम्हूरियत-नवाज़,बशर-दोस्त, अम्न-ख्वाह
ख़ुद को जो ख़ुद दिए थे वो अलकाब क्या हुए
मज़हब का रोग आज भी क्यों ला-इलाज है
वो नुस्खाहाए नादिरो-नायाब क्या हुए
हर कूचा शोला-ज़ार है हर शहर क़त्ल-गाह
यक्जह्तिए-हयात के आदाब क्या हुए
सहराए-तीरगी में भटकती है जिंदगी
उभरे थे जो उफक पे वो महताब क्या हुए

मुजरिम हूँ मैं अगर तो गुनाहगार तुम भी हो
ऐ रह्बराने कौम, खतावार तुम भी हो
******************

जोश मलीहाबादी की ग़ज़लें

[ 1 ]
क़दम इन्सां का राहे-दह्र में थर्रा ही जाता है.
चले कितना ही कोई बच के, ठोकर खा ही जाता है.
नज़र हो ख्वाह कितनी ही हक़ाइक़-आशना, फिर भी,
हुजूम-कशमकश में आदमी घबरा ही जाता है.
खिलाफे-मसलेहत मैं भी समझता हूँ, मगर वाइज़
वो आते हैं तो चेहरे पर तगैयुर आ ही जाता है.
हवाएं ज़ोर कितना ही लगाएं आंधियां बनकर
मगर जो घिर के आता है, वो बादल छा ही जाता है.
शिकायत क्यों इसे कहते हो ये फितरत है इन्सां की
मुसीबत में खयाले-ऐशे-रफ्ता आ ही जाता है.
[ 2 ]
जहन्नम सर्द है, जन्नत के दर खुलवाये जाते हैं.
सरे-महशर पुजारी हुस्न के बुलवाए जाते हैं.
गज़ब है ये अदा उनकी दमे-आराइशे-गेसू,
झुकी जाती हैं आँखें ख़ुद-बखुद शर्माए जाते हैं.
शबे-वादा ये कैसी तीरगी है,वक्त क्या होगा
तमन्नाओं के गुंचे हमनफस कुम्हलाये जाते हैं.
कोई हद ही नहीं इस इह्तरामे-आदमीयत की
बदी करता है दुश्मन और हम शर्माए जाते हैं.
बहोत जी खुश हुआ ऐ हमनशीं कल 'जोश' से मिलकर,
अभी अगली शराफत के नमूने पाये जाते हैं.
[ 3 ]
पहचान गया, सैलाब है, इसके सीने में अरमानों का.
देखा जो सफीने को मेरे, जी छूट गया तूफानों का.
ये शोख फिजा, ये ताज़ा चमन,ये मस्त घटा, ये सर्द हवा,
काफिर है अगर इस वक्त भी कोई रुख न करे मैखानों का.
ये किसकी हयात-अफरोज नज़र ने छेड़ दिया है आलम को,
हर ख़ाक के अदना ज़र्रे में, हंगामा है लाखों जानों का.
हाँ जुल्मो-सितम से भी क़दरे, पड़ती हैं खराशें सीने में,
सबसे मुह्लिक है ज़ख्म मगर, ऐ हुस्न तेरे एहसानों का.
कमबख्त जवानी सीने में, नागन की तरह लहराती है,
हर मौजे-नफस इक तूफां है, कुनैन-शिकन अरमानों का.
ऐ 'जोश' जुनूं की शामो-सहर में वक्त की ये रफ़्तार नहीं,
दानाओं की तूलानी सदियाँ,और एक नफस दीवानों का.
**************************

शनिवार, 26 जुलाई 2008

इस्लाम की समझ / क्रमशः 1.5

इस्लाम दीन है, धर्म या मज़हब नहीं
श्रीप्रद कुरआन ने जबतक यह कहा कि 'आज्ञापालन करो अल्लाह का और आज्ञापालन करो उसके रसूल का' मुस्लिम धर्माचार्यों को इस्लामी सल्तनत का कोई आधार नहीं मिल सका. यह और बात है कि मक्के के मुशरिकों का अनुमान था कि हज़रत मुहम्मद (स.) दीन के माध्यम से अरब की सल्तनत स्थापित करना चाहते हैं. मुशरिकों के प्रतिनिधि अत्बा ने कुरैश को यह सुझाव भी दिया था कि 'मुहम्मद (स.) को उसके हाल पर छोड़ दो. यदि अरब वालों ने उसका अंत कर दिया तो तुम सस्ते छूट गए और यदि उसे आधिपत्य प्राप्त हुआ तो उसकी सल्तनत तुम्हारी सल्तनत होगी." इतना ही नहीं, आगे चलकर मक्का विजय के समय जब अब्बास इब्ने-अब्दुलमुत्तलिब (र.) अबूसुफियान को, जिसने दबाव में आकर अभी कुछ क्षणों पूर्व ही इस्लाम को दीन के रूप में स्वीकार किया था, इस्लामी सेना के संयमित पंक्तिबद्ध दस्तों का मुआइना करा रहे थे, उसके मुंह से अचानक निकल गया था, "ऐ अब्बास ! (र.) तुम्हारा भतीजा तो बड़ी सल्तनत वाला हो गया." अब्बास ने तत्काल उसके मुंह पर हाथ रख दिया और कहा "धिक्कार हो तुझ पर. यह सल्तनत नहीं नबूवत है."
बात स्पष्ट है कि मक्के के मुशरिकों को ही यह आभास नहीं था, नबीश्री (स.) के जीवन काल में ही, मुसलामानों के बीच यह मानसिकता विकसित हो चुकी थी कि नबूवत का उद्देश्य इस्लामी हुकूमत स्थापित करना है. वस्तुतः यही वह बीज-बिन्दु है जिसने नबीश्री (स.) के निधनोपरांत अल्लाह के प्रिय दीन इस्लाम को, सुन्नी और शीआ जैसे दो बड़े समूहों में विभाजित करके, मज़हब में तब्दील कर दिया. और यही वह स्थल है जहाँ से इस्लाम में ‘हिकमत’ के स्थान पर राजनीति ने प्रवेश किया.
श्रीप्रद कुरआन में मुसलमानों को जब आदेश हुआ "या अयियुहल्लज़ीन आमनू अतीउल्लाह व अतीउर्रसूल व ऊलिल'अम्रि मिन्कुम" तो यद्यपि अनेक सहाबियों ने जिज्ञासावश इस आयत का वास्तविक अर्थ नबीश्री से मालूम कर लिया था, किंतु सत्ता लोलुप मुसलमानों ने, इस अर्थ को दबाकर, इसका अर्थ इस प्रकार करना प्रारंभ किया 'ऐ ईमान वालो ! अल्लाह का आदेश मानो और रसूल का आदेश मानो और उनका जो तुम में साहिबे-हुकूमत (शासक) हैं.''ऊलिल'अम्र' का ‘हुक्मरां’ या ‘शासक’ अर्थ करके मुसलमानों ने अपनी नीयत स्पष्ट कर दी. शासक तो भ्रष्ट-से-भ्रष्ट व्यक्ति भी हो सकता है. फिर अल्लाह उसके आदेशों का पालन करने के लिए ईमान वालों को क्यों आदेशित करेगा. यदि ऐसा ही था तो नबियों द्बारा मार्ग-दर्शन की आवश्यकता ही क्या थी. शीआ समुदाय ने आयत का अर्थ और उसकी व्याख्या यद्यपि पर्याप्त सीमा तक सही की, किंतु व्यवहार में वह भी, नबीश्री (स.) के सर्वप्रिय सहाबी इमाम अली (र.) में ही सही, सांसारिक सत्ता देखने के पक्षधर हैं.
ऊलिल'अम्र का अर्थ शब्द कोशों में तलाश करने से ही मेरी दृष्टि में यह ज़िदें पैदा हुईं. श्रीप्रद कुरआन में जहाँ-जहाँ 'अम्र' शब्द का प्रयोग हुआ है एक दृष्टि उसपर अवश्य कर लेनी चाहिए. जहाँ तक हुकूमत और सल्तनत का प्रश्न है श्रीप्रद कुरआन ने साफ़ शब्दों में घोषित कर दिया है"इनिल हुक्मु इल्लल्लाहि" (12/40). अर्थात अल्लाह के सिवा किसी की हुकूमत नहीं है.
श्रीप्रद कुरआन में कहा गया है "युदब्बिरुल'अम्र मिनस्समाइ इलल'अर्ज़ि" (32/5). अर्थात वह आकाश से धरती तक आदेशों की व्यवस्था करता है. यहाँ अम्र का अनुवाद कार्य भी किया गया है. किंतु यदि अम्र का अनुवाद कार्य किया जाय तो 'अल-अम्र' होने के कारण उन कार्यों की विशिष्टता रेखांकित होती है. और यह विशिष्टता अल्लाह से सम्बद्ध है. यानी यह कार्य सामान्य, रोज़मर्रा के या हमारे प्रशासनिक कार्य नहीं हैं. एक अन्य आयत में कहा गया है "यतनज़्ज़लुल'अमरु बैनहुन्न" (65/12) अर्थात उनके बीच (धरती और आकाश के बीच) उसके 'आदेश' (अम्र) उतरते रहते हैं. ऊपर की आयत को इस आयत से मिलाकर देखा जाय तो स्पष्ट हो जाएगा कि वह धरती और आकाश के बीच कार्यों की नहीं, अपने आदेशों की व्यवस्था करता है जिसके नतीजे में सारे कार्य संपन्न होते हैं. किंतु यही 'अम्र' शब्द जब श्रीप्रद कुरआन में अल्लाह के किसी प्रिय गुण से संपन्न व्यक्तियों के लिए या किसी नबी के सन्दर्भ में आता है तो इससे अभिप्राय उसके कार्य ही होते हैं. उदाहरणस्वरूप श्रीप्रद कुरआन में सात्विक (मुत्तकी) व्यक्तियों के सन्दर्भ में कहा गया है "व मयींयत्तक़िल्लाह यज'अल्लहू मिन अम्रिही युस्रन" (65/4). अर्थात जो अल्लाह के लिए तक़वा रखते हैं (सात्विकता बनाए रखते हैं), अल्लाह उनके कार्यों में सहूलत पैदा कर देता है. एक अन्य स्थल पर हज़रत लूत (अ.) के सन्दर्भ में कहा गया "व क़ज़यना इलैहि ज़ालिकल अम्र" अर्थात ‘और हमने उसके (हज़रत लूत (अ.) के) कार्यों/मामले में अपना निर्णय उसकी ओर भेजा.'
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि 'ऊलिल अम्र' का अनुवाद ‘शासक’ अथवा ‘हुक्मरां’ करना तर्क-संगत नहीं है. फिर श्रीप्रद कुरआन की इस आयत को यदि ध्यान पूर्वक देखा जाय तो और भी तथ्य सामने आते हैं. आज्ञापालन के आदेश तीन हैं.अल्लाह का आज्ञा पालन,रसूल का आज्ञा पालन और ऊलिल अम्र का आज्ञा पालन. किंतु अल्लाह को पृथक् श्रेणी में रखा गया है और रसूल तथा ऊलिल अम्र को पृथक् किंतु एक ही श्रेणी में रखकर आज्ञा पालन का आदेश दिया गया है. रसूल के गुणों से ऊलिल अम्र के गुण यदि कुछ भी भिन्न होते तो उसके लिए पृथक रूप से 'अतीऊ' (आज्ञा पालन करो) शब्द प्रयुक्त होता. ज़ाहिर है कि यह विभाजन गुणों के आधार पर है. जो गुण अल्लाह के हैं वह निश्चित रूप से रसूल और ऊलिल अम्र के नहीं हैं. किंतु रसूल (स.) और ऊलिल अम्र के गुणों में समानता है. इसलिए इनके प्रसंग में आज्ञा पालन का आदेश एक साथ हुआ है.यह ऐसा ही है जैसे आप अपने किसी अधिकारी और सहयोगियों को घर पर निमंत्रित करने के लिए कहें 'सर ! आप आज शाम को घर पर पधारने की कृपा करें और आप और आप और आप भी पधारें. इस वाक्य में एक निमंत्रण तो अधिकारी के लिए विशिष्ट है दूसरे निमंत्रण में तीन लोग शामिल हैं जो गुण और पद की दृष्टि से समान हैं. स्पष्ट यह हुआ कि ऊलिल अम्र में वैसे ही गुण होने चाहियें जो नबीश्री (स.) में हैं और अल्लाह को और उसके रसूल को भी वह उसी प्रकार प्रिय हो जिस प्रकार नबीश्री (स.) अल्लाह को प्रिय हैं, अन्यथा अल्लाह उसकी आज्ञा पालन का आदेश ही क्यों देगा.
नबीश्री के भेजे जाने का उद्देश्य यदि इस्लामी सल्तनत स्थापित करना होता और श्रीप्रद कुरआन में नबीश्री के कामों में इसकी गणना की गई होती, तो ऊलिल अम्र का भी यह दायित्व होता कि वह इस्लामी हुकूमत की व्यवस्था करे. नबीश्री के निधनोपरांत कुछ गिने-चुने सहाबियों द्वारा खलीफा का निर्वाचित किया जाना एक राजनीतिक व्यवस्था की शुरूआत तो कही जा सकती है, किंतु इस प्रक्रिया को दीन से जोड़कर नहीं देखा जा सकता. मैं बार-बार यह दुहराना पसंद करूँगा कि नबीश्री जीवन-पर्यंत 'हिकमत' से काम लेते रहे, 'राजनीति' से नहीं. ऊलिल अम्र को उसके चारित्रिक गुणों,अल्लाह और रसूल से उसके नैकट्य,सद्कर्मों के प्रति उसकी प्रतिबद्धता और सच्चाइयों पर डटे रहने के जीवट के आधार पर पहचाना जा सकता है, खलीफा जैसे किसी सांसारिक पद के आधार पर नहीं. सांसारिक पद मैं इसलिए कह रहा हूँ कि श्रीप्रद कुरआन में जहाँ यह पद सांसारिक नहीं है, मुझे ऐसा कोई सन्दर्भ नहीं मिलता जहाँ किसी क़ौम ने अपने लिए खलीफा का निर्वाचन किया हो. खलीफा अल्लाह का प्रतिनिधि होता है और अल्लाह को ही अपना प्रतिनधि चुनने का अधिकार भी है. खलीफा का निर्वाचन करके नबीश्री के कुछ सहाबियों ने यह साबित कर दिया कि यह पद अल्लाह प्रदत्त न होकर जनता प्रदत्त है. और जनता प्रदत्त पदों को दीन से नहीं जोड़ा जा सकता.
नबीश्री ने अपने रिश्तेदारों और सहाबियों के बीच में अपनी बातचीत में जहाँ भी खलीफा शब्द का प्रयोग किया है वह 'वसी,' 'वज़ीर,''नाइब,' 'वली' आदि अर्थों में किया है. रिसालत और नबूवत नबीश्री पर समाप्त हो गई.और जब यह पद ही समाप्त हो गया फिर उत्तराधिकार का क्या प्रश्न. वैसे भी नबूवत और रिसालत का कोई स्थानापन्न नहीं हो सकता.नबी अल्लाह की खबरें उसके बन्दों तक पहुंचाता है और रसूल अल्लाह के संदेशों से अवगत कराता है. हज़रत मुहम्मद (स.) का अन्तिम नबी होना इस तथ्य को उद्घाटित करता है कि मानव जाति तक अल्लाह की सभी खबरें और सभी संदेश पहुँच चुके. वसी, वजीर, नाइब, वली इत्यादि शब्द सहयोगी के अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं, शासक या हुक्मरां के अर्थ में नहीं. वजीर वह होता है जो दायित्व के बोझ को हल्का करे.
हज़रत मूसा (अ.) ने अल्लाह से प्रार्थना की "वज'अल्ली वज़ीरम्मिन अहली. हारून अखी" (श्रीप्रद कुरआन,20/29-30) अर्थात (मेरे रब) मेरे 'अह्ल' (अल्लाह की दृष्टि में सद्कर्म करने वाला सुयोग्य पात्र) में से एक को मेरा वज़ीर नियुक्त कर. मेरे भाई हारुन को.' यहाँ श्रीप्रद कुरआन के अनेक व्याख्याताओं ने 'अहली' शब्द का अनुवाद 'मेरे घर वाले' या 'मेरे परिवार वाले' किया है, जो उचित नहीं है. अपनी बात की पुष्टि में मैं श्रीप्रद कुरआन से हज़रत नूह (अ.) का उद्धरण देना चाहूँगा. प्रलय आने पर जब हज़रत नूह (अ.) का बेटा पिता के कहने पर भी कश्ती पर नहीं बैठा और पानी में डूबने लगा तो हज़रत नूह (अ.) ने अल्लाह से प्रार्थना की " व नादा नूहुंर्रब्बहू फ़क़ाल रब्बि इन्न अब्नी मिन अहली" (11/45). अर्थात 'और नूह ने अपने रब को पुकारा और कहा ऐ मेरे रब ! यह मेरा बेटा है और मेरा अह्ल है.' नूह (अ.) को अल्लाह का उत्तर मिला "या नूहु लैस मिन अह्लिक इन्नहू अमलुन गैरु सालिहिन." (11/46).अर्थात 'नूह वह तेरे अह्ल में से नहीं है. वह सदाचारी नहीं है." यहाँ बेटा होने का खंडन नहीं किया गया किंतु अहल होना स्वीकार नहीं किया गया और तर्क यह दिया गया कि उसके (नूह (स.) के बेटे के) कर्म सालिह नहीं हैं अर्थात भ्रष्ट हैं. स्पष्ट हो जाता है कि कोई भी व्यक्ति केवल घर का होने के आधार पर अल्लाह की दृष्टि में ‘अह्ल’ नहीं है. अह्ल होने के लिए उसका सदाचारी होना अनिवार्य शर्त है. सदाचारी शब्द का प्रयोग मैं यहाँ 'अमलि-सालिह; अर्थात नेक कर्म या सद्कर्म करने वाले के अर्थ में कर रहा हूँ.
यहाँ मैं एक और प्रसंग की चर्चा करना चाहूँगा जिसके सन्दर्भ सुन्नी और शीआ समुदाय की प्रामाणिक पुस्तकों में साधारण से अन्तर के साथ समान रूप से उपलब्ध हैं. सन 09 हिजरी में जब श्रीप्रद कुरआन की सूरः बराअत का अवतरण हुआ, तो नबीश्री ने सूरः की आयतों को लेकर, हज के अवसर पर हज़रत अबूबक्र (र.) को मक्का जाने का आदेश दिया. किंतु उसके बाद ही नबीश्री को अल्लाह का संदेश प्राप्त हुआ कि आप उन्हें वापस बुला लीजिये और इन आयतों को लेकर या तो आप स्वयं जायिए या अपने किसी ‘अह्ल’ को भेजिए. अल्लाह के इस संदेश के बाद नबीश्री ने इमाम अली (र.) को आदेश दिया कि वे हज़रत अबू बक्र (र.) से सूरः बराअत लेकर मक्के तशरीफ़ ले जाएँ और हाजियों के समक्ष उसकी प्रस्तुति स्वयं करें. स्पष्ट है कि अल्लाह की दृष्टि में हज़रत अबू बक्र (र.) नबीश्री के ‘अह्ल’ नहीं थे और हज़रत अली (र.) नबीश्री के भाई या दामाद होने के कारण नहीं भेजे गए बल्कि वे इसलिए भेजे गए कि वे नबीश्री के अह्ल थे और आमालि सालिह (सद्कर्म) की तराजू पर वे ही ऐसे थे जो नबीश्री का स्थान ले सकते थे. श्रीप्रद कुरआन ने ऐसी ही विभूतियों के लिए ‘ऊलिल अम्र’ शब्द का प्रयोग किया है।
ऊपर मैंने यह लिखा है कि नबीश्री (स.) ने अपने रिश्तेदारों और सहाबियों के बीच जब भी खलीफा शब्द का प्रयोग किया है उसका अर्थ कहीं भी हुक्मरान या शासक नहीं है. मैं जानता हूँ कि मेरी यह अवधारण सुन्नी और शीआ समुदायों के अनेक धर्माचार्यों को अच्छी नहीं लगेगी. किंतु मेरी दृष्टि में तथ्य यही है. मैं यहाँ दावते-ज़ुल-अशीरा का सन्दर्भ देना चाहूँगा.यह सन्दर्भ सुन्नी समुदाय की अनेक प्रामाणिक पुस्तकों में उपलब्ध है जिनमें से कुछ के नाम इस प्रकार है.1. शेख अलाउद्दीन अली बिन मुहम्मद बिन इब्राहीम अल-बग्दादीकृत लुबाबुत्तावील फी म'आलिमुत्तन्जील जो तफसीरे-खाज़िन बगदादी के नाम से प्रसिद्ध है 2.अबीबक्र इब्नल्हुसैन अल-इमाम अल-हाफिज़ अली अल-बैहकीकृत दलाइलुन्नबूवह 3.इब्ने जरीर तबरीकृत तारीखुर्रसुल वल-मुलूक 4. इब्ने असीर जज़रीकृत तारीखे-कामिल 5. सुयूतीकृत जमउल जवामे इत्यादि.
प्रारम्भ में तीन वर्षों तक नबीश्री ने गोपनीय रूप से इस्लाम का प्रचार किया. किंतु इसके बाद जब श्रीप्रद कुरआन की यह आयत उतरी कि 'अपने निकट सम्बन्धियों को अल्लाह के अजाब से डराओ’ तो नबीश्री ने बनीहाशिम को खाने पर निमंत्रित किया जिसमें चालीस लोग आए. यद्यपि भोजन देखने में बहुत कम था पर अल्ल्लाह की कृपा से सभी ने सेर होकर खाया. भोजनोपरांत जब नबीश्री ने कुछ कहना चाहा तो अबूलहब ने उनकी बात प्रारम्भ होने से पहले सबकुछ मजाक में उड़ा दिया. दूसरे दिन फिर उन लोगों को निमंत्रित किया गया. आज वे लोग पहले की अपेक्षा कुछ नर्म थे. इसलिए नबीश्री को अपनी बातें कहने का अवसर मिल गया. नबीश्री ने कहा "ऐ बनी अब्दुल्मुत्तलिब ! मैं तुम्हारे पास कुछ लोक परलोक की नेकियाँ लाया हूँ. और अल्लाह ने मुझे इस बात के लिए आदेशित किया है कि मैं तुम्हें उसकी ओर बुलाऊं. तुम में से जो भी मेरा सहयोग देगा वह मेरा भाई, मेरा वसी और मेरा खलीफा होगा. नबीश्री ने तीन बार अपना यह वाक्य दुहराया किंतु तीनों बार अली (र.) के अतिरिक्त कोई भी तैयार नहीं हुआ. अंत में नबीश्री ने सभी को संबोधित करके कहा कि ऐ लोगो ! अली (र.) मेरा भाई, मेरा वसी और मेरा खलीफा है. तुम इसके आदेश सुनोगे और इसकी अता'अत (आज्ञा पालन) करोगे. लोगों ने यह सुनकर ठहाका लगाया और अबूलहब ने इमाम अली (र.) के पिता और नबीश्री के संरक्षक हज़रत अबूतालिब (र.) पर चोट की 'लो तुम्हें आदेश दिया गया है कि तुम अपने बेटे के आदेशों का पालन करो."
ध्यान रखना चाहिए कि यह प्रारंभिक दिनों की बात है जब कुछ गिनती के लोगों ने ही इस्लाम दीन स्वीकार किया था. उस समय न कोई सत्ता थी, न कोई फौज थी न कोई प्रशासन. ऐसी स्थिति में खलीफा का अर्थ हुक्मरान या शासक किस प्रकार किया जा सकता है. स्पष्ट है कि यहाँ खलीफा का अर्थ सहयोगी, सहकर्मी या आज की शब्दावली में स्पोक्समैन से है. शासक हुकमरान या उत्तराधिकारी से नहीं.
********************क्रमशः

गुरुवार, 24 जुलाई 2008

पसंदीदा शायरी / शकील बदायूनी

तीन ग़ज़लें
[ 1 ]
गमे-आशिकी से कह दो, रहे-आम तक न पहोंचे
मुझे खौफ है ये तुहमत, मेरे नाम तक न पहोंचे.
मैं नज़र से पी रहा था, तो ये दिल ने बद-दुआ दी
तेरा हाथ जिंदगी भर, कभी जाम तक न पहोंचे.
नई सुब्ह पर नज़र है, मगर आह ये भी डर है,
ये सहर भी रफ़ता-रफ़ता, कहीं शाम तक न पहोंचे.
वो नवाए-मुज़महिल क्या, न हो जिसमें दिल की धड़कन
वो सदाए-अहले-दिल क्या, जो अवाम तक न पहोंचे.
उन्हें अपने दिल की खबरें, मेरे दिल से मिल रही हैं,
मैं जो उनसे रूठ जाऊं, तो पयाम तक न पहोंचे
ये अदाए-बेनियाज़ी, तुझे बे-वफ़ा मुबारक
मगर ऐसी बे-रुखी क्या, कि सलाम तक न पहोंचे.
जो नक़ाबे-रुख हटा दी, तो ये क़ैद भी आगा दी,
उठे हर निगाह लेकिन, कोई बाम तक न पहोंचे.
वही इक ख़मोश नगमा, है शकील जाने-हस्ती,
जो जुबान तक न आए, जो कलाम तक न पहोंचे.
[ 2 ]
मेरी जिंदगी पे न मुस्कुरा, मुझे जिंदगी का अलम नहीं.
जिसे तेरे गम से हो वास्ता, वो खिज़ाँ बहार से कम नहीं
मुझे रास आयें खुदा करे, यही इश्तिबाह की सा'अतें
उन्हें एतबार-वफ़ा तो है, मुझे एतबार-सितम नहीं.
वही कारवां वही रास्ते, वही जिंदगी वही मरहले,
मगर अपने अपने मुकाम पर, कभी तुम नहीं कभी हम नहीं.
न वो शाने-जब्रे-शबाब है, न वो रंगे क़ह्रो-इताब है,
दिले-बेकरार पे इन दिनों, है सितम यही कि सितम नहीं.
न फ़ना मेरे न बका मेरी, मुझे ऐ शकील न ढूँडिए,
मैं किसी का हुस्नो-ख़याल हूँ, मेरा कुछ वुजूदो-अदम नहीं.
[ 3 ]
शायद आगाज़ हुआ फिर किसी अफ़साने का.
हुक्म आदम को है जन्नत से निकल जाने का.
उनसे कुछ कह तो रहा हूँ मगर अल्लाह न करे
वो भी मफहूम न समझें मेरे अफ़साने का.
देखना देखना ये हज़रते-वाइज़ ही न हों,
रास्ता पूछ रहा है कोई मयखाने का.
बे त'अल्लुक़ तेरे आगे से गुज़र जाता हूँ,
ये भी इक हुस्ने-तलब है तेरे दीवाने का.
हश्र तक गर्मिए-हंगामए-हस्ती है शकील
सिलसिला ख़त्म न होगा मेरे अफ़साने का.
***************

बुधवार, 23 जुलाई 2008

शकेब जलाली की ग़ज़लें

[ 1 ]
आके पत्थर तो मेरे सहन में दो-चार गिरे
जितने उस पेड़ के फल थे पसे-दीवार गिरे
ऐसी दहशत थी फ़िज़ाओं में खुले पानी की
आँख झपकी भी नहीं हाथ से पतवार गिरे.
मुझको गिरना है तो मैं अपने ही क़दमों में गिरुं
जिस तरह सायंए-दीवार पे दीवार गिरे
तीरगी छोड़ गई दिन में उजाले के खुतूत
ये सितारे मेरे घर टूट के बेकार गिरे.
देख कर अपने दरो-बाम लरज़ उठता हूँ
मेरे हमसाये में जब भी कोई दीवार गिरे
[ 2 ]
जाती है धूप उजले परों को समेट के
ज़ख्मों को अब गिनूंगा मैं बिस्तर पे लेट के
मैं हाथ की लकीरें मिटाने पे हूँ बज़िद
गो जनता हूँ नक्श नहीं ये सिलेट के
दुनिया को कुछ ख़बर नहीं क्या हादसा हुआ
फेंका था उसने संग गुलों में लपेट के
फौवारे की तरह न उगल दे हरेक बात
कम-कम वो बोलते हैं जो गहरे हैं पेट के
[ 3 ]
मुरझा के काली झील में गिरते हुए भी देख
सूरज हूँ मेरा रंग मगर दिन ढले भी देख.
कागज़ की कतरनों को भी कहते हैं लोग फूल
रंगों का एतबार है क्या सूंघ के भी देख.
हर चन्द राख हो के बिखरना है राह में
जलते हुए परों से उड़ा हूँ मुझे भी देख.
तूने कहा न था कि मैं कश्ती पे बोझ हूँ
तलवों में जो हवा के हैं वो आबले भी देख.
इन्सान नाचता है यहाँ पुतलियों के रंग
दुनिया में आ गया है तो इसके मज़े भी देख.
************************

कबीर के अध्ययन की समालोचनात्मक पूर्व-पीठिका / प्रो. शैलेश ज़ैदी


कबीर का काव्य यद्यपि विवाद का विषय नहीं है, फिर भी हिन्दी में कबीर के अध्ययन की स्थिति बहुत स्वस्थ नहीं कही जा सकती. आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कबीर विषयक अपनी अवधारणाएँ स्थापित करते समय एक सीमा तक संतुलन बनाए रखने का प्रयास किया. उनका विचार था कि " जो ब्रह्म हिन्दुओं की विचार-पद्धति में ज्ञान मार्ग का एक निरूपण था, उसी को कबीर ने सूफियों के ढर्रे पर उपासना का ही विषय नहीं, प्रेम का विषय भी बनाया और उसकी प्राप्ति के लिए हठयोगियों की साधना का समर्थन किया. इस प्रकार उन्होंने भारतीय ब्रह्मवाद के साथ, सूफियों के भावात्मक रहस्यवाद और वैष्णवों के अहिंसावाद तथा प्रपत्तिवाद का मेल करके अपना पंथ खड़ा किया." (हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ0 77 ).
शुक्ल जी के ज्ञान की सीमाएं भारतीय ब्रह्मवाद तथा हठयोग साधना तक थीं. सूफियों के एकत्ववादी चिंतन (वह्दतुल्वुजूद का दर्शन) से वे पूर्णतः अनभिज्ञ थे. फिर वैष्णवों के जिस अहिंसावाद की उन्होंने यहाँ चर्चा की है, तुलसी एवं सूर जैसे आदर्श वैष्णव कवियों का मूयांकन करते समय वे इसका उल्लेख तक नहीं करते. वैष्णव इतिहास तो नरसंहार से भरा पड़ा है. राक्षसों का वध, राम-रावण युद्ध, कौरव-पांडव संग्राम, सभी स्थलों पर नरसंहार की लीला है. और यह सब कुछ असत्य को कुचलने और सत्य को स्थापित करने के लिए किया गया है. वैष्णव इतिहास सत्य के लिए प्राण देना और मर-मिटाना नहीं सिखाता, प्राण लेना और शत्रु का नामो-निशान तक मिटा देना सिखाता है. परशुराम जी क्षत्रियों का संहार करते हैं. यहाँ सत्य और असत्य का क्या आधार है, स्पष्ट नहीं होता. वैष्णवों के सभी इष्टदेव सशस्त्र दिखाए जाते हैं, जिन्हें देखकर अहिंसा की कोई कल्पना भी नहीं की जा सकती. देवियाँ भी कहीं रक्त पीती हैं, कहीं रक्त का स्नान करती हैं, कहीं रक्त का टीका लगाती हैं और गले में मुंडमाल पहनती हैं. आचार्य शुक्ल को, सम्भव है यहाँ भी अहिंसावाद की गंध मिली हो. रह गई बात प्रपत्तिवाद की. सूफी प्रभाव के पूर्व प्रपत्ति का प्रवेश व्यावहारिक स्तर पर वैष्णव चिंतन में नहीं मिलता. सूफी चिंतन का तो आधार ही प्रपत्ति एवं निग्रह है.
आचार्य रामचंद्र शुक्ल की दृष्टि में कबीर में जो कुछ 'बे-ढब' है उसमें सूफियों का प्रभाव है. शुक्ल जी की लीक पीटने वाले हिन्दी आलोचक सूरदास तुलसीदास आदि को रहस्यवादी कहना अनुपयुक्त और असंगत मानते हैं. शुक्ल जी की दृष्टि में "रहस्यवादी चिंतन पैगम्बरी मत मानने वाले देशों में विकसित हुआ. भारत में ऐसी बेढब जरूरत ही नहीं पडी." (चिंतामणि भाग 2, पृ0 81) कबीर और जायसी में रहस्यवाद को मान्यता देने और सूर तथा तुलसी के काव्य को भक्ति की एक विशिष्ट परिभाषा के भीतर मूल्यांकित करने की यह परम्परा किसी तर्क अथवा प्रमाण को स्वीकार करने के पक्ष में नहीं है. कदाचित इसीलिए "कबीर का भक्ति काव्य" अथवा "सूफी भक्ति काव्य" जैसे शीर्षक वाली एक भी पुस्तक हिन्दी में उपलब्ध नहीं है. हो भी नहीं सकती. कारण यह है कि वैष्णव चिंतन एक ही बात को पीढी-दर-पीढी बार-बार दुहराकर केवल यह स्थापित करना चाहता है कि 'प्रस्थानत्रयी' से इतर जो कुछ भी है, उसे भक्ति की परिधि में नहीं रखा जा सकता.
डॉ. रामकुमार वर्मा रहस्यवाद की जड़ें 'हिन्दुओं के अद्वैतवाद" में देखने के पक्षधर हैं. उनके विचार से "कबीर का रहस्यवाद हिन्दुओं के अद्वैतवाद और मुसलमानों के सूफी मत पर आश्रित है." (कबीर का रहस्यवाद, पृ0 25). प्रतीत होता है कि डॉ. रामकुमार वर्मा को अद्वैतवाद से मिलते-जुलते दर्शन की लम्बी स्वस्थ परम्परा सूफियों के यहाँ एक सिरे से दिखायी ही नहीं दी. थोड़े से उलट-फेर के साथ यह आचार्य शुक्ल के विचारों की पुनरावृत्ति मात्र है. जायसी ग्रंथावली में आचार्य शुक्ल ने स्पष्ट लिखा है - "निर्गुण शाखा के संत कबीर, दादू आदि संतों की परम्परा में ज्ञान का जो थोड़ा बहुत अनुभव है, वह भारतीय वेदान्त का है, पर प्रेमतत्व बिल्कुल सूफियों का है."(पृ0 162).डॉ. रामकुमार वर्मा आचार्य शुक्ल की इसी अवधारण को इन शब्दों में व्यक्त करते हैं -"उन्होंने (कबीर ने) अद्वैतवाद से माया और चिंतन तथा सूफी मत से प्रेम लेकर अपने रहस्यवाद की सृष्टि की." (कबीर का रहस्यवाद, पृ0 25). यहाँ मध्ययुगीन इतिहास विशेषज्ञ प्रो. इरफान हबीब की यह अवधारणा भी विचारणीय है कि "कबीर पर शंकर के वेदान्त की बात हम स्वीकार नहीं करते.क्योंकि हमने पाया है कि इस काल तक यह बहुत प्रचारित नहीं था तथा कबीर के पदों पर भी उसका कोई प्रभाव दिखाई नहीं पड़ता. कबीर के यहाँ 'माया' अपने पूर्ववर्ती रूप 'लालच' के अर्थ में प्रस्तुत की गई है, भ्रम के रूप में नहीं." (मध्यकालीन लोकवादी एकेश्वरवाद तथा उसका मानवीय स्वरुप, अभिनव भारती (अलीगढ़, 1992-93) पृ0 9).
कबीर के असहमतिमूलक आक्रोश को दबा देने की भावना से उन्हें "संसार से विमुखता का उपदेश देने वाला योगी" भी कहा गया. जबकि तथ्य यह है कि कबीर ने जहाँ ब्राह्मणों के वर्चस्व को स्वीकार नहीं किया और उनपर खुलकर चोटें कीं, वहीं योगियों की अनेक बातों को घृणित दृष्टि से देखा और अपनी प्रखर असहमति व्यक्त की. वस्तुतः कबीर को संसार से विमुखता का उपदेश देने वाला योगी वही कह सकता है जो 'संसार' और 'सांसारिकता' के बीच कोई अन्तर नहीं करता. संसार से विमुख होना वैरागियों की प्रवृत्ति है और सांसारिकता का तिरस्कार और विरोध सूफी संतों का स्वभाव है. संसार से विमुख होना अपनी उन दुर्बलताओं की स्वीकृति है जो कहीं भय से और कहीं लोभवश मनुष्य को सच्चाई पर अडिग नहीं रहने देती. यह एक पलायनवादी दृष्टि है. सांसारिकता का तिरस्कार और विरोध वही कर सकता है जो ठोस चारित्रिक धरातल पर खड़ा हो और जिसमें बड़े-से-बड़ा जोखिम उठाने का साहस हो. जिसमें निद्रा और गफलत में पड़े समुदाय को झकझोर कर जगाने का जीवट हो. जो मानवाधिकार के प्रति सजग हो. सांसारिकता मनुष्य की समष्टि-वृत्ति को सुला देती है. सांसारिकता में लिप्त मनुष्य अपने 'स्व' में इतना घिर जाता है कि किसी प्रकार का शोषण करने में उसे संकोच नहीं होता. इसीलिए जो सांसारिकता से विमुख होता है वह कबीर की तरह ऊंचे स्वर में यह कहने का साहस रखता है -"जे घर फूंकै आपना, चलै हमारे साथ."
कबीर को व्यक्तिवादी बताना और उनकी साधना को व्यक्तिगत साधना का नाम देना, कबीर के क़द को छोटा करने का एक सोचा-समझा षड़यंत्र है और यह षड़यंत्र वही कर सकता है जिसे कबीर का एक साधारण जुलाहा होना खलता है. जो अपनी काल्पनिक अटकलों के आधार पर कबीर की जड़ें "बैरागियों" और "जोगियों" में देखने के लिए प्रयत्नशील है. ऐसे लोगों को कबीर की ललकार टीस बनकर चुभती है. "तुम ब्रह्मण होने का गर्व क्यों करते हो, मैं भी काशी का जुलाहा हूँ. तुम मेरे ज्ञान की थाह भी नहीं पा सकते. इसलिए मेरे ज्ञान को चुनौती मत दो."
कबीर के असहमतिमूलक आक्रोश का क्रांतिकारी स्वर आज अपनी प्रासंगिकता को जिस प्रकार गहरा रहा है, वह भी एक वर्ग को सह्य नहीं है. बल इस बात पर दिया जा रहा है कि कबीर का महत्त्व हिन्दी साहित्य में उनके कवि होने के कारण है, इसलिए उनपर विचार अंततः एक कवि के रूप में होना चाहिए. संत कवि और कवि संत रूप में, न कि समाज सुधारक या सामजिक क्रान्तिकारी के रूप में. यह वर्त्तमान साहित्यिक चिंतन के खिलाफ एक खुली साजिश है. इस साजिश में निर्गुण धारा की ज्ञानाश्रयी शाखा के प्रति उस विरक्ति की स्पष्ट झलक है जो इस शाखा की रचनाओं का साहित्य होना स्वीकार नहीं करती. जिसे इन रचनाकारों की भाषा और शैली 'अव्यवस्थित' और 'ऊट-पटांग' दिखायी देती है. जिसे 'इन कवियों में भक्ति रस में मग्न करने वाली सरसता खोजने पर भी नहीं मिलती.' यह साजिश बार-बार दुहराना चाहती है कि "संस्कृत-बुद्धि, संस्कृत ह्रदय और संस्कृत वाणी का वह विकास इस शाखा में नहीं जो शिक्षित समाज को आकर्षित कर सके."
विचारणीय यह है कि यह 'सुसंस्कृत शिक्षित समाज' कहाँ और किस बौद्धिक गुफा में बंद है जिसे कबीर की रचनाएँ आकृष्ट नहीं करतीं ? विचारणीय यह भी है कि भक्ति रस में मग्न करने वाली सरसता किस दिशा का संकेत करती है और साहित्य के मूल्यांकन के किन प्रतिमानों को प्रतिष्ठित करना चाहती है ? स्पष्ट है कि यह साजिश तथाकथित भक्ति रस में मग्न करने वाली सरसता पर साहित्यिकता की मुहर लगाती है और भक्ति के नाम पर किए जाने वाले ढोंग को उकेरने वाली कविता को साहित्यिकता से खारिज कर देती है.
कबीर हों या जायसी, सूर और तुलसी, साहित्य में इनका महत्त्व निश्चय ही इनके कवि होने के कारण है. इस बात पर भला किसे आपत्ति हो सकती है. किसी धर्म विशेष के लोकरक्षक का चरित्र-काव्य लिखने से कोई कवि बड़ा नहीं हो जाता और रस, छंद, अलंकार के बंधनों को तोड़ कर कम्युनिकेटिव फोर्स को ही कसौटी मान लेने से कोई कवि छोटा नहीं कहा जा सकता. कविता का प्रतिपाद्य मानव होता है, भगवान नहीं. आश्चर्य है कि जिस कविता में आदि, मध्य और अवसान तक घोषित रूप से भगवान ही प्रतिपाद्य हो, वह आचार्य शुक्ल को भक्ति रस में पूरी तरह मग्न कर देती है. किंतु वह कविता जो जन-जन के मनोभावों से जुड़कर आध्यात्मिक स्तर पर गति प्राप्त करती है, जिसमें जीवन के तनावों-संघर्षों का सहानुभूतिपरक यथार्थ चित्रण है, जो मनुष्य और मनुष्य के बीच की भेदक रेखाओं को मिटाते हुए समानता पर आधारित प्रेम संबंधों की पोषक है, जिसमें आत्म-गौरव और आत्मविश्वास को विकसित करने की क्षमता है, आचार्य शुक्ल और उनके जैसे 'सुसंस्कृत शिक्षित समाज' को आकृष्ट नहीं करती. कबीर की कविता मनुष्य में हिंदुत्व अथवा इस्लामत्व नहीं जगाती. वह मनुष्य को उसके मनुष्य होने की पहचान देने का प्रयास करती है. हिंदुत्व और इस्लामत्व जगाने वाली कविता हिन्दुओं और मुसलमानों के लिए अलग-अलग पूजनीय और आदरणीय तो हो सकती है, साहित्य की परिधियों में रखकर उसे मूल्यांकित नहीं किया जा सकता.
कबीर ने अपने समकालीन हिन्दुओं और मुसलामानों से आँखें मिलाकर बात की. संवाद की स्थितियां बनायीं. उनकी कथनी और करनी का अन्तर देखकर क्षुब्ध भी हुए. वे चाहते थे कि यह मनुष्य जिसे परमात्मा ने सोचने-समझने और निर्णय लेने की शक्ति प्रदान की है, सुषुप्तावस्था से बाहर निकले. अपने मनुष्य होने के गौरव को समझे. बाह्य प्रदर्शनों से जुडी आस्थाओं की अलगाववादी जंजीरें तोड़कर धर्म की मूल चेतना से साक्षात्कार करे और परम सत्ता के एकत्व को मन की गहराइयों से पहचानने का प्रयास करे.
कबीर के समय तक सिद्धों, नाथों और योगियों के विभिन्न सम्प्रदाय जिनका सीधा टकराव ब्राह्मण धर्म से था, आम जनता में अपनी साख बना चुके थे. तांत्रिक बौद्ध धर्म से विक्सित सहजिया सम्प्रदाय डॉ. शशिभूषण दास गुप्त की दृष्टि में 'गुह्य साधना वाले योगि-सम्प्रदाय का बौद्ध प्रभावित रूप था' ( आब्स्क्योर रेलिजस कल्ट्स [1962], भूमिका, पृ0 33-34). इस गुह्य साधना का प्रवेश बंगाल के 'बाउल सम्प्रदाय', वैष्णव सहजिया सम्प्रदाय, नाथ सम्प्रदाय और धर्म सम्प्रदाय में तो हो ही चुका था, सूफी साधकों में भी इसके प्रति पर्याप्त आकर्षण था. वह ब्राह्मण धर्म जो दसवीं शताब्दी ई० तक अपनी गहरी जड़ें जमा चुका था, इन सम्प्रदायों के ब्राह्मण तथा वेद विरोधी रुख से ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी तक चरमरा गया था. वैष्णव सहजिया सम्प्रदाय की भाँति यद्यपि सहजिया सूफी नामक कोई सम्प्रदाय विकसित नहीं हुआ था, किंतु सैद्धांतिक स्तर पर चिश्तिया सम्प्रदाय के भीतर-भीतर अनेक ऐसी साधना पद्धतियाँ प्रवेश कर चुकी थीं जिनके प्रकाश में कुछ भारतीय सूफियों को सहजिया सूफियों की श्रेणी के अंतर्गत रखा जा सकता है.
सरहपाद ने अपने समय के धार्मिक वातावरण का जिन शब्दों में चित्रण किया है यदि उसका सूक्ष्मावलोकन किया जाय तो स्पष्ट संकेत मिलता है कि कबीर के समय तक उसकी अनेक बातें विद्यमान थीं. शैव, जैन तथा क्षपणक आदि मतावलंबियों के प्रभाव में पर्याप्त कमी आ गई थी और नाथ सम्प्रदाय के विकास के साथ इन सम्प्रदायों में प्रचलित अनेक पद्धतियाँ नाथ योगियों ने अपना ली थीं. सहज साधना में 'तीनों भुवनों की रचना करने वाले चित्त की शुद्धि' पर विशेष बल दिया जाता था. सरहपाद की अवधारणा थी कि 'जब नाद, बिन्दु अथवा चन्द्र और सूर्य के महलों का अस्तित्व नहीं और चित्तराज भी स्वभावतः मुक्त है, तब फिर सरल मार्ग का परित्याग कर वक्र मार्ग ग्रहण करना कहाँ तक उचित कहा जा सकता है. जो कुछ ब्रह्माण्ड में है वह सभी पिंड में भी है. परम तत्व की प्राप्ति के लिए पिंड पर विजय परम आवश्यक है.' ( हजारी प्रसाद द्विवेदी, नाथ सम्प्रदाय, पृ0 14). गोरखनाथ के समय तक नाथयोगियों के मध्य सहजयानी एवं शैव परम्पराएं पूरी तरह प्रवेश पा चुकी थीं.
तेरहवीं शताब्दी ईस्वी के प्रारंभ से ही सूफियों और योगियों के मध्य वैचारिक आदान-प्रदान और परस्पर चुनौतियों की स्थिति बनने लगी थी. योगियों और सिद्धों के चमत्कारों की चर्चा भारत से बाहर गज़नी, ईरान, खुरासान और तुर्किस्तान में भी होती थी. बाबा फरीद की खानकाह में बड़ी संख्या में योगी आते थे. शेख निजामुद्दीन औलिया प्रत्येक धर्म को आदर की दृष्टि से देखते थे. उन्होंने कहा भी था -"हर क़ौमे-रास्त-राहे, दीने व् किब्लागाहे" अर्थात प्रत्येक धर्म का अपना सीधा मार्ग है, अपनी आचार संहिता है और अपना उपासना स्थल है. वे योगियों और सिद्धों की गुह्य साधना से बहुत अधिक प्रभावित थे.(विस्तार के लिए देखिये हसन निजामीकृत फवायादुल-फुवाद पृ0 250-258). उन्हें इन योगियों से ज्ञान प्राप्त करने में सुखद आनंद का अनुभव होता था. शेख नसीरुद्दीन (मृ0 1366 ई0) ने श्वांस-प्रश्वांस के नियमन का ज्ञान योगियों से प्राप्त किया था. ( हमीद कलंदर, खैरुल-मजालिस,पृ 59-60 ). सैयद मुहम्मद अशरफ जहांगीर सिमनानी (मृ0 1346 ई0) के ग्रंथों में योगियों से संपर्क की अनेक झांकियां उपलब्ध हैं.
पंद्रहवीं शताब्दी तक आते-आते गोरखपंथी योगियों ने आन्दोलन चलाया कि समस्त पीर-पैगम्बर गोरखनाथ के चेले हैं. उनकी यह मान्यता भी चर्चा का विषय बनी कि हज़रत मुहाम्मद (स.) का पालन-पोषण गोरखनाथ ने किया था. उनका यह भी दावा था कि गोरखनाथ का मूल नाम 'बाबा रैन हाजी' था. ये गोरखपंथी मुसलामानों के साथ रोजा रखते थे और नमाज़ पढ़ते थे तथा हिन्दुओं के समूह में पूजा-पाठ करते थे. (मुहसिन फानी, दबिस्ताने-मज़ाहिब, (लखनऊ 1904), पृ0 179-80). इब्ने-बतूता ने 1335 ई0 में मुहम्मद बिन तुगलक के दरबार में एक योगी को हवा में उड़ते देखा था.(सैयद अतहर अब्बास रिज़वी, तुगलक कालीन भारत, भाग 1, पृ0 268).
महत्वपूर्ण बात यह है कि सूफियों और योगियों के मध्य वैचारिक आदान-प्रदान की भाषा हिन्दवी थी. शेख हमीदुद्दीन नागोरी और बाबा फरीद के घरों में भी हिन्दवी का प्रचलन था. आश्चर्य की बात यह है कि पंद्रहवीं शताब्दी ईस्वी तक सूफियों और वैष्णव आचार्यों के मध्य आपसी बात-चीत का कोई संकेत नहीं मिलता. वैष्णव भक्तों ने योगियों के साथ भी वैसे सम्बन्ध विकसित नहीं किए जैसे सूफियों के योगियों के साथ थे. वैष्णव परम्परा ब्राह्मणेतर तत्वचिन्तकों के समाज से पूरी तरह कटी हुई थी. कबीर के अध्ययन के लिए इन तथ्यों को दृष्टि में रखना अनिवार्य है.
ध्यान देने की बात यह भी है कि चौदहवीं शताब्दी ईस्वी में सूफियों, सिद्धों और नाथयोगियों से इतर तदयुगीन सामजिक जीवन में क़ल्न्दारों, हैदारियों और ज़्वालकियों की सशक्त भूमिका थी. यह लोग सामान्य रूप से दरवेश कहलाते थे. हैदरी कलंदर गर्दन और कान में लोहे के कड़े पहनते थे और नमाज़-रोजा जैसी किसी इस्लामी इबादत से कोई सम्बन्ध नहीं रखते थे. कुछ कलंदर ऐसे भी थे जो दाढी, मूछें और भवें तक मुंडवा लेते थे. इनके आक्रोश से सभी आतंकित थे और इनके विरुद्ध मुंह खोलने का साहस किसी में नहीं था. कलंदर शेख अबूबक्र तूसी इन्द्रप्रस्थ के समीप यमुना तट पर खानकाह बनाकर रहते थे. बू अली कलंदर (मृ0 १३२४ ई0) जिनकी आस्थाएं कबीर से बहुत भिन्न नहीं थीं, विशुद्ध एकत्ववादी (मुवह्हिद) थे. भक्ति के भावावेश में उन्होंने अपनी सभी पुस्तकें नदी में फ़ेंक दीं और दरवेश बन गए. कबीर भी बू अली कंदर की भाँति -"कबीर पढिबा दूरि करि, पुस्तक देइ बहाइ" का सुझाव देते हैं. दुखद स्थिति यह है कि मध्य युगीन हिन्दी साहित्य के अध्येता कबीर का अध्ययन करते समय कबीर युगीन समाज के इन महत्वपूर्ण पहलुओं पर सिरे से विचार ही नहीं करते. मेरी दृष्टि में कबीर का अध्ययन कबीर साहित्य की पूर्वपीठिका को समझे बिना किया ही नहीं जा सकता.
****************************
'हिन्दी के मध्ययुगीन मुस्लिम कवि' पुस्तक से साभार

हबीब जालिब की दो ग़ज़लें

[ 1 ]
और सब भूल गए हर्फे-सदाक़त लिखना
रह गया काम हमारा ही बगावत लिखना
न सिले की न सताइश की तमन्ना हमको
हक में लोगों के हमारी तो है आदत लिखना.
हम ने तो भूलके भी शह का कसीदा न लिखा
शायद आया इसी खूबी की बदौलत लिखना.
दह्र के ग़म से हुआ रब्त तो हम भूल गए
सर्व-क़ामत की जवानी को क़यामत लिखना.
कुछ भी कहते हैं कहें शह के मुसाहिब 'जालिब'
रंग रखना यही अपना, इसी सूरत लिखना
[ 2 ]
ये ठीक है कि तेरी गली में न आयें हम.
लेकिन ये क्या कि शहर तेरा छोड़ जाएँ हम.
मुद्दत हुई है कूए बुताँ की तरफ़ गए,
आवारगी से दिल को कहाँ तक बचाएँ हम.
शायद बकैदे-जीस्त ये साअत न आ सके
तुम दास्ताने-शौक़ सुनो और सुनाएँ हम.
उसके बगैर आज बहोत जी उदास है,
'जालिब' चलो कहीं से उसे ढूँढ लायें हम.
****************************

शैलेश जैदी की नई ग़ज़लें

[ 1 ]
अदृश्य थे, मगर थे बहुत से सहारे साथ.
निश्चिन्त हो गया हूँ कि तुम हो हमारे साथ.
मीठा भी और खारा भी पानी का है स्वभाव,
सुनता हूँ मैं समुद्र में हैं दोनों धारे साथ.
याद आता है भंवर में कई लोग थे घिरे,
लेकिन पहुँच न पाया कोई भी किनारे साथ.
संसद में हो न पायी अविश्वास मत की जीत,
विद्रोहियों को दुःख है नहीं थे सितारे साथ.
मित्रों के शत्रु-भाव से महसूस ये हुआ,
कितने थे अर्थ-हीन वो दिन जो गुज़ारे साथ.
चिल्लाई घर की भूख तो हड़ताल रुक गई,
सच्चाइयों का देते भी कबतक बिचारे साथ.
[ 2 ]
ये गली सीधी चली जाती है उसके द्वार तक'
जाँ गँवा बैठे हैं इसमें सूरमा किरदार तक.
जिसके हाथों में संभल पाती न हो पतवार तक
उससे क्यों आशा करूँ ले जायेगा उस पार तक.
भाव कविता का समझकर तृप्त हो जाते हैं लोग
कोई अब जाता कहाँ है अर्थ के विस्तार तक.
कुछ तो निश्चय ही हुआ ऐसा कि जिसके बाद से,
मेरी दुनिया हो गई सीमित मेरे संसार तक.
धडकनों के शब्दकोशों को उलट कर देखिये
इसके सारे शब्द ले जाते हैं मन को प्यार तक.
मैंने साहस करके उसको पास जा कर छू लिया,
हो गए थे सुर्ख उसके रेशमी रुखसार तक.
क्रान्ति के दावों में क्यों होती है कमज़ोरी की गंध,
क्रान्ति की हर चेतना सीमित है क्यों ललकार तक.
*********************

मंगलवार, 22 जुलाई 2008

ज़ैदी जाफ़र रज़ा की ताज़ा ग़ज़लें

[ 1 ]
ज़ह्र पी लेते हैं क्यों लोग परीशां होकर
हम तो खुशहाल रहे बे-सरो-सामां होकर
लौट आओगे कभी इसका गुमां था किसको
एक टक देख रहा हूँ तुम्हे हैरां होकर
उसकी महफ़िल में सुखनवर तो कई थे लेकिन
उसका दिल जीत लिया मैं ने ग़ज़लख्वां होकर
शहर में रात गए आगज़नी होती रही
घर में हम क़ैद रहे मिशअले-ज़िनदां होकर
ज़ुल्म के सामने झुक जाऊं ये मंज़ूर नहीं
मैं न टूटूंगा किसी तरह हरासां होकर
दिल की गहराइयों में प्यार था जो सिमटा हुआ
तेरे चेहरे पे खिला चाहे-ज़नखदाँ होकर
[ 2 ]
वो कल था साथ तो फिर आज ख्वाब सा क्यों है
बगैर उसके ये जीना अज़ाब सा क्यों है
कहाँ गया वो कोई तो बताये उसका पता
दिलो-दमाग में इक इज्तराब सा क्यों है
हम एक साथ भी हैं और दूर दूर भी हैं
हमारे दरमियाँ आख़िर हिजाब सा क्यों है
उसे ख़बर है के आंखों में क्यों खुमार सा है
वो जनता है के चेहरा गुलाब सा क्यों है
बुरा न माने अगर वो तो उस से पूछ लूँ मैं
के मुझ पे लुत्फो-करम बे-हिसाब सा क्यों है
वो तुम से मिलने से पहले तो खुश-सलीका था
हुआ ये क्या उसे खाना-ख़राब सा क्यों है
ये राह्बर हैं तो क्यों फासले से मिलते हैं
रुखों पे इनके नुमायाँ नकाब सा क्यों है
[ 3 ]
दिल खिंच रहा है फिर उसी तस्वीर की तरफ़.
हो आयें चलिए मीर तकी मीर की तरफ़.
कहता है दिल कि एक झलक उसकी देख लूँ,
उठता है हर क़दम रहे-शमशीर की तरफ़.
मैं चख चुका हूँ खाना-तबाही का ज़ायका,
जाऊँगा अब न लज़्ज़ते-तामीर की तरफ़.
इक ख्वाब है कि आंखों में आता है बार-बार,
इक खौफ है कि जाता है ताबीर की तरफ़.
हालात शहरे-दिल से जिसे छीन ले गए
मायल है अब भी दिल उसी जागीर की तरफ़.
जिद थी मुझे कि उससे करूँगा न इल्तिजा,
क्यों देखता मैं कातिबे-तकदीर की तरफ़
******************************

ग़ज़ल : अदा बदायूनी

होंटों पे कभी उनके मेरा नाम ही आये.
आये तो सही बर-सरे-इल्ज़ाम ही आये.
हैरान हैं, लब-बस्तः हैं, दिल-गीर हैं गुंचे,
खुश्बू की ज़बानी तेरा पैगाम ही आये.
लम्हाते-मसर्रत हैं तसौवुर से गुरेज़ाँ,
याद आये हैं जब भी गमो-आलाम ही आये.
तारों से सजा लेंगे रहे-शहरे-तमन्ना,
मक्दूर नहीं सुब्ह, चलो शाम ही आये.
यादों के, वफाओं के, अकीदों के, ग़मों के,
काम आये जो दुनिया में तो इस नाम ही आये.
क्या राह बदलने का गिला हमसफ़रों से,
जिस राह चले तेरे दरो-बाम ही आये.
थक-हार के बैठे हैं सरे-कूए-तमन्ना,
काम आये तो फिर जज़्बए-नाकाम ही आये.
बाकी न रहे साख 'अदा' दश्ते-जुनूँ की,
दिल में अगर अंदेशए-अंजाम ही आये.
******************

सोमवार, 21 जुलाई 2008

राहत इन्दौरी की दो गज़लें

[ 1 ]
कितनी पी कैसे कटी रात मुझे होश नहीं
रात के साथ गई बात मुझे होश नहीं
मुझको ये भी नहीं मालूम कि जाना है कहाँ
थाम ले कोई मेरा हाथ कुझे होश नहीं
आंसुओं और शराबों में गुजारी है हयात
मैं ने कब देखी थी बरसात मुझे होश नहीं
जाने क्या टूटा है, पैमाना कि दिल है मेरा
बिखरे-बिखरे हैं खयालात मुझे होश नहीं
[ 2]
लोग हर मोड़ पे रुक-रुक के संभलते क्यों हैं
इतना डरते हैं तो फिर घर से निकलते क्यों हैं
मैं न जुगनू हूँ, दिया हूँ न कोई तारा हूँ
रोशनी वाले मेरे नाम से जलते क्यों हैं
नींद से मेरा त'अल्लुक़ ही नहीं बरसों से
ख्वाब आ आ के मेरी छत पे टहलते क्यों हैं
मोड़ होता है जवानी का संभलने के लिए
और सब लोग यहीं आके फिसलते क्यों हैं
***********************

शनिवार, 19 जुलाई 2008

सूरदास के रूहानी नग़मे /शैलेश ज़ैदी [क्रमशः 2]

[ 8 ]
जाकौ मन लाग्यौ नन्दलालहिं ताहि और नहिं भावै हो.
जौ लौ मीन दूध मैं डारै बिनु जल नहिं सचु पावै हो.
अति सुकुमार डोलै रस भीनौ सो रस जाहि पियावै हो.
ज्यों गूंगौ गुर खाई अधिक रस सुख सवाद न बतावै हो.
जैसे सरिता मिलै सिन्धु कौ बहुरि प्रवाह न आवै हो.
ऐसे सूर कमल लोचन तैं चित नहिं अनत डुलावै हो.


नन्द के लाल से लौ जिसने लगाई हो उसे और कुछ अच्छा न लगे
जैसे मछली को अगर दूध में डालो तो वो बे आब के ज़िन्दा न लगे
जैसे पीने पे मए-इश्क़ नशा ऐसा चढ़े हाजते-दुनिया न लगे
जैसे गूंगे को मज़ा गुड की हलावत का बताने की भी पर्वा न लगे.
जैसे मिलते ही समंदर में नदी अपनी रवानी से भी बेगानः लगे.
'सूर' वैसे ही कमल जैसे नयन वाले से मुंह मोड़ना ज़ेबा न लगे.
[ 9 ]
प्रभूजी ! मोरे औगुन चित न धरौ.
सम दरसी है नाम तुम्हारौ, सोई पार करौ.
इक लोहा पूजा मैं राखत, इक घर बधिक परौ.
सो दुबिधा पारस नहिं जानत, कंचन करत खरौ.
इक नदिया इक नार कहावत, मैलौ नीर भरौ.
जब मिलिगे तब एक बरन है, गंगा नाम परौ.
तन माया जिउ ब्रह्म कहावत, सूर सु मिलि बिगरौ.
कै इनकौ निर्धार कीजियै, कै प्रन जात टरौ.


यारब ! मेरी खताओं पे मत कीजियो निगाह.
यकसां सभी को चाहते हैं आप या इलाह
औरों के साथ बख्शियो मेरे भी सब गुनाह.
इक लोहा वो है रखते हैं पूजा में सब जिसे
इक लोहा वो भी है जिसे दुनिया छुरी कहे.
पारस ये फर्क करना नहीं जानता कभी.
सोना बना के करता है दोनों को क़ीमती.
पानी है वो भी जो है नदी में रवां-दवां
पानी ही गंदे नालों में लेता है हिचकियाँ
दरिया में जाके दोनों ही दरिया सिफ़त हुए
गंगा का नाम पा गए गंगा-सिफ़त हुए.
जिस्मे-बशर को कहते हैं फ़ानी तमाम लोग.
पर रूह को हैं देते बक़ा का मक़ाम लोग
ऐ 'सूर' ! कीजिये भी खुदारा ये फ़ैसला.
इक साथ रहके दोनों हैं कैसे जुदा-जुदा ?
बिगडे कहीं न बात मसावात के बगैर.
रहमत पे आंच आये न यारब हो सब की खैर.
[ 10 ]
अब हौं सब दिसि हेरि रह्यौ.
राखत नाहिं कोऊ करुनानिधि, अति बल ग्राह गह्यौ.
सुर नर सब स्वारथ के गाहक, कत सम आनि करै.
उडगन उदित तिमिर नहिं नासत, बिन रवि रूप धरै.
इतनी बात सुनत करुनामय, चक्र गहे कर धाए.
हति गज सत्रु सूर के स्वामी, ततछन सुख उपजाए.

अब मैं तलाश करके हरेक सिम्त थक गया.
ऐ साहिबे-करम ! न कोई काम आ सका.
ताक़त से गर्दिशों ने शिकंजे में कस लिया.
इंसानों-देवता जो मिले, ख़ुदग़रज़ मिले.
ज़हमत कोई हमारे लिए क्यों भला करे.
मिटता नहीं अँधेरा तुलूए-नुजूम से
जब निकले आफ़ताब उजाला हो धूम से.
सुनते ही इतनी बात, रहीमी को आया जोश
हाथों में चक्र लेके उडाये सभी के होश.
दुश्मन था फीलतन उसे फ़िल्फ़ौर मारकर.
आका ने 'सूर' बख्श दीं खुशियाँ तमामतर.
[ 11 ]
स्याम गरीबन हूँ के गाहक.
दीनानाथ हमारे ठाकुर, सांचे प्रीति निबाहक.
कहा बिदुर की जाति पाति कुल, प्रेम प्रीति के लाहक.
कह पांडव के घर ठकुराई, अर्जुन के रथ बाहक.
कहा सुदामा कै धन हौं तो, सत्य प्रीति के बाहक.
'सूरदास' सठ तातैं हरि भजि, आरत के दुःख दाहक.


घनश्याम हैं ग़रीबों के बेमिस्ल खैरख्वाह.
मुहताज उनको अपना समझते हैं बादशाह.
आका बनाए रखते हैं उल्फत की रस्मो-राह.
क्या था बिदुर का कौमों-क़बीलाओ-खानदान
आका को उसके प्यार से था प्यार बे पनाह
मालिक नहीं थे दौलतो-सर्वत के पांडव
अर्जुन के रथ को हांक रहे थे बलंद्जाह.
गुरबत में कट रही थी सुदामा की जिंदगी.
आका ने उसके साथ किया प्यार से निबाह.
कहते हैं 'सूर' करले हरी का भजन बद-अक्ल.
दुःख जलके राख होंगे, धुलेंगे सभी गुनाह.
[ 12 ]
बिनती करत मरत हौं लाज.
नख सिख लौं मेरी यह देही, है अति पाप जहाज.
और पतित आवत न आंखितर, देखत अपनौ साज.
तीनौं पन भरि ओर निबाह्यो, तऊ न आयो बाज.
पाछे भयो न आगैं ह्वैहै, सब पतितन सिरताज.
नरकौ भज्यो नाम सुनि मेरौ, पीठि दई जमराज.
अबलौं नान्हे नून्हे तारे, सब स्रम बृथा अकाज.
साँचे बिरद 'सूर' के तारत, लोकनि लोक अवाज.

शर्म आती है मुझे आपसे मिन्नत करते.
जिस्म ये पाँव से सर तक है गुनाहों का जहाज़.
मुझ सा बदकार जहाँ में नहीं मिलता कोई.
देखता जब हूँ मैं जीने के सब अपने अंदाज़.
मैंने बचपन में, जवानी में, बुढापे में सदा.
खूब जमकर किए छोटे-बड़े कितने ही गुनाह.
आज भी आता नहीं अपने तरीकों से मैं बाज़.
न हुआ पहले न आइन्दा कभी होगा कोई.
मैं हूँ सरताज जहाँ भर के गुनाहगारों का.
नाम सुनकर मेरा दोज़ख को भी डर लगता है.
मलकुल्मौत भी पास आने से घबराते हैं.
आजतक आपने बेकार ही ज़हमत की है.
छोटे-मोटे से गुनाहगारों पे रहमत की है.
'सूर' पर रहमो-करम हो तो कोई बात बने.
आप कहलायेंगे रहमान सही मानों में.
गूँज उटठेगी सदा ख़ल्क़ के काशानों में.
[ 13 ]
हरि सौं ठाकुर और न जन कौ.
जिहिं जिहिं बिधि सेवक सुख पावै, तिहिं बिधि राखत मन कौं.
भूख भये भोजन जु उदर कौं, तृषा तोय पट तन कौं.
लग्यो फिरत सुरभी ज्यों सुत संग, औचट गुनि गृह बन कौं.
परम उदार चतुर चिंतामनि , कोटि कुबेर निधन कौं.
राखत है जन को परतिज्ञा, हाथ पसारत कन कौं.
संकट परें तुरत उठि धावत, परम सुभट निज पन कौं.
कोटिक करै एक नहि मानै, सूर महा कृतघन कौं.

हरी जैसा नहीं कोई अवामुन्नास का आक़ा
खुशी बन्दे को जैसे भी मिले रखते हैं दिल उसका
शिकम की भूख मिट जाए, गिज़ा की इसलिए पैदा
बनाया आब ताके रह न जाए कोई भी प्यासा
बरहना जिस्म ढक देते हैं कपडों से मेरे मौला
लगी रहती है जैसे गाय हरदम साथ बछडों के
सताते हैं उसे जंगल में घर की फ़िक्र के झोंके
बहोत हैं नर्म दिल, हिकमत में यकता, बंदा-परवर हैं
ग़रीबों के लिए आक़ा कुबेरों से भी बढ़कर हैं
जो बन्दे हाथ फैलाते हैं, रखते हैं भरम उनका
मुसीबत में हैं आते दौड़कर, वादे के हैं पुख्ता
करोड़ों नेकियों के बाद भी ऐ 'सूर' दुनिया में
जो हैं कमज़र्फ़ एहसाँ मानते हरगिज़ नहीं उनका.
[ 14 ]
प्रभु हौं बड़ी बेर कौ ठाढौ
और पतित तुम जैसे तारे, तिनही मैं लिखि काढौ
जुग जुग बिरद यहै चलि आयै, टेरि कहत हौं यातैं.
मरियत लाज पाँच पतितनि मैं, हौं अब कहौं घटी कातैं.
कै प्रभु हारि मानि कै बैठौ, कै करौ बिरद सही.
'सूर' पतित जौ झूठ कहत है, देखौ खोजि बही.

खुदाया मैं करम का हूँ तुम्हारे मुंतज़िर कब से.
शिफाअत और बदकारों की तुमने जिस तरह की है.
शिफाअत मेरी भी कर दो मेरे आक़ा उसी ढब से.
अज़ल से सब तुम्हारी रहमतों का ज़िक्र करते हैं.
जभी तो हम भी बख्शिश के लिए फरियाद करते हैं.
हया से मर रहा हूँ आसियों की इस जमाअत में.
नहीं कमतर किसी से, देर फिर क्यों है शिफाअत में.
या अपनी हार को तस्लीम करके बैठ जा यारब.
या फिर शाने- करीमीं का कोई जलवा दिखा यारब.
ग़लत कहता हूँ मैं गर 'सूर' ख़ुद को आसिए- बदतर.
तो फिर आमाल मेरा देख ले तू खोलकर दफ़्तर.
*************************क्रमशः

शुक्रवार, 18 जुलाई 2008

कहैं एक एकन सों कहाँ जाई का करी ? [तुलसी] / प्रो. शैलेश ज़ैदी

कितनी बेचैनी और छटपटाहट है तुलसी की इस पंक्ति में – “कहैं एक एकन सों कहाँ जाई का करी ?” और यह छटपटाहट जीविका विहीन लोगों की है. उन लोगों की है जो यदि किसान हैं तो उनकी स्थिति ‘पूस की रात’ के हलकू से भी कहीं अधिक दयनीय है. हलकू भले ही तीन रूपए का कम्बल न खरीद पाया हो, और पूस की रात में सरदी से ठिठुर गया हो, पर वह इस अनुभव से नहीं गुज़रा - 'आगि बड़वागि तें बड़ी है आगि पेट की'. उसके सामने कम-से-कम एक रास्ता तो है, खेती नहीं न सही, कहीं मजदूरी कर लेगा. किंतु ये वो लोग हैं जिनके सामने कोई रास्ता भी नहीं है -'खेती न किसान को, भिखारी को न भीख भली / बनिक को बनिज, न चाकर को चाकरी.' हो सकता है की तुलसी के पाठक यह समझते हों कि महामारी और दुर्भिक्ष जैसी प्राकृतिक आपदाओं ने यह स्थिति पैदा कर दी हो, किंतु तथ्य यह नहीं है. तथ्य यदि ऐसा होता और केवल दुर्भिक्ष या महामारी की बात होती, तो इन विपत्तियों के घेरे में खड़े होकर तुलसी कुछ वैसी ही बात करते जैसी ब्रेख्त ने 1945 के जर्मनी के विषय में की थी - 'घरों के भीतर प्लेग से मौत है / घरों के बाहर ठण्ड से मौत है / तब हमारा ठिकाना कहाँ हो ?
ब्रेख्त की इन पंक्तियों ने मुझे 1985 की अपनी एक ग़ज़ल का एक शेर याद दिला दिया - 'बारिश से बच बचा के जो घर में पनाह लूँ / हर सिम्त से मकान टपकता दिखायी दे.' यहाँ भी स्थिति वही है कि ठिकाना कहीं नहीं है. न गैरों के बीच न अपनों के बीच. कहाँ जाएँ ? क्या करें ? किंतु तुलसी के यहाँ जो बे-ठिकाना लोग हैं, वह भूख से पीड़ित हैं. बेरोज़गारी ने उन्हें पूरी तरह तोड़ दिया है. ऐसा नहीं है कि उनकी आंखों के सामने पेट भरे लोग नहीं हैं. हैं और भारी संख्या में हैं. उन्होंने ख़ुद अपनी आंखों से देखा है कि - 'छाछी को ललात जे वे राम नाम के प्रसाद / खात खुनसात सोंधे दूध की मलाई हैं.' यह ऐसा ही है जैसे दुनिया भर के काले धंधे करके लोग बड़े- बड़े प्रासाद खड़े कर लेते हैं और इसे भगवान की कृपा बताते हैं. तुलसी भली प्रकार जानते हैं की "ऊंच-नीच करम, धरम अधरम करि" भूख और बेरोज़गारी मिटायी जा सकती है. किंतु उन्हें यह मार्ग अपनाना पसंद नहीं है. ब्रेख्त को भी पसंद नहीं है. - 'मेरा कुछ भी करना / मुझे भर पेट खाने का हक नहीं देता / संयोग है कि मैं बच गया हूँ / वे कहते हैं मुझसे खाओ-पियो, मस्त रहो / है तो सब कुछ / पर कैसे खाऊं-पियूँ / कैसे खा सकता हूँ वह / जिसे छीना गया है किसी भूखे से / और मेरा पानी का गिलास / किसी प्यास से मरने वाले का है.' हो सकता है कि तुलसी के समक्ष भी यही स्थिति रही हो. किंतु उनका स्वभाव अपने भीतर क्रान्ति की वह चिंगारी न भर सका हो जो इक़बाल या ब्रेख्त के स्वभाव में थी. इक़बाल ने तो स्पष्ट शब्दों में कह दिया "जिस खेत से दहकाँ (किसान) को मयस्सर न हो रोज़ी / उस खेत के हर खोशए-गंदुम (गेहूं की बाली) को जला दो." ब्रेख्त ने भी कहा है - "जब मैं शहर आया / वहाँ गड़बड़ थी / भूख का राज्य था / मैं लोगों के बीच विद्रोह के समय आया / और उन्हीं के साथ कर बैठा विद्रोह."
तुलसी की मनःस्थिति गोदान के होरी की मनःस्थिति से भिन्न नहीं है. होरी गोबर को समझाता है कि जवानी में विद्रोह की उठान उसके मन में भी थी, किंतु समय के थपेडों ने उसे शिथिल कर दिया. ऐसा नहीं है कि विद्रोह के भाव होरी के यहाँ बिल्कुल मुर्दा हो चुके हैं. पर इतने वर्षों तक मर-खप कर उसने जो अनुभव प्राप्त किए हैं, उनके आधार पर वह बेटे के विद्रोह भाव को दबाना चाहता है. इसलिए वह गोबर के समक्ष बार-बार भगवान का सहारा लेता है - 'भगवान ने जब गुलाम बना दिया है तो अपना क्या बस है ?' तुलसी भी ऊंचो मन, ऊंची रूचि, भाग नीचो निपट ही' की विवशता स्वीकार करते हुए 'साहिब समर्थ को सुसेवक' बने रहना चाहते हैं और स्पष्ट शब्दों में कहते हैं - 'बचन बनाई कहौं, हौं गुलाम राम को.'
तुलसी की विडम्बना यह है कि "बड़े कुसमाज राज आजु लौं जो पाये दिन" किंतु दोष किसे दिया जाय ? कलिकाल ने तो सम्पूर्ण सृष्टि में गडबडी फैला रखी है- "कासौं कीजे रोष ? दीजै दोष काहि ? पाहि राम / कियो कलिकाल कुलि खलल, खलक ही" और यह कलिकाल कुछ और नहीं है, आपाधापी और घपलों का नाम है. मर्यादाओं को ताक पर रख देने का नाम है. अयोग्य व्यक्तियों के सुयोग्य कहे जाने का नाम है. दूसरों के मुंह से कौर छीन कर अपनी तिजोरियां भरते रहने का नाम है. किंतु "समरथ को नहिं दोस गुसाईं" कहकर चुप्पी साध लेना तुलसी के स्वभाव की सीमा नहीं है. वे चाहते तो पंडित राज जगन्नाथ की भांति "दिल्लीश्वरो वा जगदीश्वरो वा" का कलियुगीन भजन गा सकते थे. किंतु उन्होंने "पाणौ महाशायक चारु चापं" तथा "अतुलित बलधामं हेम शैलाभ देहं" का स्मरण किया. यह शक्ति जगाने का एक प्रयास नहीं है तो और क्या है ? "बीर बिहीन मही मैं जानी" का उदघोष करके ऐसा ही एक प्रयास राजा जनक ने भी किया था.
वस्तुतः तुलसीयुगीन यथार्थ आजके यथार्थ से बहुत भिन्न नहीं है. समस्या यह है कि आज ही की तरह तुलसीयुगीन राज्य की स्थिति शतरंज की बिसात जैसी है जिसकी सभी चालें उन लोगों के हाथ में हैं जो मर्यादा-विहीन हैं. जिनके लिए नैतिक मूल्यों का कोई अर्थ नहीं है. अब समस्या उनकी है जो इस संसार को ईश्वर द्बारा रचित 'बाज़ी' या खेल समझते हैं. ऐसे लोगों को थक-हार कर भाग्यवाद में ही शरण लेनी पड़ती है. उर्दू कवि मीर तक़ी मीर जब यह कहते हैं " नाहक़ हम मजबूरों पर यह तुहमत है मुख्तारी की / जो चाहें सो आप करे हैं हमको अबस बदनाम किया." तो प्रतीत होता है कि यह मनुष्य हर दृष्टि से बेबस और मजबूर है. इसके अधिकार में कुछ नहीं है. ईश्वर की इच्छा के बगैर एक पत्ता भी नहीं हिल सकता.यहाँ अकर्मण्यता और नैराश्य को बढ़ावा मिलता है. किंतु मिर्जा गालिब जब कहते हैं "बाजीचए-अतफ़ाल है दुनिया मेरे आगे / होता है शबो-रोज़ तमाशा मेरे आगे."तो खेल और तमाशे की स्थिति बदल जाती है. दुनिया को बच्चों का खेल समझने वाला कवि अपने परिपक्व होने का न केवल रेखांकन करता है, अपितु हस्तक्षेप करने के अपने अधिकार को भी अक्षुण रखता है.
हस्तक्षेप तो तुलसी भी करना चाहते है. किंतु शतरंज रुपी राज्य की बिसात उन्होंने पहले कभी नहीं देखी. इस बिसात पर खेलने वालों ने सम्पूर्ण समाजको काठ के मुहरों की तरह निष्प्राण बना दिया है. "सतरंज को सो राज, काठ को सबै समाज / महाराज बाजी रची प्रथम न हती." अब यह 'महाराज' यदि स्वयं परमात्मा हैं जिनका काम ही बाज़ी रचते रहना है तो उन्होंने ऐसी बाज़ी तो पहले कभी नहीं रची. यह आश्चर्य और विस्मय की स्थिति है.किंतु यह 'महाराज' यदि युगीन शासक है, और शतरंज की बिसात यदि शासन-व्यवस्था है, तो ऐसी शासन व्यवस्था तो कभी देखने-सुनने में नहीं आई जिसने सम्पूर्ण समाज को काठ की तरह बेहिस और बेजान बना दिया हो. विचार-शून्य ! विवेक-शून्य ! अब ऐसे समाज में तुलसी विद्रोह की चिंगारी भरना भी चाहें तो किस प्रकार भरें. ?
ब्रिटिश राज्य के अत्याचारों को सहज रूप से झेलती हिन्दी कविता भी आह, कराह और रुदन की परिधियों में घूमती रही. क्रान्ति के स्वर से उसका साक्षात्कार नहीं हुआ. निराला की 'भिक्षुक' और 'तोड़ती पत्थर' जैसी कवितायेँ यथार्थ के स्तर पर स्टिल फोटोग्राफी करती अवश्य दिखायी दीं, किंतु पीठ से मिले पेट और भूख मिटाने के लिए मुट्ठी भर दाने की तलाश में लकुटिया टेकते भिक्षुक तथा श्यामल शरीर, भरे-बंधे यौवन और झुकी आंखों के साथ निरंतर हथौडा चलाती स्त्री में सौन्दर्य का परमोत्कर्ष ही देखती रहीं. विद्रोह या क्रान्ति की कोई चिनगारी इन कविताओं के भीतर से नहीं फूटती.
आज़ादी के बाद जिस उच्च शिक्षा प्रणाली ने हमारे बीच स्थान बनाया उसमें अंग्रेजों के बाद कुछ भी नया जोड़ने का प्रयास हमने नहीं किया. और इस आज़ादी को हथियाने वाले गिने-चुने लोगों ने शतरंज की बिसात कुछ ऐसी बिछाई की तुलसीयुगीन बिसात भी इसके सामने तुच्छ पड़ गई. इस देश में शताब्दियों से विभिन्न जातियों के लोग अपनी परंपरागत प्रतिभा, क्षमता, कला और शिल्प की विशिष्टता और पहचान के साथ आपसी सहयोग से एक-दूसरे का दुःख-सुख बाँटते हुए जिंदगी जी रहे थे. जातियाँ यहाँ सामजिक और प्रशासनिक व्यवस्था को कायम रखने के लिए थीं. इनमें जाती-प्रथा की गंध न होकर सामजिक व्यवस्था की ध्वनि थी. वर्ण के नाम पर उच्च और निम्न का ब्राहमणों द्वारा निर्मित भेद अवश्य था. किंतु सामाजिक व्यवस्था में निम्न वर्ण का योग कुछ कम नहीं था. ब्रिटिश राज्य में हलकी सी जागरूकता का लाभ उठाकर निम्न वर्णों ने अपनी निरंतर अपमान सहती छवि कुछ ठीक करने का प्रयास किया. ज्योतिबा फूले और डॉ. अम्बेडकर के प्रयास से इन्हें खुली हवा का एहसास हुआ. देश की राजनीति में हिन्दुओं मुसलामानों के पलडे को हलका और भारी करने की इनकी भूमिका स्पष्ट दिखायी देने लगी.
1932 की गोलमेज़ कांफ्रेंस के स्थगित किए जाने के बाद ब्रिटेन के प्रधानमंत्री मैकडोनाल्ड ने ईसाइयों, मुसलामानों और सिखों की तरह अछूतों के लिए कम्युनल एवार्ड की घोषणा की और पृथक निर्वाचन मंडल की स्थापना पर बल दिया. उन्हें आम हिन्दुओं से इतर एक अल्पसंख्यक समूह मानकर सुरक्षित स्थानों से पृथक प्रतिनिधित्व का अधिकार दिया गया. गांधीजी इस निर्णय से तिलमिला उठे. यदि सवर्ण हिन्दुओं से अलग हरिजनों की एक स्वतंत्र अल्पसंख्यक जाति बन गई, तो हिन्दुओं के लिए कल वही स्थिति आ सकती है जो आज मुसलामानों को लेकर है. गांधीजी की सोंच का आधार यही था. इसलिए 20 सितम्बर 1932 से उन्होंने हरिजनों के आग प्रतिनिधित्व की योजना को रोकने के लिए अनशन प्रारम्भ कर दिया और साथ ही आत्मदाह करने तक की घोषणा कर दी. शीघ्र ही 'पूना पैक्ट' के रूप में उन्हें सफलता मिली और हिन्दुओं की जनरल सीटों में ही हरिजनों के संरक्षण की व्यवस्था की गई. हरिजन भी प्रसन्न हो गए कि उनका प्रतिनिधित्व प्रायः दूना हो गया. उच्च वर्णों और हरिजनों के प्रतिनिधियों ने पैक्ट पर हस्ताक्षर कर दिए. अब सरकार को भला क्या आपत्ति हो सकती थी. हरिजन संतुष्ट कि उन्हें हिंदू मान लिया गया. सवर्ण संतुष्ट कि मुसलामानों के प्रतिनिधित्व की तुलना में उनकी शक्ति क्षीण होने से बच गई.
किंतु यह पैक्ट हरिजनों की समस्या को सुला देने की एक आकर्षक लोरी से अधिक कुछ नहीं था. फलस्वरूप आधुनिक भारत में हरिजन कहे जाने वाले हिंदू न तो परंपरागत भारतीय जाति-व्यवस्था का ही अंग बने रह सके न सवर्ण हिन्दुओं के बीच सम्मान पूर्वक सिर उठाकर चलने योग्य माने गए. हाँ इतना अवश्य हुआ कि उनको व्यवस्थित रखने के लिए उनके लिए आरक्षण की पन्द्रह वर्ष की सुनिश्चित अवधि, समय-समय पर बढ़ाई जाती रही और स्वाधीन भारत में मुसलामानों की भांति (पाकिस्तान बन जाने के कारण) आरक्षण के अधिकार से वंचित नहीं किए गए. कदाचित इसी लिए वे कभी बौद्ध, कभी ईसाई और कभी मुसलमान बन जाने की धमकी देकर वर्चस्ववादी सवर्ण हिन्दुओं को तिलमिला देते हैं और अपनी बहुत सी मांगें मनवा लेने में सक्षम हैं.
1947 से पूर्व का भारत का जो भी इतिहास उपलब्ध है उससे यही संकेत मिलता है कि यवनों, हूणों, शकों, कुषाणों, पहलवों, वाहलीकों, गुर्जरों, मौर्यों, गुप्तवंशजों, गोरियों, लोदियों, सैयदों, खिलजियों, मुगलों, डचों और अंग्रेजों आदि ने भले ही यहाँ शासन किया हो, किंतु यहाँ की जाति व्यवस्था को किसी ने गडमड करने का प्रयास नहीं किया. सभी ने शिल्पी और विशिष्ट कला सक्षम जातियों की उपयोगिता को समझा और प्रशासन की एक शक्ति के रूप में इनकी क्षमताओं और शिल्प-कौशल का न केवल लाभ उठाया अपितु इनके प्रति घृणा भाव कभी पनपने नहीं दिया.
आधुनिक शिक्षा संस्थाओं के आकर्षण ने जहाँ प्रत्येक जाति और व्यवसाय के व्यक्ति को उसका लाभ उठाने का अवसर दिया, वहीं धर्म, साहित्य, ज्योतिष, दर्शन, वैद्यक आदि की सैकड़ों वर्षों से परंपरागत शिक्षा का लाभ उठाने वाली जातियों ने इसे अपने विशेषाधिकार में हस्तक्षेप समझा. स्थिति यदि यही बनी रहती तो ब्राह्मणेतर जातियों को आधुनिक ज्ञान-विज्ञानं की शिक्षा का अधिकतम लाभ मिलने की संभावनाएं बनी रहतीं. किंतु कट्टरपंथी ब्राह्मण समुदाय के चक्रव्यूह को तोड़कर बंगाल और महाराष्ट्र के कुछ सिरफिरे भविष्य दर्शी ब्राहमणों ने आधुनिक शिक्षा और ज्ञान-विज्ञानं का लाभ उठाने की पहल की और छोटी समझी जाने वाली जातियों को आधुनिक शिक्षा का जितना लाभ मिलना चाहिए था उससे उन्हें लाभान्वित नहीं होने दिया.
बंगाल और महाराष्ट्र में चूँकि आधुनिक शिक्षा का प्रचार-प्रसार पहले हुआ इसलिए टकराव की स्थिति भी वहाँ पहले बनी. यह ठीक है कि इस स्थिति ने हरिजन कही जाने वाली तथा अन्य छोटी समझी जाने वाली जातियों में तेजस्वी और प्रतिभाशाली व्यक्तित्व पैदा किए. यह भी ठीक है कि सुविधा प्राप्त करके हरिजन और अन्य पिछड़ी जातियों के अनेक युवक प्रशासनिक तंत्र में उच्च पदों पर आसीन हुए और कहीं-कहीं अपनी सशक्त भूमिकाएं भी निभायीं.किंतु यह मुट्ठी भर ऊपर आए हुए लोग अपने जातिगत पेशे से जुड़े नीचे के लोगों से इतने कट गए कि इन 'क्रीमी लेयारों' को अलग करके देखने पर इनके परम्परागत पेशे से जुड़े लोगों की स्थिति और भी दयनीय हो गई.
भारत में आधुनिक शिक्षा का प्रारम्भ अंग्रेजों ने अपने निजी हितों को ध्यान में रखकर किया था. इसलिए इस देश की जाति-व्यवस्था को आधुनिक शिक्षा की पृष्ठभूमि में रख कर देखने की उन्हें आवश्यकता नहीं पड़ी. जहाँ एक ओर उन्होंने लडाका जातियों को पहचानते हुए उनकी क्षमता का समूचा लाभ उठाने के उद्देश्य से भारतीय सेना में 'राजपूत रेजिमेंट', 'गोरखा रेजिमेंट,' 'पठान रेजिमेंट,' और 'सिख रेजिमेंट बनाए वहीं इस तथ्य पर ध्यान नहीं दिया कि विभिन्न पेशों से जुड़ी जातियों को उनकी क्षमता से मेल खाती ज्ञान-विज्ञान की शाखाओं में यदि प्रोत्साहित किया जाय तो कहीं अधिक लाभ उठाया जा सकता है. उदाहरण स्वरूप यदि टेक्सटाइल से सम्बद्ध शिक्षा में बुनकरों को आरक्षण दिया जाय तो उनकी प्रतिभा अधिक निखर कर सामने आएगी. आज़ादी के बाद अंग्रेजों की दी हुई शिक्षा प्रणाली को ज्यों-का-त्यों लागू रखा गया, इसलिए भारतीय सरकार की दृष्टि भी इस तथ्य की ओर नहीं गई. हाँ पाकिस्तान बन जाने और मुसलामानों की 'वतन-परस्ती' को संदेह की दृष्टि से देखे जाने के कारण भारतीय सेना से 'पठान रेजिमेंट' का अस्तित्व समाप्त हो गया. सिखों पर जब संदेह किया गया तो सेना में उनकी भरती का प्रतिशत भी बहुत घटा दिया गया. हाँ ब्राह्मण जैसी जाति, जिसका युद्धभूमि से कभी दूर का रिश्ता भी नहीं था,परिस्थितियों का लाभ उठाकर सेना के उच्च-से-उच्च पदों पर जमकर बैठ गई.
मशीनीकरण और औद्योगिक विकास का लाभ उठाकर स्वतंत्र भारत में सवर्ण और संपन्न शिक्षित जातियों ने पेशों से जुड़ी जातियों के पेट पर लात मार दी और उनके मुंह का कौर भी छीन लिया. जुलाहे-बुनकर कपड़े बुनने में दक्ष थे. ब्राहमणों ठाकुरों आदि ने इस का और तकनीक से सम्बद्ध उच्च उपाधियां प्राप्त कीं और टेक्सटाइल इंजिनियर कहलाये. कुम्हारों के काम की उच्च योग्यता प्राप्त करके सिरेमिक्स इंजिनियर बने. गाँव में चमाइनें बच्चा पैदा करने और नाड़ काटने का काम करती थीं. वही काम जब एम्.बी.बी.एस. करके उच्च वर्ण की कन्याओं ने किया तो गाइनकलोजिस्ट कहलाईं. जर्राही का पेशा अपनाकर रक्त और मांस से घृणा करने वाली ब्राह्मण जाति की संतानें 'सर्जन' बन गयीं. चमडों का काम और जूते बनाना चमारों का व्यवसाय था. किंतु वही काम करके उच्च वर्ण के लोग लेदर इंजिनियर और शू टेकनालजिस्ट बन गए. और तो और हज्जामों नाइयों की रोटी छीनकर 'ब्यूटी पार्लर' खोले गए. रंगरेजों और धोबियों की रोज़ी पर लात मारकर सवर्ण संतानें 'डायर्स एंड ड्राईक्लीनार्स' बन गयीं.गोया पूरी कलात्मकता से शिल्पकारों को मजदूर में तब्दील कर दिया गया और उनके पेशे के सभी हुनर अपनाकर भी सवर्ण जातियाँ सवर्ण बनी रहीं.
कितनी विचित्र है आधुनिक भारत की शतरंज की यह बिसात जिसपर 'हरिजन समाज,' धोबी समाज', 'कुम्हार समाज,' जुलाहा-बुनकर समाज', 'लोहार समाज' गोया कि इस प्रकार के सभी शिल्पी समाज ऐसे काठ के मुहरे हैं जिन्हें बिसात से बाहर डाल दिया गया है. उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए जो वातावरण अपेक्षित था वह उन्हें दिया नहीं गया. वोकेशनल एजुकेशन के इंटीग्रेटेड प्रोग्राम उनके लिए बनाए नहीं गए. तुलसीदास यह स्थिति देखते तो शायद आज उन्हें फिर से कहना पड़ता- "महाराज बाजी रची प्रथम न हति." होना यह चाहिए था कि ज्ञान विज्ञानं साहित्य दर्शन ज्योतिष आदि की परंपरागत आधुनिक उच्च शिक्षा सवर्ण और साधन संपन्न जातियों के लिए विशिष्ट होती और वोकेशनल तथा तक्नीकीय शिक्षा की हाईस्कूल के बाद ही इंटिग्रेटेड ग्रेजुएट तथा पोस्ट ग्रेजुएट योजनाएं विभिन्न परंपरागत पेशों से जुड़ी जातियों के लिए विशिष्ट होतीं. फिर समाज में सभी का जीवन-स्तर एक साथ ऊपर उठता. किंतु हमारी शिक्षा योजनाओं ने इन जातियों की रही-सही कमर भी तोड़ दी. आज स्पांसर्ड सीट, एन.आर.आई. सीट और पेमेंट सीट के नाम पर वोकेशनल और तकनीकी शिक्षा संपन्न जातियों के घर की लौंडी बनकर रह गई है. छोटे किसान, बढई, धोबी, कुम्हार, बुनकर इत्यादि बेरोजगार होकर नई रोज़ी की तलाश में भूख से बिलबिला रहे हैं और तुलसी की इस उक्ति को चरितार्थ कर रहे हैं -"कहैं एक एकन सों कहाँ जाई का करी ?"
******************************
श्री अनुनाद सिंह का विचार है [इंदौर]
भारतीय जाति-व्यवस्था और आधुनिक व्यवसायों का इतना अर्थपूर्ण विशलेषण मैं पहली बार पढ़ पाया हूँ. लेखक की एक-एक बात अन्दर तक छू गई. मैं ने कहीं पढ़ा था कि आचार्य प्रफुल्ल चन्द का मत है कि भारत में पता नहीं कैसे ऐसी स्थिति बनी कि विभिन्न व्यवसायों ( और उनसे सम्बद्ध लोगों ) को हीन दृष्टि से देखा जाने लगा और शुद्ध मानसिक जुगाली के कार्य को श्रेष्ठ माना जाने लगा. यही हमारे पिछडेपन का आरम्भ था. अन्यथा पश्चिम में अर्थशास्त्र के जिस 'कार्य का विभाजन' (डिवीज़न आफ लेबर) का सिद्धांत काफ़ी बाद में लागू किया गया, भारत में कम-से-कम दो हज़ार वर्ष पहले से लागू था.

सोमवार, 14 जुलाई 2008

इस्लाम की समझ / क्रमशः 1.4

इस्लाम दीन है, धर्म या मज़हब नहीं

इस्लाम को दीन के रूप में स्वीकार करके संतुष्ट हो जाना पर्याप्त नहीं है. उसपर जीवन के अंत तक कायम रहना अनिवार्य है. नबीश्री हज़रत इब्राहीम (अ.) एक प्रतिष्ठित और सम्मानित नबी हैं.श्रीप्रद कुरआन के प्रकाश में वैसे तो नबीश्री हज़रत आदम (अ.) के समय से ही इस्लाम दीन के रूप में प्रतिष्ठित हो चुका था किंतु यह श्रेय हज़रत इब्राहीम को प्राप्त है कि उन्होंने इसका खुल कर प्रचार-प्रसार किया. 'उनसे जब परम सत्ता ने कहा इस्लाम स्वीकार करो, तो उन्होंने निवेदन किया मैं सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के 'रब' के समक्ष नत मस्तक हूँ' (इज़ क़ाल लहू रब्बुहू अस्लिम. क़ाल अस्लम्तु लिरब्बिल आलमीन 2/131). हज़रत इब्राहीम (अ.) का 'रब' को समर्पित होना तो नबी होने के रिश्ते से पहले से ही स्पष्ट था. किंतु नबी के लिए उसकी अभिव्यक्ति भी ज़रूरी थी. फिर इतना ही नहीं, वे और उनके बेटे हज़रत इस्माईल (अ.) काबे की दीवार ऊंची करते समय मन-ही-मन अल्लाह से दुआ करते हैं 'ऐ हमारे रब ! हमें अपने नज़दीक मुस्लिम स्वीकार कर और हमारी संतति में से भी एक समुदाय ऐसा रखना जो तेरे नज़दीक मुस्लिम हो.' ( रब्बना वज्'अल्ना मुस्लिमैनि ल'क व् मिन ज़ुर्रीयतिना उम्मतम-मुस्लिमतंल्लक. 2/128) साथ-ही-साथ श्रीप्रद कुरआन ने यह भी बताया "और इसी की वसीयत इब्राहीम (अ.) ने अपने बेटों और याकूब (अ.) ने अपने बेटों को की - ऐ बेटा अल्लाह ने तुम्हारे लिए यही दीन पसंद किया है. जब संसार से उठना तो मुसलमान रहकर ही. ( व् वस्सा बिहा इब्राहीमु बनीहि व् याकूबु, या बनैयि इन्नल्लाहस्तफ़ा लकुमुद्दीन फ़ला तमू तुन्न इल्ला व् अन्तुम मुस्लिमून. 2/132). अन्तिम आयत से स्पष्ट हो जाता है कि मुसलमान के लिए आख़िरी साँस तक दीन पर क़ायम रहना ज़रूरी है.
ध्यान देने की बात यह है कि इस्लाम को दीन के रूप में स्वीकार कर लेने के बाद प्रत्येक मुसलमान के लिए अनिवार्य हो जाता है कि वह अल्लाह के आदेशों और नबीश्री के पद-चिह्नों का आजीवन पालन करता रहे. श्रीप्रद कुरआन ने अनेक आयतों के माध्यम से इसका स्पष्टीकरण किया है. कहीं पर कहा गया 'अतीउल्लाह वर्रसूल' अर्थात अल्लाह और रसूल के आदेशों का पालन करो (3/32),या"वमइं युतिइल्लाह वरसूलहू युदखिलहु जन्नातिन"अर्थात जो व्यक्ति अल्लाह और उसके रसूल के आदेशों क पालन करेगा, अल्लाह उसे जन्नत में दाखिल करेगा (4/13) या "मइंयुतिइर्रसूल फ़क़द अताअल्लाह" अर्थात जिसने रसूल के आदेशों का पालन किया उसने अल्ल्लाह के आदेशों का पालन किया (4/80) इत्यादि. कहीं बताया गया "कुल इन्कुंतुम तुहिब्बूनल्लाह फ़त्तबिऊनी युहबिब्कुमुल्लाहू" अर्थात ऐ रसूल ! कह दो की यदि तुम अल्लाह से प्रेम करते हो तो मेरे पदचिह्नों पर चलो, अल्लाह तुम्हें दोस्त रखेगा.(3/31).
उपर्युक्त आयतों में कई बातें विचारणीय हैं. 1. अल्लाह की इताअत (आदेशों का पालन) करो और उसके रसूल की इताअत करो. 2. रसूल के आदेशों का पालन अल्लाह की इताअत से भिन्न नहीं है. 3. रसूल की इत्तिबा (पदचिह्नों पर चलना), अल्लाह से प्रेम का मूल-मन्त्र है.
पता यह चला की इताअत तो अल्लाह और उसके रसूल की करना है किंतु इत्तिबा केवल रसूल की करना है. कारण यह है कि अल्लाह के पद-चिह्न तो हैं नहीं जिनके पीछे चला जाय.दूसरी बात यह है कि रसूल के आदेश भले ही वह उनकी ज़बान से निकले हों वास्तव में अल्लाह के आदेश ही हैं. श्रीप्रद कुरआन ने तो कहा भी है "मा ज़ल्ल साहिबुकुम व् मा गवा व्'मा यंतिकु अनिल हवा इन हुव इल्ला वह्युन्यूहा" अर्थात ऐ मुसलमानों "तुम्हारा साहब (नबीश्री हज़रत मुहम्मद स.) न तो भटका हुआ है और न ही वह अपनी इच्छा से कुछ कहता है. वह कुछ भी नहीं बोलता बिना वही के इशारे के" (53/2-3). 'वही' अल्लाह के उन आदेशों को कहते हैं जो जिब्रील के माध्यम से नबीश्री (स) तक पहुंचते हैं.
अब यदि कोई व्यक्ति नबीश्री की अवज्ञा करता है तो सही अर्थों में वह अपने ईमान की कमजोरी व्यक्त करता है और उसकी अवज्ञा नबीश्री की ही नहीं अल्लाह की भी अवज्ञा है. आजकी बात जाने दीजिये. स्वयं नबीश्री के ज़माने में अनेक आदरणीय सहाबियों ने नबीश्री की अवज्ञा की. यह और बात है कि नबीश्री के स्वभाव में घृणा और क्रोध के लिए कोई स्थान नहीं था. नबीश्री के क्रोध की अभिव्यक्ति का बस इतना ही उल्लेख मिलता है कि ऐसे अवसरों पर उनका चेहरा बिल्कुल लाल हो जाता था. वे ज़बान से कुछ नहीं कहते थे. यह सच है कि नबीश्री के सभी सहाबी (साथ उठने-बैठने वाले) हमारे लिए आदरणीय हैं, किंतु यह भी सच है कि सभी सहाबी हमारे लिए अनुकरणीय नहीं हो सकते. सहाबियों की अवज्ञा के उदाहरण प्रामाणिक मुस्लिम इतिहास में भरे पड़े हैं, किंतु मैं यहाँ कुछ-एक उदाहरण ही देना चाहूँगा.
1. पहला उदाहरण 'उहद' की लड़ाई का है. इस लड़ाई में मक्के के मुशरिकों ने भरपूर तैयारी के साथ आक्रमण किया था जिसमें मुसलामानों ने उनका सामना उहद के मैदान में किया. इस युद्ध में इमाम अली (र.), हज़रत हम्ज़ा (र.), हज़रत मिक़दाद बिन असवद (र.), हज़रत जुबैर बिन अवाम और हज़रत अबू दज्जाना ने जब शत्रुओं को दूर तक खदेड़ दिया तो मुसलमान, शत्रुओं का छोड़ा हुआ माल लूटने में व्यस्त हो गए. तीरंदाजों का वह दस्ता जिसे पहाड़ के दर्रे पर नबीश्री (स.) ने इस आदेश के साथ तयनात किया था कि वे किसी भी स्थिति में उस स्थान को न छोडें, वे भी माल पर टूट पड़े. शत्रु सेना को अवसर मिल गया और उसने पीछे से मुसलमानों पर आक्रमण कर दिया. कुछ गिने चुने सहाबी तो इस अवसर पर भी डटे रहे किंतु अधिकतर सहाबी जान बचाकर, नबीश्री को अकेला छोड़कर भाग गए. नामी मुस्लिम योद्धाओं के शहीद हो जाने पर भी हज़रत अली (र.) अंत तक मोर्चे पर डटे रहे और उन्होंने नबीश्री की जो ज़ख्मी हो गए थे मरहम पट्टी भी की. प्रामाणिक मुस्लिम इतिहासकार तबरी ने लिखा है कि नबीश्री के " सहाबी भाग कर इधर उधर बिखर गए, कुछ मदीने में चले गए और कुछ पहाड़ की चट्टान पर जाकर टिक गए. नबीश्री ऊंची आवाज़ से पुकारने लगे लोगों को बुलाते हुए कि "इलैय इबादिल्लाह, इलैय इबादिल्लाह"ऐ अल्लाह के बन्दों ! मेरी ओर आओ, मेरी ओर, किंतु किसी ने नहीं सुना" (तबरी भाग 3, पृ0 20 ). श्रीप्रद कुरआन ने इस घटना को सूरः आलि इमरान की 152वीं आयत में इस प्रकार बयान किया है- "याद करो जब तुम भागे चले जा रहे थे. किसी की ओर पलटकर देखने का होश भी तुम में नहीं था और तुम्हारा रसूल तुम्हारे पीछे तुमको पुकार रहा था."
मुस्लिम इतिहासकारों ने लड़ाई से नबीश्री की अवज्ञा करते हुए भागने वाले सहाबियों की सूची नहीं दी है. किंतु कुछ प्रमुख सहाबियों के नाम गिनाये अवश्य हैं. हाकिम नेशापूरी ने मुस्तदरक में (भाग 3, पृ0 27) और शाह वलीउल्लाह दिहल्वी ने कुर्तुल ऐनैन में (पृ0 14) लिखा है कि "जब उहद की लड़ाई में प्रतिष्ठित रसूल के सहाबी उनको अकेला छोड़कर इधर-उधर बिखर गए तो हज़रत आयशा (र.) के मतानुसार हज़रत अबूबकर (र.) ने फरमाया कि उनमें से सबसे पहले मैं रसूलल्लाह की खिदमत में वापस आया." तफसीरे-कबीर में (मिस्र, भाग 3, पृ0 74) अल्लामा फखरुद्दीन राज़ी और तारीखे-कामिल में (मिस्र, भाग 2, ज़ातुत्तःरीर, पृ0 60) इब्ने-असीर जज़री लिखते हैं "भागने वालों में हज़रत उमर (र.) भी थे किंतु वह बहुत दूर नहीं गए. बल्कि पहाडी पर ही सुरक्षित स्थान पर रुके रहे. हाँ हज़रत उस्मान (स.) जो साद और अकबा के साथ दूर तक भाग गए थे, तीन दिन बाद तशरीफ़ लाये." अब इससे क्या अन्तर पड़ता है कि कौन पहले लौटा और कौन बाद में. अल्लाह और उसके रसूल की अवज्ञा तो सभी ने की.
इस प्रसंग में प्रख्यात मुस्लिम विद्वान् हज़रत अब्दुलहक़ मुहद्दिस दिहल्वी ने मदारिजुन्नबूवः में (भाग 2, पृ0 267) एक और विचारणीय बात लिखी है. वे लिखते हैं "इस अवसर पर नबीश्री ने हज़रत अली (र.) से प्रश्न किया तुम भी दूसरों की तरह क्यों नहीं चले गए ? हज़रत अली (र.) ने उत्तर में कहा क्या मैं ईमान लाने के बाद कुफ्र की तरफ़ पलट जाता." यह बात महत्वपूर्ण इसलिए है कि नबीश्री (स.) हज़रत अली (र.) की बात सुन कर चुप रह गए. नबीश्री (स.) का किसी बात पर सामान्य स्थिति बनाए रखते हुए चुप रहना, मुसलमानों की दृष्टि में तथ्यतः उस बात की स्वीकृति है.
2. दूसरा उदाहरण हुदैबिया की संधि का है. सन 06 हिजरी/ 628 ई0 में नबीश्री 1400 सहाबियों के साथ हज करने के विचार से मक्के के लिए निकले. वहाँ के मुशरिकों द्बारा अवरोध उत्पन्न किए जाने और खून-खराबे की संभावनाएं होने की सूचना पाकर नबीश्री ने मक्के से नौ मील पहले हुदैबिया के स्थान पर पड़ाव डाला. नबीश्री ने हज़रत उमर (र.) को मक्का जाकर यह बताने का आदेश दिया कि हम लोग कोई लड़ाई-झगडा नहीं चाहते. केवल हज की नीयत से निकले हैं और हज करके तत्काल वापस लौट जायेंगे. हज़रत उमर (र.) ने जाने में संकोच व्यक्त किया और हज़रत उस्मान (र.) को भेजने का सुझाव इस तर्क के साथ दिया कि मक्के के कुरैश उन्हें प्रिय रखते हैं और उनके कबीले वाले भी मक्के में अधिक हैं. हज़रत उस्मान (र.) मक्के गए और जब उन्हें लौटने में विलंब हुआ तो तरह-तरह की शंकाएँ व्यक्त की जाने लगीं. नबीश्री ने (जिन्हें उहद में मुसलमानों द्वारा मैदान छोड़ कर भाग जाने का अनुभव हो चुका था), अपने साथियों को एक वृक्ष के नीचे एकत्र करके उनसे युद्ध होने की स्थिति में जान बचाकर न भागने का वचन लिया.यह सूचना संभवतः मक्के वालों तक पहुँच गई. फलस्वरूप मक्के के कुरैश ने सुहैल बिन अम्र को इस आशय से भेजा कि हम भी युद्ध करने के पक्ष में नहीं हैं. आप हमारी समझौते की शर्तें मान लीजिये और इस वर्ष बिना हज किए लौट जाइए, अगले वर्ष आप हज कर सकते हैं किंतु तीन दिन से अधिक मक्के में नहीं रुकेंगे. हमारा कोई साथी यदि मदीने चला जाय तो आपको उसे लौटाना होगा,किंतु मदीने से यदि कोई मुस्लमान मक्के आता है तो हम उसे वापस नहीं लौटायेंगे. नबीश्री (स.)ने सारी शर्तें स्वीकार कर लीं. नबीश्री (स.) के सहाबियों ने, विशेष रूप से हज़रत उमर (र.) ने इस में मुसलामानों के अपमान की गंध महसूस की और नबीश्री (स.) से सवाल-जवाब भी किया (सहीह बुखारी, भाग 2, पृ0 141). मदारिजुन्नुबूवः में अब्दुलहक़ मुहद्दिस दिहल्वी ने (भाग 2, प्री0 436) लिखा है कि फरमाया हज़रत उमर (र.) ने कि हमें नबूवत पर जैसा संदेह आज हुआ, इससे पहले कभी नहीं हुआ.इतना ही नहीं संधि के बाद नबीश्री ने मुसलामानों को कुर्बानी करने और सर मुंडवाने का तीन-तीन बार आदेश दिया किंतु किसी ने हिलने का नाम तक नहीं लिया. मुसलमानों को इस प्रकार अवज्ञा करते देखकर नबीश्री को बहुत दुःख हुआ.
3. तीसरा उदाहरण उस समय का है जब अन्तिम हज से लौटकर नबीश्री (स.) ने अपने आजाद किए हुए गुलाम जैद बिन हारिस के बेटे ओसामा के नेतृत्त्व में हज़रत अली (र.) को छोड़ कर अन्य सभी सहाबियों को रूम की मुहिम में जाने का आदेश दिया. शेख अब्दुल हक मुहद्दिस दिहल्वी इस सम्बन्ध में लिखते हैं "हज़रत (नाबीश्री स.) की तरफ़ से आदेश हुआ कि बड़े-बड़े मुहाजिर और अंसार जैसे अबूबक्र सिद्दीक, उमर फारूक, उस्मान ज़ुल्क़र्नैन,साद बिन अबी वक्कास और अबू उबैदा बिन जर्राह इत्यादि सब इस सेना में ओसामा के साथ जाएँ, अली-ए-मुर्तुजा को छोड़कर, जिन्हें उनके साथ नहीं भेजा. यह बात कुछ लोगों को बहुत बुरी लगी कि एक गुलाम को मुहाजिर व् अंसार का सरदार बना दिया और उन लोगों के समूह में इसपर टीका-टिप्पणी होने लगी.हज़रत (नबीश्री स.) को जब इसकी सूचना मिली तो वे अत्यधिक दुखी हुए. मेंबर पर जाकर उन्होंने मुसलमानों से कहा 'ऐ लोगो ! यह क्या है कि मेरे बनाये हुए सेना के अमीर (सरदार) ओसामा का तुम सब विरोध कर रहे हो. इसी प्रकार उनके पिता के नेतृत्त्व का भी तुम लोगों ने विरोध किया था. खुदा की क़सम यही सेना की सरदारी का पद पाने के योग्य हैं और इनके पिता भी सरदारी के लिए योग्य थे." (मदारिजुन्नुबूवः, भाग 2, पृ0 766).
4. चौथा उदाहरण नबीश्री (स.) के जीवन के अन्तिम दिनों का है जब उन्होंने बीमारी की अवस्था में कलम और दावात माँगा ताकि मुसलामानों के लिए ऐसी वसीयत लिख दें कि भविष्य में मुसलमान पथ भ्रष्ट न हों. किंतु उपस्थित मुसलामानों ने नबीश्री (स.) के आदेश का पालन नहीं किया. इस घटना का उल्लेख बुखारी शरीफ, सहीह मुस्लिम, मसनद अहमद इब्ने हम्बल के अतिरिक्त तबरानी और शहरिस्तानी के यहाँ भी है. इनमें से कुछ पुस्तकों में यह भी बताया गया है कि हज़रत उमर (र.) ने इस अवसर पर यह भी कहा कि नबीश्री (स.) बीमारी की हालत में हिज़ियान बक रहे हैं. हमें किसी वसीयत की जरूरत नहीं है. हमारे लिए अल्लाह की किताब काफ़ी है.
उपर्युक्त उदाहरणों से इतना स्पष्ट हो जाता है कि नबीश्री के अनेक ऐसे सहाबी जिन्हें मुस्लिम जगत प्रतिष्ठित, सम्मानित, आदर्श और अनुकरणीय समझता है, नबीश्री के आदेशों की अवज्ञा के भागीदार थे. श्रीप्रद कुरान ने कहीं भी यह नहीं कहा है कि दो-एक बार की अवज्ञा क्षम्य है. श्रीप्रद कुरान के अनुसार अवज्ञा करने वालों के सारे कर्म अकारथ चले जाते हैं और वे न्याय के दिन पछताते हैं. किंतु यह केवल एक पहलू है. देखने की बात यह है कि ऐसा क्यों किया गया. मुझे अपने अध्ययन से पर्याप्त सोच-विचार के बाद ऐसा लगता है कि नबीश्री के अनेक सहाबियों ने इस्लाम को दीन के रूप में अपने राजनीतिक उद्देश्यों से स्वीकार किया था. उनके लिए दीन की आत्मा इश्के-इलाही या इश्के-रसूल नहीं थी. उनके लिए यह भी चिंता का विषय नहीं था कि वे तक़वा (प्रत्येक छोटे-बड़े पाप से दूर रहना) पर कायम रहें. आगे चलकर शाम और बग़दाद के अनेक खलीफाओं ने जो रास्ता अख्तियार किया,उससे सभी परिचित हैं. आज अधिकतर मुसलामानों को विरासत में यही आदर्श मिले हैं. फलस्वरूप इस्लाम की पहचान आज दूसरे धर्मों के लोग,श्रीप्रद कुरआन, नबीश्री का सम्मानित चरित्र, उनकी संतानों के चरित्र तथा सूफियों और वलियों के चरित्र के प्रकाश में नहीं कर रहे हैं. यह अतीत की बातें हो चुकी हैं. आज इस्लाम की पहचान उन धर्माचार्यों के माध्यम से हो रही है जो आए दिन भांत-भांत के फतवे दे रहे हैं.जिनका लक्ष्य इस्लामी सल्तनत और इस्लामी हुकूमत स्थापित करना है. इन धर्माचार्यों की मुस्लिम समुदाय के चरित्र निर्माण में कोई रूचि नहीं है. मेरी दृष्टि में आजके मुस्लिम धर्माचार्यों का जो लक्ष्य है वो किसी नबी रसूल या इमाम का लक्ष्य नहीं था.
****************************क्रमशः

पसंदीदा गीत / शिवमंगल सिंह सुमन [1915-2002]

1. पतवार
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार
आज सिन्धु ने विष उगला है
लहरों का यौवन मचला है
आज ह्रदय में और सिन्धु में
साथ उठा है ज्वार
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार
लहरों के स्वर में कुछ बोलो
इस अंधड़ में साहस खोलो
कभी-कभी मिलता जीवन में
तूफानों का प्यार
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार
यह असीम, निज सीमा जाने
सागर भी तो यह पहचाने
मिटटी के पुतले मानव ने
कभी न मानी हार
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार
सागर की अपनी क्षमता है
पर माझी भी कब थकता है
जब तक हाथों में स्पंदन
उसका हाथ नहीं रुकता है
इसके ही बल पर कर डाले
सातों सागर पार
तूफानों की ओर घुमा दो नाविक निज पतवार
2. विवशता
मैं नहीं आया तुम्हारे द्वार
पथ ही मुड़ गया था.
गति मिली, मैं चल पड़ा,
पथ पर कहीं रुकना मना था
राह अनदेखी, अजाना देश,
संगी अनसुना था.
चाँद सूरज की तरह चलता,
न जाना रात दिन है
किस तरह हम-तुम गए मिल,
आज भी कहना कठिन है.
तन न आया माँगने अभिसार
मन ही जुड़ गया था
मैं नहीं आया तुम्हारे द्वार
पथ ही मुड़ गया था.
देख मेरे पंख चल, गतिमय
लता भी लहलहाई
पत्र आँचल में छुपाये
मुख-कली भी मुस्कुराई
एक क्षण को थम गए डैने
समझ विश्राम का पल
पर प्रबल संघर्ष बनकर
आगई आंधी सदल-बल
डाल झूमी, पर न टूटी
किंतु पंछी उड़ गया था
मैं नहीं आया तुम्हारे द्वार
पथ ही मुड़ गया था.
**************************

शुक्रवार, 11 जुलाई 2008

इस्लाम की समझ / क्रमशः 1.3

इस्लाम दीन है, धर्म या मज़हब नहीं
महत्त्वपूर्ण प्रश्न यह है कि 'दीन' का मूलाधार क्या है ? वह कौन से ऐसे तत्व हैं जिनके न होने की स्थिति में 'दीन' विलुप्त हो जाता है ? आम मुसलमान नमाज़, रोजा, हज, ज़कात, जिहाद को दीन का मूलाधार समझते हैं. किंतु सच्चाई यह है कि नमाज़ न पढने का आपको 'अजाब' तो होगा, पर नमाज़ न पढ़कर भी आप मुसलमान कहलायेंगे.रोजा न रखने के गुनाह आपके आमाल में भले ही लिख लिए जाएँ, आपके मुसलमान कहलाने पर आंच नहीं आएगी. ज़कात आप नहीं निकालते तो उसके पाप के भागीदार आप होंगे, लेकिन आपका मुस्लमान होना बरक़रार रहेगा. हज न कर पाने की स्थिति में आप एक पुण्य से वंचित अवश्य हो जायेंगे, फिरभी मुसलमान तो आप रहेंगे ही. जिहाद का आदेश आजाने पर आप स्वस्थ रहते हुए भी जिहाद में शरीक न हों तो एक सवाब आपके हाथ से निकल जायेगा, किंतु आपके मुसलमान होने पर कोई प्रश्न-चिह्न नहीं लगेगा. स्पष्ट है कि यह तत्व 'दीन' का मूलाधार नहीं हैं.यदि होते तो इनमें से किसी एक के भी न करने से ईमान खतरे में पड़ जाता.
श्रीप्रद कुरआन का पहला पारा है "अलिफ़-लाम-मीम." इसकी पहली सूरह "अल-बक़रा" की दूसरी-तीसरी आयतें देखिये. कहा गया है कि "निस्संदेह यह ( श्रीप्रद कुरआन) वही 'किताब' है.जो अल्लाह के पास 'सुरक्षित-पट्टिका' (लौहे-महफूज़) पर है.यह सात्विक जनों (मुत्तकियों) के लिए मार्ग-दर्शक (हिदायत) है जो अदृश्य पर ईमान लाते हैं और जो 'सलात' स्थापित करते हैं, और जो कुछ हमने उन्हें दिया है उसमें से खर्च करते हैं."
उपर्युक्त आयतों में उल्लिखित तथ्यों को उसी क्रम में देखा जाना चाहिए जिस क्रम में श्रीप्रद कुरआन ने उन्हें हम तक पहुंचाया है. पहली बात सात्विकता की है. जो सात्विक नहीं हैं श्रीप्रद कुरआन उनके लिए मार्ग-दर्शक नहीं है. यहाँ आपत्ति यह उठाई जा सकती है कि श्रीप्रद कुरआन ने तो स्वयं कहा है "हुदंल्लिन्नास" अर्थात श्रीप्रद कुरआन सम्पूर्ण मानव जाति के लिए मार्ग-दर्शक है.फिर यह विरोधाभास क्यों ? यहाँ थोड़ा विचार करने की आवश्यकता है. जब यह कहा गया कि श्रीप्रद कुरआन सम्पूर्ण मानव जाति के लिए मार्ग दर्शक है तो एक एलिजिबिलिटी क्राइटेरिया यानी वांछनीय योग्यता बता दी गई. स्पष्ट कर दिया गया कि मानवेतर प्राणियों के लिए श्रीप्रद कुरआन मार्ग-दर्शक नहीं है. अब यह मानव जाति चाहे अरब की हो या अमेरिका की या भारत की या किसी भी देश की, श्रीप्रद कुरआन सभी का मार्ग-दर्शन करेगा. किंतु उसके बाद एक मेरिट क्राइटेरिया विशिष्ट योग्यता की शर्त रख दी. केवल एलिजिबिल होना पर्याप्त नहीं है. इसलिए स्पष्ट कह दिया गया कि मार्ग-दर्शन की कक्षा में केवल वही प्रवेश पा सकते हैं जो सात्विक ( मुत्तकी) हैं.
सामान्य रूप से मुस्लिम आचार्यों द्वारा सात्विक या मुत्तकी उस व्यक्ति को बताया गया है जो अल्लाह का खौफ रखता हो या परहेजगार हो. किंतु यह विवेचन अधिक संतोष-प्रद नहीं प्रतीत होता. मुत्तकी वह है जिसमें "तक़वा" हो. और "तक़वा" केवल अल्लाह का खौफ रखना नहीं है. मैं यहाँ सैयद महमूद आलूसी बगदादी का एक शेर उद्धृत करूँगा जो अरबी भाषा में है. शेर का भावार्थ यह है."सभी पापों से मुक्त रहना, चाहे वे छोटे हों या बड़े, तक़वा है / छोटे पापों को साधारण मत समझो, क्योंकि पहाड़ छोटे-छोटे पत्थरों से ही निर्मित होते है. श्रीप्रद कुरआन ने ईमान वालों से यह कहीं नहीं कहा कि तुम में श्रेष्ठ और सम्मानित वह हैं जो अधिक से अधिक नमाजें पढ़ते हैं. श्रीप्रद कुरआन की इस आयत पर विचार कीजिए - "इन्न अकरमकुम इन्दल्लाह अत्काकुम" अर्थात अल्लाह की दृष्टि में तुम में सबसे अधिक सम्मानित वह है, जो 'तक़वा' में सबसे बढ़-चढ़ कर हो, यानी जिसने कभी कोई छोटा या बड़ा पाप न किया हो और जिसका चित्त परिष्कृत हो.
अब दूसरे सोपान पर विचार कीजिए. वह है अदृश्य पर आस्था. यहाँ श्रीप्रद कुरआन ने"अल्लाह पर आस्था" तक अल्लाह के आदेश को सीमित नहीं रखा. यानी केवल अल्लाह पर आस्था पर्याप्त नहीं है. गैब (अदृश्य) पर आस्था अनिवार्य है. देखना यह है कि यह गैब पर आस्था क्या है ? गैब पर आस्था यह है कि अल्लाह पर ईमान तो हो ही, साथ-साथ श्रीप्रद कुरआन पर, प्रथम नबी हज़रत आदम (अ.) से लेकर अन्तिम नबी हज़रत मुहम्मद (स.) तक सभी नबियों पर, मलाइका (फरिश्तों) के अस्तित्व पर,क़यामत पर और आखिरत (परलोक) पर भी पूरी-पूरी आस्था हो. यही दीन और ईमान का वह मूलाधार है जिससे ज़रा भी इधर-उधर होने पर आप लाख नमाजें पढ़ें, रोजे रखें, ज़कात निकालें, हज करें, आप मुसलमान नहीं रह जायेंगे.
अब आगे उन सोपानों का उल्लेख है जिनसे ईमान लाने वाले की सात्विकता बरक़रार और सुदृढ़ रहती है. इसके लिए पहली शर्त है 'सलात' स्थापित करना.मुस्लिम धर्माचार्यों ने इसे सरलीकृत करके 'नमाज़ पढ़ना' कर दिया है.प्रश्न यह है कि 'सलात' का उद्देश्य क्या है और उसे स्थापित करना क्यों अनिवार्य है ? श्रीप्रद कुरान में विभिन्न आयातों में बताया गया है कि 'सलात' इंसान को अल्लाह के निकट लाती है, बे-हयाई और दुष्कर्मों से दूर रखती है,चित्त के परिष्कार का साधन है इत्यादि. स्पष्ट है कि 'सलात' के ये सभी गुण सात्विकता को बनाए रखने में सहयोगी हैं. नबीश्री हज़रत मुहम्मद (स.) ने कहा है "मुझे बताओ कि यदि किसी के घर के दरवाज़े से लगी हुई एक नदी हो और वह उसमें दिन में पाँच बार स्नान करता हो, तो क्या उसके शरीर पर कहीं गन्दगी रह जायेगी ?" स्पष्ट है कि नहीं रहेगी. दिन में पाँच बार की 'सलात' यही करती है."
सात्विकता को सुरक्षित रखने का अन्तिम सोपान है अल्लाह ने जो कुछ दिया है उसमें से खर्च करते रहना. यहाँ बात केवल रूपये-पैसे, धन-दौलत की नहीं है. ज्ञान, कला, हुनर सबकुछ इसके अंतर्गत आता है. इनमें कंजूसी करने वाला अल्लाह को प्रिय नहीं है. आपके पास बेशुमार दौलत हो और आप उसमें से दरिद्रों, पीडितों मुहताजों के लिए कुछ भी खर्च न करें, आपके पास अपार ज्ञान का भंडार हो और आप उससे दूसरों को लाभान्वित न होने दें, आप कोई विशेष हुनर, शिल्प या कला ऐसी जानते हैं जिससे जनसामान्य को लाभ पहुँचता है और आप उस कला को अपने वक्ष में धरे धरे दुनिया से चले जाएँ, आपके पास अनाज के गोदाम के गोदाम भरे हैं और अकाल पड़ने पर आप यह देखते हुए भी कि लोग भूख से मर रहे हैं, उसके दाम को बहुत ऊँचा उठाकर उसे बाज़ार में लायें और लोगों की मजबूरी का लाभ उठाएं, इन स्थितियों में आप कुछ भी हो सकते हैं, मुसलमान नहीं हो सकते. इसलिए कि दीन की आत्मा आपके भीतर से गायब हो चुकी है. ज़ाहिर है कि श्रीप्रद कुरान की रोशनी में सात्विक होना बहुत सरल नहीं है. ठीक इसी प्रकार मुसलमान कहलाना बहुत सरल है, किंतु मुसलमान होना बहुत सरल नहीं है.
भारत में आज नमाज़ रोजा के पाबन्द और श्रीप्रद कुरआन तथा सुन्नत में आस्था रखने वाले मुसलामानों को सामान्य रूप से कट्टर और फंडामेंटलिस्ट कहा जाता है और उन्हें आधुनिकता विरोधी समझा जाता है. मूल रूप से यह शब्द ईसाई समाज से आया और इसे क्रिस्चियन फंडामेंटलिज़्म कहा गया. इस आन्दोलन ने ब्रिटिश और अमेरिकन प्रोटेसटेंटीज़्म के भीतर से उन्नीसवीं शताब्दी के अन्तिम दशकों में सिर उभारा. यह मूलतः आधुनिकता विरोधी था. किंतु यह स्थिति मुसलामानों के साथ नहीं है. वस्तुतः मौलाना मौदूदी की इस्लामी सल्तनत की परिकल्पना और आयतुल्लाह खुमैनी के ईरानी आन्दोलन को इस्लामिक फंडामेंटलिज़्म का नाम दिया गया. जबकि मौदूदी ने हिन्दुओं के आयोजनों में शरीक होने में कभी झिझक नहीं महसूस की और आयतुल्लाह खुमैनी ने आर्मेनिअनों को जिम्मी की कोटि में न रखकर उन्हें ईरानी शहरी करार दिया और वही अधिकार दिए जो किसी ईरानी को प्राप्त हैं. अमेरिकन इतिहासकारों ने विशेष रूप से इरा लैपेडिस ने इन मुसलामानों को दो वर्गों में रखकर देखा. एक 'मेनस्ट्रीम इस्लामिस्ट' और दूसरा 'फंडामेंटलिस्ट'. उसकी दृष्टि में दोनों ही राजनीतिक धाराएं हैं. पहली धरा राजनीतिक माध्यमों को चुनती है और उसका विशवास है कि किसी समाज को सामाजिक और राजनीतिक आंदोलनों से इस्लामीकृत किया जा सकता है. दूसरी धारा भी मूलतः राजनीतिक व्यक्तियों की है किंतु वह 'मौलिक इस्लाम की खोज' के नाम पर ढेर-सारे माध्यम चुनती है और किसी भी हथकंडे को बुरा नहीं समझती, चाहे वह आतंकवाद और खून-खराबा ही क्यों न हो. यह सब स्थितियां इसलिए पैदा हुईं कि मुसलमान आहिस्ता-आहिस्ता दीन की रूह से दूर होता चला गया और उसने समय के साथ बदलते इस्लाम के स्थूल मज़हबी रूप को ही सब कुछ समझ लिया.
मुझे यहाँ हिन्दी भाषा के तीन शब्द जो बड़े ही प्रिय हैं,याद आते हैं.वे हैं अध्ययन, चिंतन और मनन. अध्ययन मनुष्य को ठोस सूचनाएं देता है, चिंतन उन्हें अनुभवों की आंच में तपाकर तरलीकृत करता है और मनन उन्हें रसायन में तब्दील करके कबीर के शब्दों में 'हरी भई बनराइ' की स्थिति पैदा कर देता है. मैं बहुत क्षमा के साथ कहना चाहूँगा कि अनेक प्रभावशाली मुस्लिम धर्माचार्यों ने दीन और ईमान को अध्ययन तक सीमित रखा. वे चिंतन और मनन की सीमाओं के भीतर या तो प्रवेश नहीं कर सके या केवल उन सीमाओं को छूकर चले आए. उसकी रूह को आत्मसात करने का प्रयास नहीं किया. मेरी दृष्टि में दीन की रूह को नबीश्री हज़रत मुहम्मद के बाद, उनकी संतानों ने, सूफी चिंतकों ने, वलियों और दरवेशों ने जिस तरह समझा, किसी धर्माचार्य ने नहीं समझा. ये वो लोग हैं जिन्होंने 'इश्के-इलाही' और 'इश्के-रसूल' में अपनी जिंदगियां ख़त्म कर दीं. अधिकतर मुस्लिम धर्मोपदेशकों ने इनके नामों को भुनाया, किंतु इनकी चारित्रिक विशेषताओं को अपने भीतर समाहित करने का प्रयास नहीं किया.
मेरी बातों से कहीं यह निष्कर्ष न निकाल लिया जाय कि मैं शरीअत-विरोधी हूँ. मैं शरीअत का उतना ही सम्मान करता हूँ जितना एक मुसलमान को करना चाहिए. हाँ शरीअत को मैं दीन और ईमान के शरीर की रीढ़ की हड्डी मानने के पक्ष में नहीं हूँ. मैं शरीअत को दीन का व्याकरण समझता हूँ. जिस प्रकार भाषा पर अधिकार हो जाने पर व्याकरण का महत्त्व गौण हो जाता है उसी प्रकार इश्के-रसूल और इश्के-इलाही की भाषा को मन, मस्तिष्क और व्यवहार में गहराई तक उतार लेने पर शरीयत का व्याकरण तमाम विवादों से ऊपर उठकर उसी के अनुरूप हो जाता है.
मैं अपने उपर्युक्त विचारों के पक्ष में केवल दो उदाहरण देना चाहूँगा. पहला उदाहरण श्रद्धास्पद हज़रत उवैस करनी (र.) का है. प्रत्येक मुसलमान जानता है कि हज़रत उवैस करनी (र.) नबीश्री के प्रतिष्ठित और सम्मानित सहाबियों में से थे. वो उहद के गज़वे में शरीक नहीं हो सके थे. उन्हें जब यह सूचना मिली कि जंग में नबीश्री के दांत शहीद हो गए तो इश्के-रसूल की मौजों ने ज़ोर मारा और उन्होंने एक पत्थर मारकर अपने सारे दांत तोड़ लिए. अब शरीअत लाख चिल्लाती रहे कि शरीर के किसी अवयव को चोट पहुंचाना, काटना, तोड़ना, शरीर से अलग करना हराम कार्य है. किंतु किसी आलिम में यह साहस नहीं है कि वह हज़रत उवैस करनी (र.) के इस कृत्य को हराम कृत्य कह सके. उल्टे यह और हुआ कि वे नबीश्री की दृष्टि में और भी अधिक सम्मानित हो गए.
दूसरा उदाहरण मस्जिदे-नबवी में नबीश्री के सहाबियों के घरों के जो दरवाज़े खुलते थे,उन्हें इमाम अली (र.) के दरवाज़े को छोड़ कर, बंद करने के आदेश का है. कुछ मुस्लिम धर्माचार्यों ने इस हदीस को कमज़ोर बताने का प्रयास किया है. किंतु इस्लाम की प्रामाणिक समझी जाने वाली इतनी अधिक पुस्तकों में यह संदर्भित है कि इससे इनकार करना असंभव प्रतीत होता है. इन प्रामाणिक पुस्तकों में निसाई, बहेक़ी, तबरानी, और तिरमिज़ी के नाम विशेष उल्लेख्य हैं. थोड़े से परिवर्तन के साथ बुखारी शरीफ में भी यह हदीस मौजूद है. किंतु अनेक अकाट्य तर्कों के आधार पर मुस्लिम विद्वानों ने इसे विश्वसनीय नहीं माना है. हुआ ये कि मस्जिद में बहुत से साहबियों के दरवाज़े खुलते थे और रात में अनेक सहाबी वहीं सोते भी थे जिससे मस्जिद की पवित्रता प्रभावित होती थी. उस समय नबीश्री ने आदेश दिया कि इमाम हज़रत अली (र.) के अतिरिक्त सभी सहाबी अपने दरवाज़े बंद कर लें. हज़रत अली (र.) को यह भी अनुमति दी गई कि वे ज़ाहिरा अपवित्रता की स्थिति में भी मस्जिद में आ-जा सकते हैं. इस आदेश का सहाबियों ने बहुत बुरा माना. श्रीप्रद कुरान की 'सूरह वन्नज्म' से ऐसा संकेत मिलाता है कि कुछ सहाबियों ने नबीश्री को गुमराह भी कह दिया. मैं विस्तार में नहीं जाना चाहता. प्रश्न यह है कि अपवित्रता की स्थिति में शरीअत मस्जिद में प्रवेश को वर्जित मानती है. फिर स्वयं नबीश्री ने यह अनुमति किस प्रकार दे दी ? अब या तो यह मान लीजये कि सूरह 'अहज़ाब' की 'आयते-ततहीर' के प्रकाश में अल्लाह 'अह्लेबैते-अतहार' को जिनमें हज़रत अली (र.) भी सम्मिलित थे, हर स्थिति में पवित्र रखने का संकल्प कर चुका था. इस दृष्टि से हज़रत अली (र.) हर स्थिति में पवित्र थे या फिर यह कहिये कि अल्लाह के कुछ बन्दे ऐसे हैं जो इश्के-इलाही में इस प्रकार रमे हुए हैं कि जैसे बहते दरिया को नालों की गन्दगी अपवित्र नहीं करती उसी प्रकार वे भी अपवित्र नहीं होते. कहने का अभिप्राय यह है कि इश्के इलाही के सामने शरीअत के पैमाने छोटे पड़ जाते हैं. दीन के सभी अरकान अल्लाह से नैकट्य (फी कुर्बतन इलल्लाह) की नीयत से हैं. फिर जो इश्के-इलाही में पूरी तरह रम गया हो वह तक़वा के किस दर्जे पर होगा इसका सहज ही अनुमान किया जा सकता है.
ध्यान देने की बात यह है कि दीन की आत्मा है ईमान और ईमान का नाभीय बिन्दु है इश्के-इलाही और इश्के-रसूल. और यह इश्क, अल्लाह और उसके रसूल की मारिफत (वास्तविक पहचान) के बिना सम्भव नहीं है. ऐसी स्थिति में हर सहाबी और हर मुसलमान का ईमान बराबर किस प्रकार हो सकता है. मुस्लिम धर्माचार्य इस तथ्य से बखूबी परिचित हैं कि ईमान के भी दर्जे होते हैं. नाबीश्री (स.) ने अपने सहाबियों के मध्य स्पष्ट शब्दों में घोषित कर दिया था कि ईमान के दस दर्जे होते हैं, उनमें से आठवें दर्जे पर हज़रत मिक़दाद (र.), नवें पर हज़रत अबूज़र गिफ़ारी (र.) और दसवें दर्जे पर हज़रत सलमान फ़ारसी प्रतिष्ठित थे. इतना ही नहीं नबीश्री की यह भी हदीस है कि "इन्नल्जन्नत तश्ताक इला सलास सलमान व् अबी ज़र व् मिक़दाद" अर्थात तीन विभूतियाँ वह हैं जिनकी जन्नत मुश्ताक है, वे हैं सलमान (र.), अबूज़र (र.) और मिक़दाद.
यह बातें साधारण और निम्नस्तरीय पुस्तकों में नहीं हैं. सहाबियों की जिंदगी पर जितनी भी स्तरीय पुस्तकें लिखी गई हैं, उन सब में हैं. इनका सबसे अधिक प्राचीन स्रोत अल्लामा इब्ने अब्दुल्बर की पुस्तक 'इस्तेआब फी मारिफत-अल-असहाब' है. इसके बाद हाफिज़ इब्ने-हजर अस्क़लानी की पुस्तक 'असाबा फी तमीज-अल-सहाबा' है. कोई भी मुस्लिम धर्माचार्य इन पुस्तकों पर प्रश्न-चिह्न नहीं लगा सकता. किंतु समय के साथ इस्लामी राजनीति ने नबीश्री के इन प्रतिष्ठित सहाबियों को इतिहास के मलबे में दबा दिया. केवल इसलिए कि यह विभूतियाँ जिस इस्लाम को प्रतीकायित करती थीं वह मुस्लिम धर्माचार्यों के राजनीतिक उद्देश्यों को पूरा नहीं करता. आज मुस्लिम आबादी के तीन-चौथाई से अधिक लोग ऐसे हैं जो हज़रत सलमान (र.), हज़रत अबूज़र (र.) और हज़रत मिक़दाद (र.) के नाम भी नहीं जानते. यह स्थिति इसलिए भी है कि युवा पीढी को इनसे परिचित कराने में एक खतरा यह है कि राजनीतिक उद्देश्यों से जिन सहाबियों के मनोनुकूल रेखाचित्र बना लिए गए हैं, कहीं वे धूमिल न पड़ जाएँ. मज़हब यही करता भी है.
**********************क्रमशः

पसंदीदा शायरी / मुनीर नियाज़ी

तीन ग़ज़लें
[ 1 ]
डर के किसी से छुप जाता है जैसे सौंप खज़ाने में
ज़र के ज़ोर से जिंदा हैं सब ख़ाक के इस वीराने में
जैसे रस्म अदा करते हों शहरों की आबादी में
सुब्ह को घर से दूर निकलकर शाम को वापस आने में
नीले रंग में डूबी आँखें खुली पडी थीं सब्ज़े पर
अक्स पड़ा था आसमान का शायद इस पैमाने में
दिल कुछ और भी सर्द हुआ है शामे-शह्र की रौनक में
कितनी जिया बेसूद गई शीशे के लफ्ज़ जलाने में
मैं तो 'मुनीर' आईने में ख़ुद को तक कर हैरान हुआ
ये चेहरा कुछ और तरह था पहले एक ज़माने में
[ 2 ]
गम की बारिश ने भी तेरे नक्श को धोया नहीं
तूने मुझको खो दिया, मैंने तुझे खोया नहीं
नींद का हल्का गुलाबी सा खुमार आंखों में था
यूँ लगा जैसे वो शब् को देर तक सोया नहीं
हर तरफ़ दीवारों-दर और उनमें आंखों का हुजूम
कह सके जो दिल की हालत वो लबे-गोया नहीं
जुर्म आदम ने किया और नस्ले-आदम को सजा
काटता हूँ जिंदगी भर मैंने जो बोया नहीं
जानता हूँ एक ऐसे शख्स को मैं भी 'मुनीर'
गम से पत्थर हो गया लेकिन कभी रोया नहीं
[ 3 ]
फूल थे बादल भी था, और वो हसीं सूरत भी थी
दिल में लेकिन और ही इक शक्ल की हसरत भी थी
जो हवा में घर बनाया काश कोई देखता
दस्त में रहते थे पर तामीर की हसरत भी थी
कह गया मैं सामने उसके जो दिल का मुद्दआ
कुछ तो मौसम भी अजब था, कुछ मेरी हिम्मत भी थी
अजनबी शहरों में रहते उम्र सारी कट गई
गो ज़रा से फासले पर घर की हर राहत भी थी
क्या क़यामत है 'मुनीर' अब याद भी आते नहीं
वो पुराने आशना जिनसे हमें उल्फत भी थी
*************************