गुरुवार, 27 मार्च 2008

ग़ज़ल : ज़ैदी जाफ़र रज़ा

मेरे मकान में थोडी सी रौशनी कम है ।

के आफताब की आमद यहाँ हुयी कम है ॥

मैं उसको चाहता हूँ और उससे दूर भी हूँ।

कभी भरोसा है उसपर बहोत , कभी कम है ॥

लबों पे उसके शहद की मिठास है अब भी,

मगर ज़बान में हलकी सी चाशनी कम है ॥

सवाल मैं ने किया, चेहरा मुज्महिल क्यों है ?

जवाब उसने दिया, आज ताजगी कम है ॥

पिला रहा है वो भर-भर के जाम क्यों सब को,

उसे ख़बर है कि रिन्दों में तशनगी कम है।

उसे बताओ वो महफ़िल में सबसे अच्छा है,

मगर मिजाज में उसके शगुफ्तगी कम है ॥

जदीदियत ने हमारे दमाग बदले हैं ,

जभी तो आज बुजुर्गों की पैरवी कम है।।

चलो यहाँ से, के घुटता है दम यहाँ मेरा,

यहाँ पे शोर बहोत, कारकर्दगी कम है॥

कहाँ मैं आ गया , ये बस्तियां अजीब सी हैं,

यहाँ हयात की चादर अभी खुली कम है॥

तुम्हारी बातों से मायूसियां झलकती हैं,

तुम्हारे जुम्लों में तासीरे-ज़िंदगी कम है ॥

मंगलवार, 25 मार्च 2008

प्रो० हरि शंकर आदेश

प्रोफेसर हरि शंकर आदेश एक सुविख्यात कवि, लेखक और संगीतकार हैं. कैनडा, अमेरिका और ट्रीनिडाड से हिन्दी की जीवन-ज्योति नामक पत्रिका का सफल संपादन कर रहे हैं और हिन्दी भाषा तथा साहित्य के प्रचार-प्रसार एवं हिंदू धर्म और संस्कृति की सुरक्षा तथा भारत के गौरव को समुज्ज्वल देखने के लिए प्रतिबद्ध और समर्पित हैं. सुदूर देश में रहकर भी हिन्दी में लगभग एक सौ साठ पुस्तकें लिखने का उन्हें श्रेय प्राप्त है. विचारों में खुलापन, संकल्प की दृढ़ता, विवेक-युक्त चिंतन और साम्प्रदायिक सौहार्द की चिंता उनके चरित्र की विशेषताएँ हैं. प्रस्तुत है यहाँ उनकी तीन कवितायें-
१.अश्रुपात क्यों ?
आज अचानक अश्रुपात क्यों ?

होता है अपराध-बोध सा ,
अंतरात्मा के विरोध सा,
प्रबल प्रभंजन भर प्राणों में,
झरता है युग-युग प्रपात क्यों ?

आती है ध्वनि अंतराल से ,
असावधान मत रहो काल से,
अविदित, अ-प्रत्याशित क्षण में,
होता यम् का वज्रपात क्यों ?

यह सच है दम्भी न रहा मैं,
किंतु स्वावलम्बी न रहा मैं,
अन्धकार का भी आश्रय ले ,
प्रफुल्लेच्छु उर-वारिजत क्यों ?

प्रिय ! न कहीं पथ-च्युत हो जाऊं,
संबल दो, अस्मिता बचाऊं,
विषम परिस्थितियों के तम में,
हुआ तिरोहित नव-प्रभात क्यों ?
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२. सम्पूर्ण

मैं जनता हूँ कि तुम

मुझे प्यार नहीं दे सकोगे,

तो घृणा ही दे दो।

मैं जनता हूँ कि तुम

मुझे सुख नहीं दे सकोगे,

तो पीड़ा ही दे दो ।

किंतु जो कुछ भी दो,

दो सम्पूर्ण।

मैं नहीं चाहता कि तुम उसका एक अंश भी,

अपने पास रखो ।

सारी घृणा,

सारी पीड़ा,

मुझे दे दो।

ताकि संसार के हर प्राणी को देने के लिए,

तुम्हारे पास,

प्यार के अतिरिक्त और कुछ न रहे।

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३। प्रश्न

जब कि पशु का शिशु,

सदा ही पशु कहाता,

और,

जब संतान मानव की कहाती है मनुज ही .
वनस्पतियों की उपज है,

वनस्पति ही तो कहातीइस जगत में ।


क्यों न फिर भगवन की संतान भी,

भगवन कहलाती भुवन में ?

और की जाती उपासित है सदाभगवन सी ही ?

जब कि हर प्राणी यहाँ भगवन की संतान,

फिर गुण क्यों नहीं उसमें पिता के ?
और यह शैतान है उपजा कहाँ से ?

पुत्र है शैतान यदि भगवन का ही,

अर्थ है इसका कि फिर भगवन तो,

शैतान का भी बाप है ।

शायद इसी से मिट नहीं पाया अभी तक विश्व

का संताप है ?

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सोमवार, 17 मार्च 2008

कबतक ? : - शैलेश ज़ैदी

गुलाबों की हरी टहनियों को
चाटते रहेंगे कबतक
मिटटी से जन्मे , बदनीयत- बदहवास कीड़े ?
कबतक भूखे पशुओं का भरती रहेगी पेट
धरती पर लहलहाती हरी दूब ?
अच्छा होता कि आदमी स्वप्न देखने के बजाय,
संजो पाता अपने भीतर
निर्णय लेने की शक्ति।
परम्पराओं-मर्यादाओं के नीचे दबे-दबे,
पल-पल गिनते रहना अपनी एक-एक साँस
विधाता की बनायी नियति नहीं है
कोरी कायरता है ,
जिसे झेलते हैं सभी पराजित माँ-बाप
और उंडेल लेती हैं इस कायरता को अपने आँचल में,
इस देश की ढेर सारी बेटियाँ ।
जिनकी नाक में पति-सेवा की नथ डालकर
छोड़ दिया जाता है
मर्यादाओं-परम्पराओं की सियाह धरती पर
जीने के लिए एक कंटीली ज़िंदगी।
बेटियों के माँ -बाप शायद नहीं जानते,
कि समस्या का समाधान कर लेना,
स्वप्नों को साकार करना नहीं है।
स्वप्न केवल माँ-बाप ही नहीं देखते
बेटियाँ भी देखती हैं ,
रंगीन तितलियों जैसा।
जिनमें समय-समय पर भरते रहते हैं मां-बाप
गुलाबों की भीनी-भीनी जादुई - खुशबू ।
बेटी को एक अदद पति दे देना,
और दायित्व से मुक्त हो जाना,
अंधी परम्पराओं की लीक पीटना है।
यह परम्पराएं ,
नहीं जानतीं बेटियों के होंठों की मुस्कराहट,
और आंखों की चमक का अर्थ।
नहीं समझना चाहता कोई पराजित पिता
कि हर चमकती आँख
और सभी मुस्कुराते होंठ,
स्वप्नों की रंगीन खुशबुएँ नहीं बिखेरते
नहीं फैलती उन मुस्कुराहटों की गंध,
मकान के भीतर और बाहर एक जैसी।
बेटियाँ हंसती हैं, मुस्कुराती हैं,
ठहाके भी लगाती हैं.
और समझते हैं माँ-बाप,
कि वह बहुत खुश हैं,
कि बहुत सुखी है उनका दाम्पत्य-जीवन,
कि बहुत चाहते है उन्हें उनके पति.
किंतु, नहीं होता अधिकतर बेटियों का
बाहर- भीतर एक जैसा.
क्योंकि नहीं चाहतीं वो,
कि उनकी सिसकती छाया से लग जाय
उनके चांदनी भरे मायके में ग्रहण.
कि उनके आंसुओं के वज़न से,
झुक जाय उनके मां-बाप की कमर .
संजो कर रखती हैं वो अपने आंसू,
एकांत के उन क्षणों के लिए।
जहाँ नहीं होता कोई और,
केवल होते हैं अतीत के थके-हारे स्वप्न।
बेटियाँ सोंचती हैं,
मैं भी सोंचता हूँ ,
और शायद सोंचते हों आप भी मेरी तरह।
कब तक पीटते रहेंगे हम
मर्यादाओं-परम्पराओं की यह लीक ?
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शनिवार, 15 मार्च 2008

बरसों का सफर : कु० डॉ. मिश्कात आबिदी

माँ.........
तुम्हारी झुर्रियों में छुपा है
बरसों का सफर
ज़िंदगी के अनगिनत उतार-चढाव .
तुम्हारी आंखों के धुंधलकों में छुपे हैं .....
ज़िंदगी के हज़ार-हज़ार रंग.
तुम्हारे स्याह बालों पर फैली सफेदी,
बार-बार दुहराती है, अतीत की घडियाँ
और तुम जोड़ती हो
वर्त्तमान से अतीत की कडियाँ .
अब तुममें नहीं दिखता, पहले सा धैर्य
तुम हो गयी हो अधिक
और अधिक संवेदनशील
शायद इसलिए कि
उम्र के इस दौर में,
बढ़ गया है तुम्हारा अकेलापन.
तुम्हारे आँचल में सिमटे,
नन्हे-मुन्नों ने सीख लिया है,
ठहरे हुए कदमों से चलना.
तुम्हारे पंखों में सिमटे परिंदों ने,
सीख लिया है, आकाश में उड़ना.
फिर भी तुम्हें होती है, उनकी फिक्र,
क्योंकि तुम माँ हो.
सदैव दात्री सहनशीला
अतीत की मधुर स्मृतियों से,
अक्सर धुंधली हो जाती हैं,
तुम्हारे चेहरे की झुर्रियां.
यादों की मीठी चुटकी से
फैल जाती है कपोलों पर,
लाज की लालिमा.
स्मृतियों के पटल पर,
कभी तुम दिखाई पड़ती हो,
नन्ही सी मासूम बच्ची.
कभी भावी जीवन का सपना संजोती,
प्रेम की परिभाषा से अंजान,
यौवन के धरातल पर,
सपनों को साकार रूप में पाकर
शुरू होता है तुम्हारी
नई ज़िंदगी का सफर.
नए श्रृंगार के साथ खुलते हैं
जीवन के नए कपाट.
और तुम गढ़ती हो ,
संवारती हो,
अपनी कल्पनाओं सा रचती हो,
अपने जीवन-साथी को.
कभी तुम लगती हो तपस्विनी,
कभी साधिका,
कभी ममत्व की महिमा से मंडित,
ऐश्वर्य-युक्त तेजस्विनी.
सब कुछ सुखमय, आनंदमय.
सहसा आता है तूफान
बिखर जाता है तुम्हारा सिंगार.
घायल हो जाती है
कांच की चूडियों से सजी कलाई.
बेरंग हो जाता है ,
तुम्हारा सतरंगी आँचल.
पर नहीं टूटती हो तुम,
क्योंकि तुम जानती हो
नन्हे-नन्हे मासूम बच्चों का
बनना है तुम्हें कवच.
मजबूत इरादों के साथ,
पथरीली ज़मीन पर,
फिर शुरू होती है, तुम्हारी ज़िंदगी.
शुरू होता है एक एक कर,
सबकी उंगलियाँ थामे,
मंजिल तक पहुँचने का सफर.
तुम कामयाब हो जाती हो,
ईश्वर की इस परीक्षा में,
थमकर पल भर,
विश्राम करना चाहती हो तुम,
उन दरख्तों की घनी छाँव में,
जिन्हें सींच कर तुमने ही बनाया है,
नन्हे पौधे से घना वृक्ष.
टूट जाता है सहसा,
निर्मम समीर के थपेडों से,
तुम्हारी बगिया का सबसे हरा-भरा,
खिलखिलाता, मुस्कुराता वृक्ष.
और तुम बिखर जाती हो
फिर से एक बार.
तुम्हारा बलिदान,
हमारा संबल है,
पर नहीं बाँट पाते हम,
तुम्हारा दर्द, तुम्हारा एकाकीपन.
आज भी तुम,
अपने अरमानों से सजे घर की शोभा हो,
आज भी तुम इसे सजाती हो,
संवारती हो,
करती हो हमारी फिक्र,
क्योंकि तुम माँ हो.
सदैव-दात्री सहनशीला.
हम तुम्हारे पास बैठकर ,
पढ़ना चाहते हैं अक्सर,
तुम्हारी ज़िंदगी का एक-एक पृष्ठ.
देखना चाहते है तुम्हारे अन्दर,
फैला एक विशाल नगर.
तुम्हारी झुर्रियों में छुपा है,
बरसों का सफर.
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गुरुवार, 13 मार्च 2008

राही मासूम रज़ा की याद में (नज़्म)

तुम्हारा नाम दर्सगाह के वरक-वरक पे है,
मगर तुम्हारे दौर की,
सभी इबारतें हैं आज अजनबी।
कि इन इबारतों के आज ,
राज़दां नहीं रहे ,
खुलूस की रिवायतों के कारवाँ नहीं रहे।
अदब का जौक वैसे तो है आज भी,
मगर वो पहले जैसा इनहिमाक अब यहाँ नहीं
नहा के ज़िंदगी की रोशनी में गुनगुना सकें
वो रोजोशब यहाँ नहीं,
तमाम रात महफिले -सुखन के जाम पी सकें,
वो तशनालब यहाँ नहीं.
यहाँ बजाय अंजुमन के , लोग बट गये हैं अब,
कई-कई गिरोह में
हजारों तरह की, दिलों में पल रही हैं रंजिशें,
मफाद के लिए न जाने कितनी ,
हो रही हैं रोज़ साजिशें.
नफाके-बाहमी का रक्स है हरेक गिरोह में .
यकीं करो, कि तुम थे खुशनसीब जो चले गये,
तुम्हारे फन को बम्बई में
रूहे-ज़िंदगी मिली.
तुम्हारे दम से मुल्क को
कलम की रौशनी मिली.
मकाल्मों को तुमने जो ज़बान दी,
वो प्यार में ढली मिली,
तुम्हारी फिक्र , तफ़रकों से दूर,
एक जूए-इल्तिफात थी,
तुम्हारे लफ्ज़-लफ्ज़ में, हयात थी.
तुम्हारा आधा गाँव, जानते थे तुम
कि ख़ुद तुम्हारी अपनी ज़िंदगी का एक बाब था.
फिजाए- खारदार में खिला हुआ गुलाब था.
हुरूफ़ के चमन की धडकनों में
खुशबुओं का इजतिराब था.
तुम्हारा जिस्म भी था भीष्म की तरह छिदा हुआ,
तुम्हारा अज्म था जुनूने-मक्सदे-हयात से भरा हुआ.
तुम्हीं थे पांडव,
तुम्हीं थे कौरवों के राह्बर,
नफस-नफस तुम्हारा था,
तुम्हारी अपनी जंग से घिरा हुआ.
निशाने-फतह था तुम्हारे हाथ में,
निशाने-फतह है तुम्हारे हाथ में,
तुम्हारा नाम दर्सगाह के वरक-वरक पे है,
मगर तुम्हारे दौर की, सभी इबारतें हैं आज अजनबी।
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बुधवार, 12 मार्च 2008

पसंदीदा शायरी : ग़ज़ल

आज के माहौल में खंजर बुरे लगते नहीं ।
हाथ लोगों के लहू से तर बुरे लगते नहीं ॥
दर्द में डूबे हुए मंज़र बुरे लगते नहीं ।
अब किसी को भी बुरे रहबर बुरे लगते नहीं ॥
आस्तीं के सांप की औकात क्या है आजकल।
आस्तीनों में छिपे अजगर बुरे लगते नहीं॥
बात का मतलब सही हो तो अधूरी बात के ।
कसमसाते टूटते अक्षर बुरे लगते नहीं॥
हादसों की धूप ना बर्दाश्त कर पाएं तो क्या?
देखने में कांच के भी घर बुरे लगते नहीं॥
फिर हमें अपनी निगाहों पर भरोसा क्यों नहीं।
इन परिन्दों को भी अपने पर बुरे लगते नहीं॥

बुधवार, 5 मार्च 2008

पसंदीदा शायरी : ग़ज़ल

खामोश होगी कब ये ज़बाँ कुछ नहीं पता ।

बदलेगा कब निज़ामे- जहाँ कुछ नहीं पता ॥

कब टूट जाए रिश्तये-जां कुछ नहीं पता।

कुछ कारे-खैर कर लो मियाँ कुछ नहीं पता..

चेहरे पे है सभी के शराफत का बांकपन ।

मुजरिम है कौन - कौन यहाँ कुछ नहीं पता ॥

सबके मकान फूस के हैं फिर भी सब हैं खुश ।

उटठेगा कब कहाँ से धुआं कुछ नहीं पता ॥

मंजिल की सम्त दौड़ रहे हैं सभी, मगर ।

ले जाये वक़्त किसको कहाँ कुछ नहीं पता ॥

ओहदे मिले तो अपना चलन भी भुला दिया ।

छिन जाये कब ये नामो-निशाँ कुछ नहीं पता ॥

कल आसमान छूती थीं जिन की बलान्दियाँ ।

कब ख़ाक हो गये वो मकाँ कुछ नहीं पता ॥

सीकर भी होंट हो न सके लोग नेक-नाम।

फिर क्यों है फिक्रे-सूदो-ज़ियाँ कुछ नहीं पता ॥

शाखें शजर की, कल भी रहेंगी हरी -भरी।

कैसे करे कोई ये गुमाँ कुछ नहीं पता ॥

ज्ञानेन्द्र अग्रवाल के दोहे

भक्त और भगवान् के, बीच स्वर्ण दीवार ।
इसीलिए मिलता नहीं, धर्म-कर्म में सार ॥
हार गए हम द्रौपदी, हमें न आयी लाज।
घर-घर में फिर क्यों न हो, दुर्योधन का राज॥
एक नहीं, दो भी नहीं, मन के हैं नौ द्वार।
इसके दसवें द्वार का महाशून्य संसार॥
केवल अपनी फिक्र है, नहीं देश का ध्यान।
वामपंथ खलिहान में, पूंजीपति का धान॥
गोलीबारी कर रहे , अब नाबालिग़ छात्र।
सिल्वर-जुबली पट-कथा, गोल्डन-जुबली पात्र॥
योगी भोगी हो गए, रोगी हुए निरोग।
ये साजिश है वक़्त की, या केवल संयोग॥
सुत- तृष्णा के सामने, कन्या विष का घूँट।
इंतजार में रह गया, बरगद घटकर ठूंट॥
तन समझौता चाहता, मन करता विद्रोह।
कर्म पाट में फँस गया, पल पल ऊहापोह ॥
लोहे का जंगल बनी, वसुन्धरा की देह।
जिनमें छत-आँगन नहीं, उभरे ऐसे गेह॥
मोदी के गुजरात में कट्टरता की जीत।
कांग्रेस को डस गया, उसका भ्रष्ट अतीत॥
इसकी उससे प्रीत है, उसका इससे बैर।
अगर यही चलता रहा, नहीं किसी की खैर॥
यही आज का सत्य है, यही तथ्य का सार।
अलग हुआ माँ-बाप से, बच्चों का घर-द्वार॥
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मंगलवार, 4 मार्च 2008

सूरदास के रूहानी नगमे

इस शीर्षक से सूरदास के चुने हुए एकसौ एक पदों का आज की भाषा में पद्यानुवाद शैलेश जैदी ने किया है जो पुस्तक रूप में प्रकाशित हो चुका है. हिन्दी की कई संस्थाओं ने इसे सम्मानित और पुरस्कृत भी किया है। यहाँ पाठकों की रूचि के लिए प्रस्तुत है एक पद।
सूरदास का मूल पद
प्रभू! जी मोरे औगुन चित न धरौ ।
सम दरसी है नाम तुम्हारौ , सोई पार करौ ॥
इक लोहा पूजा मैं राखत , इक घर बधिक परौ ॥
सो दुबिधा पारस नहिं जानत, कंचन करत खरौ ॥
इक नदिया इक नार कहावत, मैलौ नीर भरौ ॥
जब मिलिगे तब एक बरन ह्वै, गंगा नाम परौ ॥
तन माया जिव ब्रह्म कहावत, सूर सु मिलि बिगरौ॥
कै इनकौ निर्धार कीजिये, कै प्रन जात टरौ ॥
पद्यानुवाद
यारब मेरी खताओं पे मत कीजियो निगाह ।
यकसां सभी को चाहते हैं आप या इलाह ॥
औरों के साथ बख्शियो मेरे भी सब गुनाह ॥
इक लोहा वो है रखते हैं पूजा में सब जिसे ॥
इक लोहा वो भी है जिसे दुनिया छुरी कहे ॥
पारस ये फर्क करना नहीं जनता कभी ॥
सोना बनाके दोनों को करता है कीमती ॥
पानी है वो भी जो है नदी में रवां दवां॥
पानी ही गंदे नालों में लेता है हिचकियाँ ॥
दरिया में जाके दोनों ही दर्या-सिफत हुए ॥
गंगा का नाम पा गए गंगा सिफत हुए ॥
जिसमे बशर को कहते हैं फानी तमाम लोग ॥
पर रूह को हैं देते बका का मुकाम लोग ॥
ऐ सूर कीजिये भी खुदारा ये फैसला ॥
इक साथ रहके दोनों हैं कैसे जुदा जुदा ॥
बिगड़े कहीं न बात मसावात के बगैर ॥
रहमत पे आंच आए न यारब हो सबकी खैर ॥

रविवार, 2 मार्च 2008

कुर्सीनमा : मुस्लिम यूनिवर्सिटी के सन्दर्भ में

क्या खूब दर्सगाहे- अलीगढ है दोस्तो।
बातें बनाओ, नाम कमाओ, मज़े करो॥
पढने-पढाने का है तुम्हें गर ज़रा भी शौक़।
समझो गले में पड़ गया गुमनामियों का तौक॥
कुर्सी से बढ़के कोई मुअल्लिम नहीं यहाँ।
होती हैं हर ज़माने में मखदूम कुर्सियाँ॥
अल्लामा सिर्फ़ वो है जो कुर्सी नशीन है।
कुर्सी न हो तो इल्मो-अमल बे-यकीन है॥
वैसे तो कुर्सियों की है भरमार हर तरफ़।
लेकिन हरेक कुर्सी को हासिल नहीं शरफ॥
कुर्सी के मानी होते हैं कुदरत वो इख्तियार।
जाहो-हषम है कुर्सी से, कुर्सी से इक्तिदार॥
कुर्सी बहोत अहम् है यहाँ के निजाम में।
कुर्सी हटे तो सुबहें बदल जाएं शाम में॥
कुर्सी में वो कशिश है कि सबको लगाव है।
कुर्सी से आदमी का यहाँ मोल-भाव है॥
कुर्सी ही सदर-शोबा है कुर्सी ही डीन है।
कुर्सी असातज़ा के लिए महजबीन है॥
कुर्सी कभी प्रोवोस्ट कभी वार्डन का नाम।
यानी ज़रूरतों के मुताबिक गबन का नाम॥
कुर्सी ही जोड़-तोड़ से बनती है प्राक्टर।
कुर्सी की मुट्ठियों में है तकसीमे खैरोशर॥
कुर्सी रजिस्ट्रार भी ऍफ़ ओ भी है जनाब।
कुर्सी अगर न खुश हो तो है ज़िंदगी अजाब॥
कुर्सी ही तालिबिल्मों को देती है दाखले।
कुर्सी के इक इशारे पे होते हैं फैसले॥
दानिशकदे की सारी निजामत इसी से है।
कितने ही खानदानों की बरकत इसी से है॥
कुर्सी हो बेलगाम तो आजाय ज़लज़ला।
कुर्सी से दुश्मनी का करे कौन हौसला॥
अंदाज़ कज्रवी हो तो अफ़ज़ल हैं कुर्सियाँ।
जिनमें शराफतें हैं वो बेकल हैं कुर्सियाँ॥
हक माँगना है कुर्सी के नजदीक सरकशी।
कानून सिर्फ़ कुर्सी के होंटों की है हँसी॥
फन्ने मुसाहिबी में जिसे कुछ कमाल हो।
कुर्सी के साथ मिलके बहोत मालामाल हो॥
कुर्सी में हो सडांध तो खुशबू कहो उसे।
घपला नज़र में आए तो जादू कहो उसे॥
कुर्सी का दबदबा हो तो जीने का है मज़ा।
कुर्सी से मेल-जोल में है सबका फायदा..
इल्मो-अदब की बात सरासर फुजूल है।
कुर्सी न हो तो आदमी सहरा की धूल है॥
कुर्सी परस्त आज हैं पीरोजवां सभी।
सबकी निगाह कुर्सी झपटने में है लगी॥
कुर्सी मिले तो आदमी मसरूर क्यों न हो।
अल्लामियां से फिर वो बहोत दूर क्यों न हो॥
कुर्सी के साथ जाते-खुदा का वजूद है।
कुर्सी के हक में आज सलामो-दरूद है॥
टिपण्णी : यह नज्म जैदी जाफर रज़ा की काव्य-रचना अलीगनामा से ली गई है.