मंगलवार, 29 अप्रैल 2008

ग़ज़ल / शैलेश जैदी

ये दिल की धड़कनें होती हैं क्या, क्यों दिल धड़कता है ?
मिला है जब भी वो, बाकायदा क्यों दिल धड़कता है ?
बहुत मासूमियत से उसने पूछा एक दिन मुझसे ,
बताओ मुझको, है क्या माजरा, क्यों दिल धड़कता है ?
मुसीबत में हो कोई, टीस सी क्यों दिल में उठती है,
किसी को देख कर टूटा हुआ, क्यों दिल धड़कता है ?
किया है मैं ने जो अनुबंध उस में कुछ तो ख़तरा है,
मैं तन्हाई में जब हूँ सोचता, क्यों दिल धड़कता है ?
अनावश्यक नहीं होतीं कभी बेचैनियां दिल की,
कहीं निश्चित हुआ कुछ हादसा, क्यों दिल धड़कता है ?
तेरे आने से कुछ राहत तो मैं महसूस करता हूँ,
मगर इतना बता ठंडी हवा, क्यों दिल धड़कता है ?
अभी दुःख-दर्द क्या इस जिंदगी में और आयेंगे,
जो होना था वो सबकुछ हो चुका, क्यों दिल धड़कता है?
कहा मैं ने के अब दिल में कोई हसरत नहीं बाक़ी,
कहा उसने के बतलाओ ज़रा क्यों दिल धड़कता है ?
वो मयखाने में आकर होश खो बैठा है, ये सच है,
मगर क्या राज़ है, साकी ! तेरा क्यों दिल धड़कता है ?

मंगलवार, 15 अप्रैल 2008

शैलेश ज़ैदी की पाँच हिन्दी ग़ज़लें

[1]

यादों की दस्तक पर मन के वातायन खुल जाते है.
अपने आप ही मर्यादा के सब बन्धन खुल जाते हैं.
मैं उसको आवाज़ नहीं दे पाता लौट के आ जाओ,
दिल के गाँव में पीड़ा के पथ आजीवन खुल जाते हैं..
अर्थ-व्यवस्था के सुधार का आश्वासन क्यों देते हो ?
महंगाई की मार से झूठे आश्वासन खुल जाते हैं.
निर्धनता, भुखमरी मिटाने के प्रयास क्यों निष्फल हैं ?
तन ढकने की बात हुई जब और भी तन खुल जाते हैं.
शीशे के दरवाजों के वातानुकूल कक्षों में भी,
कुछ अधिकारी क्यों पाकर थोड़ा सा धन खुल जाते हैं.
मेरे घर के आँगन की दीवार बहुत ही नीची है.
ऊंचे भवनों की छत से नीचे आँगन खुल जाते हैं.
ओट में पलकों की सावनमय नयन छुपाए बैठे हो,
आंसू छलक-छलक पड़ते हैं जब ये नयन खुल जाते हैं.

[2]

पुष्पों का स्थैर्य दीर्घकालीन नहीं होता ।
इसीलिए मन पुष्पों के आधीन नहीं होता ॥
होंठों की मुस्कानें अक्सर धोखा देती हैं ।
आस्वादन का मोह सदा रंगीन नहीं होता ॥
दर्शक दीर्घा में बैठा हर व्यक्ति, एक जैसा ,
नाट्य-कला का भीतर से शौकीन नहीं होता ॥
सुख,संतोष,आनंद सरीखे सुंदर शब्दों का,
अर्थ है क्या जबतक कोई स्वाधीन नहीं होता ॥
अलंकरण, आभूषण से कब रूप संवारता है ,
स्वाद रहित है भोजन जो नमकीन नहीं होता ॥
कुर्सी ही आसीन हुआ करती है लोगों पर ,
कुर्सी पर शायद कोई आसीन नहीं होता ॥
बस उपाधियाँ मिल जाएं होता है लक्ष्य यही ,
पढने-लिखने में यह मन तल्लीन नहीं होता ॥
राजनीति में आने वाले दिग्गज पुरुषों का,
कोई भी अपराध कभी संगीन नहीं होता ॥

[3]

दिशा-विहीन हैं सब , फिर भी चल रहे हैं क्यों ?
हर-एक पल नई राहें बदल रहे हैं क्यों ?
समाज आज का विज्ञापनों की मंडी है।
हम इस समाज में चुपचाप पल रहे हैं क्यों ?
उड़े-उड़े से हैं चेहरे, झुकी-झुकी आँखें।
लुटा के आए हैं क्या , हाथ मल रहे हैं क्यों ?
लगी है आग ये कैसी, ये शोर कैसा है ?
ये किस के घर हैं, यहाँ लोग जल रहे हैं क्यों ?
कहाँ विलुप्त हुई स्वाभिमान की पूंजी ।
हम आज बर्फ की सूरत पिघल रहे हैं क्यों ?
कभी तो सोंचो , युगों तक, सभी दिशाओं में ।
हम इस जगत में हमेशा सफल रहे है क्यों ?
ये चक्रव्यूह है बाजारवाद का, इस में ।
हमारे मित्र निरंतर फिसल रहे हैं क्यों ?
ये कैसा शहर है, क्यों दौड़-भाग जारी है ?
घरों से लोग परीशां निकल रहे है क्यों ?

[4]


विपत्तियों में भी मुस्कान का भरोसा है ।
खिलेंगे फूल, ये उद्यान का भरोसा है ॥
भटक रहे हैं वो अज्ञान- के अंधेरों में ।
जिन्हें विवेक - रहित ज्ञान का भरोसा है ॥
जगत में छोड़ के जाना है एक दिन जिसको ।
शरीर के उसी परिधान का भरोसा है ॥
ये पेड़, जिन पे नही आज एक भी पत्ता ।
इन्हें वसंत के आह्वान का भरोसा है ॥
अँधेरी रातें हों जैसी भी, सुब्ह आती है ।
दिवस हों जैसे भी, अवसान का भरोसा है ॥
ये लोग योग को व्यवसाय क्यों बनाते हैं।
वहीं है योग , जहाँ ध्यान का भरोसा है ॥
गिरे-पडों को भी मैं आदमी समझता हूँ ।
मुझे मनुष्य के सम्मान का भरोसा है ॥

[5]

कलुशताएं किसी के मन में हों, अच्छी नहीं लगतीं.

दरारें कैसी भी जीवन में हों, अच्छी नहीं लगतीं.

बताओ तो सही, हर पल मुखौटे क्यों बदलते हो,

विवशताएं किसी बन्धन में हों, अच्छी नहीं लगतीं.

तुम्हारा रूप खिल उठता है जब तुम मुस्कुराते हो,

लकीरें कुछ अगर दरपन में हों, अच्छी नहीं लगतीं.

युवावस्था में दुःख का झेलना मुश्किल नहीं होता,

मगर पीडाएं जो बचपन में हों, अच्छी नहीं लगतीं.

जुदाई की ये घडियाँ यूं तो सह लेते हैं सब लेकिन,

यही घडियाँ अगर सावन में हों, अच्छी नहीं लगतीं.

सुलगती हों कहीं चिंगारियां अन्तर नहीं पड़ता,

ये जब ख़ुद अपने ही दामन में हों, अच्छी नहीं लगतीं.

शुक्रवार, 11 अप्रैल 2008

ग़ज़ल : ज़ैदी जाफ़र रज़ा

उसकी आंखों की इबारत साफ थी।
मैं नहीं समझा, शिकायत साफ थी॥
क्या गिला करता मैं उसके ज़ुल्म का।
उसकी जानिब से तबीअत साफ थी ॥
छुप के तन्हाई में क्यों मिलते थे हम ?
जबके हम दोनों की नीयत साफ थी.
क़त्ल करके भी, वो बच निकला जनाब।
जानते हैं सब, शहादत साफ़ थी.
गुफ्तुगू में उसकी, थीं हमदर्दियां ।
उसके चेहरे पर मुरव्वत साफ थी॥
रुख नमाज़ों में उसी की सम्त था।
मेरी तफ़सीरे-इबादत साफ थी॥
मुफलिसी अपनी छुपाता किस तरह।
सब पे ज़ाहिर मेरी हालत साफ थी॥
वो मेरा आका था, मैं क्या टोंकता।
जो भी करता था, हिमाक़त साफ़ थी.
वो हमेशा खुश रहा मेरे बगैर।
हाँ मुझे उसकी ज़रूरत साफ थी॥