सोमवार, 30 जून 2008

दिनकर ने कहा था

असली सत्य [ 1969, दिल्ली ]
असली सत्य शून्यता है, किंतु इस सत्य को पकड़ने की कोई राह नहीं है. जिस चीज़ को तुम राह कहते हो, वह शून्यता से भिन्न कुछ-न-कुछ बनने की चेष्टा मात्र है. वह विलीयमान क्षण से आगे बढ़कर ठहरने का निष्फल प्रयास है. ईश्वर में आस्था, आत्मा की अमरता, मोक्ष और निर्वाण - ये सब चालाकी के नाम हैं. नास्तिकता और वैज्ञानिक भौतिकवाद भी चालाकी ही है. हाँ उनके साथ बाँझ निश्चितता और आक्रामक दुराग्रह लगे हुए हैं.
एअर-कंडीशंड पोएट [1969, कानपुर ]
श्रीमती संतोष महेन्द्रजीत सिंह को लगा मैं आराम से नहीं हूँ. आज वे कह बैठीं -"आप एअर-कंडीशंड पोएट हो गए" मैं ने कहा " हाँ, वहाँ दिल्ली में एअर-कन्डीशन में रहता हूँ, ट्रेन में ए.सी. में चलता हूँ और कविता भी ठंडी लिखने लगा हूँ. आपके मजाक में भी सच्चाई है.
कविता [ 1970, दिल्ली ]
कविता जीवन का पुष्प है. वह पुष्प जो शिखर पर खिलता है, फुनगी पर खिलता है. जिसे यह फूल चुनना हो, वह शिखर से ध्यान हटाकर दाहिने या बाएँ नहीं मुड़ेगा. जिन्हें आत्मज्ञान हो चुका है, उन्हें ही कविता लिखनी चाहिए. मगर तब संसार में कविता की मात्रा कितनी न्यून हो जायेगी. न्यून हो जाय वह भी अच्छा है. इन्फ्लेशन होने से कविता का मूल्य बिल्कुल घट गया है.
कविता का लक्षण [ 1971, पटना ]
कविता का एक बड़ा लक्षण यह है कि वह आत्मा की शान्ति को भंग करे. आत्मा के शान्ति-भंग में एक आनंद है, जिसे सुसंस्कृत व्यक्ति ही जानता है, जिसके ह्रदय में विचारों के हल, चल चुके हों. अगर थोड़े से लोग पीढी-दर-पीढी किसी लेखक या कवि की प्रशंसा करते रहें, तब बाकी लोग भी उसे स्वीकार कर लेंगे. साहित्य भी जनता पर ज़बरदस्ती थोपा जाता है.
गुलशन नंदा बनाम हिन्दी/उर्दू लेखन [ 1970,दिल्ली ]
गुल्शन नंदा बोले -'मैं उर्दू में लिखकर हिन्दी में उतरवाता हूँ.' मैंने पूछा आप अपने को हिन्दी का लेखक मानते हैं या उर्दू का, हालांकि दोनों भाषाएँ एक ही हैं ? नंदा जी ने कहा 'उर्दू में मैं अधिक से अधिक 15000 बिका हूँ, हिन्दी में मेरी पुस्तकें तीन-तीन लाख छपती हैं. अतएव मैं अपने को हिन्दी का ही लेखक मानता हूँ'
मनीषी-धर्म [1970, दिल्ली ]
सुविधा के साथ संधि, सुरक्षा के साथ सुलह, यह मीडियोक्रिटी है. मनीषी-धर्म नहीं. क्षण-क्षण सफलता की खोज और कीर्ति की कामना, यह भी मनीषी-धर्म के विरुद्ध है. समाज को चुनौती वे ही दे सकते हैं, जो गरीबी और असुरक्षा के लिए तैयार हों. मैं शायद मनीषी-धर्म से गिर रहा हूँ. गरीबी अब भी कबूल है, पर असुरक्षा से भय लगने लगा है.
मनीषी [ 1972, पटना ]
स्वराज्य के पूर्व तक मनीषियों का इस देश में बड़ा सम्मान था, क्योंकि मनीषी शासकों के खिलाफ आवाज़ उठाते थे. मगर अब मनीषियों का आदर बहुत कम हो गया है. जो मनीषी लेखक और कवि हैं, वे कला की सेवा तो करते हैं, लेकिन समय के जलते प्रश्नों पर अपना विचार व्यक्त नहीं करते. यह सुरक्षा की राह है और जो सुरक्षा खोजता है, जनता उसकी खोज नहीं करती. हम लोग सुरक्षा की खोज में ही मारे गए हैं.
युद्ध [1971, पटना ]
जब युद्ध आरम्भ हो जाय तब तीन विकल्प रह जाते हैं. युद्ध के साथ हो जाओ, युद्ध का विरोध करो, या युद्ध से उदासीन हो जाओ जैसे येट्स प्रथम विश्वयुद्ध से उदासीन हो गए थे. वैयक्तिक सिद्धांत के कारण कोई युद्ध का विरोध करे, तो मैं उसका आदर करूँगा, साथ नहीं दूँगा. उदासीन होना तो मेरे लिए असंभव है. किंतु युद्ध के बारे में मेरे विशवास तब परीक्षित होते, जब मैं खतरे के रेंज में रहकर युद्ध का समर्थन करता.
छायावाद का सुधरा रूप [1971, पटना ]
बच्चन, नरेंद्र, शिवमंगल,नागार्जुन, अंचल और मैं, ये सब-के-सब छायावाद से जन्मे हैं और हम लोगों के भीतर से वह धारा अब भी प्रवाहित हो रही है. किंतु यह छायावाद का सुधरा हुआ रूप है, जो धूमिल नहीं है, जन जीवन से दूर नहीं है, अनुभूति के बदले कल्पना पर आश्रित नहीं है.
राष्ट्र कवि [ 1971, दिल्ली ]
जो भी कवि राष्ट्रीय कवितायें लिखता हो, उसे राष्ट्र कवि कह देते हैं. किंतु यह काफ़ी नहीं है. प्रत्येक जाति की आध्यात्मिक विशेषता होती है, कोई सांस्कृतिक वैशिष्ट्य होता है, संसार और जीवन को देखने की कोई दृष्टि होती है. जो कवि इस दृष्टि-बोध को अभिव्यक्ति दे सके वही राष्ट्र का राष्ट्र-कवि कहलाने योग्य है... हमारे असली राष्ट्र कवि वाल्मीकि हैं, कालिदास हैं, तुलसी हैं और रवीन्द्र नाथ ठाकुर हैं,
दिनकर की डायरी से साभार

एक दीवार जो गिर गई / शैलेश ज़ैदी




प्रकाशकीय टिप्पणी
यह कविता प्रो. शैलेश ज़ैदी ने अपनी पत्नी डॉ. शबनम ज़ैदी के निधन के बाद लिखी थी. यह मुझे 'शैलेश ज़ैदी का रचना संसार' शीर्षक शोध-प्रबंध लिखते समय उनके पुराने कागजों में मिली थी जहाँ से निकालकर मैंने इसे 'तलाश' हिन्दी त्रैमासिक के अंक 4 में 1999 में प्रकाशित किया था. वे इसे नितांत निजी मानते हुए इसके प्रकाशन के पक्ष में नहीं थे. किंतु मुझे इस कविता का फलक इतना विस्तृत प्रतीत हुआ कि इसमें हर व्यक्ति का दर्द मुखरित दिखायी दिया. इसकी परतों में एक पूरा इतिहास करवटें ले रहा है. तलाश के पाठकों की पसंद मुझे प्रेरित करती है कि मैं इसे पोस्ट करूँ. [ प. फ़ा.]
वो इक गुलाब जिसे रौंद डाला धरती ने
मैं उस गुलाब की रंगत संजोये बैठा हूँ.
सुगंध जिसकी खिलाती थी फूल स्वप्नों के
मैं आज स्वप्नों की चाहत संजोये बैठा हूँ.
पता नहीं मुझे, सोचा है क्या मेरे जी ने !
किसी भी तथ्य की अवहेलना करूँ कैसे
मैं जनता हूँ कि शाश्वत नहीं वसंत का रूप,
क्षणों के मोह में लिपटी हुई विसंगतियां
न देख पायीं कभी एक पल अनंत का रूप.
विचार उठते हैं मन में तो चुप रहूँ कैसे !
कभी भी काम न आई किसी के भावुकता
कहाँ से लाये कोई आज नीलकंठ का शील !
अप्राण देह में बजते हैं शब्द ऊट-पटांग,
रुदन के गीत सुनाती है आंसुओं की झील
छुपाये बैठा है मन में मनुष्य कामुकता.
करूँ जो बात कभी न्याय और समता की
तो एक टक मुझे सब देखते हैं हैरत से,
प्रलोभनों से घिरे लोग, रुख बदलते हैं,
समय ने उनको सिखाया है जुड़ना ताक़त से.
सुनाऊं किसको कथा प्यार और ममता की !
मेरे मकान की दीवारें, फ़र्श, छत, आँगन
सभी हैं मौन, सभी हैं उदास मेरी तरह,
सभी में दौड़ता है रक्त मेरे चिंतन का ,
सिमट गये हैं सभी मरे पास मेरी तरह.
सभी के साथ मैं करता हूँ चित्त का मंथन !
विहंग उड़ते हैं यादों के मेरे गाँव की ओर,
मैं देखता हूँ जो अपने शरीर को छू कर,
तो लगता है मुझे, मैं बन गया हूँ जेठ की धूप,
तपन से सूख के फट-फट गये हैं सब पोखर.
उदास शामें हैं, दिन है उदास, उदास है भोर !
नहर को काट के लाते हैं लोग खेतों में
ज़मीन प्यासी है, पानी मिले तो बोल उठे.
पड़ोसी मेंड़ें जो काटी गयीं, तो आग लगी.
कफ़न लपेटे हुए, लाठियों के गोल उठे.
लहू से फ़स्ल उगाते हैं लोग खेतों में !
असामियों को बंधे देखता हूँ रस्सी से
लगी है चोट जो कोड़ों की, पीठ सूजी है,
किसी के घर में कहीं फूटी कौडियाँ भी नहीं
ज़मीन जोतने की यह सज़ा अनोखी है !
घृणा अनाज के बदले मिली है खेती से !
न भूल पाऊंगा मैं गाँव की वो तस्वीरें
लकीरें जिनकी बनाती गयीं मुझे बागी.
पिता के स्नेह से आक्रोश मन का कम न हुआ,
ज़मीनदार के बेटे की चेतना जागी.
सहज ही तोड़ दीं मैंने, तमाम ज़ंजीरें!
मगर वो गाँव कहीं अब भी मन में बसता है
पुकारते हैं मुझे बौर मीठे आमों के
मैं छुप के बैठा हूँ बंस्वारियों के झुरमुट में
झिंझोड़ देते हैं शीतल हवाओं के झोंके
अभी भी गाँव में रहने को जी तरसता है
अलाव तापते लोगों की रस भरी बातें
किसी के घर की कहानी, किसी के प्यार की बात
कहीं नटों के तमाशे, कहीं पे नौटंकी
शहीद बाबा के बरगद पे एतबार की बात
बनावटों से बहोत दूर सब खरी बातें
मुझे है लगता, उसी गाँव की ज़मीन हूँ मैं
जभी तो लोग मेरा मोल-भाव कर न सके
मैं बार बार समय के थपेडे खाता रहा
विचार दृढ़ थे कुछ ऐसे कि जो बिखर न सके
हवाएं जैसी भी हों, अपने ही अधीन हूँ मैं
वो इक गुलाब जिसे रौंद डाला धरती ने
उसे भी गाँव से मेरे था प्यार,मेरी तरह
सदा वो गाँव रहा उसकी कल्पनाओं में
उठे थे उसके भी मन में विचार, मेरी तरह
पड़े थे उसको भी विष के कई चषक पीने
मैं उस गुलाब के सम्पर्क में जब आया था
तो जिंदगी मेरी बेढब सपाट पत्थर थी
तराशा उसने, जो पंखुरियों से मुझे अपनी
प्रत्येक साँस मेरी प्यार का समंदर थी
भविष्य सोच के मैं अपना, गुनगुनाया था
मैं जनता न था शायद, है क्या भविष्य का अर्थ
मगन था देख के निश्छल बहाव जीवन का
उमड़ रही थीं मेरे मन में कितनी तस्वीरें
सुनहरा लगता था सारा रचाव जीवन का
मैं कल्पना भी न कर पाया, होगा ऐसा अनर्थ
मनुष्य कितने विकल्पों में साँस लेता है
मगर मनुष्य की हर आस्था अधूरी है
यथार्थ जैसा भी हो, सालता है भीतर तक
ऋचाएं जैसी भी हों, वन्दना अधूरी है
तमाम उम्र कोई किसका साथ देता है !
मैं पत्थरों के नगर में बड़ा हुआ पल कर
हथेली पर मुझे अपनी, उठाया गंगा ने
चुनारगढ़ से मी मुझको चित्त की दृढ़ता
संवारा मेरे विचारों को माँ की ममता ने
उमंगें फूट पड़ीं श्वेत झरनों में ढलकर
मगर अतीत का हर दृश्य आज धुंधला है
नदी के बहने की आवाज़ तक नहीं आती
खिसक गई हैं क़िले की तमाम दीवारें
ममत्व की कहीं कोई महक नहीं आती
समझ में कुछ नहीं आता, मुझे हुआ क्या है !
पुकारती नहीं अब मुझको 'विन्ध्य' की देवी
सपाट हो गए सारे शिखर चटानों के
अंधेरों में कहीं 'कंतित शरीफ' दफ़्न हुआ
हवास उड़ गए जीवन के संविधानों के
दिखायी देती है हर चीज़ उल्टी पुल्टी सी
मैं देखता हूँ सड़क पर पड़ा हूँ मैं चुप-चाप
दबाये मुट्ठी में सूरज की आग के सपने
दहकते लोहे की चादर का सिर पे टोप धरे
चमकती आंखों में हैं शेषनाग के सपने
सिमट रही है ज़मीं मेरे गिर्द आप-से-आप
धमाका कोई हुआ दहशतों के जंगल में
लहू-लुहान हवाओं में है अजीब तनाव
घिसट रही है कहीं रोशनी की एक किरण
सुलग रहा है कहीं बेबसी का सर्द अलाव
घुला-घुला सा है विष बद हवास हलचल में
जुलूस, आगज़नी, नारे, सिसकियाँ, आंसू
स्वतंत्रता के यही अर्थ हैं ज़बानों पर
चबा चुके हैं सभी अपने हाथ बाज़ू तक
लगे हैं मेले घृणाओं के कारखानों पर
संजो रहा हूँ मैं, इतिहास से ये तारीखें
ज़मीन बँट गई, तक़सीम हो गया सब कुछ
भरी हैं रेल के डिब्बों में अनगिनत लाशें
समय ने घोल के गंगा के जल में रक्त की गंध
नदी की तह में बिछा दीं परत परत लाशें
अंधेरे दृश्यों के आँचल में खो गया सब कुछ
बुझा-बुझा सा है रावी के रूप का जादू
घुटी-घुटी सी है जमुना की साँस भीतर तक
बिलख रहा है किसी हीर के लिए रांझा
चुभी हुई है विभाजन की फाँस भीतर तक
सुबक रही है सरे-आम प्यार की खुशबू
लहू के चूल्हे पे इतिहास की पतीली है
घृणा की आंच में दुष्कांड फद्फदाते हैं
घरों के ठंडे तवे लिख रहे हैं दुःख की कथा
चमक-चमक के छुरे बिजलियाँ गिराते हैं
स्वतंत्रता ने बहुत सी शराब पी ली है
मुखौटा ओढ़ के धर्मों का पाशविकता ने
ज़मीन काट दी नफ़रत के तेज़ चाकू से
बहाव थम गया दरया के बहते पानी का
मनुष्य चीख उठा यातना की बदबू से
अमन की माला के सारे बिखर गए दाने
मैं सोचता रहा सूरज का स्वप्न धोखा था
कटी जो रात, तो काली सुबह दिखायी दी
अंधेरे फैल गए दैत्य बनके चार तरफ़
हरेक शक्ल मुसीबत-ज़दह दिखायी दी
सभी दिशाओं में बस सनसनी का पहरा था
मेरे भी घर को समय की लहर ने तोड़ दिया
पसंद आ गई चाचा को सिंध की धरती
बहेन जो सबसे बड़ी थीं, चली गयीं लाहौर
पिता ने किंतु न छोड़ी स्वदेश की मिट्टी
ये और बात है, दंगों ने मन मरोड़ दिया
अलग किया गया अश्फ़ाक़ को भगत सिंह से
न सिर्फ़ राष्ट्र बँटा, राष्ट्रीयता भी बंटी
मनुष्य मुर्दा था, जिंदा थी साम्प्रदायिकता
दिओं की राह बंटी, राह की हवा भी बंटी
विचारशील दिमागों पे लग गये ताले
फिर एक दिन तो क़यामत ही जैसे टूट पड़ी
तड़प रहा था पड़ा रामराज्य धरती पर
लहू में तर था अहिंसा की मांग का सिन्दूर
दिखा रहा था तमाशे अजीब बाज़ीगर
बिखर गई थी मनुष्यत्व की हर एक कड़ी
बढे थे जिसके क़दम प्रार्थना-सभा के लिए
गिरा ज़मीन पे, सीने पे गोलियाँ खा कर
स्वतंत्र देश ने लिख दी लाहू कि रामायण
अटक के रह गया 'हे राम' शब्द अधरों पर
कलंक 'गोडसे' था इस वसुंधरा के लिए
हवाएं मौन थीं, सुनसान धड़कनों की तरह
जमा था रक्त शरीरों में, आँख ख़ाली थी
जगह-जगह पे था सडकों पे दहशतों का हुजूम
समय ने विष से भरी पोटली उछाली थी
ख़ुद अपना साया भी लगता था रहज़नों की तरह
सभी घरों के उजालों में घुप अँधेरा था
सुलगती धुप सियाही लपेटे बैठी थी
विलापिका के करुण गीत लिख के सूरज ने
समाधि राष्ट्र-पिता की भिगो-भिगो दी थी
जिधर भी देखिये नैराश्य का बसेरा था
छटी जो धुंध तो भारत का संविधान बना
अधूरा रह गया फिर भी सवा भाषा का
सहानुभूति दलित वर्ग से जताई गई
ख़बर किसे थी ये सब ऊपरी दिखावा था
सवर्ण जो था वो कुछ और भी महान बना
कठिन था वक़्त बहुत मार्क्सवादियों के लिए
खटक रहे थे वो हिंदुत्व की निगाहों में
उदारता का सुनहरा कवच पहन कर भी
बिछा रहा था समय जातिवाद राहों में
तरस रहा था मुसलमाँ तसल्लियों के लिए
मगर था शह्र मेरा मुक्त वारदातों से
गिरह सशक्त थी आपस में भाईचारे की
लहू के दीप थे रौशन शरीर के भीतर
फटी-फटी सी थीं आँखें समय के धारे की
भजन थे हाथ मिलते नबी की नातों से
शहर में जितने थे हिन्दू सनातनी थे सभी
कहीं भी आर्यसमाजी वितंडावाद न था
सभी के मन में था वर्चस्व शांत गंगा का
कहीं भी खून-खराबा न था, फ़साद न था
विचारवान थे, संकल्प के धनि थे सभी
मैं छोड़ आया हूँ बचपन उसी फ़िज़ा में कहीं
मेरी धमनियों में बहता है रक्त गंगा का
नबी ने पायी थी भारत से ईश्वरत्व की गंध
मेरी नज़र में है इस्लाम भक्त गंगा का
अगर न होती ये गंगा, तो मैं था कुछ भी नहीं
गंगा बीच से काटती है
मेरे समूचे शहर को
और मैं गंगा को उतार लेता हूँ
अपने अन्तर में बीचों-बीच.
शहर का पूरा अस्तित्व
बँट गया है दो टुकड़ों में
जिसे जोड़ती हैं पानी में तैरती नौकाएं
बाढ़ और सूखे में गंगा एक सी नहीं रहती.
और शहर भी गंगा के सिकुड़ने और फैलने से
हो जाता है फ़ालिज-ग्रस्त.
बचपन में पहली बार
जब मैंने होश की आंखों से गंगा को देखा था
और उस तक पहुँचने के लिए
गिनी थीं अनगिनत सीढियां
मुझे लगा था
कि गंगा भी मेरी माँ कि तरह बेजुबान है
उसकी आंखों में भी डबडबाती है एक कहानी
और तैरती है एक कविता
जिससे शायद वह स्वयं भी अनजान है.
बात उस समय की है
जब गंगा कुतर रही थी,
फांक और चबा रही थी
मेरी वह पाठशाला
जो पत्थरों से निर्मित थी
और जिसमें मैं पढ़ता था.
गंगा क्यों कर रही थी ऐसा
मैं नहीं समझ पाया था
और आज ! जब मैं पाठशाला का
वहाँ निशाँ भ नहीं पाटा,
केवल गंगा को देखता हूँ बहते
मुझे लगता है कि मेरी माँ भी
गंगा की तरह बहुत भूखी थी.
उसे भी फांकने और चबाने पड़े थे
पत्थर, जीवन भर.
और वे पत्थर उस पाठशाला के थे
जो हुई थी निर्मित, स्वयं उसी के हाथों से.
कहते हैं कि पानी की चोट से घिस कर
चट्टानें बन जाती हैं महादेव.
गंगा निकलती है महादेव के अन्तर से
और गंगा के भीतर से निकलते हैं,
कितने ही महादेव.
फिर भी यह गंगा महादेव की जननी नहीं है !
ऐसा क्यों है ?
क्या मैं अपनी माँ के माँ होने को नकार दूँ ?
मेरे शरीर में दौड़ता है मेरी माँ का रक्त
और गंगा जो मेरी रग-रग में समाई है
मेरा अपना रक्त बनकर
उसका रंग और रूप और गुण
मेरी माँ के रक्त से अलग नहीं है.
और इस रक्त की चोट से -
जन्म लेते हैं मेरे शरीर के भीतर
कितने ही महादेव !
इनसे मिति है मुझे शक्ति
जीवित रहने की
गंगा की तरह सहज भाव से बहने की.
वैसे तो मेरी माँ अभी जीवित है
पर जब वह शरीर छोड़ देगी
तब भी जीवित रहेगी -
मेरे रक्त में, मेरी रगों में
और मेरे शरीर के भीतर जन्मे महादेवों की शक्ति में.
मैं अपनी माँ को गंगा से अलग करके कैसे देखूं ?
जबकि दोनों ही मेरे शरीर में एकमेक हैं
जबकि दोनों ही मेरी आत्मा हैं,
मेरा विवेक हैं.
मैं मुसलमान हूँ या हिंदू या सिख
या रखता हूँ किसी अन्य धर्म में विशवास
गंगा यह प्रश्न मुझसे कभी नहीं करती.
मैंने मुहर्रम में प्रतेक वर्ष
विसर्जित किए हैं कितने ही ताज़िये
इसी गंगा में
और हर ताज़िये के साथ मैंने विसर्जित किए हैं
लोगों की मन्नतों मुरादों के हजारों धागे
ताज़िये पर चढाये गए गुलाब और बेले के हजारों फूल
गंगा मेरे लिए पवित्र है - कर्बला की तरह
और यह कर्बला, एक तीर्थ-स्थल है
इसलिए मैंने अपनी यह वसीयत
हर समझदार व्यक्ति की डायरी में दर्ज करा दी है
कि मेरी कब्र में कर्बला की मिटटी के साथ-साथ
थोड़ा सा गंगा जल ज़रूर रख दिया जाय.
मेरे देश के लोग शायद यह नहीं जानते
कि गंगा नहीं है किसी ख़ास मज़हब की मीरास
कि वह भरती है सबमें एक समता का एहसास
और अगर वे जानते तो आज होता
मेरे समूचे देश का एक अखंड अस्तित्व.
गंगा को अन्तर के बीचों-बीच उतार पाना
नहीं है आसान
गंगा है मेरे देश का संविधान !
और मेरे देश से अलग नहीं है मेरा शहर
इस लिए मेरे शहर का संविधान भी गंगा है.
और यह गंगा सिखाती है आज़ादी का अर्थ
जुटाती है छोटे-बड़े आसरे
माँ ने भी बताया था मुझको,
जब मैं बहुत छोटा था
आज़ादी का मतलब
और मैंने लगाए थे आज़ादी के पक्ष में नारे !
गांधी और नेहरू
बन गए थे मेरे लिए आज़ादी का पर्याय
और मैं देखने लगा था उनमें
गंगा का विस्तार और माँ की ममता.
पर आज ! शायद लोग भूल गए हैं पढ़ना
गंगा के वक्ष पर लिखी भाषा
और यह भाषा मेरे बचपन में जैसी थी
आज भी है, ज्यों-की-त्यों, वैसी ही
माँ और गंगा की भाषा में
आज भी, नहीं कर पाता मैं कोई अन्तर.
मिला है मुझको यही संस्कार भाषा का
ये घर में खुसरो के आई थी हिन्दवी बनकर
कबीर ने इसी भाषा को 'बहता नीर' कहा
जवान ये हुई ग़ालिब की शायरी बनकर
विपन्न है वो, न पाये जो प्यार भाषा का
मैं कर रहा हूँ अलीगढ में जबसे अध्यापन
अतीत मेरा, मेरे साथ-साथ रहता है
शहर ये मेरे शहर से अलग-थलग क्यों है ?
यहाँ के लोगों की अपनी विचित्र माया है
मैं कर न पाया कभी उसमें प्यार का दर्शन
यहीं की धरती ने मुझसे गुलाब छीन लिया
छुपे थे साज़िशों के घोसले गुफाओं में
उफनती आहटें, संकेत दे रही थीं, मगर
मैं खो गया था कहीं रेशमी हवाओं में
झुलसती धूप ने मौसम का ख्वाब छीन लिया
मदिर सुगंधों की शहनाइयों ने दम तोड़ा
पड़ी थी कोने में जाड़े की धूप की खुरचन
दिवस की घास से लिपटी थी बूँद शबनम की
छुपी थी जिसमें अमावस की सुगबुगी धड़कन
बनाके कब्र हवाओं ने हर भरम तोड़ा
लखनऊ में एक कब्र है
लखनऊ में और भी कई एक कब्रें हैं,
लखनऊ में जगह-जगह
क़ब्रों के कई-कई बाग़ हैं, बाडियाँ हैं ,
मगर वह जो एक कब्र है,
भीड़ में रहकर भी, भीड़ से अलग,
माथे पर बिना किसी तनाव के
केवल मुस्कुराती,
निष्प्राण होने की तमाम संभावनाओं से -
बचती-बचाती,
लखनऊ को शांत आंखों से निहारती,
वह किसी नवाब की कब्र नहीं है.
उसपर घोडों के खुरों की टापों का
कोई निशान नहीं है.
उसपर लखनऊ में आए, रूमानी भूकम्पों,
राजनीतिक-गैर-राजनीतिक सैलाबों
और ज़मीन में धंसी-धंसी - हुक्मनामा जारी करती
सामंती मेहराबों का भी कोई निशान नहीं है.
उसपर खुदी हैं -
हँसी के वैदिक मंत्रों की गुलाबी ऋचाएं
आंसुओं की श्वेताम्बरी -
जिब्रईली गर्माहट से लबरेज़ आयतें
उसपर खुदे हैं - बबूल की झाडियों के बीच
अपनी पूरी ताज़गी के साथ खिलखिलाते
दो खूबसूरत फूल,
बहत्तर घंटे का कोमा,
आक्सीजन का सिलेंडर,
स्टैंड पर उलटी लटकी,
बूँद-बूँद शरीर में दाखिल होती,खून की बोतल.
उसपर खुदे हैं -
अनाडी डाक्टरों की अंधी समझ से जन्मे
दवाओं के अधकचरे नुस्खे,
प्रथम श्रेणी के ढेर-सारे प्रमाण-पत्रों के बीच
हठधर्मी से नत्थी अस्थायी नियुक्तियां.
और करीबी रिश्तेदारों'
मित्रों और प्रियजनों की ऊब
और उस ऊब के साथ छटपटाते हालात.
आप अगर लखनऊ की उस कब्र को देखेंगे
ततो न आपके होंठ हिलेंगे
न आँखें छाल्केंगी, न पलकें भीगेंगी,
बस आप एक तक देखते रहेंगे उसे -
मौन ! स्तब्ध !
शायद इसलिए कि उस कब्र से आपका गहरा रिश्ता है,
शायद इसलिए भी कि वैसी ही बहुत सी कब्रें
कहीं आपके भीतर जी रही हैं.
और आप ! उन क़ब्रों की बारूदी सुरंगों पर खड़े -
अपने फालिजग्रस्त होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं.
मैं अगर कहूँ भी
तो आप विशवास नहीं करेंगे.
और अगर आपने विशवास कर भी लिया
तो किसी से कहते डरेंगे.
सच मानिए
पहले वह कब्र मेरे अपने घर में थी
और मेरा घर,
और घर के लोग
लकड़ी के तख्तों के नीचे, बहुत नीचे उतर कर
ठहाके लगाते थे
और आपस में मिलकर गाते थे सूरदास का भजन-
"प्रभू जी मोरे अवगुन चित न धरो"
आपने भी यह भजन गाया होगा
गुनगुनाये होंगे इसके एक-एक बोल
इस तथ्य से बेखबर रहकर
कि आपके घरों में भी बहुत सारी कब्रें हैं
और आपके घर भी
इन्हीं क़ब्रों के भीतर कहीं हँसते खेलते हैं,
और थकन उतारने के लिए
गाने लगते हैं सूरदास का भजन.
अगर आप लखनऊ गए हैं
तो आपने देखा होगा
कि लखनऊ में क़ब्रों की चीखती-उजाड़ जिंदगी को
चूने और सुर्खी की तरह आपस में मिलाकर
सरिया और सीमेंट की मदद से
बहुत ऊंचा उठाकर,
सरकारी कार्यालयों में तब्दील कर दिया गया है.
और लखनऊ की इन क़ब्रों के मुर्दे
भूरी-बादामी फाइलों के बीच नत्थी
एक मेज़ से दूसरी मेज़ तक चुप-चाप दौड़ते हैं.
और अपने लावारिस होने का मातम किए बगैर
बेदर्दी से एक-दूसरे पर लुढ़का दिए जाते हैं.
पर लखनऊ में वह जो एक कब्र है
जो कभी मेरे घर में थी
और जिसके भीतर मेरा घर लगाता था ठहाके
चहारबाग से जाने वाले सभी रास्ते
और उन रास्तों पर चलने वाले सभी लोग
उस कब्र से होकर गुज़रते हैं
कुछ आगे बढ़ जाते हैं
कुछ रुकते हैं, ठहरते हैं
और अपनी आंखों में उगे अग्निमंत्रों को
अंधेरों के बारूदखाने में फेक कर
किसी धमाके की प्रतीक्षा करते हैं.
आपने कई वर्षों से देखा होगा
कि आप जब आते हैं 'ईद' पर मेरे घर
तो न मैं मिलता हूँ , न मेरे बच्चे
बस एक ताला लटकता रहता है चुप-चाप !
आपने अगर लखनऊ की वह कब्र देखी होती
तो आप जानते -
कि उस कब्र के इर्द-गिर्द बैठने का नाम 'ईद' है
और यह 'ईद' सिर्फ़ लखनऊ में हो सकती है.
मैं अबतक पढ़ चुका हूँ 'ईद' की ढेर-सारी 'नमाजें'
उसी कब्र पर.
मैं नहीं जनता कि 'शरीअत' की दृष्टि में
नमाज़ का अर्थ क्या है ?
हो सकता है कि लोग मुझे काफिर समझते हों
मेरी नमाजें तो घर बैठे भी हो जाती हैं
शर्त यह है कि मैं उस कब्र को
अपने भीतर कहीं ताज़ा रख सकूँ
और अपने आँगन के फूलों कि रंगत
और खुशबू और ताज़गी को
और भी जीवंत बना सकूँ.
ताकि लोग देख सकें -
इस खुशबू और ताजगी में
अतीत की ऊर्जा से जन्मा
वर्त्तमान का चमकदार चेहरा.
ताकि लोग जान सकें
कि वह दीवार जो गिर गई
उसकी छाया आजभी मौजूद है -
उसी तरह, वैसे ही.
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शुक्रवार, 27 जून 2008

पुरानी शराब / दाग़ देहलवी [ 1831-1905 ]

परिचय : नवाब मिर्ज़ा खान, जिन्हें उर्दू जगत 'दाग़ देहलवी' के नाम से जानता है, अदभुत प्रतिभा के कवि थे. दस वर्ष की अवस्था से ही उन्होंने ग़ज़ल पढ़ना प्रारम्भ कर दिया था. 1865 में वे रामपूर चले गए जहाँ वे 24 वर्ष रहे.1891 में हैदराबाद आ गए. यहाँ आकर उन्हें अपूर्व ख्याति मिली. ग़ज़ल के शायर के रूप में वे विशेष चर्चित हुए. उनके कुछ शेर जनता की ज़बान पर आम थे. उदाहरण स्वरुप 'तू है हरजाई तो अपना भी यही तौर सही/ तू नहीं और सही, और नहीं और सही,' अथवा 'उर्दू हैं जिसको कहते हमीं जानते हैं 'दाग़' / हिन्दोस्ताँ में धूम हमारी ज़बां की है.' दाग़ ने कुल सोलह हज़ार शेर लिखे. प्रसिद्ध गायक गुलाम अली और गायिका परवीन आबिद ने उनकी गज़लों को अपनी आवाज़ और संगीत से सजाया.
पाँच ग़ज़लें
[ 1 ]
आफ़त की शोखियाँ हैं तुम्हारी निगाह में
महशर के फ़ितने खेलते हैं जल्वागाह में
वो दुश्मनी से देखते हैं, देखते तो हैं
मैं शाद हूँ, कि हूँ तो किसी की नीगाह में
आती है बात बात मुझे याद, बार बार
कहता हूँ दौड़ दौड़ के कासिद से राह में
इस तौबा पर है नाज़ मुझे ज़ाहिद इस क़दर
जो टूट कर शरीक हूँ हाले-तबाह में
मुश्ताक़ इस अदा के बहोत दर्दमंद थे
ऐ ‘दाग़’ तुम तो बैठ गए एक आह में
[ 2 ]
बुताने-महवशां उजड़ी हुई मंज़िल में रहते हैं
कि जिसकी जान जाती है उसी के दिल में रहते हैं
हज़ारों हसरतें वो हैं कि रोके से नहीं रुकतीं
बहोत अरमान ऐसे हैं कि दिल के दिल में रहते हैं
खुदा रक्खे मुहब्बत के लिए आबाद दोनों घर
मैं उनके दिल में रहता हूँ, वो मेरे दिल में रहते हैं
ज़मीं पर पाँव नखवत से नहीं रखते परी-पैकर
ये गोया इस मकाँ की दूसरी मंज़िल में रहते हैं
कोई नामो-निशाँ पूछे तो ऐ क़ासिद बता देना
तख़ल्लुस 'दाग़' है और आशिकों के दिल में रहते हैं.
[ 3 ]
काबे की है हवस कभी कूए-बुताँ की है
मुझको ख़बर नहीं मेरी मिटटी कहाँ की है
कुछ ताज़गी हो लज़्ज़ते-आज़ार के लिए
हर दम मुझे तलाश नये आसमां की है
हसरत बरस रही है यूँ मेरे मज़ार से
कहते हैं सब ये क़ब्र किसी नौजवाँ की है
क़ासिद की गुफ्तुगू से तसल्ली हो किस तरह
छुपती नहीं वो बात, जो तेरी ज़बां की है
सुनकर मेरा फ़सानए-ग़म उसने ये कहा
हो जाए झूठ सच, यही खूबी ज़बां की है
क्योंकर न आए खुल्द से आदम ज़मीन पर
मौज़ूँ वहीं वो ख़ूब है जो शय जहाँ की है
उर्दू है जिसका नाम हमीं जानते हैं 'दाग़'
हिन्दोस्ताँ में धूम हमारी ज़बां की है
[ 4 ]
खातिर से या लिहाज़ से मैं मान तो गया
झूठी क़सम से आपका ईमान तो गया
दिल लेके मुफ़्त, कहते हैं कुछ काम का नहीं
उलटी शिकायतें रहीं, एहसान तो गया
अफ़्शाए-राज़े-इश्क़ में गो ज़िल्लतें हुईं
लेकिन उसे जता तो दिया, जान तो गया
देखा है बुतकदे में जो ऐ शैख़ कुछ न कुछ
ईमान की तो ये है कि ईमान तो गया
डरता हूँ देख कर दिले-बे-आरज़ू को मैं
सुनसान घर ये क्यों न हो मेहमान तो गया
गो नामाबर से खुश न हुआ पर हज़ार शुक्र
मुझको वो मेरे नाम से पहचान तो गया
होशो-हवासो-ताबो-तवाँ 'दाग़' जा चुके
अब हम भी जाने वाले हैं, सामन तो गया
[ 5 ]
ले चला जान मेरी रूठ के जाना तेरा
ऐसे आने से तो बेहतर था न आना तेरा
अपने दिल को भी बताऊँ न ठिकाना तेरा
सब ने जाना, जो पता एक ने जाना तेरा
तू जो ऐ ज़ुल्फ़ परीशान रहा करती है
किसके उजड़े हुए दिल में है ठिकाना तेरा
ये समझ कर तुझे ऐ मौत लगा रक्खा है
काम आता है बुरे वक्त में आना तेरा
दाग़ को यूँ वो मिटाते हैं ये फरमाते हैं
तू बदल डाल, हुआ नाम पुराना तेरा
**************************

गुरुवार, 26 जून 2008

पसंदीदा शायरी / अख्तरुल-ईमान [ 1915-1995 ]

तीन नज़्में
[ 1 ] ओहदे-वफ़ा
यही शाख तुम जिसके नीचे किसी के लिए चश्म-नम हो
अब से कुछ साल पहले
मुझे एक छोटी सी बच्ची मिली थी
जिसे मैंने आगोश में ले के पूछा था, 'बेटी
यहाँ क्यों खड़ी रो रही हो ?
मुझे अपने बोसीदा आँचल में फूलों के गहने दिखाकर
वो कहने लगी
मेरा साथी उधर, उसने उंगली उठाकर बताया,
उधर उस तरफ़ ही,
जिधर ऊंचे महलों के गुम्बद, मिलों की सियह चिमनियाँ
आस्मां की तरफ़ सर उठाये खड़ी हैं,
ये कह कर गया है
कि मैं सोने चांदी के गहने तेरे वास्ते
लेने जाता हूँ - रामी.

[ 2] आख़िरी मुलाक़ात
आओ कि जश्ने-मर्गे-मुहब्बत मनाएँ हम

आती नहीं कहीं से दिले-जिंदा की सदा
सूने पड़े हैं कूच'ओ-बाज़ार इश्क के
है शमए-अंजुमन का नया हुस्ने-जां-गुदाज़
शायद नहीं रहे वो पतंगों के वलवले
ताज़ा न रख सकेगी रिवायाते-दश्तो-दार
वो फ़ितनासर गये जिन्हें कांटे अज़ीज़ थे
अब कुछ नहीं तो नींद से आँखें जलाएं हम
आओ कि जश्ने-मर्गे-मुहब्बत मनाएँ हम

सोचा न था कि आएगा ये दिन भी फिर कभी
इक बार हम मिले हैं ज़रा मुस्कुरा तो लें
क्या जाने अब न उल्फ़ते-देरीना याद आए
इस हुस्ने-इख्तियार पे आँखें झुका तो लें
बरसा लबों से फूल तेरी उम्र हो दराज़
संभले हुए तो हैं पे ज़रा डगमगा तो लें
आओ कि जश्ने-मर्गे-मुहब्बत मनाएँ हम

[ 3] बे-तअल्लुकी
शाम होती है सहर होती है ये वक़्ते-रवां
जो कभी सर पे मेरे संगे-गरां बन के गिरा
राह में आया कभी मेरी हिमाला बन कर
जो कभी उक़दा बना ऐसा कि हल ही न हुआ
आज बे-वास्ता यूँ गुज़रा चला जाता है
जैसे मैं कश्मकशे-ज़ीस्त में शामिल ही नहीं
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बुधवार, 25 जून 2008

कविता के हस्ताक्षर / सुमित्रा नंदन पन्त [1900-1977 ]

[ 1 ] तप रे मधुर मधुर मन
विश्व वेदना में तप प्रतिपल,
जग-जीवन की ज्वाला में गल,
बन अकलुष, उज्जवल औ' कोमल
तप रे विधुर विधुर मन !

अपने सजल-स्वर्ण से पावन
रच जीवन की मूर्त्ति पूर्णतम,
स्थापित कर जग में अपनापन
ढल रे ढल आतुर मन !

तेरी मधुर मुक्ति ही बंधन
गंध-हीन तू गंध-मुक्त बन
निज अरूप में भर स्वरुप, मन
मूर्त्तिमान बन निर्धन !
गल रे गल निष्ठुर मन !

[ 2 ] भारत माता ग्रामवासिनी
खेतों में फैला है श्यामल
धूल भरा मैला-सा आँचल
गंगा जमुना में आंसू जल
मिटटी की प्रतिमा उदासिनी !
भारत माता ग्रामवासिनी !

दैन्य जड़ित अपलक नत चितवन
अधरों में चिर नीरव रोदन
युग युग के तम् से विषंण मन
वह अपने घर में प्रवासिनी !
भारत माता ग्रामवासिनी !

तीस कोटि संतान, नग्न तन,
अर्ध क्षुधित, शोषित, निरस्त्र जन
मूढ़, असभ्य, अशिक्षित, निर्धन
नतमस्तक तरु-ताल निवासिनी !
भारत माता ग्रामवासिनी !

स्वर्ण शस्य पर पद-तल लुंठित
धरती-सा सहिष्णु मन कुंठित
क्रंदन कम्पित अधर मौन स्मित
राहू ग्रसित शरदिंदु हासिनी !
भारत माता ग्रामवासिनी !

चिंतित भृकुटि क्षितिज तिमिरांकित
नमित नयन नभ वाश्पाच्छादित
आनन् श्री छाया शशि उपमित
ज्ञानमूढ़ गीता प्रकाशिनी !
भारत माता ग्रामवासिनी !

सफल आज उसका तप संयम
पिला हिंसा स्तन्य सुधोपम
हरती जन-मन भय, भव तन भ्रम
जग जननी जीवन विकासिनी !
भारत माता ग्रामवासिनी !

[ 3 ] विजय
मैं चिर श्रद्धा लेकर आई
वह साध बनी प्रिय परिचय में
मैं भक्ति ह्रदय में भर लाई
वह प्रीती बनी उर परिणय में.

जिज्ञासा से था आकुल मन
वह मिती हुई कब तन्मय मैं,
विश्वास मांगती थी प्रतिक्षण
आधार पा गई निश्चय मैं !

प्राणों की तृष्णा हुई लीन,
स्वप्नों के गोपन संचय में,
संशय भय मोह विषाद हीन,
लज्जा करुणा में निर्भय मैं.

लज्जा जाने कब बनी मान
अधिकार मिला कब अनुनय में
पूजन आराधन बने गान
कैसे ! कब ? करती विस्मय मैं.

उर करुणा के हित था कातर
सम्मान पा गई अक्षय मैं
पापों अभिशापों की थी घर,
वरदान बनी मंगलमय मैं.

बाधा-विरोध अनकूल बने
अंतर्चेतन अरुणोदय में,
पथ भूल विहंस मृदु फूल बने
मैं विजयी प्रिय, तेरी जय में.
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कविता के हस्ताक्षर / जयशंकर प्रसाद [ 1889-1937 ]

[ 1 ] हिमाद्रि तुंग श्रृंग से
हिमाद्रि तुंग श्रृंग से
प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयं प्रभा समुज्ज्वला
स्वतंत्रता पुकारती
अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़-प्रतिज्ञ सोच लो,
प्रशस्त पुण्य पन्थ है, बढे चलो बढे चलो !

असंख्य कीर्ति-रश्मियाँ
विकीर्ण दिव्य दाह सी
सपूत मातृ-भूमि के
रुको न शूर साहसी !
अराति-सैन्य-सिन्धु में,सुवाडवाग्नि से जलो
प्रवीर हो, जयी बनो - बढे चलो बढे चलो !
[ 2 ] अरुण यह मधुमय देश हमारा
अरुण यह मधुमय देश हमारा.
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा.

सरस तामरस गर्भ विभा पर नाच रही तरु शिखा मनोहर
छिटका जीवन हरियाली पर मंगल कुमकुम सारा.

लघु सुरधनु से पंख पसारे शीतल मलय समीर सहारे
उड़ते खग जिस ओर मुंह किए समझ नीद निज प्यारा.

बरसाती आंखों के बादल बनते जहाँ भरे करुणा जल
लहरें टकरातीं अनंत की पाकर जहाँ किनारा.

हेम कुम्भ ले उषा सवेरे भारती ढुलकाती सुख तेरे
मदिर ऊंघते रहते जब जगकर रजनी भर तारा.
[ 3 ] बीती विभावरी
बीती विभावरी जाग री.
अम्बर पनघट में डुबो रही, तारा घाट ऊषा नगरी.

खग कुल कुल कुल सा बोल रहा, किसलय का अंचल डोल रहा
लो यह लतिका भी भर लाई, मधु मुकुल नवल रस गागरी.

अधरों में राग अमंद लिए, अलकों में मलयज बंद किए
तू अब तक सोई है आली, आंखों में भरे विहाग री.
*************************

मंगलवार, 24 जून 2008

कविता के हस्ताक्षर / महादेवी वर्मा [1907-1987 ]

[ १ ] मधुर मधुर मेरे दीपक जल
मधुर मधुर मेरे दीपक जल
युग युग, प्रतिदिन, प्रतिक्षण, प्रतिपल
प्रियतम का पथ आलोकित कर

सौरभ फैला विपुल धूप बन,
मृदुल मोम सा धुल रे मृदु तन'
दे प्रकाश का सिन्धु अपरिमित
तेरे जीवन का अणु गल गल !
पुलक,पुलक मेरे दीपक जल !

सारे शीतल कोमल नूतन
मांग रहे तुझसे ज्वाला-कण
विश्व-शलभ सर धुन कहता 'मैं
हाय न जल पाया तुझ में मिल'
सिहर सिहर मेरे दीपक जल

जलते नभ में देख असंख्यक
स्नेह हीन नित कितने दीपक
जलमय सागर सा उर जलता,
विद्युत् ले घिरता है बादल !
विहंस विहंस मेरे दीपक जल !

द्रुम के अंग हरित कोमलतम,
ज्वाला को करते हृदयंगम
बसुधा के जड़ अन्तर में भी,
बंदी है तापों की हाचल !
बिखर बिखर मेरे दीपक जल !

मेरे निःश्वासों से दुस्तर,
सुभग न तू बुझने का भय कर,
मैं अंचल की ओट किए हूँ,
अपनी मृदु पलकों से चंचल !
सहज सहज मेरे दीपक जल !

सीमा ही लघुता का बंधन
है अनादि तू मत घडियां गिन,
मैं दृग के अक्षय-कोशों से
तुझमें भरती हूँ आंसू जल !
सजल सजल मेरे दीपक जल !

तब असीम तेरे प्रकाश चिर
खेलेंगे नव खेल निरंतर,
तम् के अणु अणु में विद्युत् सा-
अमिट चित्र अंकित करता चल !
सरल सरल मेरे दीपक जल !

तू जल जल जितना होता क्षय
या समीप आता छलनामय
मधुर मधुर में मिट जाना तू
उसकी उज्जवल स्मित में घुल खिल !
मदिर मदिर मेरे दीपक जल !

[ २ ] धूप सा तन, दीप सी मैं
उड़ रहा नित एक सौरभ धूम लेखा में बिखर तन
खो रहा निज को अथक आलोक साँसों में पिघल मन
अश्रु से गीला सृजन पल
औ विसर्जन पुलक उज्जवल
आ रही अविराम मिट मिट
स्वजन और समीप सी मैं
धूप सा तन दीप सी मैं

सघन घन का चल तुरंगम चक्र झंझा के बनाए
रश्मि विद्युत् ले प्रलय रथ पर भले तुम शांत आए
पंथ से मृदु स्वेद कण चुन
छाँह से भर प्राण उन्मन
तम् जलधि में नेह का
मोती रचुंगी सीप सी मैं
धूप सा तन दीप सी मैं
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पसंदीदा शायरी / मजाज़ लखनवी [ 1911-1955 ]

दो नज़्में
[ १ ] एतराफ़
अब मेरे पास तुम आई हो तो क्या आई हो ?

मैंने माना कि तुम इक पैकरे-रानाई हो
चमने-दहर में रूहे-चमन-आराई हो
तलअते-मेह्र हो,फिरदौस की रानाई हो
बिन्ते-महताब हो गर्दूं से उतर आई हो
मुझसे मिलने में अब अंदेशए-रुसवाई है
मैंने ख़ुद अपने किए की ये सज़ा पाई है

ख़ाक में आह मिलाई है जवानी मैंने
शोला-ज़ारों में जलाई है जवानी मैंने
शहरे-खूबां में गंवाई है जवानी मैंने
ख्वाब-गाहों में जगाई है जवानी मैंने
हुस्न ने जब भी इनायत की नज़र डाली है
मेरे पैमाने-मुहब्बत ने सिपर डाली है

उन दिनों मुझपे क़यामत का जुनूं तारी था
सर पे सरशरीओ-इशरत का जुनूं तारी था
माहपारों से मुहब्बत का जुनूं तारी था
शहरयारों से रक़ाबत का जुनूं तारी था
बिस्तरे-मख्मलो-संजाब थी दुनिया मेरी
एक रंगीनो-हसीं ख्वाब थी दुनिया मेरी

जन्नते-शौक़ थी बेगानए- आफ़ाते-सुमूम
दर्द जब दर्द न हो, काविशे-दरमाँ मालूम
ख़ाक थे दीदए-बेबाक में गर्दूं के नुजूम
बज़्मे-परवीं थी निगाहों में कनीज़ों का हुजूम
लैलिए-नाज़ बरअफ़्गंदा-नक़ाब आती थी
अपनी आंखों में लिए दावते-ख्वाब आती थी

संग को गौहरे-नायाबो-गरां जाना था
दश्ते-पुर-खार को फ़िर्दौसे-जिनां जाना था
रेग को सिलसिलए-आबे-रवां जाना था
आह ये राज़ अभी मैंने कहाँ जाना था
मेरी हर फ़तह में है एक हज़ीमत पिनहाँ
हर मसर्रत में है राज़े-ग़मो-इशरत पिनहाँ

क्या सुनोगी मेरी मजरुह जवानी की पुकार
मेरी फर्यादे-जिगर-दोज़, मेरा नालए-ज़ार
शिद्दते-करब में डूबी हुई मेरी गुफ़्तार
मैं कि ख़ुद अपने मजाके-तरब-आगीं का शिकार
वो गुदाज़े-दिले-मरहूम कहाँ से लाऊं
अब मैं वो जज्बए- मौसूम कहाँ से लाऊं

मेरे साए से डरो तुम मेरी गुरबत से डरो
अपनी जुरअत की क़सम अब मेरी जुरअत से डरो
तुम लताफ़त हो अगर मेरी लताफ़त से डरो
मेरे वादों से डरो मेरी मुहब्बत से डरो
अब मैं अल्ताफो-इनायत का सज़ावार नहीं
मैं वफ़ादार नहीं हाँ मैं वफ़ादार नहीं

अब मेरे पास तुम आई हो तो क्या आई हो ?
[ २ ] नन्ही पुजारन
इक नन्ही मुन्नी सी पुजारन
पतली बाहें पतली गर्दन
भोर भये मन्दिर आई है
आई नहीं है, माँ लाई है
वक़्त से पहले जाग उठी है
नींद अभी आंखों में भरी है
ठोडी तक लट आई हुई है
यूँ ही सी लहराई हुई है
आंखों में तारों की चमक है
मुखड़े पर चांदी की झलक है
कैसी सुंदर है क्या कहिये
नन्ही सी इक सीता कहिये
धूप चढ़े तारा चमका है
पत्थर पर इक फूल खिला है
चाँद का टुकडा फूल की डाली
कमसिन, सीधी, भोली भाली
दिल में लेकिन ध्यान नहीं है
पूजा का कुछ ज्ञान नहीं है
कैसी भोली और सीधी है
मन्दिर की छत देख रही है
माँ बढ़कर चुटकी लेती है
चुपके चुपके हंस देती है
हँसना रोना उसका मज़हब
उसको पूजा से क्या मतलब
ख़ुद तो आई है मंदर में
मन उसका है गुडिया घर में
************************

सोमवार, 23 जून 2008

सूरदास के रूहानी नग़मे / शैलेश ज़ैदी [ क्रमशः-1 ]

[ 1 ]
चरन कमल बन्दौं हरि राई.
जाकी कृपा पंगु गिरी लंघै, अंधे कौ सब कछु दरसाई.
बहिरौ सुनै, गुंग पुनि बोलै, रंक चलै सिर छत्र धराई.
सूरदास स्वामी करुनामय, बार बार बन्दौं तिहि पाई.


मैं तो बस मालिके-कुल हरी राय के
हूँ कँवल जैसे चरनों में सज्दाकुनां
जिनका फ़ैज़ो-करम हो तो मफ़्लूज भी
पार करले पहाड़ों की ऊंचाइयां
जिनकी आंखों में बीनाई मुतलक़ न हो
देख लें वो भी कुदरत की रानाइयां
बहरे उनकी इनायत से सुनने लगें
और गूंगों को मिल जाए फिर से जुबां
मुफ़लिसों का मुक़द्दर बदल जाय यूँ
सर पे शाहों की रख कर चलें छतरियां
मेरे आक़ा हैं ऐ 'सूर' दर्द-आशना
पाए-अक्दास का उनके हूँ मैं मद'ह-ख्वाँ
[ 2 ]
नमो नमो करुनानिधान.
चितवत कृपा कटाच्छ तुम्हारी,मिटि गयो तम अग्यान..
मोह निशा कौ लेश रह्यो नहिं, भयो विवेक विहान..
आतम रूप सकल घाट दरस्यो, उदय कियो रवि ज्ञान..
मैं मेरी अब रही न मेरे, छूट्यो देह अभिमान..
भावै परो आजुही यह तन, भावै रहो अमान..
मेरे जिय अब यहै लालसा, लीला श्री भगवान..
श्रवन करौं निसि बासर हित सौं, सूर तुम्हारी आन..


अस्सलाम ऐ दर्दमंदी के समंदर अस्सलाम
पड़ते ही चश्मे - इनायत आप की
मिट गई ज़ुल्मत जहालत की तमाम
उल्फ़ते-दुनिया की शब् रुख़सत हुई
सुब्हे - अक़्लो - होश का फैला निज़ाम
जिसमे-खाकी में नज़र आया जमाले-रुए-ज़ात
आफताब इरफ़ान का रौशन हुआ बालाए-बाम
मिट गई मैं और मेरी की हवस
रह न पाया जिस्म का पिन्दारे-खाम
'सूर' की है आप से यह सिद्क़े-दिल से आरज़ू
रोज़ो-शब् सुनाता रहूँ मैं आपकी लीला मदाम
[ 3 ]
अविगत गति जानी न परै.
मन-बच-कर्म अगाध, अगोचर, किहि बिधि बुधि संचरै..
अति प्रचंड पौरुष बल पाएं, केहरि भूख मरै..
अनायास, बिनु उद्यम कीन्हें, अजगर उदर भरै..
रीतै भरै भरै फुनि ढारै, चाहै फेरि भरै..
कबहुँक तृन बूडै पानी मैं, कबहुँक सिला तरै..
बागर तैं सागर करि डारै, चहुँ दिसि नीर भरै..
पाहन बीच कमल बिकसावै, जल मैं अगिनि जरै..
राजा रंक, रंक तैं राजा, लै सिर छत्र धरै..
'सूर' पतित तरि जाई छिनक मैं, जो प्रभु नेकु ढरै ..


किस तरह जाने कोई औसाफ़े-ज़ाते-लामकां
नफ़्स वो रखता नहीं आज़ाद है वो नुत्क़ से
और अमल उसका, किसी पर भी नहीं होता अयां
कैसे फिर ये अक्ल बन सकती है उसकी राज़दां
शेर को माबूद ने बख्शी है ताक़त बे पनाह
भूक से मरता है वो, कुदरत की देखो खूबियां
और अजगर जो पड़ा रहता है हिलता तक नहीं
पेट भर लेता है, खालिक उसपे है यूँ मेह्रबां
ज़र्फ़ वो चाहे तो भर दे, भरके फिर खाली करे
और मरज़ी हो, दोबारा भर दे यकता हुक्मरां
गर्क हो जाता है तिनका बतने-दरया में कभी
और कभी पानी पे पत्थर मिस्ले-तिनका है रवां
वो अगर चाहे, समंदर कर दे रेगिस्तान को
उसकी मरज़ी हो तो हो सैलाब ता अरज़ो-समां
हुक्म हो उसका तो पत्थर में भी खिल जाए कमल
हो अगर उसकी रज़ा दरया बने आतिश-फ़िशां
वो अगर चाहे तो कर दे शाह को पल में गदा
और अगर चाहे बना दे वो गदा को हुक्मरां
'सूर' कहते हैं कि हो जाए अगर उसका करम
हो शिफ़ाअत आसियों की, पाएं वो तसकीने-जां
[ 4 ]
सोई रसना जो हरि गुन गावै.
नैनन की छबि यहै चतुरता ज्यों मकरंद मुकुन्दहि ध्यावै..
निर्मल चित तौ सोई सांचौ, कृष्ण बिना जिय और न भावै..
श्रवनन की जु यहै अधिकाई,सुनि रस कथा सुधा रस प्यावै..
कर तेई जो स्यामहि सेवै, चरनन चलि वृन्दाबन जावे..
'सूरदास' जैये बलि ताके, जो हरि जू सों प्रीती बढ़ावै ..


ज़बाँ वो है जो हरि की मद्ह गाये
वही है चश्मे-खुशअतवार जिस में
जमाले-हुस्न का परतव समाये
वही है क़ल्बे-सिद्दीको-मुतःहर
जिसे बे कृष्न कोई शय न भाये
वही है गोश का हुस्ने-समाअत
जो सुनकर रस कथा अमृत पिलाये
वही है हाथ जो है श्याम की खिदमत में मसरूफ़
वही है पाँव, जो चलकर के वृन्दाबन को जाये
फ़िदा हो जाइए सूर उस बशर पर
जो दिल में श्याम की उल्फ़त बढाए
[ 5 ]
आजु हौं एक एक करि टरिहौं
कै तुमहीं, कै हमहीं माधौ, अपुन भरोसैं लरिहौं..
हौं तो पतित सात पीढीन कौ,पतितै ह्वै निस्तरिहौं..
अब हौं उघरि नचत चाहत हौं, तुम्हैं बिरद बिन करिहौं
कत अपनी परतीति नसावत, मैं पायो हरि हीरा
'सूर' पतित तबहीं उठिहैं प्रभु, जब हँसि दैहौ बीरा


आज तो फ़ैसला होकर ही रहेगा यारब
या तो मैं बाक़ी रहूँगा, या रहोगे तुम ही
मैं फ़क़त अपने भरोसे पे लडूंगा यारब
सात पुश्तों से हूँ आसीओ-गुनहगार हुज़ूर
हूँ इसी हाल में बखशिश का तलबगार हुज़ूर
बेझिझक सामने हर एक के उरियां हो कर
झूम कर नाचूँगा मैं दस्त-ब-दामां हो कर
आपकी शाने-करीमी की उठा दूँगा नक़ाब
अज़मतें आपकी बे-परदा करूँगा यारब
क्यों मिटाने पे हैं आमादा हुज़ूर अपना वक़ार
मैं ने तो पाया हरी जैसा है हीरा सरकार
होके खुश आप जब आसी पे करेगे रहमत
'सूर' कहते हैं उसी वक़्त उठूंगा यारब.
[ 6 ]
अविगत गति कछु कहत न आवै.
ज्यों गूंगे मीठे फल कौ रस, अन्तरगत ही भावै..
परम स्वाद सबही सु निरंतर, अमित तोष उपजावै..
मन बानी कौं अगम अगोचर, सो जानै जो पावै..
रूप,रेख,गुन, जाति जुगति बिनु, निरालम्ब मन चक्रित धावै..
सब बिधि अगम बिचारहिं ताते, 'सूर' सगुन लीला पद गावै..


ज़ाते-मुत्लक़ की हकीक़त कभी कहते न बने
जैसे गूंगा कोई, लज्ज़त किसी मीठे फल की
दिल में महसूस करे और बयाँ कर न सके
लज्ज़ते-आला सुकूं-बख्श है हर इक के लिए
क़ल्ब पहोंचे न , सुखन उसको कभी छू न सके
उस से वाकिफ़ है फ़क़त वो, जो उसे पा जाये
सूरतो-खाकाओ-औसाफ़े-ज़मानी के बगैर
नस्ल की क़ैद से पाक और दलाएल से बलंद
बे सुतूं अक़्ल तअज्जुब में रहे सरगर्दां
फ़िक्र क़ासिर है, किसी तर्ह नहीं उसका गुज़र
इसलिए 'सूर' ने औसाफ़े मजाजी के ये नगमे गाये
[ 7]
मेरे गुन अवगुन चित न बिचारौ.
कीजै लाज सरन आये की, रबि सुत त्रास निबारौ..
जोग,जग्य, जप-तप नहिं कीन्हौं, बेद बिमल नहिं भाख्यौ ..
अति रस लुब्ध स्वान जूठन ज्यों, अनत नाहिं चित राख्यौ..
जिहिं जिहिं ज्योनि फिरयो संकट बस, तिहिं तिहिं यहै कमायौ
काम क्रोध मद् लोभ ग्रसित ह्वै, विषय परम विष खायौ..
जो मसि गिरिपति घोरि उदधि मैं, लै सुर तरु बिधि हाथा.
मम कृत दोस लिखै बसुधा भरि, तऊ नाहिं मिति नाथा.
तुम सर्बग्य सबै बिधि समरथ, असरन सरन मुरारी..
मोह समुद्र 'सूर' बूडत है, लीजै भुजा पसारी..


नेकी बदी पे मेरी न कुछ गौर कीजिये
आया हूँ मैं अमान में रख लीजिये मुझे
डर मुझसे दूर मौत का फ़िल्फ़ौर कीजिये
कोई रियाज़ कोई इबादत न की कभी
वैदिक रिचाओं की भी तिलावत न की कभी
दुनिया की लज्ज़तों से रहा इस तरह घिरा
जूठन को जैसे देख के कुत्ता है दौड़ता
जुज़ उल्फ़ते-जहाँ न कहीं और दिल गया
ठोकर मुसीबतों ने खिलाई जिधर - जिधर
लाया कमा के सिर्फ़ गुनाहों के मालो-ज़र
गुस्सा, गुरूर, हिर्सो-हवस, ख्वाहिशाते-बद
चख कर ये सारे ज़हर कमाई हयाते-बद
कोहे-सियाह को भी समंदर में घोल कर
कुदरत उठाके हाथ में फिरदौस का शजर
कोताहियाँ मेरी जो लिखे कुल ज़मीन पर
तहरीर हो न पायेंगी कुछ हैं वो इस कदर
तुम हो अलीम क़ादिरे-मुतलक़ हो ऐ खुदा
बे-आसरों का एक तुम्हीं तो हो आसरा
डूबे कहीं न 'सूर' समंदर में हिर्स के
बाजू पकड़ के उसका बचा लीजिये उसे..
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क्रमशः

सूरदास के रूहानी नग़मे / भूमिका

सोई रसना जो हरि गुन गावै
आचार्य वल्लभ के भक्ति-दर्शन को केन्द्र में रख कर सूर-काव्य को व्याख्यायित एवं विवेचित करने की अपनी एक समृद्ध परम्परा है. किंतु यह परम्परा सूर के अध्ययन को इतना सीमित कर देती है कि विशुद्ध काव्य-सौन्दर्य के अनेक महत्त्वपूर्ण आयाम पाठक की दृष्टि से न केवल छूट जाते हैं, अपितु सूर की प्रासंगिकता पर भी अनेक प्रश्न-चिह्न लगा देते हैं. मैं समझता हूँ कि सूर के जो अध्येता वल्लभ सम्प्रदाय के पुष्टिमार्ग में दीक्षित नहीं हैं, और जिन्होंने आचार्यश्री की कृतियों का अपेक्षित अध्ययन नहीं किया है, उन्हें भी सूर-काव्य न केवल अपने सशक्त चुम्बकीय गुणों के साथ आकृष्ट करता है, अपितु अपनी प्रभावक अभिव्यक्ति, नाटकीय प्रस्तुति, गतिशील चित्रात्मकता, सूक्ष्म अवलोकन दृष्टि, रंगों, बिम्बों, ध्वनियों और आकारों की अंतरंग एकस्वरता और उनकी अर्थ-विस्तार क्षमता के कारण अपना अदभुत प्रशंसक बना देता है.
मध्ययुगीन इतिहास के विवादास्पद बिन्दुओं को गहराकर सूर के विभिन्न आलोचकों ने एक विशेष दृष्टिकोण को जिस प्रकार बारम्बार रेखांकित करने का प्रयास किया है, उससे मध्ययुगीन हिन्दी काव्य की सौहार्दपूर्ण वैचारिकता लगभग लड़खड़ा सी जाती है. जीव, जगत और ब्रह्म के अंतर्संबंधों को विवेचित करने की प्रत्येक जाति, धर्म और देश में एक लम्बी परम्परा रही है. सिद्ध और नाथ कवियों ने इस परम्परा को केवल बौद्धिकता के स्तर पर मूल्यांकित करने का प्रयास किया. सूफी संतों के प्रादुर्भाव से विशुद्ध ज्ञान की इस परम्परा में प्रेम के रस की चाशनी कुछ इस प्रकार घुल-मिल गई कि सम्पूर्ण चिंतन जीवंत हो उठा. लौकिक प्रेम के माध्यम से अलौकिक प्रेम को शब्द और अर्थ देने की सूफी परम्परा ने सगुण ब्रह्म की उपासना के लिए न केवल उर्वर भूमि तैयार कर दी अपितु वैष्णव चिंतन को लोकप्रिय बनाने में सशक्त भूमिका का निर्वाह किया. आचार्य रामचंद्र शुक्ल की यह मान्यता यदि स्वीकार कर ली जाय कि श्री वल्लभाचार्य ने अपने पुष्टिमार्ग का प्रदर्शन बहुत कुछ देश काल देख कर किया तो इस तथ्य को सहज ही नकारा नहीं जा सकता कि ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती (बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी ई0) तथा उनके शिष्यों द्वारा स्थापित एवं प्रचारित समा (सूफियों का आध्यात्मिक गायन-वादन) की गोष्ठियों में निरंतर गहराते प्रेम-मूलक भक्ति के भाव से श्री वल्लभाचार्य प्रभावित अवश्य हुए. पुष्टिमार्ग में लौकिकता को अलौकिकता का साधन, माध्यम या प्रतीक मानने के पीछे कहीं-न कहीं परंपरागत सूफी भावना काम कर रही थी, जो प्रेमी, प्रेम और प्रेय को एक दूसरे से पृथक नहीं मानती.
मध्ययुग तक आते-आते कबीर का निर्गुण राम, सूफी प्रेम-मूलक भक्ति की मर्यादित परम्परा का प्रभावगत कोमल स्पर्श पाकर सगुण ब्रह्म के रूप में मर्यादा-पुरुषोत्तम राम की रामानंदीय छवि के साथ प्रतिष्ठित हो गया.किंतु रामकाव्य की परम्परा ब्राह्मणवादी चिंतन की सिद्धान्तगत संकीर्ण परिधियों को लांघकर अन्य धर्मावलम्बियों के मध्य अपने लिए स्थान नहीं बना सकीं. इसके विपरीत कृष्ण के रूप में सगुण ब्रह्म की स्वछन्द लीलाओं का गुणगान, क्षेत्र और धर्म की परिधियों से निकलकर सम्पूर्ण भारतीय जनमानस में इस प्रकार रच-बस गया कि हिन्दुओं से इतर अनेक प्रतिष्ठित मुस्लमान कवियों ने कृष्ण के रूप-सौंदर्य के विवेचन में स्वयं को पूरी तरह निमज्जित पाया. इसका एक कारण यह भी था कि सूफियों की सौंदर्यमूलक प्रेमाभक्ति, जिसकी आधारशिला ही इस हदीस पर थी कि परमात्मा सौन्दर्यशील है और वह सौंदर्य को प्रिय रखता है, कृष्ण-भक्ति-काव्य में अपनी पर्याप्त गूँज महसूस कर रही थी.
शास्त्रीय चिंतन जहाँ अपने सैद्धांतिक पक्ष के कारण छोटे-छोटे खेमों में बटा दिखाई देता है, वहीँ आध्यात्मिक विचारधारा एक निरंतर प्रवाहित सरिता की भांति अपना विस्तार नापती रहती हैं. भक्ति-काव्य के मूल में यही सौंदर्यमूलक आध्यात्मिक वैचारिकता है जो न केवल इसे अर्थ प्रदान करती है, अपितु जाति, धर्म, देश,काल और भाषा से ऊपर उठकर, इसके आस्वादन के लिए प्रेरित करती है. कदाचित यही कारण है कि सूर के विनय के गीति पदों में और सूफियों की नातिया रचनाओं में अनेक स्थलों पर जो भाव-साम्य दिखाई देता है वह धर्मगत आस्थाओं की विभाजन रेखाओं को मेरे लिए तोड़ देता है. सूफी चिंतकों ने हज़रात मुहम्मद के जन्म के बहुत पूर्व,सृष्टि के आरम्भ के ही उनकी दिव्य-ज्योति के अस्तित्व को स्वीकार किया है. इसास्था की बुनियाद में नबी श्री की दो हदीसें 1. 'परमात्मा ने सबसे अफल मेरी ज्योति पैदा की" तथा 2. "मैं उस समय भी था जब आदि पुरूष आदम अस्तित्व धारण करने की स्थिति में थे." स्वीकार की गई हैं. इस प्रकार सभी नबी हज़रात मुहम्मद के ही अंशभूत हैं.फ़ारसी के प्रसिद्द कवि एवं सूफी चिन्तक महमूद शाबिस्त्री (मृ0 1320 ई0) के अनुसार अहमद (नबीश्री) तथा अहद (परब्रह्म) में केवल एक मीम अक्षर का अन्तर है और इसी एक मीम के भीतर सम्पूर्ण जगत समाहित है –
ज़ 'अहमद' ता 'अहद', यक 'मीम' फ़र्क़ अस्त
जहाने अन्दराँ यक 'मीम', ग़र्क़ अस्त

'अहमद' और 'अहद' के इसी ऐक्य को शेख अब्दुलकुद्दूस गंगोही (ज0 1456 ई0) ने इन शब्दों में व्यक्त किया है -"महमद महमद जग कहै, चीन्है नाहीं कोय / अहमद मीम गँवाइया, कह क्यों दूजा होय." पदमावत (1540 ई0) में सम्पूर्ण सृष्टि की रचना को नबीश्री मुहम्मद की प्रीती का परिणाम बताया गया है-"प्रथम ज्योति बिधि तेहि कै साजी / औ तेहि प्रीती सिस्टि उपराजी."
सूफी चिंतन नबीश्री के गुणतत्त्वों के प्रकाश में उन्हें पूर्ण पुरूष (इन्साने-कामिल) मानता है. पुष्टिमार्ग में इसी उच्चतम तत्त्व को पुरुषोत्तम स्वीकार किया गया है. ब्रह्मवाद, समस्त देवों सहित जगत का पुरुषोत्तम से प्रकट होना स्वीकार करता है. सूर ने "कृशनहि ते यह जगत प्रकट है, हरि में लय ह्वै जावै" के माध्यम से इसी तथ्य का संकेत किया है. मुहम्मद अव्वल भी हैं, आख़िर भी और इस दृष्टि से अनंत, अनुपम और अविनाशी भी हैं. सूरदास श्रीकृष्ण के पुरुषोत्तम रूप का निरूपण इन्हीं शब्दों में करते हैं -"अविगत, आदि, अनंत, अनुपम, अलख,पुरूष, अविनाशी"
नबीश्री को श्रीप्रद कुरआन में 'मुदस्सिर' (चादर ओढ़ने वाला) और 'मुज़म्मिल' (कमली ओढ़ने वाला) कहा गया है. सूर के आराध्य कृष्ण पीताम्बर धारी भी हैं और कमली धारी भी. नबीश्री 'हिरा' पर्वत के भीतर प्रवेश करके और श्रीकृष्ण गोवर्धन पर्वत को धारण कर के अपने विराट रूप से साक्षात्कार करते हैं. मुहम्मद का सौन्दर्य अद्वितीय है. सभी नबियों में जो सौन्दर्य पृथक-पृथक था वह सब का सब नबीश्री में एक साथ एकत्र हो गया है. सूर के आराध्य कृष्ण का सौन्दर्य अनुपम और अदभुत है. वे सुन्दरता के ऐसे सागर हैं जिन का विवेचन बुद्धि-बल और विवेक-बल के आधार पर नहीं किया जा सकता. उस सौन्दर्य का आनंद मन-ही-मन लिया जा सकता है.
मैं ने 1984 ई0 में जिस समय राम-काव्य (अब किसे बनवास दोगे) की रचना की, मेरे चिंतन के मूल में राम के सम्पूर्ण चरित्र को एक सांस्कृतिक किरणबिन्दु के भीतर से विकसित करने का उद्देश्य था. मैं अपने प्रयास में कितना सफल हुआ इसका अनुमान मैं इस तथ्य के प्रकाश में सहज ही कर सकता हूँ कि पण. बद्री नारायण तिवारी अबतक मानस संगम कानपुर से इसके तीन संस्करण प्रकाशित कर चुके हैं. वस्तुतः यह सांस्कृतिक किरण बिन्दु वैष्णव अथवा गैर वैष्णव न होकर मिली-जुली संस्कृति का विशुद्ध भारतीय किरण-बिन्दु था जिसके कथा-बीज में मेरी सौन्दर्य-मूलक चेतना अपना विस्तार तलाश रही थी.
मैं विगत तीस-पैंतीस वर्षों से सूर-काव्य का स्वान्तः सुखाय अद्ययन करता रहा हूँ. मुझे सूर काव्य में भारतीय ओके-संस्कृति की जिस भीनी-भीनी कस्तूरी सौगंध का बोध हुआ उसपर मैं पूरी तरह मुग्ध हो उठा. सूर द्वारा प्रतिपादित श्रीकृष्ण का गुणातीत, निर्विशेष, कर्त्ता, निर्विकार एवं संसार के सब धर्मों से रहित स्वरुप मुझे मेरी आस्था के साथ एकस्वर दिखायी दिया. कदाचित इसीलिए मुझे रूपांतर करते समय भी मूल रचना के आनंद की प्रतीति हुई. मुझे महसूस हुआ कि सूर वास्तव में अंधे नहीं थे. उनका अंधापन उस सांसारिकता के प्रति था जो आराध्य से दृष्टि हटाकर भक्त को भटकाव की स्थिति में छोड़ देती है. जगत की परिणति निश्चय ही ब्रह्म से भिन्न नहीं है. सूर के पदों का अनुवाद मेरे लिए श्रीकृष्ण के लौकिक प्रेम के माध्यम से अलौकिक ब्रह्म को पहचानने और उसके प्रति समर्पित हो जाने का एक प्रयास है.
मुझे इस बात का दुःख है कि भारत में मुसलामानों के प्रवेश को मुस्लिम शासकों की आक्रामक पृष्ठभूमि में ही सदैव मूल्यांकित किया गया. जबकि तथ्य यह है कि गोरी और ग़ज़नवी से बहुत पहले उत्तरी भारत में मुस्लिम सूफी साधक एक बड़ी संख्या में आ चुके थे और सौम्य स्वाभाव एवं सौहार्दपूर्ण व्यवहार के कारण पर्याप्त लोकप्रिय भी हो चुके थे. दक्षिण भारत में तो व्यापारिक संबंधों के कारण भाईचारे का वातावरण बहुत पहले से बनने लगा था. वहाँ किसी मुस्लिम शासक का कोई आक्रमण कभी नहीं हुआ. स्पष्ट है कि दक्षिण भारत में भक्ति का प्रचार-प्रसार किसी मुस्लिम साम्राज्य द्बारा हिन्दुओं पर किए गए अत्याचार, आतंक अथवा दबाव का परिणाम नहीं था. भक्ति की स्वच्छंद धारा किसी आतंक अथवा अत्याचार के वातावरण में स्वच्छ शीतल निर्झर की भांति प्रवाहित भी नहीं हो सकती थी.
मध्ययुगीन मानसिकता में रूढिवादिता और जड़ता को देखना आंशिक सत्य को उजागर करता है. मुस्लिम शास्त्रचार्यों अथवा पंडितों की रूढिवादिता के समानान्तर नाथपंथियों, संतों और सूफ़ियों के प्रगतिशील असहमतिमूलक आक्रोश को जड़ता का नाम नहीं दिया जा सकता. भारतीय जनमानस मुल्लाओं और पंडितों की अपेक्षा नाथपंथियों, सूफ़ियों और संतों से कहीं अधिक निकट से जुड़ा हुआ था. कृष्णभक्त कवियों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उन्होंने अपने युग के सभी प्रेममूलक रंगों को अपने भीतर समाहित किया. फलस्वरूप सूफी संतों ने भी विष्णुपदों के लालित्य के साथ एकरंगता महसूस की, जिसकी ध्वनि अकबरकालीन सूफ़ी चिन्तक मेरे अब्दुलवाहिद बिलग्रामीकृत 'हक़ायक़े -हिन्दी' नामक ग्रन्थ में अनुभव की जा सकती है, जिसमें लेखक ने विष्णुपदों की शब्दावली की सूफ़ीपरक व्याख्या प्रस्तुत की है (यह ग्रन्थ नगरी प्रचारिणी सभा वाराणसी से प्रकाशित हो चुका है). सैयद गुलाम अली 'रसखान' और बरकतुल्लाह 'पेमी' की रचनाओं को इसी के प्रकाश में व्याख्यायित किया जाना उपयुक्त है. सच पूछा जाय तो कृष्णभक्ति काव्य भारतीय जनमानस को विभिन्न स्तरों पर एक-दूसरे से जोड़ने का कार्य कर रहा था. सूरदास का इस दिशा में अविस्मरणीय योगदान स्वीकार किया जाना चाहिए.
सूर का काव्य कथ्य और शिल्प दोनों ही दृष्टियों से अदभुत है. उसमें उन्मेषशालिनी प्रतिभा भी है और बिम्ब-संयोजन की कलात्मक क्षमता भी. सूर के सौन्दर्य-बोध को मानसिक और कल्पनाशील स्वीकार करना और तुलसी के सौन्दर्य-बोध को लौकिक और जीवन-सापेक्ष समझाना सूर के साथ अन्याय करना है. द्रष्टव्य यह है कि सूर का काव्य-लोक जीवन से किसी स्टार पर भी कटा हुआ नहीं है. बल्कि यह कहना अनुपयुक्त न होगा कि तुलसी की तुलना में सूर की लोकजीवन-दृष्टि कहीं अधिक पैनी है. उसका फलक ग्रामीण जीवन के सहज क्रिया-कलापों से ऊर्जा प्राप्त करता है, मथुरा से सम्बद्ध कृष्ण की समस्त गतिविधियों का शांत मन से अवलोकन करता है, उद्धव और गोपियों के संवाद के माध्यम से युगीन सामाजिक, दार्शनिक, राजनीतिक और आस्थागत मुद्दों का जायज़ा लेता है और काव्य-संगीत के लयात्मक आरोह-अवरोह से जन्मी प्रकाशयुक्त जीवन तरंगों पर तैरता है.
सूर युगीन फ़ारसी ग़ज़ल अपनी कोमल मधुर शब्दावली, अद्भुत कल्पनाशीलता,सहज दो-टूक संप्रेषण क्षमता और सूक्ष्म युगबोध की कलात्मक प्रस्तुति के कारण भारतीय भाषाओं के लिए एक चुनौती बनी हुई थी. दोहे की कविता में ग़ज़ल के शेरों का गुण अवश्य था जो उसे जन सामान्य में लोकप्रिय बनाए हुए था, किंतु ग़ज़ल की विभिन्न रागों में ढल जाने वाली आकर्षक लयात्मकता से वे पूरी तरह वंचित थे.सूर ने विभिन्न भरतीय रागों पर आधारित गीति-पदों की रचना कर के ब्रज भाषा काव्य को फ़ारसी ग़ज़ल के सामानांतर खड़ा कर दिया. मुल्ला दाऊद, कुतुबन, मंझन, जायसी, तुलसी आदि फ़ारसी की मसनवी के समकक्ष अवधी कथा-काव्य परम्परा को समृद्ध कर चुके थे. सूर काव्य में भक्ति की चाशनी के साथ ग़ज़ल का लालित्य सहज ही इस प्रकार समाविष्ट हो गया कि उसका प्रभाव निरंतर गहराता गया और सूर युगीन फ़ारसी कवि भी गीति-पद की ओर आकृष्ट हुए बिना न रह सके.
सूर के काव्य में रूप-सौन्दर्य की मूर्त्त रमणीय अभिव्यक्ति है. नैसर्गिकता, स्वच्छन्दता, असाधारणता और कल्पनाशीलता का अनुकूल सहयोग पाकर, यह अभिव्यक्ति और भी स्पन्दनशील हो उठती है. आचार्य रामचंद्र शुक्ल का मर्यादा-ग्रस्त पैमाना सूर द्वारा प्रस्तुत राधा-कृष्ण प्रेम प्रसंगों को मूल्यांकित करने के लिए छोटा पड़ जाता है. उनकी स्थूल दृष्टि बाह्यार्थ-निरूपक तत्त्वों से टकराकर वापस लौट आती है. वे लीला-प्रसंगों में अंतर्मुखी-अनुभूति की तरलता और तीव्रता को महसूस करने में असमर्थ हैं. कवि और पात्रों की अनुभूति, अभिव्यंजना के औचित्य का स्पर्श पाकर ऐन्द्रिय-सौन्दर्य जगत से आत्मिक-सौन्दर्य जगत में कब और किस समय अनायास चली जाती है, शुक्ल जी इस तथ्य का आभास नहीं कर सके हैं. सूर का रूप-सौन्दर्य केवल भौतिक ऐन्द्रिय-सौन्दर्य नहीं है, उसमें सौन्दर्य के बाह्य एवं अभ्यंतर पक्षों के बारीक-से-बारीक पहलुओं की स्थिति-जन्य गतिशील अभिव्यंजना सहज ही देखी जा सकती है.
सूर काव्य के सांस्कृतिक पक्ष का सूर के अध्येताओं ने सविस्तार विवेचन किया है, किंतु सूर की सामाजिक एवं राजनीतिक जागरूकता को पूरी तरह नज़र अंदाज़ कर दिया गया है. कारण शायद यह है कि विद्वानों ने यह पहले से ही स्वीकार कर लिया है कि सूर की वैचारिक परिधियों में सामाजिक एवं राजनीतिक विषयों के लिए कोई स्थान नहीं है. किंतु ध्यान पूर्वक देखने पर सूर काव्य में जहाँ वाक्चातुर्य से लैस संवादों की प्रभावक प्रस्तुति है, बाल सुलभ चेष्टाओं की विनोदपूर्ण नट-खट सजीव अभिव्यंजना है, ममत्व का परिस्थिति-जन्य आह्लादमय आस्वादन है, नन्द और यशोदा के संवेदनशील मन की वात्सल्य रस से सिक्त छटपटाहट है, रूठना, मनाना, खीझना-रीझाना, नाचना-झूमना,उलाहने देना, ताने कसना, बात से मुकर जाना आदि अनेक मानव मनोविज्ञान से जुड़े प्रसंग हैं, वहीं युग, समाज और व्यवस्था पर कहीं हलकी, कहीं तीखी चोट करते रहना सूर के गीति-पदों की एक विशिष्ट पहचान है.
उद्धव के साथ गोपियों के संवाद का फलक, यदि बारीकी से देखा जाय, तो राजनीतिक स्थितियों के व्यंग्यात्मक चित्रों से भरा हुआ मिलेगा. सूर युगीन दुर्बल प्रशासनिक व्यवस्था पर गोपियाँ उद्धव को संबोधित कर के पैनी चोट करती हैं -
ऊधौ ! तुम्हारा तौर तरीका भी खूब है
राजा भी खूबतर है, रिआया भी खूब है
तुम जैसा उनका अफ़्सरे-आला भी खूब है
आमों को काट कर के लगाते हो तुम बबूल
चंदन को ख़त्म कर के उडाते हो सिर्फ़ धूल
तुम शाह को पकड़ते हो चोरों को छोड़ कर
नज़रों में हैं तुम्हारी चुगलखोर मोतबर
ऐ 'सूर' कैसे होगा भला इस तरह निबाह
सरकार बेलगाम है, जनता है सब तबाह.

सूर की दृष्टि में 'अंधाधुंध' सरकार के साथ निर्वाह कर पाना बड़ा ही कष्टसाध्य कार्य है. और वह भी ऐसी स्थिति में, जब चुगली करने वाले विश्वसनीय समझे जाएँ और अपराधियों को मुक्त कर के सीधे-सच्चे लोगों को अपराधी ठहराकर बंदी बनाया जाय. राजा को तो वास्तव में ऐसा होना चाहिए कि उसकी प्रजा हर प्रकार के अन्याय और अत्याचार से मुक्त हो -
राजा का 'सूर' फ़र्ज़ तो होता है बस यही
जौरो-सितम से उसकी रिआया न हो दुखी

किंतु सूर के युग की विचित्र विडम्बना है -
ऐ 'सूर' हैं ये सिर्फ़ ज़माने की खूबियाँ
मिलाता है शातिरों को ही फ़िल्फ़ौर फल यहाँ

सच पूछिए तो "सूरदास यह जग की महिमा, कुटिल तुरत फल पावत" की स्थिति सूर युगीन समाज की तुलना में आज कहीं अधिक प्रासंगिक है. प्रेमचन्द ने जिस समय महाजनी सभ्यता पर निबंध लिखा और महाजनों तथा साहूकारों क्र अत्याचार के चित्र कथा-साहित्य के माध्यम से प्रस्तुत किए, वामपंथी आलोचकों ने उनकी प्रगतिशीलता को एक ख़ास नज़रिए से मूल्यांकित किया. सूर महाजनी सभ्यता के इस रुख से अच्छी तरह परिचित थे. स्थिति यह थी कि महाजन क़र्ज़ का पैसा वापस न मिलने के बदले में मवेशी तो खोल ही ले जाता था, घर में बचे-खुचे चारा-पानी को भी हज़म कर जाने की इच्छा उसमें पर्याप्त बलवती थी -
पहले तो 'सूर' खोले महाजन ने जानवर
अब चारा हज़्म करने पे आमादा है लईं

ज़मीनदारों और पटवारियों के अत्याचार की कथाएं प्रेमचंद साहित्य में पर्याप्त महत्त्व रखती हैं. सूर का किसान प्रेमचंद के किसान से कुछ कम पीड़ित नहीं है. गाँव की ऊसर ज़मीन पर खेती करने से कितनी उपज हो सकती है यह सहज ही महसूस किया जा सकता है. पंचजन यदि कारकुन से मिलकर मन-ही-मन षड़यंत्र रचें और ज़मीनदार खेत के कागजात माँगने लगे,तो बेचारे किसान की कितनी दयनीय स्थिति होगी ( विस्तार के लिए देखिये सीताराम चतुर्वेदी संपादित सूर ग्रंथावली, खंड 4, पद 4491 )
सूरदास के पदों का काव्यानुवाद करते समय मैंने इस बात का विशेष ध्यान रक्खा है कि कवि का प्रतिनिधि साहित्य पाठकों तक पहुँचा सकूँ. विनय, वात्सल्य और श्रृंगार से इतर, अनेक ऐसे प्रसंगों को भी मैं ने समेटने का प्रयास किया है, जिन से सूर के काव्य-फलक की सीमाएं समझी जा सकें. सूर सागर के विभिन्न संपादित संस्करणों में जो पाठ भेद हैं उन से मुझे बड़ी कठिनाई हुई है. फिर भी मैं ने स्तरीय पाठ को ही आधार बनाया है.
प्रारंभ में जब मैं ने कुछ पदों के अनुवाद किए तो मेरे वरिष्ठ विभागीय सहयोगी प्रो. गोवर्धन नाथ शुक्ल ने उनकी जिन शब्दों में प्रशंसा की उस से मुझे कल्पनातीत प्रोत्साहन मिला. उन्हीं दिनों मित्रवर लल्लन प्रसाद जी व्यास ने कुछ काव्यानुवाद 'विश्व हिन्दी दर्शन' में प्रकाशित किए जिन्हें पाठकों ने बहुत अधिक सराहा. किंतु अनेक पारिवारिक परीशानियों से घिरा होने के कारण मैं वर्षों इस कार्य की ओर ध्यान न दे सका. इधर मेरे अग्रज प्रो. कैलाशचंद्र भाटिया ने मुझे बार-बार टोक कर इस कार्य के लिए पुनः प्रेरित किया. मुझे प्रसन्नता है कि मैं सूरदास के एक सौ एक पदों का काव्यानुवाद करने के अपने संकल्प को पूरा कर सका. वैसे तो मैं ने बहुत ही ईमानदारी से मनोयोग पूर्वक इस कार्य को संपन्न करने का प्रयास किया है, फिर भी कहीं मैं यदि सूर जैसे महान कवि की भावनाओं को यथावत रूपांतरित नहीं कर सका हूँ, तो इसका कारण मेरी अपनी काव्य-प्रतिभा की कमी ही हो सकती है. मुझे विशवास है कि सूर के पाठक मेरे दोषों के लिए मुझे क्षमा कर देंगे
10 जून, 1998 प्रो. शैलेश ज़ैदी
पूर्व अध्यक्ष, हिन्दी विभाग
अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय

रविवार, 22 जून 2008

पसंदीदा शायरी / शहरयार

पाँच ग़ज़लें
[ 1 ]
जिंदगी जैसी तमन्ना थी, नहीं, कुछ कम है
हर घड़ी होता है एहसास कहीं कुछ कम है
घर की तामीर तसव्वुर ही में हो सकती है
अपने नक़्शे के मुताबिक़ ये ज़मीं कुछ कम है
बिछड़े लोगों से मुलकात कभी फिर होगी
दिल में उम्मीद तो काफ़ी है, यकीं कुछ कम है
अब जिधर देखिये लगता है कि इस दुनिया में
कहीं कुछ चीज़ ज़ियादा है कहीं कुछ कम है
आज भी है तेरी दूरी ही उदासी का सबब
ये अलग बात है पहली सी नहीं, कुछ कम है
[ 2 ]
अजीब सानेहा मुझ पर गुज़र गया यारो
मैं अपने साए से कल रात डर गया यारो
हर एक नक़्श तमन्ना का हो गया धुंधला
हर एक ज़ख्म मेरे दिल का भर गया यारो
भटक रही थी जो कश्ती वो गर्के-आब हुई
चढ़ा हुआ था जो दरया उतर गया यारो
वो कौन था, वो कहाँ का था, क्या हुआ था उसे
सुना है आज कोई शख्स मर गया यारो
[ 3 ]
हम पढ़ रहे थे ख्वाब के पुर्जों को जोड़ के
आंधी ने ये तिलिस्म भी रख डाला तोड़ के
इक बूँद ज़हर के लिए फैला रहे हो हाथ
देखो कभी ख़ुद अपने बदन को निचोड़ के
कुछ भी नहीं जो ख्वाब की सूरत दिखायी दे
कोई नहीं जो हम को जगाये झिंझोड़ के
इन पानियों से कोई सलामत नहीं गया
है वक़्त अब भी कश्तियाँ ले जाओ मोड़ के
[ 4 ]
जुस्तुजू जिसकी थी उसको तो न पाया हम ने
इस बहाने से मगर देख ली दुनिया हम ने
तुझ को रुसवा न किया ख़ुद भी पशेमां न हुए
इश्क़ की रस्म को इस तर्ह निभाया हम ने
कब मिली थी कहाँ बिछड़ी थी हमें याद नहीं
जिंदगी तुझ को तो बस ख्वाब में देखा हम ने
ऐ अदा और सुनाये भी तो क्या हाल अपना
उम्र का लंबा सफर तय किया तनहा हम ने
[ 5]
कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता
कहीं ज़मीं तो कहीं आसमाँ नहीं मिलता
जिसे भी देखिये वो अपने आप में गुम है
ज़ुबां मिली है मगर हम-ज़ुबां नहीं मिलता
बुझ सका है भला कौन वक्त के शोले
ये ऐसी आग है जिसमें धुआं नहीं मिलता
तेरे जहान में ऐसा नहीं कि प्यार न हो
जहाँ उमीद हो इसकी वहाँ नहीं मिलता
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शनिवार, 21 जून 2008

पसंदीदा शायरी / बशीर बद्र

पाँच ग़ज़लें
[ 1 ]

कभी यूँ भी आ मेरी आँख में, के मेरी नज़र को ख़बर न हो
मुझे एक रात नवाज़ दे, मगर उसके बाद सेहर न हो
वो बड़ा रहीमो-करीम है, मुझे ये सिफ़त भी अता करे
तुझे भूलने की दुआ करूँ, तो दुआ में मेरी असर न हो
मेरे बाजुओं में थकी-थकी, अभी महवे-ख्वाब है चाँदनी
न उठे सितारों की पालकी, अभी आहटों का गुज़र न हो
कभी दिन की धूप में झूम के, कभी शब् के फूल को चूम के
यूँही साथ-साथ चलें सदा, कभी ख़त्म अपना सफ़र न हो
ये ग़ज़ल कि जैसे हिरन की आँख में पिछली रात की चाँदनी
न बुझे खराबे की रोशनी, कभी बे-चराग़ ये घर न हो
मेरे पास मेरे हबीब आ, ज़रा और दिल के करीब आ
तुझे धडकनों में बसा लूँ मैं, कि बिछड़ने का कभी डर न हो
[ 2]
अभी इस तरफ़ न निगाह कर, मैं ग़ज़ल की पलकें संवार लूँ
मेरा लफ्ज़-लफ्ज़ हो आइना, तुझे आइने में उतार लूँ
मैं तमाम दिन का थका हुआ, तू तमाम शब् का जगा हुआ
ज़रा ठहर जा इसी मोड़ पर, तेरे साथ शाम गुज़ार लूँ
अगर आस्मां की नुमाइशों में, मुझे भी इज़ने-क़याम हो
तो मैं मोतियों की दूकान से, तेरी बालियाँ, तेरे हार लूँ
कई अजनबी तेरी राह के, मेरे पास से यूँ गुज़र गए
जिन्हें देख कर ये तड़प हुई, तेरा नाम ले के पुकार लूँ
[ 3 ]
लोग टूट जाते हैं एक घर बनाने में
तुम तरस नहीं खाते बस्तियां जलाने में
और जाम टूटेंगे इस शराबखाने में
मौसमों के आने में मौसमों के जाने में
हर धड़कते पत्थर को लोग दिल समझते हैं
उम्र बीत जाती है दिल को दिल बनाने में
फाख्ता की मजबूरी ये भी कह नहीं सकती
कौन सांप रखता है उसके आशियाने में
दूसरी कोई लड़की जिंदगी में आयेगी
कितनी देर लागती है उसको भूल जाने में
[ 4 ]
मुहब्बतों में दिखावे की दोस्ती न मिला
अगर गले नहीं मिलता तो हाथ भी न मिला
घरों पे नाम थे नामों के साथ ओहदे थे
बहोत तलाश किया कोई आदमी न मिला
तमाम रिश्तों को मैं घर पे छोड़ आया था
फिर इसके बाद मुझे कोई अजनबी न मिला
बहोत अजीब है ये कुर्बतों की दूरी भी
वो मेरे साथ रहा और मुझे कभी न मिला
खुदा की इतनी बड़ी कायनात में मैं ने
बस एक शख्स को माँगा मुझे वही न मिला
[ 5 ]
यूँही बेसबब न फिरा करो, कोई शाम घर भी रहा करो
वो ग़ज़ल की एक किताब है, उसे चुपके-चुपके पढ़ा करो
कोई हाथ भी न मिलाएगा, जो गले मिलोगे तपाक से
ये नए मिज़ाज का शहर है, ज़रा फ़ासले से मिला करो
अभी राह में कई मोड़ हैं, कोई आएगा कोई जायेगा
तुम्हें जिसने दिल से भुला दिया, उसे भूलने की दुआ करो
मुझे इश्तेहार सी लगती हैं, ये मुहब्बतों की कहानियां
जो कहा नहीं वो सुना करो, जो सूना नहीं वो कहा करो
कभी हुस्ने-पर्दानशीं भी हो, ज़रा आशिक़ाना लिबास में
जो मैं बन संवर के कहीं चलूँ, मेरे साथ तुम भी चला करो
ये खिज़ां की ज़र्द सी शाम में, जो उदास पेड़ के पास है
ये तुम्हारे घर की बहार है, इसे आंसुओं से हरा करो
नहीं बेहिजाब वो चाँद सा, कि नज़र का कोई असर न हो
उसे इतनी गर्मिए-शौक़ से, बड़ी देर तक न तका करो
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पसंदीदा शायरी / 'जिगर' मुरादाबादी

पाँच ग़ज़लें
[ 1 ]
दास्ताने-गमे-दिल उनको सुनाई न गई
बात बिगडी थी कुछ ऐसी कि बनायी न गई
सब को हम भूल गए जोशे-जुनूं में लेकिन
इक तेरी याद थी ऐसी कि भुलाई न गई
इश्क़ पर कुछ न चला दीदए-तर का जादू
उसने जो आग लगा दी वो बुझाई न गई
क्या उठायेगी सबा ख़ाक मेरी उस दर से
ये क़यामत तो ख़ुद उनसे भी उठाई न गई

[ 2 ]
अगर न जोहरा-जबीनों के दरमियाँ गुज़रे
तो फिर ये कैसे कटे जिंदगी ,कहाँ गुज़रे
जो तेरे आरिज़ो-गेसू के दरमियाँ गुज़रे
कभी-कभी तो वो लम्हे बलाए-जाँ गुज़रे
मुझे ये वह्म रहा मुद्दतों कि जुरअते-शौक़
कहीं न खातिरे-मासूम पर गरां गुज़रे
हरेक मुक़ामे-मुहब्बत बहोत ही दिलकश था
मगर हम अहले-मुहब्बत कशां-कशां गुज़रे
जुनूं के सख्त मराहिल भी तेरी याद के साथ
हसीं-हसीं नज़र आए, जवां-जवां गुज़रे
खता मुआफ ज़माने से बदगुमाँ होकर
तेरी वफ़ा पे भी क्या-क्या हमें गुमाँ गुज़रे
उसी को कहते हैं दोज़ख उसी को जन्नत भी
वो जिंदगी जो हसीनों के दरमियाँ गुज़रे
कहाँ का हुस्न कि ख़ुद इश्क़ को खबर न हुई
रहे-तलब में कुछ ऐसे भी इम्तहाँ गुज़रे
कोई न देख सका जिनको दो दिलों के सिवा
मुआमलात कुछ ऐसे भी दरमियाँ गुज़रे
बहोत अज़ीज़ है मुझको उन्हीं की याद 'जिगर'
वो हादिसाते-मुहब्बत जो नागहाँ गुज़रे

[ 3 ]
बराबर से बच कर गुज़र जाने वाले
ये नाले नहीं बे-असर जाने वाले
मुहब्बत में हम तो जिये हैं जियेंगे
वो होंगे कोई और मर जाने वाले
मेरे दिल की बेताबियाँ भी लिये जा
दबे पाँव मुंह फेर कर जाने वाले
नहीं जानते कुछ कि जाना कहाँ है
चले जा रहे हैं मगर जाने वाले
तेरे इक इशारे पे साकित खड़े हैं
नहीं कह के सबसे गुज़र जाने वाले

[ 4 ]
हमको मिटा सके ये ज़माने में दम नहीं
हमसे ज़माना ख़ुद है, ज़माने से हम नहीं
मेरे जुबां पे शिकवए-अहले-सितम नहीं
मुझको जगा दिया यही एहसान कम नहीं
यारब हुजूमे-दर्द को दे और वुसअतें
दामन तो क्या अभी मेरी आँखें भी नम नहीं
ज़ाहिद कुछ और हो न हो मयखाने में मगर
क्या कम ये है कि शिकवए -दैरो-हरम नहीं
मर्गे-'जिगर' पे क्यों तेरी आँखें हैं अश्क-रेज़
इक सानेहा सही, मगर इतना अहम् नहीं

[ ५ ]
इक लफ़्ज़े-मुहब्बत का अदना सा फ़साना है
सिमटे तो दिले-आशिक फैले तो ज़माना है
क्या हुस्न ने समझा है, क्या इश्क़ ने जाना है
हम ख़ाक-नशीनों की ठोकर में ज़माना है
वो हुस्नो-जमाल उनका, ये इश्क़ो-शबाब अपना
जीने की तमन्ना है मरने का बहाना है
अश्कों के तबस्सुम में, आहों के तरन्नुम में
मासूम मुहब्बत का मासूम फ़साना है
ये इश्क़ नहीं आसाँ, इतना तो समझ लीजे
इक आग का दरया है और डूब के जाना है
आंसू तो बहोत से हैं, आंखों में 'जिगर' लेकिन
बिंध जाए सो मोती है, रह जाए सो दाना है

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शुक्रवार, 20 जून 2008

पुरानी शराब / हैदर अली ‘आतिश’ दिहलवी

पाँच ग़ज़लें
[ 1 ]
सुन तो सही जहाँ में है तेरा फ़साना क्या
कहती है तुझको खल्क़े-खुदा गाइबाना क्या
ज़ेरे-ज़मीं से आता है गुल, सोज़ ज़रबकफ़
क़ारूं ने रास्ते में लुटाया ख़ज़ाना क्या
ज़ीना सबा का ढूँढती है अपनी मुश्ते-ख़ाक
बामे-बलंद, यार का है आस्ताना क्या
चारों तरफ़ से सूरते-जानां हो जलवागर
दिल साफ़ हो तेरा तो है आईना-खाना क्या
तब्लो-अलम है पास न अपने है मुल्को-माल
हम से ख़िलाफ़ होके करेगा ज़माना क्या
यूँ मुद्दई हसद से न दे दाद तो न दे
आतिश गज़ल ये तूने कही आशिक़ाना क्या
[ 2 ]
इंसाफ़ की तराजू में तोला, अयाँ हुआ
यूसुफ़ से तेरे हुस्न का पल्ला गराँ हुआ
मादूम दागे-इश्क़ का दिल से निशाँ हुआ
अफ़सोस, बे-चराग़ हमारा मकाँ हुआ
देखा जो मैं ने उसको समंदर की आँख से
गुलज़ार आग हो गई, सुम्बुल धुंवां हुआ
तू देखने गया लबे-दरया जो चाँदनी
उस्द्तादा तुझको देख के आबे-रवां हुआ
इन्सां को चाहिए के न हो नागवारे-तब'अ
समझे सुबुक उसे जो किसी पर गराँ हुआ
अल्लाह के करम से बुतों को किया मुतीअ
ज़ेरे-नगीं क़लम-रवे-हिन्दोस्तां हुआ
क़ातिल की तेग़ से रहे-मुल्के-अदम मिली
आहन हमारे वास्ते संगे-निशाँ हुआ
फ़िकरे- बलंद ने मेरी ऐसा किया बलंद
आतिश ज़मीने-शेर से पस्त आसमां हुआ
[ 3 ]
वहशते-दिल ने किया है वो बियाबाँ पैदा
सैकड़ों कोस नहीं सूरते-इन्सां पैदा
दिल के आईने में कर जौहरे-पिन्हाँ पैदा
दरो-दीवार से हो सूरते-जानां पैदा
बाग़ सुनसान न कर इनको पकड़ कर सैयाद
बादे-मुद्दत हुए हैं मुर्गे-खुश-इल्हाँ पैदा
रूह की तर्ह जो दाखिल हो वो दीवाना है
जिसमे-खाकी समझ उसको जो हो ज़िन्दाँ पैदा
बे-हिजाबों का मगर शहर है अक्लीमे-अदम
देखता हूँ जिसे, होता है वो उरयां पैदा
एक गुल ऐसा नहीं होवे खिज़ाँ जिसकी बहार
कौन से वक्त हुआ था ये गुलिस्ताँ पैदा
मूजिद इसकी है सियह-रोज़ी हमारी 'आतिश'
हम न होते तो न होती शबे-हिजरां पैदा
[ 4 ]
तेरी मस्ताना आंखों पर न गर्दिश का असर देखा
मए-गुलरंग से सौ-सौ तरह पैमाना भर देखा
मुसाफ़िर ही नज़र आया, नज़र आया जो दुनिया में
जिसे देखा, उसे आलूदए- गर्दे-सफ़र देखा
नया ग़म्ज़ा किया सैयाद ने अपने असीरों से
किया आज़ाद उसे, जिस मुर्ग़ को बे बालो-पर देखा
ख़बर इक दिन न ली, पूछा न हाल अपने फ़क़ीरों का
वो शाहे-हुस्न, हमने बादशाहे-बेखबर देखा
तड़पते देख कर मुझको कहा हंस कर ये उस बुत ने
खुदा के दोस्त को रंजो-अलम में बेशतर देखा
बदख्शां-ओ-यमन छाना, लगाए गोते दरया के
न लब सा लाल, ऐ 'आतिश', न दंदां सा गुहर देखा
[ 5 ]
आशियाना, न क़फ़स औ न चमन याद आया
आँख खुलने भी न पायी थी कि सैयाद आया
एक दिन हिचकी भी आई न मुझे गुरबत में
मैं कभी तुमको न ऐ अहले-वतन याद आया
सोज़िशे-दिल मेरी क्या बनके क़लम लिक्खेगा
मोम हो हो के है बह जाने को फ़ौलाद आया
सज्दए-शुक्र ज़मीं पर न करूँ मैं क्योंकर
आसमां से है मेरा रिज़के-खुदादाद आया
देखले फिर ये तमाशा नज़र आने का नहीं
सामने आंखों के है आलमे-ईजाद आया
दर्गहे-यार मुरादों की महल है 'आतिश'
शाद याँ से है गया, जब कोई नाशाद आया
***********************

गुरुवार, 19 जून 2008

मुक्तिबोध ने कहा था

1. जनता का साहित्य'

जनता का साहित्य', जनता को तुरत समझ में आने वाला साहित्य हरगिज़ नहीं. अगर ऐसा होता तो किस्सा तोता-मैना और नौटंकी ही साहित्य के प्रधान रूप होते. साहित्य के अन्दर सांस्कृतिक भाव होते हैं. सांस्कृतिक भावों को ग्रहण करने के लिए, बुलंदी, बारीकी और खूबसूरती को पहचानने के लिए, उस असलियत को पाने के लिए जिसका नक्शा साहित्य में रहता है, सुनाने या पढने वाले की कुछ स्थिति अपेक्षित होती है. वह स्थिति है उसकी शिक्षा, उसके मन का सांस्कृतिक परिष्कार. किंतु यह परिष्कार साहित्य के माध्यम द्वाराताभी सम्भव है जब स्वयं सुनाने वाला या पढने वाले की अवस्था शिक्षित की हो. [ फरवरी 1953 ]

2. 'प्रगतिशीलता' और मानव-सत्य

'मनुष्य-सत्य' का अनादर करने वाले साधारण रूप से दो परस्पर विरोधी क्षेत्रों से आते है. एक वे, जो मात्र क्रांतिकारी शब्दों का शोर खड़ा करने वालों के हिमायती के रूप में अपने सिद्धांतों की यांत्रिक चौखट तैयार रखते हैं - जो उसमें फिट हो जाय वह प्रगतिशील, और जो उसमें कसा न जा सके वह प्रगति-विरोधी. यह उनका प्रत्यक्ष, परोक्ष, प्रस्तुत और अप्रस्तुत, मुखर और गोपनीय निर्णय होता है. ये लोग उत्पीडित मध्य-वर्ग के जीवन के तत्त्वों से दूर अलग-अलग होते हैं. भले ही ये लोग शाब्दिक रूप से गरीबी के कितने ही हिमायती क्यों न हों, इनका व्यक्तित्व स्वयं आत्मबद्ध, अहंग्रस्त महत्त्वाकांक्षाओं का शिकार और राग-द्वेष की बहुमुखी प्रवृत्तियों से निपीडित होता है. बोधहीन बौद्धिकता का शिकार, यह वर्ग जिस संवेदनमय कविता की आलोचना करता है, उसकी संवेदनाओं की मूल आधार-भूमि को वह हृदयंगम नहीं कर सकता.

दूसरे क्षेत्र के प्रतिनिधि कष्टग्रस्त जीवन के कारण कवि में उतपन्न हुई अंतर्मुखता का उपयोग अपने लिए करना चाहते हैं. वे उस अंतर्मुखता के मूल उद्वेगों के क्रांतिकारी अभिप्रायों को दबाकर, उस अंतर्मुखता को इस प्रकार से प्रोत्साहन देते हैं की वह अंतर्मुखता अपने प्रधान विद्रोहों से छूट कर अलग हो जाय.

[नई दिशा, मई 1955]

बुधवार, 18 जून 2008

आंखों से जुड़ी कुछ ग़ज़लें / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

सावन की घटा बन के बरसती हुई आँखें
भीगा हुआ मौसम हैं ये भीगी हुई आँखें
ख़्वाबों में उतर आती हैं चुप-चाप दबे पाँव
दोशीज़ए-माजी की चमकती हुई आँखें
ये सोचके जाता नहीं मयखाने की जानिब
आजायें न फिर याद वो भूली हुई आँखें
इस दौर में क्या जाने कोई क़द्र गुहर की
दो बेश-बहा सीप हैं सोई हुई आँखें
रुक कर मेरी नज़रें किसे पहचान रही हैं
शायद हैं ये पहले कभी देखी हुई आँखें
सायल की तरह आई हैं दरवाज़ए-दिल पर
कश्कोले-तमन्ना लिए सहमी हुई आँखें
***********************
दमकते चाँद से रुख पर बड़ी-बड़ी आँखें
बला का रखती हैं अंदाजे-दिलबरी आँखें
मैं जानता हूँ के होती हैं किस क़दर शीरीं
हसीन पलकों के शीशे में शरबती आँखें
किसी को नफ़रतें देती हैं प्यार के बदले
किसी से करती हैं इज़हारे-दोस्ती आँखें
गुलाबी शोख़ लिफ़ाफ़ों में है वफ़ा के खुतूत
छुपी हैं पर्दए-मिज़गाँ में प्यार की आँखें
सहर का नूर भी हैं, रात की सियाही भी
हयातो-मौत की तस्वीर खींचती आँखें
दिलों के बंद खज़ानों को खोल कर अक्सर
जवाहरात परखती हैं जौहरी ऑंखें
********************
गुफ्तुगू निगाहों की एतबार आंखों का
दिल पे हो गया आख़िर इख्तियार आंखों का
मय में आज साकी ने कोई शै मिला दी है
ढल गया है शीशे में सब खुमार आंखों का
आंसुओं के दरया में डूब-डूब जाता हूँ
ज़िक्र जब भी आता है अश्कबार आंखों का
मस्तिए-शराब इतनी देर-पा नहीं होती
नश'अ और ही कुछ है बावक़ार आंखों का
किस तरह मैं ठुकरा दूँ तुम ही कुछ कहो जाफर
दावतें हैं नज़रों की इन्केसार आंखों का
************************
आरजूओं का जहाँ हैं आँखें
तशना ख्वाबों की ज़बां हैं आँखें
भीग जाएँ तो समंदर कहिये
वरना साहिल की फुगाँ हैं आँखें
ये नहीं हैं तो जहाँ है तारीक
दौलते- माहवशां आँखें
जिनमें गुम हो गया माजी मेरा
कौन जाने वो कहाँ हैं आँखें
कैसे गम अपना छुपाये कोई
तर्जुमाने-दिलो-जाँ हैं आँखें
क्या हुआ आपको जाफर साहब
किस लिए अश्क-फ़िशां हैं आँखें
******************
अपने दामन में लिए शहरे तमन्ना ऑंखें
देखती रहती हैं दुनिया का तमाशा आँखें
यादें बादल की तरह ज़ेह्न पे छा जाती हैं
और अश्कों का बहा देती हैं दरया आँखें
दूर से इन पे समंदर का गुमाँ होता है
पास आने पे नज़र आती हैं तशना आँखें
इनमें सुर्खी भी, सियाही भी, सफेदी भी है
हू-ब-हू अक्स हैं तिरबेनी का गोया आँखें
आँखें मिलती हैं तो बढ़ जाता है कुछ और भी गम
लोग कहते हैं के होती हैं मसीहा आँखें
काम लेते हो हर इक लम्हा तुम इनसे जाफर
हो न जाएँ कहीं बाज़ार में रुसवा आँखें
****************
'चाँद के पत्थर' (1970) काव्य-संग्रह से साभार

रसलीन और बिहारी के दोहे / काव्यानुवाद

अमी, हलाहल, मद भरे, स्वेत, श्याम, रतनार
जियत, मरत, झुकि-झुकि परत, जिहि चितवत इक बार
आबे-हयात, ज़हरे-हलाहल, शराबे-नाब
छलके है चश्मे-सुर्खो-सियाहो-सफ़ेद से
जी उट्ठे, जाँ हलाक करे, खो दे अक़्लो-होश
जिसकी तरफ़ वो शोख़, नज़र भरके देख ले
************
कहत, नटत, रीझत,खिजत, हिलत-मिळत, लजियात
भरे भौन में करत हैं , नयनन ही तें बात
असरार, ज़िद, फ़रेफ्त्गी , खफ़्गिए-कमाल
इजहारे-इश्क, शर्मो-हया का मज़ाहिरा
खुर्दो-कलां हैं घर में सभी इसके बावजूद
जारी है गुफ्तुगू का निगाहों से सिलसिला
************
; शैलेश ज़ैदी

सोमवार, 16 जून 2008

प्रतिष्ठित कुरआन की सूरह 'अल-अस्र' का काव्यानुवाद / शैलेश ज़ैदी

युगों का साक्ष्य देकर कह रहा हूँ मैं
कि है सम्पूर्ण मानव-जाति घाटे में
बचे हैं बस वही,प्रतिबद्ध जिनकी आस्थाएं हैं
सजग हैं कर्म के प्रति जो
ह्रदय की पूरी निष्ठा से
किसी क्षण जो, कभी सच्चाइयों के मार्ग से
विचलित नहीं होते
परिस्थितियाँ भले प्रतिकूल हों,
जो धैर्य मन का खो के, उत्तेजित नहीं होते
युगों का साक्ष्य देकर कह रहा हूँ मैं
कि ऐसे लोग,
घाटों से कभी ग्रंथित नहीं होते.

*****************

बचपन का सैर सपाटा / ज़ोहरा दाऊदी

इस्मत चुगताई को अपने लड़की होने का दुःख पहली बार आगरे की गलियों में हुआ जब लड़कों की तरह उछल-कूद करने और कुलांचें भरने पर पास-पड़ोस और सगे संबंधियों के आक्रोश और टीका टिप्पणियों का निशाना उनको अपनी अम्मा के माध्यम से बनना पड़ा.
मुझे अपने लड़की या बिहारी महिलाओं की शब्दावली में 'बेटी-ज़ात' होने का आभास और दुःख छे वर्ष की अवस्था में पहली बार बग्घी गाड़ी पर बैठने के क्षणों में हुआ.
पटना से नगर नह्सा अपने ननिहाल जाते हुए मुझे बंद बग्घी गाड़ी पर अम्माँ के साथ बैठना पड़ा. भइया ऊपर कोचवान के साथ ठाठ से बैठे. और तो और कोचवान के हाथ से चाबुक लेकर मुझे जलाने के लिए बार-बार उसे लहराते भी थे. मैं ने भइया के साथ बैठने की ज़िद की तो अम्माँ की दांत पड़ी कि कहीं बेटी ज़ात भी लड़कों की तरह कोचवान के साथ बैठते अच्छी लगती है. तभी मैं ने दिल से प्रार्थना की कि अल्लाह मुझे लड़की से लड़का बना दे कि बग्घी की छत पर कोचवान के बराबर बैठ कर चाबुक लहरा सकूं. लेकिन तुरत ही अपनी इस प्रार्थना की स्वीकृति की संभावनाओं से दिल दहल उठा. अगर जो समुच में अल्लाह ने लड़का बना दिया तो फिर भइया की तरह पढ़ना पड़ेगा और पाठ याद न होने की स्थिति में या जी लगा कर न पढने पर पिटाई. क्योंकि उस छोटी सी उम्र में भी इतनी बात तो पता थी ही कि मैं चूँकि लड़की हूँ इस लिए ज़्यादा पढ़ाई लिखाई ज़रूरी नहीं है.बड़ी हुई, शादी हुई और वारे-नियारे हुए. अच्छे 'भाग' और अच्छे 'पति-परमेश्वर' की कृपा से. उन दिनों पैदाइश के साथ ही यह पाठ भी लड़की को पढाया जाता था.
बेटी ज़ात को नोकरी थोडी करना है जो सुबह शाम उसे पढाने के लिए लेकर बैठ जाती हो ? मेरी फुफियाँ अम्माँ को शर्म दिलाया करतीं. सो पढ़ने से जान तो न बचती थी कि अम्माँ को भी धुन थी कि बेटी पढ़-लिख कर कुछ बन जाय. लेकिन भइया की तरह पिटाई भी न होती थी. इसलिए मैं ने मन की पूरी गहराई के साथ पहली प्रार्थना में यह परिवर्तन किया कि अल्लाह बग्घी गाड़ी में बैठने के वक्त मुझे लड़का बना दे ताकि भइया की बराबरी और कोचवान की निकटता प्राप्त हो सके और पढने के वक्क्त लड़की रहने दे कि पिटाई से बच सकूं. पता नहीं फरिश्तों ने किस उकताहट में मेरी दोनों प्रार्थनाएं नोट कीं कि अल्लाह मियाँ के यहाँ ये कुछ उलटी-सीधी होकर पहुंचीं. स्वीकृति तो प्राप्त हुई, मगर लड़की होने का खमियाज़ा तो आम लड़कियों और फिर औरतों की तरह भुगतना ही पड़ा, लेकिन लड़कों की तरह पापड़ बेल कर पढ़ाई और फिर मर्दों की तरह कमाई भी करनी पड़ी. अशरफ भइया जो आगे चलकर कम्युनिस्ट पार्टी आफ इंडिया के प्रथम पंक्ति के मार्गदर्शकों में शुमार हुए मुझ पर बड़ा रॉब झाडा करते थे. एक तो बेटा ज़ात दूसरे उम्र में मुझसे बड़े.अम्माँ की नज़रों में उन्हें मुझपर दुहरी वरीयता प्राप्त थी. पढाते तो मुझे ख़ाक न थे लेकिन पढाने के नाम पर अपने ज्ञान का रोब ज़रूर डालते थे. एक बार मुझे नीचा दिखाने के लिए अचानक मेरी परीक्षा ले ली.
'अच्छा बताओ - भेड़ और भेडिया में क्या अन्तर है ?
डर के मारे मेरी जान निकल गई कि अब ग़लत जवाब देने पर अम्माँ से ज़रूर शिकायत होगी कि जी लगा कर पढ़ती भी नहीं है. अपनी समझ से मजाक में बात टालने के ख़याल से मैं ने कहा -
'भेडिया खाता है, भेड़ खाते हैं.'
उम्मीद के बिल्कुल विपरीत भइया बहुत खुश हुए और खूब ही खूब शाबाशी दी. शायद भइया को अपने स्कूल के मास्टरों पर रोब जमाने के लिए अच्छा सा वाक्य हाथ लग गया था.
होनी कुछ ऐसी हुई कि यही तीखे कंटीले भइया मेरे राजनीतिक गुरु भी बने. मार्क्स का कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो मैं ने पहली बार उन्हीं की पुस्तकों में से चुराकर पढ़ा और जब उसका एक-एक शब्द मन और मस्तिष्क में घर करने लगा तो मैं ने सच्चे अर्थों में भइया की वरीयता स्वीकार कर ली. यद्यपि इस वरीयता की बुनियाद न उनका लड़का ज़ात होना था न उम्र में मुझ से बड़ा होना. क्योंकि बड़कपन अक्ल से आता है न कि उम्र से. मज़े की बात यह है कि तब से लेकर आज तक मैं उनकी वरिष्टता, योग्यता और श्रेष्ठता को मानती चली आ रही हूँ.
उर्दूनामा से साभार रूपांतरित : परवेज़ फ़ातिमा

पसंदीदा शायरी / क़तील शिफ़ाई

तीन ग़ज़लें
[ १ ]
मंज़र समेट लाये हैं जो तेरे गाँव के
नींदे चुरा रहे हैं वो झोंके हवाओं के
तेरी गली से चाँद ज़ियादा हसीं नहीं
कहते सुने गए हैं मुसाफ़िर ख़लाओं के
पल भर को तेरी याद में धड़का था दिल मेरा
अब दूर तक भंवर से पड़े हैं सदाओं के
ज़ादे-सफर मिली है किसे राहे-शौक़ में
हमने मिटा दिए हैं निशाँ अपने पाँव के
जब तक न कोई आस थी ये प्यास भी न थी
बेचैन कर गये हमें साए घटाओं के
हमने लिया है जब भी किसी राह्ज़न का नाम
चेहरे उतर गये हैं कई रहनुमाओं के
उगलेगा आफताब कुछ ऐसी बला की धुप
रह जायेंगे ज़मीन पे कुछ दाग छाँव के
जिंदा थे जिन की सर्द हवाओं से हम 'क़तील'
अब ज़ेरे-आब हैं वो जज़ीरे वफ़ाओं के
[ 2 ]
राब्ता लाख सही काफिला-सालार के साथ
हम को चलना है मगर वक्त की रफ़्तार के साथ
ग़म लगे रहते हैं हर आन खुशी के पीछे
दुश्मनी धूप की है सायए-दीवार के साथ
किस तरह अपनी मुहब्बत की मैं तक्मील करूँ
गमे-हस्ती भी तो शामिल है गमे-यार के साथ
लफ्ज़ चुनता हूँ तो मफ़हूम बदल जाता है
इक-न-इक खौफ भी है जुरअते -इजहार के साथ
दुश्मनी मुझ से किए जा मगर अपना बनकर
जान ले ले मेरी सैयाद मगर प्यार के साथ
दो घड़ी आओ मिल आयें किसी गालिब से 'क़तील'
हजरते-'जौक' तो वाबस्ता हैं दरबार के साथ
[ 3 ]
रंग जुदा, आहंग जुदा, महकार जुदा
पहले से अब लगता है गुलज़ार जुदा
नग्मों की तख्लीक का मौसम बीत गया
टूटा साज़ तो हो गया तार से तार जुदा
बेज़ारी से अपना-अपना जाम लिये
बैठा है महफ़िल में हर मैख्वार जुदा
मिला था पहले दरवाज़े से दरवाज़ा
लेकिन अब दीवार से है दीवार जुदा
यारो मैं तो निकला हूँ जाँ बेचने को
तुम अब सोचो कोई कारोबार जुदा
सोचता है इक शायर भी, इक ताजिर भी
लेकिन सबकी सोच का है मेआर जुदा
क्या लेना इस गिरगिट जैसी दुनिया से
आए रंग नज़र जिसका हर बार जुदा
किस ने दिया है सदा किसी का साथ 'क़तील'
हो जाना है सबको आखिरकार जुदा
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रविवार, 15 जून 2008

किशवर नाहीद की दो ग़ज़लें

[ 1 ]
हसरत है तुझे सामने बैठे हुए देखूं
मैं तुझसे मुखातिब हो तेरा हाल भी पूछूँ
दिल में है मुलाक़ात की ख्वाहिश की दबी आग
मेंहदी लगे हाथों को छुपा कर कहाँ रक्खूँ
जिस नाम से तूने मुझे बचपन से पुकारा
इक उम्र गुजरने पे भी वो नाम न भूलूं
तू अश्क ही बन के मेरी आंखों में समा जा
मैं आइना देखूं तो तेरा अक्स भी देखूं
पूछूँ कभी गुन्चों से, सितारों से, हवा से
तुझसे ही मगर एक तेरा नम न पूछूँ
ऐ मेरी तमन्ना के सितारे तू कहाँ है
तू आये तो ये जसम शबे-गम को न सौंपूँ
[ 2 ]
कहानियाँ भी गयीं, किस्सा-ख्वानियाँ भी गयीं
वफ़ा के बाब की सब बेज़ुबानियाँ भी गयीं
वो बेज़याबिए-ग़म की सबील भी न रही
लुटा यूं दिल के सभी बेसबातियाँ भी गयीं
हवा चली तो हरे पत्ते सूख कर टूटे
वो सुब्ह आई तो हैराँनुमाइयां भी गयीं
ये मेरा चेहरा मुझे आईने में अपना लगे
इसी तलब में बदन की निशानियाँ भी गयीं
पलट-पलट के तुम्हें देखा पर मिले ही नहीं
वो अहदे-ज़ब्त भी टूटा, शिताबियाँ भी गयीं
मुझे तो आँख झपकना भी था गराँ लेकिन
दिलो-नज़र की तसव्वुर-शिआरियाँ भी गयीं
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शैलेश ज़ैदी के दोहे

गंगा में स्नान से जब धो आया सारे पाप
जज साहब ! फिर पापी को क्यों दंड सुनाते आप
ईश्वर ने कब किया आपको न्यायाधीश नियुक्त
उसके न्यायलय में होंगे आप भी कल अभियुक्त
निर्दोशी हैं दण्डित होते दोषी फिरें स्वतंत्र
न्यायालय में नित्य हुआ करते ऐसे षड़यंत्र
आरक्षण ने बदला जब कुछ दलितों का संसार
ठाकुर के भी बाप बन गये वह पाकर अधिकार
दहशतगर्दी धर्म है, या है धर्म ही दहशतगर्द
दोनों में मुखरित रहते हैं कुछ कुत्सित नामर्द
अमेरिका ने छेड़ दिया ईराक में जब संगीत
क़व्वाली पर मग्न हुए बुश के सहधर्मी मीत
वामपंथ से जिस दिन से जुड़ गए हैं घर के लोग
नित्य लगाते चाओमीन, बर्गर, पिज़्ज़ा का भोग
पहली है अभिशाप, दूसरी पत्नी है सम्मान
दो विवाह करना भारत में मार्क्सवाद की शान
बच्चे नित्य मदरसों में पढ़ते कुरआन मजीद
मुसलमान हैं फ़ाक़ा करते मुल्लाओं की ईद
सर पर टोपी मढ़कर, ताज़ा कर लिया दीन-ईमान
दौडे-भागे मस्जिद आये, सुन ली जब भी अज़ान
हज को गए थे सोंचके बख्शेगा अल्लाह गुनाह
वापस आकर फिर अपनाली, वही पुरानी राह
रामचंद्र जी का जन्मस्थल दशरथ का प्रासाद
और बाबरी मस्जिद बन गई, जन्मस्थली विवाद
राजपूत अब कथा बांचते, पंडित सेनाध्यक्ष
राजनीति ने जन्म दिया है कलजुग को, प्रत्यक्ष
होती है हर कृष्ण की राधा, मान लो ये सच भाई
अपनी राधा को खुश रक्खो, खाओ दूध मलाई
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पसंदीदा शायरी / अहमद फ़राज़

पाँच ग़ज़लें
[ 1 ]

आँख से दूर न हो दिल से उतर जायेगा
वक़्त का क्या है गुज़रता है गुज़र जायेगा
इतना मानूस न हो खिल्वते-गम से अपनी
तू कभी ख़ुद को भी देखेगा तो डर जायेगा
तुम सरे-राहे-वफ़ा देखते रह जाओगे
और वो बाम-रफाक़त से उतर जायेगा
ज़िंदगी तेरी अता है तो ये जाने वाला
तेरी बख्शीश तेरी दहलीज़ पे धर जायेगा
डूबते डूबते कश्ती को उछाला दे दूँ
मैं नहीं, कोई तो साहिल पे उतर जायेगा
ज़ब्त लाजिम है मगर दुःख है क़यामत का 'फ़राज़'
जालिम अबके भी न रोयेगा तो मर जायेगा
[ 2 ]
खामोश हो क्यों दादे-जफ़ा क्यों नहीं देते
बिस्मिल हो, तो कातिल को दुआ क्यों नहीं देते
वहशत का सबब रौज़ने-जिनदाँ तो नहीं है
महरो-महो-अंजुम को बुझा क्यों नहीं देते
इक ये भी तो अंदाज़े-इलाजे-गमे-जाँ है
ऐ चारागरो दर्द बढ़ा क्यों नहीं देते
मुंसिफ हो अगर तुम तो कब इन्साफ करोगे
मुजरिम हैं अगर हम तो सज़ा क्यों नहीं देते
रह्ज़न हो तो हाजिर है मताए-दिलो-जाँ भी
रहबर हो तो मंजिल का पता क्यों नहीं देते
क्या बीत गई अबके 'फ़राज़' अहले-चमन पर
याराने-क़फ़स मुझको सदा क्यों नहीं देते
[ 3 ]
इस से पहले के बे-वफ़ा हो जाएं
क्यों न ऐ दोस्त हम जुदा हो जाएं
तू भी हीरे से बन गया पत्थर
हम भी कल जाने क्या से क्या हो जाएं
इश्क़ भी खेल है नसीबों का
ख़ाक हो जाएं कीमिया हो जाएं
अबके गर तू मिले तो हम तुझ से
ऐसे लिप्तें तेरी क़बा हो जाएं
बंदगी हमने छोड़ दी है 'फ़राज़'
क्या करें लोग जब खुदा हो जाएं
[ 4 ]
अबके हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें
ढूंढ उजड़े हुए लोगों में वफ़ा के मोती
ये खजाने तुझे मुमकिन है खराबों में मिलें
तू खुदा है न मेरा इश्क़ फरिश्तों जैसा
दोनों इन्साँ हैं तो क्यों इतने हिजाबों में मिलें
आज हम दार पे खैंचे गए जिन बातों पर
क्या अजब कल वो ज़माने को निसाबों में मिलें
अब न वो मैं हूँ न तू है न वो माजी है 'फ़राज़'
जैसे दो शख्स तमन्ना के सराबों में मिलें
[ 5 ]
बदन में आग सी चेहरा गुलाब जैसा है
के ज़हरे-गम का नशा भी शराब जैसा है
कहाँ वो कुर्ब के अब तो ये हाल है जैसे
तेरे फिराक का आलम भी ख्वाब जैसा है
इसे कभी कोई देखे कोई पढे तो सही
दिल आइना है तो चेहरा किताब जैसा है
'फ़राज़' संगे-मलामत से ज़ख्म-ज़ख्म सही
हमें अज़ीज़ है, खानाखाराब, जैसा है.
****************

शनिवार, 14 जून 2008

प्रगतिशील लेखक आन्दोलन : जड़ों की पहचान / प्रो. शैलेश ज़ैदी

प्रकाशकीय टिप्पणी

प्रस्तुत आलेख 1984 में प्रो. विश्वम्भर नाथ उपाध्याय के विशेष आग्रह पर प्रगतिशील लेखक संघ के लाखनऊ अधिवेशन के लिए लिखा गया था. बाद में इसे प्रो. उपाध्याय ने मधु माधवी में भी प्रकाशित किया था. इसके महत्त्व और इसकी उपादेयता को देखते हुए पोस्ट किया जा रहा है [प.फ़ा.]
पृष्ठभूमि
1917 की रूसी क्रांति और उस क्रांति की सफलता भारतीय जनमानस को साम्यवाद और जन सरकार का स्वप्न देखने के लिए प्रेरित करने लगी थी. इस प्रेरणा के लिए यहाँ के राजनीतिक वातावरण में एक चिंगारी और कुछ-कुछ सुलगती आग पहले से मौजूद थी.1908 में तिलक की गिरफ्तारी के बाद मुम्बई की सूती मिलों के मजदूरों ने ऐसी शानदार हड़ताल की थी कि लेनिन ने उसका स्वागत करते हुए कहा था - "यह हड़ताल इस तथ्य का संकेत करती है कि भविष्य के इतिहास में सर्वहारा वर्ग की कितनी बड़ी भूमिका होगी" और हुआ भी ऐसा ही. 1911-12 तक अकेले बंगाल के न्यायलय में दर्ज राजनीतिक मुक़दमों की संख्या पांच सौ से ऊपर थी. इसमें मजदूर वर्ग की भूमिका किसी से कम नहीं थी. फिर 1918 में विश्व युद्ध के समाप्त होते ही जहाँ एक ओर महात्मा गाँधी वाइसराय को बधाई की चिट्ठी भेज रहे थे, वहीं दिसम्बर 1918 तक सम्पूर्ण देश मजदूर हड़ताल की लपेट में आ चुका था. जनवरी 1919 की हड़ताल में सवा लाख मज़दूर शरीक हुए और 1920 ई० के पूर्वार्ध में दो सौ हड़तालें हुईं जिनमें पन्द्रह लाख मज़दूरों ने भाग लिया.
यह स्थिति केवल सूत मिलों में काम करने वाले मज़दूरों की ही नहीं थी.यह स्थिति उनकी भी थी जो साहित्य की मिलों में वैचारिकता के सूत से रचनाओं के वस्त्र बुन रहे थे और उन वस्त्रों में जनता की रूचि और देश की आवश्यकताओं के अनुरूप डिज़ाइन डालना चाहते थे. ऐसे डिज़ाइन जिनमें आम इन्सान की ज़िंदगी मुखर हो उठे. यह कहने की आवश्यकता नहीं कि रूसी क्रांति ने इक़बाल को झंझोड़ा, प्रेमचंद को उकसाया और हसरत मोहानी को आंदोलित किया. इकबाल ने एक क्रांतिकारी स्वर अख्तियार करते हुए सम्पूर्ण देश के मजदूरों को एक जुट होने की प्रेरणा दी. प्रेमचंद ने बाल्शेविक सिद्धांतों के पक्षधर होने की घोषणा की. हसरत मोहानी ने कम्युनिस्ट विचारों का न केवल स्वागत किया बल्कि उसकी सभाओं की अध्यक्षता भी की और कम्युनिस्ट कहलाने में गर्व महसूस किया.
महात्मा गांधी ने पूर्ण स्वाधीनता की दिशा में किए जाने वाले संघर्ष को कलकत्ता कांग्रेस अधिवेशन में जब एक वर्ष के लिए मुल्तवी कर दिया तो एक खल्भली मच गई. मजदूरों और किसानों ने कांग्रेस के निर्णय के विरुद्ध ज़बरदस्त प्रदर्शन किए.स्वतंत्र साम्यवादी प्रजातांत्रिक भारत के नारे लगाए और दो घंटे तक कांग्रेस के पंडाल को अपने अधिकार में लिये रहे. अंत में नरम दल को उनकी मांग पर विचार करना पड़ा और इसका फल यह निकला कि 1929 ई0 के लाहौर अधिवेशन में पूर्ण आज़ादी का प्रस्ताव पास किया गया. ध्यान देने की बात यह है कि पूर्ण आज़ादी का ऐसा ही एक प्रस्ताव कभी एक लेखक और रचनाकार हसरत मोहानी ने भी रखा था जो अनुकूल वातावरण न होने के कारण उस समय हास्यास्पद समझा गया था और बकौल प्रेमचंद "वे अपने गुरु (तिलक) से भी चार क़दम और आगे बढ़ गए और उस समय पूर्ण आज़ादी का डंका बजाया जब कांग्रेस का गर्म-से-गर्म नेता भी पूर्ण स्वराज का नाम लेते काँपता था." सच तो यह है कि भारत के उर्दू लेखकों में इंक़लाब, बगावत और साम्यवाद की जो चेतना सिर उभार रही थी, हिन्दी लेखाकों में उसका लगभग अभाव था.
इसका एक कारण यह था कि खिलाफत आन्दोलन जिन दिनों उत्कर्ष पर था, खिलाफत कमेटी की एक बैठक में निर्णय लिया गया कि अपना प्रतिरोध प्रदर्शित करने की नीयत से मुसलमान बड़ी संख्या में भारत छोड़कर तुर्की, अफगानिस्तान, ताशकंद आदि देशों में चले जायें. फलस्वरूप बहुत से लोगों ने प्रवासी के रूप में रूस की सर्हदों के निकट शरण ली. इसमें से अनेक लोग साम्यवाद से प्रभावित हुए और उन्होंने इस हथियार का प्रयोग भारत की अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध करना ज़रूरी समझा. इन लोगों ने भारत लौटकर गुप्त रूप से साम्यवाद का प्रचार करना प्रारम्भ कर दिया. अनेक लोग पकड़े गए और उनके विरुद्ध कम्युनिस्ट बगावत का सबसे पहला मुक़दमा रावलपिंडी में चला. आगे चलकर 1923 में कुछ नवयुवकों को कम्युनिस्ट होने के जुर्म में गिरफ्तार किया गया और कानपुर में मुक़दमा चलाकर उन्हें कड़े दंड दिए गए. कुछ अन्य समाजवादी विचारधारा के लोग मजदूरों के दल में इस प्रकार घुल-मिल गए कि उनका पहचानना कठिन हो गया. इस प्रकार कानून से सुरक्षित रहकर वे अपने विचारों को जनता के बीच फैलाने में सफल हुए.(प्रगतिशील लेखक संघ के प्रमुख पत्र 'नया अदब', जन-मार्च 1940, में प्रकाशित प्रो. एजाज़ हुसैन का आलेख ).
साम्यवाद का प्रभाव तेज़ी से बढ़ता रहा. किंतु इसमें तीव्रता उस समय आई जब पंडित जवाहर लाल नेहरू रूस के हालात और समाजवादी विचारों का अध्ययन करके भारत लौटे. उन्होंने जिस वैज्ञानिक समाजवाद की आवश्यकता पर बल दिया उसकी ओर प्रगतिशील बुद्धिजीवी वर्ग विशेष रूप से आकृष्ट हुआ. हिंदू महासभा और हिंदू सोशल लीग ने पंडित जी के समाजवादी विचारों का कड़ा विरोध किया, फिर भी कांग्रेस के भीतर सोशलिस्ट विचारधारा पनपती रही और 1935 ई0 में कांग्रेस के नेतृत्व में ही एक दल ' कांग्रेस सोशलिस्ट' के नाम से बना. फिर 1936 के प्रारम्भ में कांग्रेस के ही संरक्षण में विद्यार्थियों के संगठन 'स्टूडेंट्स फेडरेशन' की स्थापना हुई जिसके पहले सभापति मुहम्मद अली जिन्ना निर्वाचित हुए. यह संगठन अपने जन्मकाल से ही साम्यवादी दृष्टिकोण के प्रति आस्थावान था.
जहाँ राजनीतिक चिंतन क्षेत्र में तेज़ी के साथ समाजवादी विचारधारा अपना स्थान बना रही थी वहीं साहित्य के क्षितिज पर ऐसे-ऐसे रंग स्पष्ट रूप से उभरने लगे थे जो प्रेमचंद के इस कथन की पुष्टि कर रहे थे कि ‘साहित्य राजनीति के आगे-आगे चलने वाली मशाल है.’ 1932 में कुछ नए युवक साहित्यकारों ने अपनी कहानियो का संग्रह 'अंगारे' प्रकाशित किया. फिर क्या था, इन्क़लाबी और प्रतिरोधी विचारों का एक तूफ़ान फट पड़ा. संग्रह ज़ब्त कर लिया गया और उसके लेखकों अर्थात सज्जाद ज़हीर, अहमद अली, रशीद जहाँ और महमूदुज्ज़फर में अभिव्यक्ति के नए माध्यमों को पा लेने की बेचैनी और बढ़ गई. इकबाल, हसरत मोहानी और मुहम्मद अली जौहर की काव्य रचनाओं की गूँज फ़िज़ा में पहले से मौजूद थी -'उटठो मेरी दुनिया के ग़रीबों को जगा दो', 'कब डूबेगा सरमाया-परस्ती का सफ़ीना,' 'जिसमें न हो इंक़लाब मौत है वो ज़िंदगी,' 'जिसको तू ज़ेवर समझता है वही ज़ंजीर है,' 'दहका हुआ है आतिशे-गुल से चमन तमाम.' 'अंगारे' ने इस गूँज को अपने ढंग से नए शब्द दिए, यह और बात है कि इन शब्दों में अपरिपक्वता थी, जवानी का उबाल था और सरकशी के तेवर थे.
हिंदी में स्थिति इसके सर्वथा विपरीत थी. दिनकर, राम नरेश त्रिपाठी, निराला, प्रसाद, पन्त सभी नर्म दलीय नीति अपनाए हुए थे. हाँ प्रेमचंद की प्रगतिशील चेतना इस स्थिति को देख कर भीतर ही भीतर छटपटा रही थी. 27 फरवरी 1936 को उन्होंने उर्दू के प्रसिद्ध प्रगतिशील लेखक अख्तर हुसैन रायपूरी को लिखा था "अगर बच गया तो ‘बीसवीं सदी’ नाम का रिसाला अपने लोगों के ख़यालात की इशाअत के लिए ज़रूर निकालूँगा. हंस जिस लिटरेचर की इशाअत कर रहा था वह हमारा लिटरेचर नहीं है, वह तो भक्ति वाला महाजनी लिटरेचर है जो हिन्दी ज़बान में काफ़ी है," यही बात आगे चलकर सार रूप में अगस्त 1936 में आनंद राव को लिखी गई "अगर अच्छा हो गया तो यहाँ से अपना एक नया पत्र प्रागतिक लेखक संघ की विचारधारा के अनुसार निकालूँगा," रायपूरी वाली चिट्ठी में 'अपने लोगों' और 'हमारा लिटरेचर' जैसे शब्दों का भावार्थ राव वाली चिट्ठी से स्पष्ट हो जाता है,
अख्तर हुसैन रायपूरी 1935 में प्रकाशित 'साहित्य और ज़िंदगी' शीर्षक अपने लेख से प्रगतिशील लेखकों के बीच काफी चर्चा में आ चुके थे. उन्होंने इस आलेख में समयुगीन लेखकों को ज़बरदस्त चुनौती देते हुए लिखा था "क्या तुम लेखक बनने की इच्छा रखते हो ? तो अपने देश के दुखों और पीड़ाओं की कथा पर दृष्टि डालो और इसके बाद यदि तुम्हारा दिल खून नहीं हो जाता तो अपने कलम को फ़ेंक दो. उस कलम की उपयोगिता केवल यह है कि तुम्हारे चेतना-शून्य हृदय की अपवित्रता को उद्घाटित करता रहे."
प्रेमचंद हिन्दी के एक मात्र ऐसे लेखक थे जो प्रगतिशील विचारधारा के साथ एकस्वर थे. कुछ लोग इस सन्दर्भ में निराला का नाम भी लेते हैं. किंतु जहाँ निराला ‘भिक्षु’ शीर्षक कविता में एक संक्रमणशील प्रभाव का संकेत करते हैं वहीं बकौल शिवदान सिंह चौहान 'अन्य अनेक रचनाओं में पुनरुत्थानवादी दृष्टिकोण की वकालत करते हुए मध्ययुगीन हिन्दुओं की अकर्मण्यता, विश्वासघात और पुन्सत्वहीनता पर विलाप करते हैं.' कदाचित यही सब देख कर प्रेमचंद ने 18 मार्च 1936 को बनारसी दास चतुर्वेदी को लिखा था "उर्दू वालों की साहित्यिक रूचि और अंतर्दृष्टि ज़्यादा अच्छी है. वे मूल्यांकन करना जानते हैं. उनके यहाँ कविता में वही संघर्ष मिलता है जो हमें जीवन में मिलता है. हिन्दी कविता अब भी व्यक्तिवादी और निरी भावुकतापूर्ण होती है. उसमें ज़िंदगी की हरकत नहीं है. वह ज़िंदगी को उजागर नहीं करती. वह बस हताश निराश बना देती है. मैं समझ नहीं पाता कि क्यों हमारे सब कवि निराशा के दर्शन में इस तरह अभिभूत हैं. उर्दू कवि दार्शनिक है, यथार्थवादी है और आशावादी है. आधे दर्जन कवि हथौड़ा मार-मार कर मुस्लिम जाति को समता और भ्रातृत्व और जनतंत्र के नए आदर्शों में ढाल रहे हैं. मुस्लिम कवि कम्युनिस्ट होता है, यहाँ तक कि इकबाल भी."
एक बात निश्चित है कि उर्दू के सारे कवि भले ही कम्युनिस्ट न होते हों, किंतु युवा पीढ़ी के वे सिरफिरे लेखक निश्चित रूप से कम्युनिस्ट थे जो 1935 में लन्दन के 'नॉनकिंग रेस्तरां' में बैठे हुए एक प्रगतिशील संगठन की बुनियाद रखने के लिए उसका घोषणापत्र तैयार कर रहे थे. इन युवा लेखकों के नाम थे - सज्जाद ज़हीर, मुल्कराज आनंद, ज्योति घोष, प्रमोद्सेन गुप्ता और मुहम्मद दीन तासीर और संगठन का नाम पड़ा -" इंडियन प्रोग्रेसिव राईटर्स एसोसिएशन." सज्जाद ज़हीर ने संगठन के अस्तित्व में आने के पूर्व की अपनी जिस मनःस्थिति का विवरण अपनी पुस्तक "यादें" में दिया है, उसका कुछ अंश देखने योग्य है –
"हमको लंदन और पेरिस में जर्मनी से भागे, निकाले हुए मुसीबत के मारे लोग रोज़ मिलते थे. फ़ासिज़्म के अत्याचार की दर्द भरी कहानियाँ हर तरफ़ सुनाई पड़तीं. जर्मनी में स्वाधीनता प्रेमियों और कम्युनिस्टों को पूंजीवादियों के गुंडे तरह-तरह की शारीरिक यातनाएं पहुँचा रहे थे. वह भयानक तस्वीरें जिनमें जनता के प्रिय नेताओं की पीठ और कूल्हे कोड़ों के निशान से काले पड़े हुए दिखाई देते, वह दहशतनाक घटनाएं जो समय-समय पर अखबारों में छपतीं, उन सबने हमारे दिलो-दिमाग़ की आतंरिक शांति और संतोष को मिटा दिया था" फलस्वरूप -"हम धीरे-धीरे समाजवाद की ओर झुकते जा रहे थे. मार्क्स और दूसरे साम्यवादी लेखकों की पुस्तकें हमने बड़े ध्यान से पढ़ना शुरू कीं. जैसे-जैसे हम अपने अध्ययन को बढ़ाते, हमारे दिमाग़ रौशन होते और हमारे मन को शांति मिलती."
संगठन के बनते ही उसकी पाक्षिक गोष्ठियाँ होने लगीं. एक गोष्ठी में डॉ. सुनीति कुमार चेटरजी ने भी भाग लिया. ज्योति घोष ने नज़रुल इस्लाम की इन्क़लाबी कविता पर लेख पढ़ा. मुल्कराज आनंद की कहानी 'द ट्रोवर्स्ट ' और सज्जाद ज़हीर का नाटक 'बीमार' इन्हीं दिनों लिखा गया. अभी कुछ ही दिन बीते थे कि जुलाई 1935 में 'वर्ल्ड कांग्रेस ऑफ़ द राइटर्स फार द डिफेन्स ऑफ़ कल्चर' के नाम से हेनरी बार्बस में मैक्सिम गोर्की, रोमें रोलां, टामस मान इत्यादि ने विश्व के साहित्यकारों की एक कांग्रेस पेरिस में बुलाई. इस अवसर पर साहित्यकारों के नाम जो अपील प्रकाशित कराई गई उसका एक उद्धरण यहाँ देना अनुपयुक्त न होगा –
"लेखक मित्रो ! हमारा क़लम, हमारी कला, हमारा ज्ञान उन शक्तियों के विरुद्ध रुकने न पाये जो मौत को निमंत्रण देती हैं, जो मानवता का गला घोटती हैं, जो रूपये के बल पर शासन करती हैं, और अंत में फ़ासिज़्म के विभिन्न रूप धारकर सामने आती हैं और अबोध जनता का खून चूसती हैं"
लंदन के भारतीय युवा लेखक वैचारिक स्तर पर इस कांग्रेस से बहुत निकट से जुड़े हुए थे. सज्जाद ज़हीर, राल्फ फाक्स और लुई आर्गावां जैसे साहित्यकारों के सम्पर्क से बहुत कुछ सीख रहे थे. प्रगतिशील लेखक संघ के घोषणा-पत्र में आर्गावां जैसे प्रतिष्ठित साहित्यकार के भी सुझाव सम्मिलित थे. फलस्वरूप इस घोषणा-पत्र की प्रतियाँ अनेक प्रगतिशील मित्रों को मुल्कराज आनंद, सज्जाद ज़हीर, के.एस. भट्ट, ज्योति घोष, एस. सिन्हा तथा एम्.डी. तासीर के साथ भारत भेजी गयीं. प्रेमचंद ने इस मेनिफेस्टो को 'हंस' के जनवरी 1936 अंक में प्रकाशित किया.
भारत में प्रगतिशील लेखक संगठन की स्थापना
1935 के अंत तक लंदन से अपनी शिक्षा समाप्त करके सज्जाद ज़हीर भारत लौटे. यहाँ आने से पूर्व वे अलीगढ़ में डॉ. अशरफ, इलाहबाद में अहमद अली, मुम्बई में कन्हैया लाल मुंशी, बनारस में प्रेमचंद, कलकत्ता में प्रो. हीरन मुखर्जी और अमृतसर में रशीद जहाँ को मेनिफेस्टो की प्रतियाँ भेज चुके थे. इलाहबाद पहुँचने से पहले उन्होंने कन्हैयालाल मुंशी से इस विषय पर बात करना ज़रूरी समझा. किंतु थोडी देर की ही बात-चीत में सज्जाद ज़हीर किस निर्णय पर पहुंचे स्वयं उन्हीं से सुनिए -
"हमें यह स्पष्ट हो गया कि कन्हैयालाल मुंशी का और हमारा दृष्टिकोण मूलतः भिन्न था. हम प्राचीन दौर के अंधविश्वासों और धार्मिक साम्प्रदायिकता के ज़हरीले प्रभाव को समाप्त करना चाहते थे. इसलिए, कि वे साम्राज्यवाद और जागीरदारी की सैद्धांतिक बुनियादें हैं. हम अपने अतीत की गौरवपूर्ण संस्कृति से उसका मानव प्रेम, उसकी यथार्थ प्रियता और उसका सौन्दर्य तत्व लेने के पक्ष में थे. जबकि कन्हैयालाल मुंशी सोमनाथ के खंडहरों को दुबारा खड़ा करने की कोशिश में थे."
इलाहाबाद पहुंचकर सज्जाद ज़हीर अहमद अली से मिले जो विश्वविद्यालय में अंग्रेज़ी के प्रवक्ता थे. अहमद अली ने उन्हें प्रो.एजाज़ हुसैन, रघुपति सहाय फिराक, एहतिशाम हुसैन तथा विकार अजीम से मिलवाया. सबने सज्जाद ज़हीर का ज़बरदस्त समर्थन किया. शिवदान सिंह चौहान और नरेन्द्र शर्मा ने भी सहयोग का आश्वासन दिया. प्रो. ताराचंद और अमरनाथ झा से स्नेहपूर्ण प्रोत्साहन मिला. सौभाग्य से जनवरी 1936 में 12-14 को हिन्दुस्तानी एकेडमी का वार्षिक अधिवेशन हुआ. अनेक साहित्यकार यहाँ एकत्र हुए - सच्चिदानंद सिन्हा, डॉ. अब्दुल हक़, गंगा नाथ झा, जोश मलीहाबादी, प्रेमचंद, रशीद जहाँ, अब्दुस्सत्तार सिद्दीकी इत्यादि.
सज्जाद ज़हीर ने प्रेमचंद के साथ कुछ लोगों को अपने घर चाय पर आमंत्रित किया और प्रगतिशील संगठन के मेनिफेस्टो पर खुलकर बात-चीत की. सभी ने मेनिफेस्टो पर हस्ताक्षर कर दिए. फिर क्या था, अहमद अली के घर को लेखक संगठन का कार्यालय बना दिया गया. पत्र-व्यव्हार की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई. सज्जाद ज़हीर पंजाब के दौरे पर निकल पड़े. इस बीच अलीगढ में सज्जाद ज़हीर के मित्रों -डॉ. अशरफ, अली सरदार जाफरी, डॉ. अब्दुल अलीम, जाँनिसार अख्तर आदि ने स्थानीय प्रगतिशील लेखकों का एक जलसा ख्वाजा मंज़ूर अहमद के मकान पर फरवरी 1936 में कर डाला. अलीगढ में उन दिनों साम्यवाद का बेहद ज़ोर था. वहां की अंजुमन के लगभग सभी सदस्य साम्यवादी थे और पार्टी के सक्रीय सदस्य भी.
प्रथम अखिल भारतीय अधिवेशन : लखनऊ 1936
देखते-देखते सम्पूर्ण देश में प्रगतिशील लेखक संगठन की शाखाएँ फैलने लगीं. किंतु संगठन के प्रति हिन्दी लेखकों के उत्साह में कोई गर्मी नहीं आई. 9-10 अप्रैल 1936 को प्रेमचंद की अध्यक्षता में होने वाले लखनऊ अधिवेशन में हिन्दी लेखकों की कोई भूमिका नहीं थी. वे एक तटस्थ दर्शक मात्र थे. वह भी सभा में शामिल होकर नहीं, केवल घर बैठे-बैठे. राम विलास शर्मा और निराला दोनों ही उस समय लखनऊ में थे. किंतु सम्मेलन में कोई शरीक नहीं हुआ. प्रेमचंद जैनेन्द्र को अपने साथ खींच ज़रूर ले गए. किंतु जैनेन्द्र की सोंच संगठन की सोंच से मेल नहीं खाती थी. सज्जाद ज़हीर ने अपनी पुस्तक रोशनाई में जैनेन्द्र पर जो टिप्पणी की है वह देखने योग्य है. हाँ प्रेमचंद का अध्यक्षीय भाषण जो उर्दू में लिखा और पढ़ा गया था आगे चलकर जब हिन्दी में रूपांतरित हुआ तो हिन्दी लेखकों की प्रेरणा का स्रोत अवश्य बन गया. लखनऊ अधिवेशन में कई आलेख पढ़े गए जिनमें अहमद अली, रघुपति सहाय, मह्मूदुज्ज़फर और हीरन मुखर्जी के नाम उल्लेख्य हैं. गुजरात, महाराष्ट्र और मद्रास के प्रतिनिधियों ने केवल भाषण दिए. प्रेमचंद के बाद सबसे महत्वपूर्ण वक्तव्य हसरत मोहानी का था.
हसरत ने खुले शब्दों में साम्यवाद की वकालत करते हुए कहा " हमारे साहित्य को स्वाधीनता आन्दोलन की सशक्त अभ्व्यक्ति करनी चाहिए और साम्राज्यवादी, अत्याचारी तथा आक्रामक पूंजीपतियों का विरोध करना चाहिए. उसे मजदूरों, किसानों और सम्पूर्ण पीड़ित जनता का पक्षधर होना चाहिए. उसमें जन सामान्य के दुःख-सुख, उनकी इच्छाओं-आकांक्षाओं को इस प्रकार व्यक्त करना चाहिए कि इससे उनकी इन्क़लाबी शक्तियों को बल मिले और वह एकजुट और संगठित होकर अपने संघर्ष को सफल बना सकें. केवल प्रगतिशीलता पर्याप्त नहीं है. नए साहित्य को समाजवाद और कम्युनिज्म का भी प्रचार करना चाहिए."
अधिवेशन के दूसरे दिन संध्या की गोष्ठी में जय प्रकाश नारायण, यूसुफ मेहर अली, इन्दुलाल याज्ञिक, कमलादेवी चट्टोपाध्याय आदि भी सम्मिलित हो गए थे. इस अवसर पर संगठन का एक संविधान भी स्वीकार किया गया और सज्जाद ज़हीर को संगठन का प्रधान मंत्री निर्वाचित किया गया.
विरोध के स्वर और संगठन का विस्तार
ब्रिटिश सरकार ने लखनऊ अधिवेशन में पारित प्रस्तावों को राजनीतिक ठहराया और लेखक संगठन के संकल्पों में खतरे की गंध महसूस की. कलकत्ता के अंग्रेज़ी अखबार ‘स्टेट्समैन’ ने संगठन के विरुद्ध जी भर कर ज़हर उगला. हिन्दी के लेखक वैसे भी किसी जोखिम में पड़ने से बचते थे. सरकार का कड़ा रुख देखकर और भी सतर्क हो गए. खतरों से दूर रहते हुए, उपलब्धियों में यदि भागीदारी मिल जाय, तो इससे अच्छा क्या हो सकता है. स्थिति यह हो गई थी कि संगठन की छोटी-छोटी गोष्ठियों में भी खुफिया पुलिस के एजेंट जहाँ-तहाँ दिखाई दे जाते थे. प्रचार यह किया जा रहा था कि इस आन्दोलन के पीछे 'कम्युनिस्ट इंटरनेशनल' का हाथ है जो कुछ भारतीय कम्युनिस्ट छात्रों के माध्यम से यहाँ के बुद्धिजीवियों में अपना जाल बिछाना चाहता है. इन बातों का प्रभाव इस हद तक पड़ा कि इलाहाबाद की गोष्ठियाँ, जो अमरनाथ झा के पुस्तकालय में होती थीं, उनके संकेत पर वहां होना बंद हो गयीं. इतना ही नहीं, सज्जाद ज़हीर को अख़बार में यह भी बयान देना पड़ा कि संगठन के मेनिफेस्टो पर हस्ताक्षर करने वालों में अमरनाथ झा का नाम भूल से छप गया है. फिर भी जो लोग संगठन के लिए पूर्णतः प्रतिबद्ध थे, वे निरंतर सक्रिय रहे.
दिल्ली में संगठन की एक शाखा कायम हुई जिसके मंत्री अख्तर हुसैन रायपूरी घोषित किए गए. ’साकी’ के सम्पादक शाहिद अहमद ने 'शाहजहाँ' पत्रिका को संगठन की मुख्य आवाज़ बना दिया. दिल्ली शाखा ने 6 अगस्त 1936 को गोर्की दिवस मनाया जिसमें डॉ. आबिद हुसैन, रामचंद्र वर्मा, अंसार नासिरी, लक्ष्मीचंद्र जैन, मुमताज़ हुसैन और शाहिद अहमद आदि ने भाग लिया. दिल्ली शाखा में पढ़े जाने वाले लेखों को पुस्तक रूप में भी प्रकाशित किया गया.
कानपुर शाखा की गोष्ठियाँ हसरत मोहानी की अध्यक्षता में निरंतर चलती रहीं. लाहौर में सूफी तबस्सुम, फैज़ अहमद फैज़ तथा प्रो. सोमनाथ क्रमशः मंत्री बने. पटना में प्रेमचंद के प्रभाव से जो शाखा अस्तित्व में आई उसके अध्यक्ष रामवृक्ष बेनीपुरी बनाये गए. 1 दिसम्बर 1936 की प्रथम गोष्ठी में रघुवंश नारायण सिंह ने 'हिन्दी साहित्य की ज़रूरतें' शीर्षक लेख पढ़ा. संगठन के मंच से हिन्दी में पढ़ा जाने वाला यह पहला लेख था. कलकत्ता और आसाम में भी संगठन की अनेक शाखाएं बनीं. कलकत्ता के लोकप्रिय अख़बार ‘आनंद बाज़ार पत्रिका’ में गोष्ठियों में दिये गए वक्तव्य मुख-पृष्ठ पर छपते थे. इस पत्र के संपादक सत्येन्द्रनाथ प्रगतिशील संगठन के सक्रिय सदस्य थे. लाहौर संगठन ने 1 नवम्बर 1936 को प्रेमचंद दिवस का आयोजन किया. इस अवसर पर आगा अब्दुलहमीद और इन्द्र नाथ मदान ने प्रेमचंद के साहित्यिक योगदान पर अपने आलेख पढ़े. अंत में रशीद जहाँ ने प्रेमचंद के विशाल अद्भुत व्यक्तित्व पर प्रकाश डाला. फरवरी 1937 तक लायलपूर और मुल्तान में भी संगठन की शाखाएँ स्थापित हो चुकी थीं.
वस्तुस्थिति यह थी कि जहाँ एक ओर प्रगतिशील लेखक संगठन की गतिविधियाँ ज़ोर पकड़ रही थीं वहीं दूसरी ओर चूँकि कम्युनिस्ट पार्टी पर पाबन्दी लगाई जा चुकी थी और प्रगतिशील लेखक संगठन साम्राज्य विरोधी माना जाने लगा था, अनेक ऐसे छात्र जो सरकारी मुक़ाबलों की परीक्षा में बैठ रहे थे, दूरदर्शिता से काम लेते हुए, संगठन की हवा के स्पर्श से भी बचने लगे. कुछ ऐसे लोग भी थे जो गोष्ठियों में तो आते थे, पर सदस्य बनना स्वीकार नहीं करते थे. दबे-दबे स्वर में यह आवाज़ उठाई जाती थी कि प्रगतिशील संगठन एक साहित्यिक संस्था है, इसे राजनीति से अलग रहना चाहिए. यह रुझान अधिकतर हिन्दी लेखकों का था. वैसे भी बकौल रामबिलास शर्मा "स्वाधीनता आन्दोलन के काल में जनता के जागरण में जो साहित्य की भूमिका है उसके प्रति हिन्दी में बहुत कुछ उपेक्षा का भाव रहा है," प्रेमचंद ने इस स्थिति को कुछ दूसरे ढंग से देखा था. उन्होंने 10 मई 1936 के पत्र में सज्जाद ज़हीर को लिखा था "हिन्दी वाले हीन-ग्रंथियों से मजबूर हैं. मगर उनका कहीं ऐसा विचार तो नहीं है कि यह आन्दोलन उर्दू वालों ने उन्हें फंसाने के लिए चलाया है. अभी तक उनकी समझ में इसका मतलब ही नहीं आया है."
प्रेमचंद यह 'मतलब' बार-बार समझाने का प्रयास करते रहे और उन्होंने हिन्दी लेखकों की संस्था 'हिन्दी लेखक संघ' के सदस्यों का ध्यान भी प्रगतिशील लेखक संगठन के उद्देश्यों की ओर खींचना चाहा, किंतु उन्हें कोई सफलता नहीं मिली. उर्दू लेखक जिस प्रकार पी. डब्ल्यू.ए. के बैनर के नीचे देश भर में अपने संगठन चला रहे थे, हिन्दी लेखक इस नाम से कतराने में ही अपनी भलाई देख रहे थे. प्रगतिवाद के सैद्धांतिक पक्ष पर उनमें बहसें ज़रूर होती थीं, किंतु कार्य-क्षेत्र में उतर पाना उनके लिए सम्भव नहीं था. दूसरी ओर सज्जाद ज़हीर और उनके सहयोगियों को जिद थी कि जबतक उर्दू-हिन्दी लेखक एकजुट होकर काम नहीं करेंगे इस आन्दोलन को अपेक्षित सफलता नहीं मिल सकेगी. उनका विश्वास था कि जिस आन्दोलन को प्रेमचंद, डॉ. अब्दुल हक, हसरत मोहानी, सरोजिनी नाइडू, जोश मलीहाबादी, आचार्य नरेन्द्र देव, हीरन मुखर्जी, डॉ. आबिद हुसैन जैसी जानी-मानी विभूतियों की सहानुभूति प्राप्त हो वह कभी शिथिल नहीं पड़ सकता.
उल्लेख्य बात यह थी कि प्रगतिशील लेखक संगठन के अधिकतर सक्रिय सदस्य कम्युनिस्ट पार्टी, कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी, स्टूडेंट्स फेडरेशन, किसान सभा और मजदूर यूनियन में से किसी-न-किसी के सदस्य अवश्य थे. इसी बुनियाद पर संगठन के विरोधियों को जवाब देते हुए सज्जाद ज़हीर ने कहा था -"संगठन का मूल उद्देश्य प्रगतिशील साहित्य का सर्जन और प्रचार है न कि राजनीतिक अमल. किंतु इसका यह अर्थ नहीं कि प्रतिक्रियावादी शासकों की धमकियों और सख्तियों से डरकर प्रगतिशील साहित्यकार और उनका संगठन अपना स्वतंत्र राजनीतिक दृष्टिकोण रखना और उसे व्यक्त करना छोड़ दे या संगठन के ऐसे सदस्य जो राजनीतिक पार्टियों के कार्यकर्ता हैं और साहित्यकार होने के अतिरिक्त उनकी एक अन्य राजनीतिक हैसियत भी है, संगठन से अलग हो जाँय?
अमृतसर अधिवेशन
1937 की गर्मियों के प्रारम्भ में 'पंजाब किसान सभा' का वार्षिक जलसा अमृतसर के जलियाँ वाला बाग़ में हुआ. वहाँ सज्जाद ज़हीर और डॉ. अशरफ को भी आमंत्रित किया गया. अवसर का लाभ उठाकर प्रगतिशील लेखकों ने भी अपना एक सम्मेलन कर डाला. यह सम्मेलन किसान सभा के ही पंडाल में किया गया -किसानों के बीच धंसकर, उनकी साँसों को अपनी साँसों में शामिल करके. इस सम्मेलन के समायोजन की सम्पूर्ण ज़िम्मेदारी फैज़ अहमद फैज़ की थी जो उन दिनों संगठन की अमृतसर शाखा के मंत्री थे. इस सम्मेलन में उर्दू और पंजाबी के जिन साहित्यकारों ने भाग लिया उनमें सज्जाद ज़हीर, डॉ. अशरफ, फैज़ अहमद फैज़ के अतिरिक्त चिराग हसन 'हसरत', टीकाराम 'सुखन,' डॉ. तासीर, प्रो.संत सिंह, फीरोज़ुद्दीन मंसूर, प्रो.रघुवंश कुमार और रघुपति चोपडा के नाम विशेष उल्लेख्य हैं.
इलाहाबाद अधिवेशन : 1937
सज्जाद ज़हीर देख रहे थे कि हिन्दी उर्दू विवाद निरंतर ज़ोर पकड़ता जा रहा था और हिन्दी-उर्दू लेखकों के मध्य की दूरियां गहराती जा रही थीं. वे इस दूरी को कम करने के लिए बराबर प्रयत्नशील रहे. उनका विश्वास था कि जिस मंजिल की ओर प्रगतिशील लेखकों को बढ़ना है उसमें परस्पर सहयोग आवश्यक ही नहीं, अनिवार्य है. इसी विश्वास के साथ उन्होंने हिन्दी उर्दू लेखकों का एक मिला-जुला अधिवेशन 1937 में ही करने का निश्चित किया. परिस्थितियां प्रतिकूल होने के बावजूद सज्जाद ज़हीर को ऐसे सहयोगी मिलते गए जिन्होंने योजना को सफल बनाने की सशक्त भागीदारी निभाई.
श्रीमती श्याम कुमारी नेहरू के आश्वासन, प्रयास और भाग-दौड़ के फलस्वरूप 1937 का इलाहाबाद अधिवेशन सफलता पूर्वक संपन्न हुआ. श्रीमती नेहरू स्वदेशी अंजुमन की सेक्रेटरी थीं. हिन्दी लेखकों को अधिक से अधिक जोड़ने के विचार से पाँच अध्यक्ष चुने गए जो अलग-अलग सत्रों का सफल संयोजन करा सकें. इस अधिवेशन में आचार्य नरेन्द्र देव का अध्यक्षीय वक्तव्य विशेष उल्लेख्य था. डॉ. अब्दुल हक का भाषण क्रांतिकारी और ठोस होते हुए भी अपना वह प्रभाव नहीं बना सका जिसकी अपेक्षा की जाती थी. कारण कदाचित यह था कि प्रगतिशील लेखकों का मन उनकी ओर से बहुत साफ नहीं था. पं. राम नरेश त्रिपाठी का अध्यक्षीय भाषण निष्प्राण और फुसफुसा था. इलाहाबाद विश्वविद्याय के छात्रों की बड़ी संख्या में उपस्थिति ने अधिवेशन में प्राण फूँक दिए थे. हिन्दी के जिन लेखकों ने विभिन्न सत्रों में आलेख पढ़े उनमें शिवदान सिंह चौहान, नरेन्द्र शर्मा, रमेशचंद्र सिन्हा और ओमप्रकाश सिंघल के आलेख विशेष चर्चा में रहे. शिवदान सिंह चौहान के आलेख का शीर्षक था "भारत में प्रगतिशील साहित्य की आवश्यकता." यह आलेख आज भी कम महत्वपूर्ण नहीं है.
इलाहाबाद अधिवेशन : 1938
ठीक एक वर्ष बाद 1938 में उर्दू-हिन्दी के प्रगतिशील लेखकों का दूसरा अधिवेशन स्वदेशी के नुमाइश पंडाल में हुआ. उन दिनों पं. विश्वम्भर नाथ पांडेय इलाहाबाद शाखा के मंत्री थे. यह अधिवेशन 1937 की अपेक्षा कहीं अधिक सफल था. विभिन्न विभागों के अध्यक्ष मंडल में जिन लोगों के नाम चयनित किए गए उनमें सुमित्रा नंदन पन्त, आनंद नरायन मुल्ला, जोश मलीहाबादी विशेष उल्लेख्य हैं. मुख्य अतिथियों में पं. जवाहर लाल नेहरू, बाबा साहब कालेलकर, तथा मैथिली शरण गुप्त भी थे. इस अवसर पर रवीन्द्रनाथ टैगोर ने भी प्रगतिशील लेखकों के नाम अपना एक संदेश भेजा था जिसे पढ़कर सुनाया गया.
हिन्दी उर्दू लेखकों की भागीदारी में कुछ नए नाम भी जुड़े थे. जैनेन्द्र, रामवृक्ष बेनीपुरी, अमृत राय, रमेशचंद्र सिन्हा, सुरेन्द्र बालूपुरी, नरेन्द्र शर्मा, मजाज़ लखनवी, अली सरदार जाफ़री, रघुपति सहाय फिराक, जोश मलीहाबादी, डॉ. अब्दुल अलीम, प्रो.एजाज़ हुसैन, डॉ. अशरफ, प्रो. एहतिशाम हुसैन, प्रो. विकार अजीम आदि सभी जाने-माने लेखक एक मंच पर एकत्र थे.
डॉ. अब्दुल अलीम के आलेख पर जमकर वाद-विवाद हुआ और कुछ कड़वाहटें भी पैदा हुईं. डॉ. अलीम चाहते थे कि हिन्दी और उर्दू के लेखक रोमन लिपि स्वीकार कर लें. इस प्रसंग में अधिवेशन के कुछ निमंत्रण-पत्र और विज्ञापन भी रोमन लिपि में छपवाए गए थे. काका कालेलकर की प्रतिक्रिया बहुत तीव्र थी उनहोंने आक्रोश भरे स्वर में कहा "मैं प्रगतिशील लेखक संघ से सहानुभूति अवश्य रखता हूँ किंतु यदि लेखक संघ ने रोमन लिपि के प्रस्ताव को अपना लिया तो उस स्थिति में मैं पूरे आन्दोलन का विरोध करूंगा." सज्जाद ज़हीर ने किसी प्रकार बीच-बचाव किया और उन्हें कहना पड़ा कि रोमन लिपि के सुझाव का संगठन की नीति से कोई सम्बन्ध नहीं है.
पं. जवाहर लाल नेहरू का भाषण
प्रगतितिशील लेखकों के सम्मेलन में जवाहर लाल नेहरू का सम्मिलित होना, एक असाधारण घटना थी. किंतु इससे इतना संकेत तो मिलता ही है कि देश की राजनीति से जुड़े शिखर के नेता भी उनदिनों साहित्य की गतिविधियों में रूचि रखते थे और उसकी समृद्धि और प्रोत्साहन में अपनी भागीदारी के इच्छुक थे. उनमें साहित्यकारों के प्रति एक आदर भाव था. पंडित नेहरू ने अपने भाषण में कहा "कलाकार और साहित्यकार की एक अलग पहचान होती है और जिसमें यह पहचान नहीं है, मैं उसे कलाकार नहीं कह सकता. पर उसकी पृथक पहचान यदि ऐसी है कि वह समाज से अलग है और जो चीज़ें समाज को हिलाती हैं, उनसे प्रभावित नहीं होता, तो उस साहित्यकार की कोई उपयोगिता नहीं है. यह पहचान यदि विकसित हो सकती है तो केवल समाज के समाजवादी ढाँचे में. यह कहना कि समाजवाद आकर हमारी पृथक पहचान को मिटा देगा, सर्वथा ग़लत है. आने वाले इंक़लाब के लिए देश को तैयार करना साहित्यकार की ज़िम्मेदारी है. आप जन-सामान्य कि समस्याओं का समाधान कीजिए, उनको रास्ता बताइये, लेकिन आपकी बात उनके दिल में उतर जानी चाहिए. प्रगतिशील लेखक संघ एक बड़ी ज़रूरत को पूरी करता है और उस से हमें बड़ी आशाएं हैं"
पंडित नेहरू के भाषण का एक लाभ यह अवश्य हुआ कि वे लोग जो नेहरू जी के प्रति श्रद्धा रखते थे और प्रगतिशील सम्मेलनों में भाग लेने से कतराते थे, अब इस संस्था के लिए पर्याप्त नर्म पड़ गए.
रवीन्द्र नाथ टैगोर का संदेश
टैगोर ने अपना जो संदेश प्रगतिशील संगठन के पास भेजा वह इस दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है कि उसमें जहाँ एक ओर आत्मालोचन किया गया है वहीं दूसरी ओर समय की आवश्यकताओं को समझने-समझाने का सोचा-समझा प्रयास भी मौजूद है. टैगोर ने संदेश में लिखा था -"…एकांत-प्रियता मेरा स्वभाव बन गया है. किंतु यह एक वास्तविकता है कि समाज से कटा हुआ साहित्यकार मानव-प्रकृति से परिचित नहीं हो सकता. समाज को जानने-पहचानने के लिए और उसके विकास मार्ग का पता देने के लिए ज़रूरी है कि हमारा हाथ समाज की नाड़ी पर हो और हम उसके दिल की धडकनों को सुनें....साहित्यकार का कर्तव्य यह होना चाहिए कि वह देश में नयी ज़िंदगी की रूह फूँके, जागरण और जोश के गीत गाये. ... देश, समाज और साहित्य की भलाई की सौगंध जब तक हर व्यक्ति नहीं खायेगा, उस समय तक संसार का भविष्य प्रकाशमय नहीं हो सकता. यदि तुम यह कहने के लिए तैयार हो, तो तुम्हें अपनी दौलत खुले हाथों लुटानी होगी और फिर कहीं तुम इस योग्य हो सकोगे कि संसार से किसी पारिश्रमिक की आशा करो."
द्वितीय अखिल भारतीय अधिवेशन : कोलकाता 1938
कोलकाता अधिवेशन के स्वागताध्यक्ष सुधेन्दुनाथ दत्त थे. वे बंगाली प्रगतिशील मासिक 'छाया' के संपादक थे. कोलकाता का अखिल भारतीय अधिवेशन दिसम्बर 1938 के अंत में संपन्न हुआ. अध्यक्षता के लिए मुल्कराज आनंद का नाम चुना गया. अन्य सभासदों में हीरन मुखर्जी, प्रमथ बेनर्जी, बुद्धिदेव बोस, ताराशंकर बेनर्जी, मानिक बेनर्जी, अली सरदार जाफ़री, मजाज़ लखनवी, बलराज साहनी, डॉ.अब्दुल अलीम, रजिया सज्जाद ज़हीर, कृशन चंदर, श्रीमती दमयंती के अतिरिक्त बिहार, आसाम, उडीसा और तमिलनाडु के साहित्यकारों के प्रतिनिधि थे. इस अधिवेशन में संगठन के संविधान में अपेक्षित परिवर्तन भी किए गये. अंग्रेज़ी पत्रिका 'न्यू इंडियन लिटरेचर' के प्रकाशन की अनुमति भी प्राप्त की गई और उसके संपादन का दायित्व आनंद नरायन मुल्ला, डॉ. अब्दुल अलीम तथा अहमद अली को सौंपा गया. एक और बड़ा परिवर्तन यह हुआ कि सज्जाद ज़हीर के स्थान पर डॉ. अब्दुल अलीम संगठन के नए मंत्री चुने गये.
फरीदाबाद सम्मेलन और अन्य गतिविधियाँ
प्रगतिशील लेखक संगठन के सक्रिय सदस्य और किसान कवि सैयद मुत्तलबी के सुझाव पर जून, 1938 में अपने ढंग का एक अदभुत सम्मेलन फरीदाबाद में किया गया. यह फरीदाबाद के देहाती कवियों का सम्मेलन था. इसमें सैयद मुत्तलबी ने मथुरा, गुडगाँव, रोहतक और दिल्ली तथा उसके आस-पास के ऐसे ग्रामीण कवियों को एकत्र किया था, जो किसान आन्दोलन से जुड़े हुए थे. मथुरा के हकीम ब्रजलाल तथा दिल्ली के भालसिंह ने इस आयोजन को सफल बनाने में पूरा सहयोग दिया. विशेष महत्व की बात यह थी की इस सम्मेलन में कृषक कवियों द्वारा जो भी कविताएं पढ़ी गयीं, वे सब अपने विषय की दृष्टि से समकालीन राजनीतिक, सामाजिक स्थितियों से जुड़ी हुई थीं. अहमद अली ने इस सम्मेलन की एक विस्तृत रिपोर्ट अंग्रेज़ी में तैयार करके मद्रास के एक प्रगतिशील मासिक 'न्यू एरा' में छपवाई. इस रिपोर्ट की एक विशेषता यह थी कि इसमें ग्रामीण रचनाओं के उद्धरण भी दिए गए थे. रजनी पामदत्त ने इसी के आधार पर अपनी पुस्तक 'न्यू इंडिया' के एक अध्याय का प्रारम्भ ग्रामीण कवि स्वातिकी शर्मा की एक रचना से किया था.
1938 में आनंद नरायन मुल्ला के लंदन से वापस आने पर सज्जाद ज़हीर और उनके साथियों को विशेष बल मिला. प्रेमचंद जयप्रकाश नारायण से बात करके सज्जाद ज़हीर के सामने अपनी यह इच्छा व्यक्त कर चुके थे कि संगठन की ओर से अंग्रेज़ी और उर्दू में पत्रिकाएँ निकाली जायं. प्रेमचंद के अध्यक्षीय भाषण का अंग्रेज़ी अनुवाद संगठन का मेनिफेस्टो, प्रथम अखिल भारतीय अधिवेशन के प्रस्ताव और संगठन में पढे जाने वाले महत्वपूर्ण आलेखों को एकत्र करके केन्द्रीय आयोग ने जब "टूवर्ड्स प्रोग्रेसिव लिटरेचर'' शीर्षक पुस्तक सितम्बर, 1936 में प्रकाशित की, प्रेमचंद अपनी बीमारी की हालत में भी, उसे देखकर, खुशी से उछल पड़े. अब प्रेमचंद नहीं थे, पर उनका आशीर्वाद प्रगतिशील लेखक संगठन के साथ था.
अप्रैल 1939 में मुल्कराज आनंद के सम्पादन में 'न्यू इंडियन लिटरेचर' का प्रथम अंक प्रकाशित हुआ. इलाहबाद ला जरनल प्रेस से प्रकाशित होने के कारण इसकी छपाई और सज्जा बड़ी सुंदर और आकर्षक थी. इस अंक में कुल चार आलेख थे. एक सुधेन्दुनाथ दत्त का, दूसरा डॉ. अब्दुल अलीम का, तीसरा मुल्कराज आनंद का और चौथा डी.पी. मुखर्जी का. डॉ. आनंद का आलेख प्रगतिशील लेखक आन्दोलन के मूलभूत सिद्धांतों, रचनाकारों के दायित्व और समाजवाद की समझ से जुड़ा होने के कारण पर्याप्त महत्त्वपूर्ण था. इसके अतिरिक्त प्रेमचंद की विशेष चर्चित कहानी 'कफ़न' का अंग्रेज़ी अनुवाद, जिसे अहमद अली ने बड़ी लगन से किया था, इस अंक को और भी महत्त्वपूर्ण बना रहा था. इसी समय अर्थात अप्रैल 1939 में 'नया अदब' उर्दू मासिक का पहला अंक भी प्रकाशित हुआ. इसके संपादक मंडल में सिब्ते हसन, अली सरदार जाफरी और मजाज़ लखनवी शामिल थे. बाद में जोश मलीहाबादी भी इस से जुड़ गए. काश प्रेमचंद यह सब कुछ अपनी आंखों से देख पाते.
तृतीय अखिल भारतीय अधिवेशन : दिल्ली 1922
जून 1941 में हिटलर ने सोवियत संघ पर आक्रमण कर दिया. भारतीय जन-मानस पर इसका प्रभाव पड़ना स्वाभाविक था. वैसे तो सामान्य जनता की चिंताएं कुछ कम नहीं थीं, किंतु भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्यों में विशेष खल्भली थी. पार्टी के अधिकतर सदस्य गिरफ्तार किए जा चुके थे जिस से भावी योजनाओं का कोई स्वरूप स्पष्ट नहीं हो पा रहा था.1941 के अंत तक आते-आते ब्रिटिश सरकार ने अपनी नीतियों में जब थोड़ा परिवर्तन किया और कांग्रेस के नेता जेलों से छोड़े जाने लगे, स्थितियां पहले की अपेक्षा अधिक साफ हुईं. मार्च 1942 में, पूरे दो वर्ष बाद, सज्जाद ज़हीर जेल से बाहर आए. उन्हें संगठन की सोई हुई नाड़ी में फिर से प्राण फूंकने की आवश्यकता महसूस हुई.
सज्जाद ज़हीर के मार्ग दर्शन में डॉ. अब्दुल अलीम, अली सरदार जाफरी, शिवदान सिंह चौहान, सिब्ते हसन और उनके अन्य मित्रों ने एक जुट होकर परिस्थितियों पर विचार किया और यह निश्चय पाया कि प्रगतिशील लेखकों का शीघ्र ही अखिल भारतीय अधिवेशन बुलाया जाय और युद्ध से उत्पन्न नई स्थितियों पर विचार करके, संगठन की एक नीति सुनिश्चित की जाय. मार्च के अन्तिम सप्ताह में सज्जाद ज़हीर दिल्ली गए. वहां मजाज़ लखनवी, हार्डिंग लाइब्रेरी में असिस्टेंट लाइबरेरियन थे. उपेन्द्र नाथ अश्क, कृशन चंदर और सआदत हसन मंटो आकाशवाणी में काम कर रहे थे. सरकारी मुलाज़मत में इन प्रगतिशील लेखकों को देख कर सज्जाद ज़हीर को ज़बरदस्त धक्का लगा. दिल्ली में सज्जाद ज़हीर की भेंट भदंत आनंद कौशल्यायन से भी हुई. निश्चय हुआ कि अधिवेशन दिल्ली में ही किया जाय.
संगठन का तीसरा अखिल भारतीय अधिवेशन अप्रैल 1942 में दिल्ली के हार्डिंग हाल में संपन्न हुआ. इसमें अधिकतर उर्दू लेखक ही सम्मिलित हुए. शिवदान सिंह चौहान और आनंद कौशल्यायन की उपस्थिति के बावजूद हिन्दी के वे लेखक जिन्हें आज प्रगतिशील कहा और माना जाता है संगठन से दूर ही दूर रहे. सच पूछा जाय तो इस अधिवेशन को किसी दृष्टि से भी सफल नहीं कहा जा सकता. हाँ, इसका इतना महत्त्व अवश्य है कि इसमें सर्व-सम्मति से युद्ध के विरुद्ध प्रस्ताव पारित किया गया. प्रस्ताव में कहा गया कि "हम प्रगतिशील लेखकों की सहानुभूति एकता-प्रिय देशों के साथ है और हम अपने कलम और अपने प्रभाव को प्रजातांत्रिक प्रयासों की हिमायत के लिए इस्तेमाल करेंगे और देश को फासिज्म के खतरे से सतर्क करेंगे. हम ब्रिटिश सरकार के इस रवैये की कड़ी निंदा करते हैं कि ऐसी विकट स्थिति में भी वह हमारी मातृभूमि को स्वतंत्र करने के लिए तैयार नहीं है."
स्टेट्समैन में इस अधिवेशन के प्रस्ताव का खूब प्रचार किया गया और वही अख़बार जो अभी कल तक प्रगतिशील लेखक संगठन का विरोधी था उसे अब सोवियत रूस और कम्युनिज्म की अच्छाइयाँ भी दिखाई देने लगी थीं. हवा का रुख बदल रहा था और 'अंग्रेजो भारत छोडो' की गूँज से दबे-दबे और दूर-दूर रहने वाले लेखकों का मन भी संगठन से जुड़ने के लिए भुर्भुराने लगा था.
चौथा अखिल भारतीय अधिवेशन : मुम्बई 1945
जून 1942 में सज्जाद ज़हीर और अली सरदार जाफरी एक मार्क्सवादी साप्ताहिक के संपादन के लिए मुम्बई आ गए. वहां ख्वाजा अहमद अब्बास पहले से मौजूद थे. उनका आवास साहित्य-चर्चा का केन्द्र बन गया. हिन्दी, गुजराती, मराठी, कन्नड़, और मलयालम भाषाओं के साहित्यकार एक स्थान पर एकत्र होकर वौचारिक आदान-प्रदान करने लगे. यह कार्य उत्तर प्रदेश के किसी भी शहर में अभी तक सम्भव नहीं हो पाया था. तमाम प्रयास के बावजूद हिन्दी लेखक उर्दू लेखकों के साथ बैठकर रोज़मर्रा की ज़िंदगी में वैचारिक आदान-प्रदान के लिए आमादा नहीं थे. मुम्बई की शाखा अन्य शाखाओं से हर दृष्टि से अलग थी. वहाँ मामा वरेरकर थे, वाकुलेश थे, नरेन्द्र शर्मा और नरेन्द्र सिन्हा थे, अख्तरुल ईमान और महेन्द्र नाथ थे, मजाज़ लखनवी और कृशन चंदर थे, और कुछ ही समय बाद, जोश मलीहाबादी तथा साग़र निज़ामी भी इस जमावड़े का हिस्सा बन चुके थे. वहाँ की शाखा ने सुभद्रा कुमारी चौहान, उदयशंकर, ई. एम्. फोस्टर और डी. पी. मुखर्जी के सम्मान में सभाएं आयोजित कीं, मुम्बई के मराठी मजदूरों की लोक-कविता 'पवांड़ा' की गोष्ठियों का आनंद लिया, जिसमें मजदूरों की स्थिति, उनके संघर्ष, मजदूर आन्दोलन और रूस की साम्यवादी सरकार की गतिविधियों का विवेचन किया गया था.
चौथे अखिल भारतीय अधिवेशन के अध्यक्ष मंडल के लिए जोश मलीहाबादी (उर्दू), पं. राहुल सांकृत्यायन (हिन्दी), सत्येन मजुमदार (बंगाली), एम्.ए. डांगे (मराठी), और पेचाइया (तेलुगू) के नाम चुने गए. डांगे का नाम प्रस्तावित होने पर सज्जाद ज़हीर को आश्चर्य हुआ. वह उन्हें एक सशक्त साम्यवादी नेता के रूप में जानते थे. वैसे भी उनकी गणना मजदूर आन्दोलन की नींव रखने वाले की हैसियत से की जाती थी. यह जानकर आश्चर्य का होना स्वाभाविक था कि वे मराठी भाषा के एक प्रसिद्ध साहित्यकार, विद्वान् एवं इतिहासज्ञ भी हैं. डांगे ने अपना अध्यक्षीय भाषण मराठी भाषा और साहित्य के विकास पर अंग्रेज़ी भाषा में दिया था. यह भाषण मुम्बई अधिवेशन की उपलब्धि था. बाद में यह एक पुस्तिका के रूप में भी प्रकाशित हुआ.
इस अधिवेशन में सबसे महत्त्वपूर्ण वह घोषणा-पत्र था जिसमें युद्ध से उत्पन्न परिस्थितियों के प्रकाश में देश के साहित्यकारों के कर्तव्य एवं दायित्व का सामान्य रूप से और प्रगतिशील लेखकों के कर्तव्यों का विशेष रूप से निर्धारण किया गया था और स्पष्ट रूप से यह कहा गया था कि इन परिस्थितियों में लेखकों को एक संयुक्त मोर्चा बनाना ज़रूरी है. इस प्रकार यदि देखा जाय तो देश में संयुक्त मोर्चा बनाने का विचार भी साम्यवादी सोंच का ही नतीजा है.
इस अधिवेशन में यह भी निर्णय लिया गया कि संगठन का केन्द्रीय कार्यालय लखनऊ से हटाकर मुम्बई कर दिया जाय. यह भी निश्चय पाया कि डॉ. अब्दुल अलीम के स्थान पर दुबारा सज्जाद ज़हीर संगठन के मंत्री का कार्य-भार संभालें. ख्वाजा अहमद अब्बास को ज्वाइंट सेक्रेटरी बनाया गया.
दिल्ली शाखा की गतिविधियाँ : 1946
शमशेर सिंह नरूला जब दिल्ली शाखा के मंत्री चुने गए तो उनके प्रयास से वहां के प्रगतिशील लेखकों में एक नई ज़िंदगी का संचार हुआ. उन दिनों दिल्ली में फैज़ अहमद फैज़, डॉ. तासीर, शिवादन सिंह चौहान, देवेन्द्र सत्यार्थी आदि अनेक उर्दू हिन्दी साहित्यकार एकत्र थे. 1946 में सज्जाद ज़हीर के दिल्ली आने पर एक बड़ा जलसा आयोजित किया गया. इस समारोह की अध्यक्षता सर रज़ा अली ने की और इसमें प्रगतिशील आन्दोलन के विरोधियों को करारा जवाब दिया गया. हिन्दू मुस्लिम तनाव के बावजूद दिल्ली के हिन्दी उर्दू साहित्यकारों में वह दूरियां नहीं थीं जो उत्तर प्रदेश के हिन्दी लेखक उर्दू के प्रगतिशील लेखकों से बनाये हुए थे.
हिन्दी के प्रगतिशील लेखकों का अधिवेशन : इलाहाबाद 1947
देश विभाजन के पूर्व से हिन्दी उर्दू भाषा समस्या को लेकर हिन्दी उर्दू लेखकों के मध्य जो असहमतियां थीं वह देश की स्वाधीनता के बाद खुलकर सामने आ गयीं. राहुल जी और सज्जाद ज़हीर के मध्य जो मत-वैभिन्य था उसमें वैचारिक संकीर्णता नहीं थी. किंतु हिन्दी के वे लेखक जो स्वाधीनता से पूर्व, संगठन से कभी नहीं जुड़े थे, अब अपनी एक विशेष भूमिका के साथ प्रगतीशील मंच पर दिखायी दिए. उनकी अलगाववादी मनोवृत्ति ने उर्दू लेखकों को पूरी तरह काटकर हिन्दी लेखकों का पृथक अधिवेशन इलाहाबाद में 1947 के अंत में करने का निश्चय किया. संगठन की पृष्ठभूमि अभी तक इस प्रकार के किसी भी अलगाववादी नज़रिए की सख्त विरोधी थी. इलाहाबाद अधिवेशन में सज्जाद ज़हीर को प्रगतिशील लेखक संगठन का प्रधान-मंत्री होने के रिश्ते से आमंत्रित किया गया. अली सरदार जाफरी भी सज्जाद ज़हीर के साथ, न बुलाए जाने के बावजूद चले आए. इलाहबाद में होने के कारण फिराक गोरखपुरी भी सम्मिलित हो गए. इस प्रकार उर्दू के तीन लेखक तो इस अधिवेशन में आ ही गए.
अधिवेशन में सम्मिलित हिन्दी लेखकों में राहुल सांकृत्यायन और अज्ञेय के अतिरिक्त सुमित्रानंदन पन्त, सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, रामबिलास शर्मा, शिव मंगल सिंह सुमन, अमृत राय, नरेन्द्र शर्मा और प्रकाशचन्द्र गुप्त के नाम विशेष उल्लेख्य हैं. राहुल सांकृत्यायन 1938 से ही प्रगतिशील लेखक संगठन से जुड़े हुए थे और उनका व्यक्तित्व सभी के लिए आदरणीय था. अन्य हिन्दी लेखकों में प्रकाशचन्द्र गुप्त यद्यपि संगठन के अधिवेशनों में इस से पहले सम्मिलित नहीं हुए थे किंतु स्तालिनग्राद का महायुद्ध (1944), जनता अजेय है (1945) जैसी पुस्तकें प्रकाशित करके वे समाजवाद के प्रति अपनी गहरी प्रतिबद्धता पहले ही व्यक्त कर चुके थे. अमृत राय और नरेन्द्र शर्मा का जुड़ाव लेखक संगठन के साथ पुराना था. किंतु निराला या रामबिलास या पन्त का समाजवादी नज़रिये से लगाव पहली बार दिखायी दे रहा था. यही स्थिति शिव मंगल सिंह सुमन की भी थी. शिव दान सिंह चौहान को या तो इस अधिवेशन में बुलाया नहीं गया था या वे किन्हीं कारणों से नहीं आ पाये. किंतु, अधिवेशन में उनकी अनुपस्थिति खटकती अवश्य है और आयोजकों की नीयत पर हल्का सा प्रश्न-चिह्न भी लगा देती है.
प्रगतिशील हिन्दी लेखकों के इस अधिवेशन का उदघाटन पं. अमरनाथ झा ने किया. ध्यान रहे की 1936 में अमरनाथ झा ने संगठन से अपना हाथ पूरी तरह खींच लिया था और सज्जाद ज़हीर को उनके दबाव में यह स्पष्टीकरण भी देना पड़ा था की संगठन के मेनिफेस्टो पर हस्ताक्षर करने वालों में उनका नाम भूल से छप गया है. इस अधिवेशन में केवल दो सत्र संपन्न हुए. एक सत्र की अध्यक्षता राहुल सांकृत्यायन ने की और दूसरे सत्र के अध्यक्ष अज्ञेय थे. राहुल जी की अध्यक्षता में हिन्दी उर्दू विवाद प्रबल रूप से सामने आया. अज्ञेय ने प्रस्ताव रखा कि सम्पूर्ण देश की एकमात्र राष्ट्रभाषा हिन्दी घोषित की जाय. सज्जाद ज़हीर का विचार था कि हिन्दी और उर्दू को एक दूसरे से निकट लाने का प्रयास जारी रहे और जबतक नागरी-लिपि को सभी स्वीकार न कर लें, एकमात्र हिन्दी और नागरी की बात न की जाय. रामबिलास शर्मा, फिराक गोरखपुरी, प्रकाशचन्द्र गुप्त, अली सरदार जाफरी और अमृत राय आदि का विचार था कि इस अधिवेशन में इस प्रस्ताव पर कोई निर्णय न लिया जाय. इस निर्णय को अखिल भारतीय अधिवेशन के लिए छोड़ दिया जाय. अंत में हुआ भी यही. किंतु इस से मनमुटाव को बढावा मिला.
उत्तर-प्रदेश के हिन्दी उर्दू लेखकों का अधिवेशन : 1949
हिन्दी के प्रगतिशील लेखकों के अधिवेशन में भाषा-विवाद को लेकर जो हलकी सी दरारें आ गई थीं उनका भरा जाना ज़रूरी था. इससे पहले कि पांचवां अखिल भारतीय अधिवेशन आयोजित किया जाय, यह निश्चय पाया कि उत्तर प्रदेश के हिन्दी उर्दू लेखकों का एक मिला-जुला अधिवेशन कर लिया जाय. फलस्वरूप अप्रैल 1949 में यह अधिवेशन संपन्न हुआ. इसमें रामबिलास शर्मा, डॉ. अब्दुल अलीम, प्रकाशचन्द्र गुप्त, आले अहमद सुरूर, शिवदान सिंह चौहान, एहतिशाम हुसैन, मजरूह सुल्तान्पूरी, नरोत्तम नागर, साहिर लुधियानवी, शील और मुमताज़ हुसैन आदि ने भाग लिया. सज्जाद ज़हीर भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के निर्देश पर 1948 में पाकिस्तान जा चुके थे ताकि वहां पार्टी को संगठित और व्यवस्थित कर सकें. भाषा के सम्बन्ध में इस अधिवेशन ने सर्व-सम्मति से जो प्रस्ताव पारित किया उसके कुछ अंश यहाँ देना आवश्यक जान पड़ता है. इस प्रस्ताव का उद्देश्य हिन्दी उर्दू लेखकों को एक बड़े लक्ष्य के लिए जोड़ना और निकट लाना था. प्रस्ताव इस प्रकार था -
"उत्तर-प्रदेश के प्रगतिशील लेखकों की यह सभा घोषणा करती है कि प्रत्येक भाषा को स्वतंत्र और बे-रोक-टोक तरक्की करने का अधिकार होना चाहिए. यह सभा किसी भी भाषा के बोलने वालों पर एक सरकारी भाषा के लादे जाने का विरोध करती है."
"हमारा विचार है कि हिन्दी और उर्दू भाषाएँ मूल रूप से एक हैं और जनता की बोल-चाल की ज़बान को आधार मानकर वह जीवित हैं. उत्तर-प्रदेश तथा अन्य स्थानों पर जिस प्रकार उर्दू को कुचला जा रहा है, उससे भाषा की एकता कायम नहीं हो सकती. बल्कि इसका उद्देश्य जनता में फूट डालना और अंधी राष्ट्रीयता की प्रवृत्ति पैदा करना है."
पांचवां अखिल भारतीय अधिवेशन : भीमड़ी 1949
मई 1949 में भीमड़ी (मुम्बई) में होने वाले पांचवें अखिल भारतीय अधिवेशन का एक विशेष महत्त्व है. बदली हुई परिस्थितियों में संगठन ने महसूस किया कि 1936 का घोषणा-पत्र कई दृष्टियों से अपर्याप्त है. अब आवश्यक हो गया है कि एक नया घोषणा-पत्र तैयार किया जाय. इस अधिवेशन में रामबिलास शर्मा को नया मंत्री चुना गया और सर्व सम्मति से एक नया घोषणा-पत्र पास किया गया. यहाँ इस घोषणा-पत्र के कुछ अंश प्रस्तुत करना असंगत न होगा.
"भारत का पूंजीपति वर्ग राष्ट्रीय आन्दोलन के समय में भी साम्राज्य से समझौता करने के प्रयास में लगा हुआ था. अब खुल्लमखुल्ला उसका साथी और दोस्त बन गया. इसका प्रमाण यह है कि भारत सरकार ने बरतानवी कामन वेल्थ में रहने का निर्णय लिया है. यह निर्णय भारतीय जनता की इच्छा के विरूद्ध है....पिछली लड़ाई समाप्त हुए अभी बहुत समय नहीं बीता कि एक बार फासिज्म को नीचा दिखाने के बाद फिर विश्व की आम जनता को तीसरेमहायुद्ध की नयी तैयारी में लगाया जा रहा है. ----बरतानवी और अमरीकी पूंजीवादी देश जो अपने लाभ को न केवल बनाए रखना बल्कि बढाना चाहते हैं, इस षड्यंत्र में लगे हैं कि डालर और एटमबम से दुनिया को गुलाम बनाये रखें-----हजारों आदमी जिनमें मज़दूर, किसान, साहित्यकार और कला शिल्पी सभी शामिल हैं, भारतीय जेलों में तरह-तरह के कष्ट झेल रहे हैं. उन लोगों को जेल भेजने से पहले औपचारिक रूप से अदालत के समक्ष प्रस्तुत करने की आवश्यकता भी नहीं समझी जाती."
'----प्रगतिशील साहित्यकार अतीत की संस्कृति और साहित्य के सच्चे वारिस हैं और वो मानव सभ्यता की श्रेष्ठ परम्पराओं को लेकर आगे बढते हैं. समाज के ऐतिहासिक विकास के परिदृश्य में वे अपनी सांस्कृतिक विरासत को आलोचनात्मक दृष्टि से मूल्यांकित करते हैं.-----'
'प्रगतिशील साहित्यकार जानते हैं कि शोषक और शोषित में समझौता नहीं हो सकता. और इस दिशा में सत्य और अहिंसा की बात करना एक ऐसा परदा है जिसके पीछे पूंजीवादी लूट-खसोट को छिपाने का प्रयास किया जाता है.--'
'अगर हम पिछले बीस वर्षों के साहित्य पर दृष्टि डालें तो बड़े गर्व पूर्वक कह सकते हैं कि औरों की तुलना में प्रगतिशील लेखक ही थे जिन्होंने अपने साहित्य में स्वाधीनता आन्दोलन के नए मोड़ों को प्रस्तुत किया, फासिस्ट शक्तियों का जमकर विरोध किया, सोवियत यूनियन की जनता के साथ अपनी मैत्री की अभिव्यक्ति की, जापानी फासिज्म के विरूद्ध लड़ती हुई चीनी जनता से मैत्री के रिश्ते जोड़े,--- अकाल के ज़माने में बंगाल के लिए सम्पूर्ण देश के लोगों को एकस्वर किया. ये प्रगतिशील लेखक ही हैं जिन्होंने जन एकता और शांति का झंडा बुलंद किया,-- जनसाहित्य और जन संस्कृति का भविष्य प्रगतिशील लेखकों के हाथ में है, यह सिद्ध करना उनका कर्तव्य है.'
उत्तरी भारत के लेखकों का अधिवेशन : दिल्ली 1950
तीसरे महायुद्ध का आतंक कच्चे धागे से बंधी नंगी तलवार की तरह सिर पर लटक रहा था. प्रत्येक चिंतनशील साहित्यकार विश्वशांति के प्रश्न को लेकर पर्याप्त गंभीर था. फलस्वरूप दिल्ली, राजस्थान और पंजाब के प्रगतिशील लेखकों ने विश्वशांति प्रसंग पर विमर्श के लिए अधिवेशन के आयोजन की आवश्यकता महसूस की. यह आयोजन जुलाई 1950 में दिल्ली में संपन्न हुआ. इसमें लेखकों से अपील की गई कि "तीसरे महायुद्ध की तैयारियां, हमारी संस्कृति के लिए खतरे का संकेत हैं. युद्ध के प्रचार का सम्बन्ध जातिगत ऊंच-नीच, साम्प्रदायिक-वैमनस्य और जातीय घृणा से है. हम सब एक-जुट होकर प्रेमचंद का झंडा ऊंचा करें और प्रत्येक ऐसे हाथ को मरोड़ दें, जो हमारे कलम को छूना भी चाहता हो."
अधिवेशन का स्वागत भाषण जनता थियेटर के श्यामलाल ने दिया जो उन दिनों टाइम्स आफ इंडिया के संपादक थे और अध्यक्षता राजेन्द्र सिंह बेदी ने की. केन्द्रीय संगठन के मंत्री की हैसियत से डॉ. रामविलास शर्मा ने अपील के पक्ष में भाषण दिया. डॉ. शर्मा ने कहा कि " आज संसार में कोई ईमानदार श्रेष्ठ साहित्यकार ऐसा नहीं है जो युद्ध और शांति के मामले में अपनी गैर-प्रतिबद्धता की घोषणा करे." उन्होंने कहा कि "महादेवी जी ने बंगाल के अकाल पर छपी सामग्री को संपादित करते हुए लिखा था कि जिस साहित्यकार के मन में मानवता का दर्द नहीं पैदा हुआ उसका कलम सोने का होते हुए भी राख है. हमें स्वीकार करना चाहिए कि आज शांति का प्रश्न सम्पूर्ण मानवता का प्रश्न है."
इस अवसर पर सोवियत रूस के साहित्यकारों ( कान्सीटन समानोफ़, तर्सूनज़ादे, सिब्ते मकानोफ़, और एलेकज़ेनडर विन्सकी ) ने भी संगठन के मंत्री के नाम एक चिट्ठी भेजी थी जिसमें लिखा था कि "संसार की सभी प्रगतिशील ताक़तों के लिए अनिवार्य हो गया है कि वे अपने दलों को सशक्त बनाएं और व्यावहारिक रूप से शांति की इच्छा से साम्राज्यवादियों को चेतावनी दें. इस चिट्ठी में भारत के प्रगतिशील लेखकों के साथ रूसी लेखकों ने अपने भरपूर सहयोग का भी आश्वासन दिया था.
इलाहबाद अधिवेशन : 1952
डॉ. रामविलास शर्मा के प्रयास से अप्रैल 1952 में हिन्दी उर्दू के प्रगतिशील लेखकों का एक सम्मेलन इलाहाबाद में संपन्न हुआ जिसमें रांगेय राघव, सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय, अमृत राय, एहतिशाम हुसैन, धर्मवीर भारती, डॉ. अब्दुल अलीम, प्रकाशचन्द्र गुप्त, रघुपति सहाय फिराक, अली सरदार जाफरी इत्यादि सम्मिलित थे. इसमें डॉ. रामविलास शर्मा ने कुछ एक प्रगतिशील लेखकों की कड़ी आलोचना की और एक उपदेशात्मक रुख अख्तियार किया जिस से संघ में दरारें पड़ने की संभावनाएं बढ़ गयीं. वैसे भी हिन्दी के प्रगतिशील लेखक रामविलास शर्मा के रवैये से संतुष्ट नहीं थे.
छठा अखिल भारतीय अधिवेशन : दिल्ली 1953
भीमड़ी अधिवेशन में जो मेनिफेस्टो पास हुआ था उस से प्रगतिशील लेखकों के बीच जन्मा असंतोष गहराता जा रहा था. इसलिए यह निश्चय पाया की छठे अखिल भारतीय अधिवेशन में एक नया मेनिफेस्टो तैयार किया जाय. रामविलास शर्मा और अली सरदार जाफरी ने अन्य मित्रों के सहयोग से इसकी रूपरेखा तैयार की जिसे इस अधिवेशन में बिना किसी परिवर्तन के स्वीकार कर लिया गया. राम विलास शर्मा के विरुद्ध हिन्दी लेखकों का जो असंतोष दबा-दबा सा था इस अधिवेशन में उसकी गंध बहुत साफ महसूस की गई. कुछ लेखकों का विचार था की रामविलास शर्मा संगठन को चलाने में पूरी तरह असफल रहे. अमृत राय और मुक्तिबोध राम विलास के रवैये को पहले ही मानव विरोधी घोषित कर चुके थे. डॉ. शर्मा ने इस अधिवेशन में जो रिपोर्ट प्रस्तुत की, उसे भी उपदेशात्मक कहा गया. इसका भी संकेत किया गया की संगठन पार्टी के हाथों में कठपुतली बन कर रह गया है. किंतु इन तमाम विरोधों के बावजूद, उर्दू तथा अन्य भाषाओं के लेखकों के बीच रामविलास की छवि किसी कोण से भी धूमिल नहीं हुई थी. इस अधिवेशन में डॉ. रामविलास शर्मा के स्थान पर कृशन चंदर को नया मंत्री चुना गया.
प्रगतिशील लेखक आन्दोलन का अवसान
अपने प्रारम्भ काल से ही जिस आन्दोलन की जड़ें जनता में गहराई तक पैठी हुई थीं, वह लेखकों की आपसी बौद्धिक पैतरेबाजी के कारण 1954 तक खोखला हो चुका था. किसी को उसमें कुत्सित समाजशास्त्र की झलक दीखने लगी थी, कोई उसे कोरी नारेबाजी समझता था. किसी ने किसी के लेखन में 'परशुराम के कुल्हाडे' का चित्र देखना प्रारम्भ कर दिया तो कहीं इसमें संकीर्ण मतवादी प्रवंचना को जन्म देने वाली प्रवृत्ति रेखांकित की गई. कृशन चंदर के मंत्री होने के बाद संगठन की गतिविधियाँ पूरी तरह शिथिल पड़ गयीं. स्वयं कृशन चंदर एक तिजारती साहित्यकार होकर रह गए थे. कुछ अन्य प्रगतिशील लेखकों में भी तिजारती मनोवृत्ति ज़ोर पकड़ने लगी थी. इलाहाबाद में परिमल समूह के लेखक युगीन राजनीति से अपना दामन बचाए रखना चाहते थे और साहित्यकारों के बीच इस समूह की ताक़त निरंतर बढ़ रही थी. इसकी गोष्ठियों में प्रगतिशील लेखकों का सक्रिय दिखाई देना, प्रगतिशील लेखक संगठन के अवसान का स्पष्ट संकेत था. नामवर सिंह और सुमित्रानंदन पन्त की बात तो फिर भी समझ में आती है, किंतु प्रकाशचन्द्र गुप्त जैसा साम्यवादी लेखक इन गोष्ठियों को सशक्त बना रहा था, यह देख कर आश्चर्य अवश्य होता है.
काशी में भी 1953-54 में 'साहित्यिक संघ' की गोष्ठियाँ ज़ोर पकड़ने लगी थीं. इस संघ के नाम से ही स्पष्ट है कि इसे प्रगतिशील लेखक संघ का बदल स्वीकार कर लिया गया था. इस संघ के बहस-मुबाहासों में शिवदान सिंह चौहान, प्रकाशचन्द्र गुप्त, हजारी प्रसाद द्विवेदी, नलिन, त्रिलोचन, अमृत राय, नेमिचंद्र जैन, भारत भूषण अग्रवाल, धर्मवीर भारती और केदारनाथ अग्रवाल जैसे रचनाकर्मियों की विशेष भूमिकाएं थीं.
1954 में सज्जाद ज़हीर जब पाकिस्तान से लौटे, उन्हें संगठन का यह बिखराव देख कर दुःख हुआ. फिर भी उन्होंने अपने आप को 'इप्टा'(इंडियन पीपिल्स थिएट्रिकल एसोसिएशन), 'आई.पी.डबल्यू..ए.' (इंडियन प्रोग्रेसिव राइटर्स एसोसिएशन) और ऐफ्रो-एशियन-राइटर्स-एसोसिएशन जैसे वामपंथी सांस्कृतिक आंदोलनों से जोड़े रखा. सच पूछा जाय तो प्रगतिशील लेखक संगठन का सम्पूर्ण अस्तित्त्व ही सज्जाद ज़हीर के एकल व्यक्तित्त्व पर टिका हुआ था. यदि वे पाकिस्तान न गए होते तो प्रगतिशील संगठन का बिखराव इतनी आसानी से सम्भव न हो पाता.
विश्लेषण और निष्कर्ष
प्रेमचंद ने 1936 में जब प्रगतिशील लेखक संगठन के प्रथम अधिवेशन की अध्यक्षता की, तो संगठन पर चोट करते हुए नरोत्तम नागर ने लिखा था 'इस संगठन की अध्यक्षता तो युवा पीढ़ी के ही किसी व्यक्ति को करनी चाहिए थी.' सज्जाद ज़हीर के नाम अपनी चिट्ठी में प्रेमचंद ने इस टिपण्णी का सन्दर्भ देते हुए लिखा था-"उस अहमक को ये नहीं मालूम के यहाँ वही जवान है जिसमें प्रोग्रेसिव रूह हो. जिसमें ऐसी रूह नहीं, वह जवान होकर भी बूढा है." इस वाक्य में जवान होना ज़िंदगी को प्रतीकयित करता है. उस ज़िंदगी को जिसकी आत्मा प्रगतिशीलता के झरनों में धुली हुई हो. यानी प्रगतिशीलता प्रेमचंद की दृष्टि में बौद्धिक व्यायाम से नहीं जन्म लेती. मार्क्स के दार्शनिक सिद्धांतों की जानकारी यदि अंतस में प्रवेश न करे और आत्मा के साथ अंतरंग होकर संस्कारों में न घुल-मिल जाय, तो प्रगतिशीलता का बाह्य धरातल अर्थहीन होगा. यहाँ जानकारी से आगे बढ़कर उस समझ की आवश्यकता है जो प्रतिबद्धता को जन्म देती है. प्रगतिशीलता किसी पादरी का चोगा नहीं है जिसे पहनकर उपदेश दिये जाएँ. यह प्रगतिशीलता एक पूरी ट्रेनिंग है जो संस्कारों के भीतर से फूटती है. सांस्कृतिक विरासत के ऐतिहासिक विकास को आम जनता की पृष्ठभूमि में रख कर देखने और परखने से पल्लवित होती है. प्रेमचंद ने अन्य हिन्दी लेखकों की भांति प्रगतिशीलता को ओढा नहीं था. इसे अपने समूचे रक्त में घोल लिया था.
हिन्दी के अधिकांश तथाकथित प्रगतिशील लेखक, संगठन के केन्द्रीय आयोजकों से जुड़ना नहीं चाहते थे. शायद जुड़ भी नहीं सकते थे. बात कुछ कड़वी हो सकती है, किंतु सच्चाई यही है कि जिसे आन्दोलन की समझ कहते हैं वह हिन्दी लेखकों में एक सिरे से थी ही नहीं. हालांकि प्रेमचंद ने इस 'समझ' को उनके बीच पहुंचाने के प्रयास में कोई कमी नहीं की. जिस आन्दोलन की जड़ें मजदूरों और किसानों के बीच हों, उसकी समझ पैदा करने के लिए ज़रूरी है कि मजदूरों-किसानों के साथ जुड़ाव पैदा किया जाय. केवल सैद्धांतिक स्तर पर नहीं, व्यावहारिक स्तर पर भी. जब ऐसा नहीं किया जायेगा तो वही होगा जो बालकृष्ण शर्मा नवीन के साथ हुआ."तुम जिनको कीडा समझे थे वो तो मानव निकले यारो" कहने वाले नवीन प्रगितिशीलाता की दौड़ में 'अपलक' तक आते-आते भहराकर गिर पड़े. सुमित्रानंदन पन्त भी चले तो बहुत ज़ोर-शोर से, पर आगे चलकर अरविंद के दर्शन में समाधित हो गए.
मार्क्सवाद के दार्शानिक सिद्धांतों का अध्ययन करने वालों की कमी न हिन्दी में पहले थी और न अब है, पर मार्क्सवाद के ज़मीनी विकास की पकड़ उतनी नहीं है, जितनी होनी चाहिए. इसलिए जहाँ तक सिद्धांत के विवेचन का प्रश्न है हिन्दी के प्रगतिशील आलोचकों ने अपनी समझ का भरपूर सुबूत दिया, हाँ रचना के स्तर पर बच्चन को छोड़कर लगभग सभी कवियों ने प्रगतिशीलता की आत्मा को समझ कर उसका निर्वाह करने का प्रयास नहीं किया. शिवदान सिंह चौहान ने कदाचित इसीलिए 1954 में लिखा था-"मार्क्सवाद के दार्शनिक सिद्धांतों को पद्यबद्ध कर के मार्क्सवादी ( प्रगतिवादी ) कविता तो तैयार की जा सकती है, लेकिन तब उसे न काव्य की संज्ञा दी जा सकती है न साहित्य के इतिहास में कोई अलग स्थान ही."
प्रगतिशील लेखक आन्दोलन का फलक बहुत व्यापक था किंतु इस व्यापकता को समझने के लिए संकल्प की पारदर्शिता अपेक्षित थी. ऐसी पारदर्शिता जो समाजवादी आन्दोलन से बहुत पहले भारतेंदु हरिश्चन्द्र और अल्ताफ हुसैन हाली में थी. उनके सामने एक सामाजिक-सांस्कृतिक लक्ष्य था जिसके लिए वे पूरी तरह प्रतिबद्ध थे. हिन्दी में इस परम्परा का विकास नहीं हो पाया. प्रेमचंद उर्दू की परम्परा से आए थे जहाँ संघर्ष का पहिया थमा नहीं था. फलस्वरूप वे अपने युग के सभी हिन्दी लेखकों से अलग खड़े थे और पहले क्या, आज भी अलग दिखायी देते हैं. शायद इसी लिए प्रगतिशीलता की बैसाखी लगाने वाले बार-बार प्रेमचंद का नाम दुहराते हैं. देश की स्वाधीनता से पूर्व, हमारे लेखकों के पास एक साथ जुड़ने के लिए एक कामन प्लेटफार्म था, पर स्वाधीनता के बाद वह अलगाववादी बीज जो दबे-दबे से थे, अँखुआ फोड़कर सिर उभारने लगे और 'अपनी ढपली अपना राग' की स्थिति पैदा हो गई.
साहित्य और कला को हथियार के रूप में इस्तेमाल करने की बात पर लोग चौंकते हैं और कुछ नासमझ अपनी रचनाओं को सचमुच बंदूक की गोली के रूप इस्तेमाल करने और उसका वही प्रभाव देखने का स्वप्न बुन लेते हैं. प्रगतिशीलता के दौर में भी ऐसा हुआ और आज भी ऐसा हो रहा है. रोचक बात ये है कि मित्रों से उसकी खूब-खूब व्याख्याएं भी कराई जा रही है. ऐसे रचनाकारों को यह समझना अभी शेष है कि साहित्य का कोई भी हथियार भयाक्रांत करने के लिए नहीं होता. वह शत्रु सत्ता की आक्रामक शक्तियों और उसके कुचक्रों के विरुद्ध व्यावहारिक स्तर पर युद्धरत व्यक्तियों और समूहों में उत्साह जगाये रखता है और अन्य समझदार लोगों की सोई हुई चेतना को जगाकर संघर्ष के इस मोरचे पर एकजुट होने के लिए प्रेरित करता है. 'पार्टी समझ" शब्द को रूढ़ अर्थों में ग्रहण करके नारेबाजी तो की जा सकती है किंतु यह नारेबाजी हथियार साबित होने के बजाय धीरे-धीरे उबाऊ बनकर घातक सिद्ध होती है. प्रगतिशील आन्दोलन के दौर में ऐसा ही हुआ.
प्रगतिशीलता की जिसके पास ज़रा भी समझ होती है वह 'हिन्दी जाति' का अलगाववादी स्वप्न नहीं देखता, वह जागो फिर एक बार जैसी केसरिया कवितायेँ नहीं लिखता, वह शैव दर्शन की गुत्थियाँ सुलझाने नहीं बैठता, वह ब्राह्मणवादी, ठाकुर्वादी या भाई-भातीजवादी बनकर आलोचना की पीठ पर गद्दीनशीन नहीं होता. वह इच्छानुरूप कुछ नुस्खे तैयार करके 'नुस्खावादी आलोचना' को बढावा नहीं देता. वह वस्तु और रूप के अंतर्संबंधों को व्याख्यायित करते समय लकड़ी के पटरों की तरह पानी में ऊपर-ऊपर नहीं तैरता. वह सामने खड़ी चुनौतियों को मस्लेहत के तराजू पर नहीं तौलता. वह काव्य मूल्यों तथा जीवन मूल्यों की आकांक्षित एकतानता को उद्घाटित करने से गुरेज़ नहीं करता. सच तो यह है कि जो रचना की बुनियादी ज़रूरतों और उसकी अपनी अंतरंग स्वायत्तता को खुले ह्रदय से स्वीकार नहीं कर सकता, वह प्रगतिशील बुजुर्गों की कमाई को जोड़-तोड़ से हथियाकर उसके ब्याज से अपने कैरियर की इमारत भले ही खडी कर ले, उसकी प्रगतिशीलता सदैव संदिग्ध रहेगी.
डॉ. शिव कुमार मिश्र ने एक स्थल पर लिखा है- "रचनाकार हों या आलोचक,जब वे अराजक हो उठाते हैं,अपने कर्म से जुड़ी अपेक्षाओं के दायरे से बाहर जाने की कोशिश करने लगते हैं, उनका कर्म आहत होता है, अपनी साख खो देता है."आज आवश्यकता है यह रेखांकित करने की, कि कौन कौन अपनी साख खो चुका है या खोता जा रहा है. ज़ाहिर है कि वह साख जिसकी बुनियाद टेढी और भुसभुसी होगी, उसे अधिक दिन तो निश्चित रूप से नहीं टिकना है. कुमारेंद्र पारसनाथ सिंह ने एक जगह कहा था "आज राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय माहौल में कुछ ग़लत और अराजक तत्त्वों का एक मोर्चा खड़ा होता जा रहा है, जो क्रांतिकारी तत्वों के संगठन और विकास के प्रमाणों के लिए नहीं, विघटन और विलोपन की ओर ढकेलते जाने की गैर-क्रांतिकारी हरकतों के कारण क्रांतिकारी बना हुआ है." बात तो अच्छी है पर खुल कर नहीं कही गई है.और यह खुल कर न कहना भी एक ख़ास चरित्र का परिचायक है.
देखने की बात यह है कि जिस प्रकार प्रगतिवादी युग में पुनरूत्थानवाद की अधोगामी प्रवृत्ति से लैस, अनेक लेखक प्रगतिशीलता का मुखौटा ओढ़कर प्रगतिवादी दस्ते में खड़े हो गए, ठीक उसी प्रकार वे लोग जो प्रगतिशीलता के चेहरे पर जब तक प्रतिष्ठा की चमक देखते रहे, उसके साथ जुड़े रहे और जब यह दीप्ति धीमी पड़ गई और उसकी सार्थकता पर संदेह होने लगा तो प्रगति का मुखौटा उतारकर जनवादी मुखौटे में अपनी सार्थकता साबित करने बैठ गए. ज़रूरत बार-बार मुखौटा बदलने की नहीं है. ज़रूरत है एक संयुक्त मंच पर आकर अपना आत्मालोचन करने की और जब तक ऐसा नहीं होगा प्रगतिशील लेखक आन्दोलन की जड़ों की पहचान अधूरी रह जायेगी.
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