शनिवार, 28 फ़रवरी 2009

आँखों की रोशनी ही जो तलवार खींच ले।

आँखों की रोशनी ही जो तलवार खींच ले.
मल्लाह तू भी कश्ती से पतवार खींच ले.
तस्लीम है मुझे कि मैं बागी हूँ, ज़िन्दगी!
क्या सोचती है, मुझको सरे-दार खींच ले.
ज़ख्मी है संगबारियों से वो बुरी तरह,
बढ़कर कोई उसे पसे-दीवार खींच ले.
आजिज़ हूँ, सल्ब कर ले तू मुझसे मेरा शऊर,
अपनी इनायतों की ये रफ़्तार खींच ले.
तंग आ चूका वो अपनों के बेजा सुलूक से,
अच्छा है उसको महफ़िले-अग़यार खींच ले.
हो जाय इल्म जब के नहीं वो वफ़ा-शनास
कैसे न अपना हाथ तलबगार खींच ले.
इस ज़िन्दगी का हाल भी है कुछ उसी तरह,
हम पढ़ रहे हों और तू अखबार खींच ले.
ढीले पड़े हैं साज़, शिकस्ता हैं उंगलियाँ,
बेहतर है अब सितार से हर तार खींच ले।
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शुक्रवार, 27 फ़रवरी 2009

ऐ मौत के फ़रिश्ते ! झिजकता है किस लिए.

ऐ मौत के फ़रिश्ते ! झिजकता है किस लिए.
लेजा हयात, गोशे में सिमटा है किस लिए.
इस ज़िन्दगी के हम कभी मालिक नहीं बने,
फिर ज़िन्दगी की हमको तमन्ना है किस लिए.
ये रिश्ते-नाते जितने भी हैं, सब हैं आरज़ी,
इंसान इनसे प्यार से लिपटा है किस लिए.
वैसे ही जल रहा हूँ, जलाती है और क्यों,
दुनिया! ये तेरी हरकते-बेजा है किस लिए.
बाज़ार में सजी हुई हर जिन्स की तरह,
हम भी थे, हमको तू ने खरीदा है किस लिए.
तेरे बताये रास्ते पर चल रहा था मैं,
मंज़िल जब आ गयी, मुझे रोका है किस लिए.
मौतो-हयात दोनों की है मांग हर तरफ़,
ख्वाहिश है जिसकी जो, नहीं मिलता है, किस लिए।


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हंसते हुए दुनिया से गुज़र जाने की ख्वाहिश.

हंसते हुए दुनिया से गुज़र जाने की ख्वाहिश.
हालात हैं ऐसे कि है मर जाने की ख्वाहिश.
उस कतरए-नैसाँ को थी आगोशे-सदफ़ में,
मानिन्दे-गुहर हुस्न से भर जाने की ख्वाहिश.
अब दे भी चुके सुब्ह को सब अपने उजाले,
बेहतर है करो मिस्ले-कमर जाने की ख्वाहिश.
गुलरंग न हो पाता ज़मीं का कभी दामन,
फूलों की न होती जो बिखर जाने की ख्वाहिश.
मयखाने के दस्तूर से वाकिफ तो नहीं हम,
दिल में है मगर बादाओ-पैमाने की ख्वाहिश.
ऐ काली घटाओ न हमें खौफ दिलाओ,
हम रखते हैं ज़ुल्मात से टकराने की ख्वाहिश.
झरने न उतरते जो पहाडों से ज़मीं पर,
दिल में ही दबी रहती निखर जाने की ख्वाहिश।
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गुरुवार, 26 फ़रवरी 2009

ज़िन्दगी गुज़री है सन्नाटों की चादर ओढे.

ज़िन्दगी गुज़री है सन्नाटों की चादर ओढे.
मौत आयेगी उजालों के समंदर ओढे.
हम भी दुःख-दर्द की दुनिया में उसी तर्ह जिये,
जैसे वीरानों में गौतम ने हैं पत्थर ओढे.
जिस्म मिटटी का है मिटटी में इसे मिलना है,
होगा क्या, जिस्म पे कितना भी कोई ज़र ओढे.
जेबे-तन ब्रज में कन्हैया ने है की ज़र्द कसा,
काली कमली हैं मदीने में पयम्बर ओढे.
तर्क इंसान न कर पाया कभी हुब्बे-वतन,
बूए-काबुल रहा अफ़कार में बाबर ओढे,
सफ़रे-वस्ल हुआ करता है दुश्वार-गुज़ार,
रूह ने आबला-पायी के हैं गौहर ओढे.
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ज़र=सोना, जेबे-तन=शरीर पर सज्जित, ज़र्द कसा=पीताम्बर, हुब्बे-वतन=मातृभूमि प्रेम, बूए-काबुल=काबुल की सुगंध, अफ़कार=वैचारिकता, सफ़रे-वस्ल=मिलन-यात्रा, दुश्वार-गुज़र=कष्टसाध्य, रूह=आत्मा, आबला-पायी= पाँव में छाले पड़ जाना, गौहर=मोती.

बुधवार, 25 फ़रवरी 2009

युग-विमर्श की यात्रा का एक वर्ष

आज 25 फरवरी 2009 को युग-विमार्श ने अपनी यात्रा का एक वर्ष पूरा कर लिया. इस बीच 5872 पाठकों ने 14563 बार युग-विमर्श की रचनाओं और विचारों के साथ संपर्क स्थापित किया। यह एक संतोष-प्रद स्थिति है। देखा जाय तो यह पूरा वर्ष ऐसे पडावों से गुज़रा है जब हिंदी ब्लॉग जगत पर, विभिन्न स्थितियों से टकराते-जूझते देश की पृष्ठभूमि में, पर्याप्त कड़वाहटें व्यक्त हुई हैं। मानसिक तनाव की इस स्थिति से बाहर निकलकर अब कुछ ठंडी हवा महसूस की जा रही है। भावुकता के इस बहाव में युग विमर्श नहीं आया और उसने एक स्वस्थ वैचारिक धरातल पर खड़े रहने का प्रयास किया। इस एक वर्ष में युग विमर्श की 519 प्रविष्टियाँ इस तथ्य की पुष्टि करेंगी। संतोष का विषय यह है की जहाँ उर्दू-हिंदी ग़ज़लों ने अपनी लोकप्रियता बनायी, वहीँ भगवद गीता, इस्लाम की समझ, कबीर का सूफी दर्शन, प्रगतिशील आन्दोलन जैसे गंभीर विषयों से सम्बद्ध आलेख भी रुचिपूर्वक पढ़े गए। सूरदास के रूहानी नगमे और राम काव्य "अब किसे बनवास दोगे" को भी सराहा गया.

युग-विमर्श उन सभी पाठकों के प्रति आभार व्यक्त करता है, जिन्होंने अपनी प्रतिक्रिया के धरातल पर सहमतियाँ असहमतियां व्यक्त कीं और कहीं कोई तल्खी नहीं आई. हाँ जाने-अनजाने में किसी ब्लॉग कर्मी को युग-विमर्श द्बारा की गयी टिप्पणियों से यदि ठेस पहुंची है तो हमें इसका खेद है. हम और भी सतर्क रहने का प्रयास करेंगे.

रविवार, 22 फ़रवरी 2009

किसी से कुछ न कहूँगा लबों को सी लूँगा

किसी से कुछ न कहूँगा लबों को सी लूँगा
यकीं करो मैं तुम्हारे बगैर जी लूँगा
खुशी मिली थी तो उसमें भी कुछ सुरूर न था
मिला है ग़म तो उसे भी खुशी-खुशी लूँगा
अंधेरे आते हैं, आने दो, ये भी हमदम हैं
ये दे सके तो मैं इनसे भी रोशनी लूँगा
पसंद आए तुम्हें जो भी रास्ता, चुन लो
मैं तुमसे कोई भी वादा न अब कभी लूँगा
मेरा ही शह्र मुझे अजनबी समझता है
मैं ये भी ज़ह्र मुहब्बत के साथ पी लूँगा

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शोर मैं कैसा, ये ऐ दौरे-क़मर! देखता हूँ.

फ़ारसी साहित्य के प्रख्यात कवि हाफिज़ शीराजी ने अपने समय के मूल्य-परक परिवर्तनों को जिस रूप में एक ग़ज़ल में [ईं चि शोरीस्त की दर दौरि-क़मर मी बीनम / हमा आफ़ाक़ पुर-अज फ़ित्न'ओ-शर मी बीनम]रस्तुत किया है उसकी प्रासंगिकता आजके दौर में देखि जा सकती है. उर्दू ग़ज़ल में उसे रूपांतरित कर के पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ.
शोर मैं कैसा, ये ऐ दौरे-क़मर! देखता हूँ.
हर तरफ़ दुनिया में है फ़ित्न'ओ-शर देखता हूँ.
ख्वाहिश हर शख्स की है और हों बेहतर अयियाम,
मुश्किलें ये हैं कि हर रोज़ बतर देखता हूँ.
अहमकों के लिए हैं कंद वो गुल के मशरूब,
रिज़्क़ दानाओं का अज़ खूने-जिगर देखता हूँ.
ताज़ी घोडे तो हैं पालान के नीचे ज़ख्मी,
तौक़ सोने का हैं पहने हुए खर देखता हूँ.
लडकियां करती हैं माँओं से यहाँ जंगो-जदल,
और लड़कों को मैं बद्ख्वाहे-पिदर देखता हूँ.
रह्म करता नहीं अब भाई पे भाई मुतलक़,
प्यार से बाप के महरूम पिसर देखता हूँ.
जाके ख्वाजा करो हाफ़िज़ की नसीहत पे अमल,
मैं इसे कीमती अज़ दुर्रो-गुहर देखता हूँ.
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दौरे-क़मर= चंद्रमा के युग में, पुर अज़ फ़ित्न'ओ-शर= उपद्रवों और बुराइयों से भरा हुआ, बेहतर अयियाम=अच्छे दिनों, बतर= और भी बुरा, कंद=दानेदार शकर, गुल=गुलाब, मशरूब=पेय/ शरबत, रिज़्क़=रोज़ी, दानाओं=बुद्धिमानों, खूने-जिगर=खून-पसीना बहाकर, पालान=घोडे का ज़ीन, तौक़=हंसली, खर=गधा, जंगो-जदल=लड़ाई-झगडा, बद्ख्वाहि-पिदर= बाप का बुरा चाहने वाला, रह्म=दया, मुतलक़=tanik भी, महरूम=वंचित, पिसर=बेटा, नसीहत=उपदेश, कीमती अज़ दुर्रो-गुहर=रत्न और मुक्ता से अधिक मूल्यवान.

शुक्रवार, 20 फ़रवरी 2009

शिकस्त-खुर्दा न था मैं, गो कामियाब न था.

शिकस्त-खुर्दा न था मैं, गो कामियाब न था.
के मेरी राह में, मायूसियों का बाब न था.
कभी मैं वक्त का हमसाया, बन नहीं पाया,
के वक्त, साथ कभी, मेरे हम-रकाब न था.
समंदरों को, मेरे ज़र्फ़ का था अंदाजा,
जभी तो, उनके लिए मैं, फ़क़त हुबाब न था.
ज़बां पे कुफ्ल लगा कर, न बैठता था कोई,
वो दौर ऐसा था, सच बोलना अज़ाब न था.
गुज़र गया वो भिगो कर सभी का दामने-दिल,
कोई भी ऐसा नहीं था जो आब - आब न था.
मैं हर परिंदे को शाहीन किस तरह कहता,
हकीक़तें थीं मेरे सामने, सराब न था.
तवक्कोआत का फैलाव इतना ज़्यादा था,
के घर लुटा के भी अपना, वो बारयाब न था.

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डस गया हो साँप जैसे फ़िक्र की परवाज़ को.

डस गया हो साँप जैसे फ़िक्र की परवाज़ को.
लब हिलाना भी हुआ मुश्किल सुख़न के साज़ को.
फूल, पत्ते, शाख, कलियाँ, रंगों-बू हैं नगमा-रेज़,
फिर भी सब पहचान लेते हैं तेरी आवाज़ को.
शोखियाँ, नाज़ो-अदा, खफ़्गी, शिकायत, आरज़ू,
भर लिया आंखों में हमने उसके हर अंदाज़ को.
वक़्त ने रख दी उलट कर इक़्तिदारों की बिसात,
डर कबूतर से न क्यों लगने लगे शाहबाज़ को.
ये समझ कर खुल न पाएंगी कभी अब साजिशें,
क़त्ल कर देते हैं ज़ालिम, हमनवा हमराज़ को.
जब पता है, सिर्फ़ मक़सद है हुकूमत की कशिश,
जोड़ कर देखेंगे क्यों अंजाम से आगाज़ को.
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फ़िक्र=चिंतन, परवाज़=उड़ान, सुखन=कविता, साज़=वाद्य, नगमा-रेज़=सुरीली आवाज़ में गाने वाला, इक़तिदारों=अधिकारों, बिसात=शतरंज का बोर्ड/ पूँजी / हैसियत,शाहबाज़=शिकारी बाज़ पक्षी / श्येन, साजिशें= षड़यंत्र, हमनवा-हमराज़= रहस्यों में शरीक मित्र, मकसद=उद्देश्य, अंजाम=परिणाम, आगाज़=प्रारंभ.

गुरुवार, 19 फ़रवरी 2009

हिजाब, गुंचों को लाज़िम हुआ, गुलों को नहीं.

हिजाब, गुंचों को लाज़िम हुआ, गुलों को नहीं.
नक़ाब-पोशियाँ भाईं कभी बुतों को नहीं.
खुशी हुई उसे, दिल की इबारतें पढ़कर,
कि उसने चाहा कभी सादे काग़ज़ों को नहीं.
गुलाब जैसी है रंगत भी और खुशबू भी,
कोई ज़रूरते-तज़ईन उन लबों को नहीं.
सहाफ़ियों को है रंगीनियों में दिलचस्पी,
अज़ीज़ रखते ज़रा भी वो मुफ़्लिसों को नहीं.
हमारे दौर में है इक़तिदार की वक़अत,
कि आज पूछता कोई शराफतों को नहीं.
क़सीदे नज़्म करें किसलिए हुकूमत के,
किसी वजीफे की हाजत सुख़नवरों को नहीं.
जो बढ़ के जाम उठा ले, वही है बादा-परस्त,
मिली ये मय कभी दुनिया में काहिलों को नहीं.
तुम अपनी वज़अ पे क़ायम हो आज भी जाफ़र,
ग़मों में ज़ाया किया तुमने आंसुओं को नहीं।

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हाथ मेरा थाम कर परछाइयां ले जायेंगी.

हाथ मेरा थाम कर परछाइयां ले जायेंगी.
ज़ह्न की ये वादियाँ जाने कहाँ ले जायेंगी.
ज़ुल्मतों के दरमियाँ से मंज़िलों तक एक दिन,
है यकीं मुझको मेरी बीनाइयां ले जायेंगी.
आस्मां पर फल, ज़मीं में हैं दरख्तों की जड़ें,
इनकी तह तक इश्क की पह्नाइयां ले जायेंगी.
ला-मकाँ की सरहदों से भी गुज़रना है मुहाल,
कुर्बतें इन सरहदों के दरमियाँ ले जायेंगी.
हिर्स में डूबे हुए हैं लोग सर से पाँव तक,
क्या ख़बर किसको, कहाँ, ये पस्तियाँ ले जायेंगी.
जो रहा महफूज़ तूफाँ में, सफीना और था,
अब किसी को क्या बचाकर कश्तियाँ ले जायेंगी।
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बुधवार, 18 फ़रवरी 2009

हमको समझ के बादए-गुलरंगो-मुश्कबू.

हमको समझ के बादए-गुलरंगो-मुश्कबू.
हसरत से राह में हैं खड़े रिंद चार सू.
आवाज़ उसकी घुलती गई मेरे जिस्म में,
बज्मे-तरब में बस वो अकेला था खुश-गुलू.
कोई तो लड़खडा गया पीकर बस एक जाम,
ज़िद थी किसी को पी के रहेंगे खुमो-सुबू.
आतिश की नज़्र हो गए खामोश-लब मकाँ,
सब बे-खता थे जिनका बहाया गया लहू.
ख्वाबीदगी में लेता रहा सिर्फ़ तेरा नाम,
बेदारियों में, तुझ से रहा महवे-गुफ्तुगू.
तेरी जबीं पे अब भी हैं मेरे लहू के दाग,
आईना रख के देख कभी अपने रू-ब-रू.
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बादए गुलरंगो-मुश्क-बू=कस्तूरी सुगंध वाली गुलाबी शराब, हसरत=लालसा, रिंद=शराबी, बज्मे-तरब=संगीत-गोष्ठी, खुमो-सुबू=शराब के घडे और मटके, आतिश=आग, खामोश-लब=चुप्पी साधे हुए, ख्वाबीदगी=सुषुप्तावस्था, बेदारियों=जाग्रतावस्था, महवे-गुफ्तुगू=बात-चीत में व्यस्त, जबीं= ललाट, रू-ब-रू. =चेहरे के सामन

मंगलवार, 17 फ़रवरी 2009

गुबार दिल पे न लो, दिल को साफ़ रहने दो.

गुबार दिल पे न लो, दिल को साफ़ रहने दो.
कोई ख़िलाफ़ अगर है, ख़िलाफ़ रहने दो.
मुआशेरा है, तो नाइत्तेफ़ाक़ियाँ भी हैं,
इसी तरह इन्हें ज़ेरे-गिलाफ़ रहने दो.
तमाम लोग अगर मुनहरिफ़ भी हो जायें,
सबब तलाश करो, इनहिराफ़ रहने दो.
लताफ़तों से जुबां की उन्हें तअल्लुक क्या,
दुरुस्त करते हो क्यों शीन-क़ाफ़, रहने दो.
वो सादा-लौह हैं, जो दुश्मनी निभाते हैं,
कराओ उनसे न कुछ एतराफ, रहने दो.
निशान बाक़ी रहेंगे, तो टीस उट्ठेगी,
न जुड़ सकेंगे दिलों के शिगाफ़, रहने दो.
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गुबार=धूल/गर्द, मुआशेरा=तहजीब/ समाज, ना-इत्तेफ़ाक़ियाँ=असहमतियां, ज़ेरे-गिलाफ़=खोल के नीचे, मुनहरिफ़=उद्दंड/सरकश.इनहिराफ़=उद्दंडता, लताफ़तों=कोमलता परक सौन्दर्य, तअल्लुक=सम्बन्ध, सादा-लौह=सीधे स्वभाव, एतराफ,=स्वीकृति, शिगाफ़=दरार.

सोमवार, 16 फ़रवरी 2009

आँखें वीरान सी हैं,चेहरा बियाबान सा है.

आँखें वीरान सी हैं, चेहरा बियाबान सा है.
इन फ़िज़ाओं में तड़पता कोई तूफ़ान सा है.
आओ घर लौट चलें कुछ नहीं रक्खा है यहाँ,
काफिला जीस्त का अब, बेसरो-सामान सा है.
उसका क्या है, किसी लम्हा भी खफ़ा हो जाये,
वक़्त आशुफ्ता-सरी में दिले-नादान सा है.
चन्द रोज़ों की मुलाक़ात में ठहराव कहाँ,
ये तअल्लुक़ तो घर आये किसी मेहमान सा है.
वो बताने पे था आमादा पुराने रिश्ते,
मैं मिला था कभी उससे मुझे कुछ ध्यान सा है.
किससे उल्फत थी, उसे तोड़ गया किसका फिराक,
क्या हुआ बाग़ को, क्यों चाक-गरीबन सा है.
सीधी बातें भी समझते नहीं दुनिया वाले,
कुछ कमी है कहीं, कुछ अक्ल का फ़ुक़्दान सा है.

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इससे पहले कि घटा आके यहाँ छा जाये.

इससे पहले कि घटा आके यहाँ छा जाये.
घर का बिखरा हुआ सामन समेटा जाये.
कोई अनजाना सा भय बैठ न जाये मन में,
किसी बच्चे को कभी इतना न डांटा जाये.
कैसा था स्वप्न जिसे देख के कुछ ऐसा लगा,
बेवजह जैसे अचानक कोई धमका जाये.
स्वार्थ के घोल में शब्दों को बनाओ न मधुर,
इनको सुन-सुन के कहीं कोई न उकता जाये.
उसको घर लौट के जाना है, वो चिंतित भी है,
कहीं बारिश न हो ऐसी कि वो घबरा जाये.
हमने देखा है समय को भी उगाते हुए फूल,
कल ये सम्भव है वो फिर अपने को दुहरा जाये.
मंजिलें उसकी मेरी एक हैं, उससे कह दो,
जब वो जाये तो मुझे साथ में लेता जाये.
एक ही दृश्य कहाँ तक कोई देखेगा भला,
सामने से मेरे ये दृश्य हटाया जाये।
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रविवार, 15 फ़रवरी 2009

विवादों को न दो विस्तार उल्झेंगी समस्याएँ.

विवादों को न दो विस्तार उल्झेंगी समस्याएँ.
निकालो युक्ति ऐसी लुप्त हों सारी समस्याएँ.
कभी फूलों से हम कुछ बात करते, तो पता चलता,
कि उनके सामने हैं आजकल कैसी समस्याएँ.
स्वतः संकीर्णताएं मन से निष्कासित नहीं होतीं,
कि ये सायास हैं पाली गयी अंधी समस्याएँ.
अंधेरों में न पथ का सूझना सामान्य होता है,
उजालों में न पथ सूझे तो हैं भारी समस्याएँ.
हमारा आज हमसे कह रहा था बात-बातों म,
न सोचो ऐसे मुद्दों पर जो थे कल की समस्याएँ.
गगन में बिजलियाँ चमकें तो स्वाभाविक सा लगता है,
किसी के मन में ऐसा हो तो हैं तीखी समस्याएँ.
मेरी कवि-मित्र ने मुझसे कहा मन में दुखी होकर,
ग़ज़ल कहने में हैं शैलेश जीटेढी समस्याएँ।

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शनिवार, 14 फ़रवरी 2009

भीगे हुए बालों को सुखाते हुए देखो.

भीगे हुए बालों को सुखाते हुए देखो.
उस चाँद को सूरज में नहाते हुए देखो.
जब डाले हरे पेड़ पे लहरा के दुपट्टा,
शाखाओं को बल खा के लजाते हुए देखो.
रक्षा में गुलाबों की उठा रक्खे हैं भाले,
इन टहनियों को स्वांग रचाते हुए देखो.
बच्चों को दुपहरी में घने नीम के नीचे,
निमकौलियों के ढेर लगाते हुए देखो.
उड़ती हुई आई है बगीचे में जो तितली,
फूलों से उसे बात बनाते हुए देखो.
जब रात हो गहरी उसे वीणा के सुरों पर,
मस्ती में भजन सूर के गाते हुए देखो.
मिल जाए वो बाज़ार में गर साथ किसी के,
घबरा के उसे आँख चुराते हुए देखो.
एकांत के अमृत को, विचारों के चषक में,
भर-भर के, मुझे पीते-पिलाते हुए देखो.
ये काया तो मिटटी की है, क्यों गर्व है इसपर,
इसको कभी मिटटी में समाते हुए देखो.
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शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2009

काव्य में अंतर्कथाएँ जो भी संदर्भित मिलीं.

काव्य में अंतर्कथाएँ जो भी संदर्भित मिलीं.
कुछ से हम अनभिज्ञ थे, पर कुछ बहुत चर्चित मिलीं.
उसके वक्तव्यों ने मुझको इस कदर प्रेरित किया,
कामियाबी की दिशाएँ सर्व-संभावित मिलीं.
जुगनुओं को घुप अंधेरों में हुई किसकी तलाश,
तितलियाँ दिन के उजालों तक ही क्यों सीमित मिलीं.
चाँदनी झरने में उतरी है नहाने के लिए,
सूर्य की किरनें भी दावानल से संवादित मिलीं.
दोपहर की धूप में मजदूर निर्धन औरतें,
अपनी काया से पसीना पोंछती, पीड़ित मिलीं.
मुद्दतों के बाद, जब आया मैं अपने गाँव में,
ज़िन्दगी की, भूमिकाएँ पूर्ण परिवर्तित मिलीं.
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हिन्दी ग़ज़ल ने उर्दू का घूंघट उठाया है.

हिन्दी ग़ज़ल ने उर्दू का घूंघट उठाया है.
आवाज़ आ रही है कि साजन पराया है.
शब्दों को ज़ेवरों की तरह छीन ले गया,
व्यवहार उसने मुझसे पुराना निभाया है.
आवारगी का रख दिया इल्ज़ाम मेरे सर,
आवारगी में जब कि स्वयं वो नहाया है.
मुझमें वो खोज लेता है अश्लीलता की बात,
बदनाम करने का ये नया ढंग लाया है.
कितनी ही सदियाँ हैं मेरे किरदार की गवाह,
ये ऐसा सत्य है जिसे सबने छुपाया है.
इतिहास मेरा भूल के, अपनों ने ही मुझे,
भाषा के कारावास में बंदी बनाया है.
मैं अपने संस्कारों से जीवित हूँ आज तक,
मुझको युवा समाज ही पहचान पाया है.
सच बोलियेगा, ऐसी कहीं मिल सकी मिठास,
गालिब को आपने भी बहुत गुनगुनाया है.
मैं चुप हूँ बस ये सोच के, आयेगा एक दिन.
देखेंगे सब कि मेरा ही वर्चस्व छाया है।
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गुरुवार, 12 फ़रवरी 2009

हर समय, आकर गुज़र जाता है, हर इंसान का.

हर समय, आकर गुज़र जाता है, हर इंसान का.
प्यार में लेकिन समय आता नहीं अवसान का.
इस अवस्था में, कि जब एकांत है मेरी नियति,
मोह विह्वल कर रहा है किस लिए संतान का.
दर्द, पीड़ा उलझनें, बेचैनियाँ, आवारगी,
ये तो बस पहला सबक़ है इश्क़ के सोपान का.
उसकी घूँघरदार अलकें प्रेम की ज़ंजीर हैं,
और मैं क़ैदी हूँ उसके रेशमी परिधान का.
खुल अगर जाये कभी सौन्दर्य का उसके रहस्य,
आदमी, दीवाना हो जाये, अनूठी शान का.
ये वो कारागार है जिससे नहीं मिलता फ़रार,
हर समय पहरा यहाँ रहता है उसके ध्यान का.
कौन सत्ता में है ये 'कमलेश्वर' को था पता,
कथ्य देता है गवाही 'कितने पाकिस्तान' का.
दोपहर की चिलचिलाती धूप में निकला हूँ मैं,
ध्यान आया जब मुझे तेरे सरोसामान का.
मुझसे अच्छे भी न जाने कितने आयेंगे अभी,
आखिरी गायक नहीं मैं इश्क के पादान का.
कौन लेता है युवावस्था में जिम्मेदारियां,
घर चलाना काम है बूढों के धर्म-ईमान का.
होश की बातें जो करते हैं न समझेंगे कभी,
मेरी मदहोशी, कथानक है मेरी पहचान का।
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मौसम भी तेरे हुस्न से रंगत चुराते हैं.

मौसम भी तेरे हुस्न से रंगत चुराते हैं.
खुशबू-बदन-लिबास की फरहत चुराते हैं.
जो अब्र बारिशों की हैं तह में छुपे हुए,
तेरा मिजाज, तेरी तबीअत चुराते हैं.
तेरे लबो-दहन का नमक चख चुके हैं जो,
एहसास में, ये कीमती दौलत चुराते हैं.
देखा है जाहिदों को तसौवुर से जाम के,
बेसाख्ता शराब की लज्ज़त चुराते हैं.
ये मेहरो-माह भी तो गिरफ़्तारे-इश्क हैं,
ये सुब्हो-शाम तेरी फ़ज़ीलत चुराते हैं.
नज़रों से इस जहान की अब तंग आ चुके,
लो आज हम भी अपनी शराफत चुराते हैं।
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बुधवार, 11 फ़रवरी 2009

आग वो कैसी थी जो आज भी कम होती नहीं.

आग वो कैसी थी जो आज भी कम होती नहीं.
अब ये सीने की जलन बाइसे-ग़म होती नहीं.
बात इक शब की है, लेकिन नहीं मिलते अल्फाज़,
दास्ताँ, जैसी कि थी, मुझसे रकम होती नहीं.
चन्द लम्हों की मुलाक़ात का इतना है असर,
उसके चेहरे से जुदा, दीदए- नम होती नहीं.
अब पिला देता है ख़ुद से वो मुझे जाम-पे-जाम,
अब तो पीने में ये गर्दन भी क़लम होती नहीं.
मुझमें और उसमें कोई फ़ास्ला बाक़ी न रहे,
ऐसी सूरत, किसी सूरत भी बहम होती नहीं.
कितने फ़नकारों ने तस्वीरें बनायीं उसकी,
एक तस्वीर भी हमरंगे-सनम होती नही
मेहरबाँ होके न होने दिया उसने मुझे दूर,
ज़िन्दगी मिस्ले-शबे-रंजो-अलम होती नही
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बाइसे-ग़म=दुख का कारण, अल्फाज़=शब्द, दास्ताँ=कथा, रक़म=लिखना, दीदए-नम=भीगी आँखें, क़लम होना=काटा जाना, बहम=एकत्र, फनकारों=कलाकारों, हमरंगे-सनम=महबूब के स्वभाव की, मेहरबाँ=कृपाशील, मिस्ले-शबे-रंजो-अलम=दुख और पीड़ा की रात जैसी.

मंगलवार, 10 फ़रवरी 2009

रात, ख़्वाबों में कोई चाँद था ऐसा निकला.

रात, ख़्वाबों में कोई चाँद था ऐसा निकला.
देखते ही शबे-फ़ुर्क़त का जनाज़ा निकला.
साफ़ दो साए गुज़रते नज़र आए मुझको,
वह्म था मेरा, वहाँ मैं तने-तनहा निकला.
क़फ़से-जिस्म में रहना इसे मंज़ूर नहीं,
नफ़्स उड़ने को तड़पता सा परिंदा निकला.
सुब्ह की ठंडी हवाओं ने लिए क्या बोसे,
शाख़ पर फूल जो निकला, तरो-ताज़ा निकला.
वक़्त बहरूपिया है, रोज़ बदल लेता है भेस,
कल फ़रिश्ते सा लगा, आज दरिंदा निकला.
हर तरह दिल ने किया उसकी बुजुर्गी का लिहाज़,
सामने उसके कोई लफ्ज़ न बेजा निकला.
मोतबर, आजकल अहबाब में कोई न रहा,
कैसी उम्मीद थी उस शख्स से, कैसा निकला.
अक़्ल से फ़िक्र को हासिल है तवाजुन का वक़ार,
फ़ने-तहरीर में हर शख्स अधूरा निकला.
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शबे-फुरक़त=वियोग की रात, वह्म=भ्रम, तने-तनहा=अकेला, क़फ़से-जिस्म=शरीर का पिंजरा, मंज़ूर=स्वीकार, नफस=आत्मा, बोस=चुम्बन, दरिंदा=हिंसक पशु, बेजा=अनावश्यक, मोतबर= विश्वसनीय, अहबाब=मित्र, शख्स=व्यक्ति, अक्ल=विवेक, तवाजुन=संतुलन, वकार=मान-मर्यादा, फने-तहरीर=लेखन-कला,

सोमवार, 9 फ़रवरी 2009

पीता हूँ मय, तो लगता है, विशवास है मुखर.

पीता हूँ मय, तो लगता है, विशवास है मुखर.
चख लीजिये, गर आपका एह्सास है मुखर.
रिन्दों की तर्ह, किसने किया है, खुदा को याद,
जायें न दूर आप, कि इतिहास है मुखर.
तनहाई में जब आया है, उसका मुझे ख़याल,
महसूस ये हुआ है, कोई, पास है मुखर.
चिंता ये है, कि देखूं मैं अन्याय, किस तरह,
चुप भी रहूँ, तो ज़ुल्म का आभास, है मुखर.
जनता को, अपनी बातों से, बहला न पाओगे,
जिस युग में जी रहे हो, अनायास है मुखर,
किस तर्ह हो रही है गरीबों के धन की लूट,
हर एक, राजनेता का आवास, है मुखर.
मुझको, किसी को पढ़के, न ऐसा लगा कभी,
गोदान जैसा, कोई उपन्यास, है मुखर.
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दुख ये नही कि बेटे को परदेस भा गया

दुख ये नही कि बेटे को परदेस भा गया
दुख ये है मेरी आंखों पे कुहरा सा छा गया.
जुगराफ़ियाई दूरियों का कोई ग़म नहीं,
ग़म ये है दिल को तोड़ के वो मह्लक़ा गया.
मजबूरियाँ थीं ऐसी, मैं कुछ भी न कर सका,
वक़्त आया ऐसा भी, मुझे देकर सज़ा गया.
मैं उसके दर की ख़ाक पे सज्दा न कर सका,
बारिश हुई कुछ ऐसी, कि सारा मज़ा गया.
कोई नहीं जो दफ़्नो-कफ़न की करे सबील,
रुखसत का, इस जहान से, अब वक़्त आ गया.
रंजो-अलम के दौर में भी, हूँ मैं नग़मा-रेज़,
हालात ऐसे देख के, जी थरथरा गया.
मय के हर एक घूँट में था ज़िन्दगी का राज़,
साक़ी ये जामे-वस्ल पिलाकर चला गया.
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रविवार, 8 फ़रवरी 2009

दिल पे करते हैं दमागों पे असर करते हैं / बाक़र ज़ैदी

दिल पे करते हैं दमागों पे असर करते हैं.
हम अजब लोग हैं ज़हनों पे असर करते हैं.
बंदिशें हमको किसी हाल गवारा ही नहीं,
हम तो वो लोग हैं दीवार को दर करते हैं.
वक़्त की तेज़-खरामी हमें क्या रोकेगी,
जुम्बिशे-किल्क से सदियों का सफ़र करते हैं.
नक्शे-पा अपना कहीं राह में होता ही नहीं,
सर से करते हैं, मुहिम जब कोई सर करते हैं.
क्या कहें हाल तेरा, ऐ मुतमद्दिन दुनिया,
जानवर भी नहीं करते जो बशर करते हैं.
हमको दुश्मन की भी तकलीफ गवारा न हुई,
लोग अहबाब से भी सरफे-नज़र करते हैं.
मर्क़दों पर तो चरागाँ है शबो-रोज़ मगर,
उम्र कुछ लोग अंधेरों में बसर करते हैं.
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ज़ुहल-वो-मुश्तरी थे एक बुर्ज में यकजा.

ज़ुहल-वो-मुश्तरी थे एक बुर्ज में यकजा.
मैं ऐसे वक़्त में पैदा हुआ तो हासिल क्या.
नुजूमियों की हैं पेशीन-गोइयाँ बेसूद.
नसीब होता है एह्सासो-फ़िक्र से पैदा,
मुझे रहा न कोई खौफ मुह्तसिब का कभी,
पिलाया साक़ी ने मुझको, मैं खूब पीता गया.
उरूज पाते हैं जिस दौर में भी रक़्सो-तरब,
ये लाज़मी है कि हो क़त्लो-खून भी बरपा.
मैं सोचता हूँ कि ऐसी जगह चला जाऊं,
कि जिसका हो न अज़ीज़ और अक़रुबा को पता.
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ज़ुहल=शनि, मुश्तरी=बृहस्पति, बुर्ज=गुम्बद/राशियों का घर, यकजा=एकत्र, हासिल=प्राप्त, [ कहा जाता है कि जब शनि और बृहस्पति एक ही बुर्ज में हों, उन क्षणों में जो जन्म लेता है, बहुत प्रतापी और तेजस्वी होता है]. नुजूमियों=ज्योत्षियों, पेशीनगोइयाँ=भविष्यवाणियाँ, बेसूद=व्यर्थ, नसीब=भाग्य, एह्सासो-फ़िक्र=अनुभूति और चिंतन,मुह्तसिब=मधुशाला की निगरानी करने वाला, उरूज=तरक्की/उन्नति, रक्सो-तरब=नृत्य और संगीत, लाज़मी=अनिवार्य, अज़ीज़=प्रिय-जन, अक़रुबा=निकट सम्बन्धी.

शनिवार, 7 फ़रवरी 2009

कितनी रोचक बात है, हम है स्वयं-घोषित महान.

कितनी रोचक बात है, हम है स्वयं-घोषित महान.
आत्म-गौरव की प्रतिष्ठा का हमें अच्छा है ज्ञान.
हर समय सुनता हूँ मैं अन्तर में कुछ ऐसा निनाद
जैसे पंडित शंख फूँके, जैसे मुल्ला दे अज़ान.
मेरी इस गतिशीलता ने लक्ष्य को सम्भव किया,
मार्ग में आते रहे मेरे, निरंतर व्यावधान.
इतने सारे भेद-भावों को जिलाकर एक साथ,
एकता मुमकिन नहीं है, खोजते रहिये निदान.
हर समय स्वच्छंद रहकर भी हो साहिल से बंधा,
बन न पाया मन का ये विस्तार दरया के समान.
सबकी इच्छा है कि हर अच्छा-बुरा करते रहें,
और दामन पर न आये एक भी काला निशान.
लोग बचने के लिए बारिश से, जब आये यहाँ,
मन ने धीरे से कहा छोटा है घर का सायबान.
एक ही धरती पे, अपने-अपने सब धर्मानुरूप,
चाहते हैं संस्थापित करना, अपने संविधान.
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आबाई मिल्कियत थी ज़माने से जो ज़मीन.

आबाई मिल्कियत थी ज़माने से जो ज़मीन.
आया वो युग, कि हो गई सरकार के अधीन.
पहले थे खुश कि रखते हैं विष हम भी अपने साथ,
फैलाव से है साँप के अब, तंग आस्तीन.
अभिनेता और नेता हैं दोनों कला में दक्ष,
इनके ही वंश में हुए सब इनके जानशीन.
संकल्प का हो कोडा, तो मंजिल नहीं है दूर,
कस लो समय के घोडे पे संभावना की ज़ीन.
जाँबाज़ियों के देते हैं वक्तव्य रात-दिन,
व्यवहार में रहे हैं हमेशा तमाशबीन.
अब कह रहे हैं ऐसे कई मित्र भी ग़ज़ल,
जो बोल तक न पाये कभी 'ज़्वाद', 'क़ाफ़', 'शीन'.
मैं रचना-कर्मियों से शिकायत करूँगा क्या,
ख़ुद आजतक हुई न मेरी चेतना नवीन.
धरती निभाती आयी है अपनी परम्परा,
आकाश पर हैं दर्ज कुछ आलेख समयुगीन।

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मेरा ख़याल वो ख़ुद से भी ज़्यादा रखती है.

मेरा ख़याल वो ख़ुद से भी ज़्यादा रखती है.
मिसाल उसकी नहीं है, वो मेरी बेटी है.
यक़ीन आपको आये न आये सच है यही,
उसी ने मुझको ये जीने की रोशनी दी है.
मुझे भी शुब्हा हुआ है,कि दिल-शिकन हूँ मैं,
उमीद जब किसी अपने की, मैंने तोडी है.
मैं अपने दौर का बन जाऊं हमनवा कैसे,
वही तो खर्च करूँगा जो मेरे पूँजी है.
ये मोजज़ा है, निकल आया हूँ मैं खैर के साथ,
भंवर में, दिल की ये कश्ती, कभी जो उलझी है.
मैं नर्म शाख नहीं था, लचक-लचक जाता,
कलाई मेरी, बहोत वक़्त ने मरोड़ी है.
मेरे शऊर को है नक़्शे-लामकां की तलाश,
जहाँ न अरजो-समाँ हैं, न जिस्मे-खाकी है.
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दिल-शिकन=ह्रदय तोड़ने वाला, हमनवा=एकस्वर, मोजज़ा=दैवी चमत्कार, शऊर=विवेक, नक़्शे-लामकां=महाशून्य का चिह्न, अरजो-समाँ=धरती और आकाश, जिस्मे-खाकी=मिटटी का शरीर.

शुक्रवार, 6 फ़रवरी 2009

मेरी पलकों की ये छाजन आशियाना है तेरा.

मेरी पलकों की ये छाजन आशियाना है तेरा.
और तू नीचे उतर आ, घर ये सारा है तेरा.
ज्ञानियों का ध्यान-स्थल है, तेरी ठोढी का तिल,
रूप के इस जाल में दाना ये अच्छा है तेरा.
जब भी भौंरे फूल पर आते हैं, तू होता है खुश,
इस चमन के साथ कुछ निश्चय ही रिश्ता है तेरा.
मेरी काया को न मिल पाया कभी भी तेरा साथ,
हाँ मेरे प्राणों पे तो अधिकार रहता है तेरा.
चित्त है रोगी, चिकित्सक हैं तेरे मीठे अधर,
है सेहत पल भर में निश्चित, ऐसा नुस्खा है तेरा.
मैं न जाने क्या हूँ मुझसे है गगन भी कांपता,
बात बस इतनी सी है मुझ में बसेरा है तेरा.
चित्त की निधियां नहीं ऐसी, किसी को सौंप दूँ,
इसपे मुहरें हैं तेरी, भरपूर सिक्का है तेरा.
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प्रेम के संगीत की धुन भी अलग है साज़ भी.

प्रेम के संगीत की धुन भी अलग है साज़ भी.
मन में कर लेती है घर इसकी मधुर आवाज़ भी.
प्रेमियों की आह से खाली ये दुनिया कब हुई,
सब को भाती है ये मीठी लय भी, ये अन्दाज़ भी.
मय की तलछट पीने वालों में हैं ऐसे भी पुरूष,
जिनकी जीवन-साधना है ब्रह्म की हमराज़ भी.
सांसारिक मोह-माया को जला देते हैं रिंद,
गुदडियों में लाल की सूरत हैं ये जांबाज़ भी.
थाह उनके ज्ञान की पाना सरल होता नहीं,
जिनमें है स्थैर्य भी, रखते हैं जो परवाज़ भी.
ज़िन्दगी भी एक मधुशाला सी लगती है हमें,
पीने वालों का यहीं अंजाम भी, आगाज़ भी.
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गुरुवार, 5 फ़रवरी 2009

अपनत्व के स्वभाव में कड़वाहटें नहीं.

अपनत्व के स्वभाव में कड़वाहटें नहीं.
गिरते हैं पेड़, जिनकी हैं गहरी जड़ें नहीं.
कैसा भी सर्द-गर्म हो रहता है वो समान,
माथे पे उसके आतीं कभी सिलवटें नहीं.
चुचाप नंगे पाँव उतर आया कब वो चाँद,
कमरे में तो किसी ने सुनीं आहटें नहीं,
ये आज भावनाओं की देवी को क्या हुआ,
रेखाएं हैं ललाट पे, सुलझीं लटें नहीं.
सम्भव है एक दिन कभी सौहार्द ऐसा हो,
धर्मों में, जातियों में, ये इन्सां, बटें नहीं.
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छोडिये भी, ये तमाशे नहीं अच्छे लगते.

छोडिये भी, ये तमाशे नहीं अच्छे लगते.
लोग, यूँ बात बनाते नहीं अच्छे लगते.
है ये बेहतर, कि रहें लम्हए-मौजूद में खुश,
ठेस पहोंचायें जो वादे, नहीं अच्छे लगते.
ताजा-ताज़ा हों खयालात तो सुनते हैं सभी,
सिर्फ़ लफ्जों के करिश्मे नहीं अच्छे लगते.
लब पे शोखी हो निगाहों में शरारत हो भरी,
सहमे-सहमे हुए बच्चे नहीं अच्छे लगते.
जो भी कहना है तुम्हें, खुलके कहो, साफ़ कहो,
गुफ्तुगू में ये इशारे नहीं अच्छे लगते.
जिनके हर गोशे से अग़राज की बू आती हो,
होश वालों को वो तोहफे नहीं अच्छे लगते.
आज की तर्ह कभी उनकी नवाजिश न हुई,
साफ़ ज़ाहिर है, इरादे नहीं अच्छे लगते.
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फ़रेब खा के भी हर लहज़ा खुश हुए सब लोग।

फ़रेब खा के भी हर लहज़ा खुश हुए सब लोग।
कि सिर्फ़ अपने ही ख़्वाबों में गुम रहे सब लोग।
सेहर से उसने सुखन के, दिलों को जीत लिया,
कलाम अपना, वहाँ, जब सुना चुके सब लोग।
ज़रा सी आ गयी दौलत, बदल गये अंदाज़,
कि अब नज़र में ज़माने की, हैं बड़े, सब लोग।
नहीं रहा, तो सब उसके मिज़ाज-दाँ क्यों हैं,
वो जब हयात था, क्यों दूर-दूर थे सब लोग।
अक़ीदत उससे न थी, खौफ था फ़क़त उसका,
जलाएं कब्र पे क्यों उसकी अब, दिये, सब लोग।
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बुधवार, 4 फ़रवरी 2009

गुनगुनाते हुए सब तुमको नज़र आयेंगे.

गुनगुनाते हुए सब तुमको नज़र आयेंगे.
इन दरख्तों पे भी कल बर्गो-समर आयेंगे.
चाँदनी, जाम में भर देगी, गुलों की नकहत,
रिंद, पीने के लिए, छत पे उतर आयेंगे.
मछलियाँ निकलेंगी ले-ले के समंदर से गुहर,
जौहरी साहिलों पर मिस्ले-शजर आयेंगे.
एक सैयारा करेगा मेरे आँगन का तवाफ,
सब नुजूमी मेरे दालान में भर आयेंगे.
आबशारों में हक़ायक़ के, नहायेंगे अदीब,
रूप फनकारों के कुछ और निखर आयेंगे.
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मिलन की बिजलियाँ हैं कौंधती सुगंधों में.

मिलन की बिजलियाँ हैं कौंधती सुगंधों में.
हवाएं आई हैं उत्तर से, आज, बरसों में.
तू अपने कारवां का डाल दे पड़ाव यहाँ,
कि साक्षात बसा लूँ मैं तुझको आंखों में.
जुदाई की मैं करूँ क्या शिकायतें तुझसे,
मैं अपशकुन न करूँगा खुशी के लम्हों में.
वो मांगता है क्षमा, चाहता है समझौता,
गिरा न पाऊंगा उसको मैं अपनी नज़रों में.
मैं जान-बूझ के बेगाना बन गया उससे,
कि देखूं, और भी कोई है, उसके सप्नों में.
दुखों ने पाँव से कुचला न होता दिल को मेरे,
कभी वो चर्चा अगर करता, इसकी मित्रों में.
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हाफ़िज़ शीराज़ी की चार रुबाइयों का मंजूम तर्जुमा / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

मन बंदए-आंकसम कि शौके दारद.
बर गरदनि-ख़ुद, ज़ि-इश्क़ तौक़े दारद.
तू लज़्ज़ते-इश्को-आशिकी कै दानी,
इन बादा कसे खुर्द कि ज़ौक़े दारद. [1]


गुलाम उसका हूँ, जो, कोई शौक़ रखता हो.
मिज़ाजे-इश्क का गर्दन में तौक़ रखता हो.
तुझे पता नहीं कुछ इश्को-आशिकी का मज़ा,
ये मय वो पीता है जो इसका ज़ौक़ रखता हो.

नै दौलते-दुनिया बि-सितम मी अर्ज़द.
नै लज़्ज़ते-हस्ती बि-अलम मी अर्ज़द.
नै हफ़्त हज़ार सालि शादीए-जहाँ,
बा मिहनति-पंज रोज़ए-ग़म मी अर्ज़द. [2]


ज़ुल्म की क़ीमत कोई दौलत नहीं.
ग़म का बदला जीस्त की लज्ज़त नहीं,
खुशियाँ यकजा हों हजारों साल की,
पाँच दिन के ग़म की भी क़ीमत नहीं.


गोयंद कसानेके ज़ि मय पर्हेज़न्द.
जाँसां कि बिमीरंद चुनाँ बर्खीज़न्द
मा बा मयो-माश्हूक अज़ीनीम मदाम,
ता बू कि ज़ि-खाकि मा चुनाँ अंगीज़न्द.[3]


जो मय नहीं पीते वो कहा करते हैं,
मौत जिस हाल में हो, वैसे उठा करते हैं.
माशूक को मय के साथ रखता हूँ मैं,
इस तर्ह उठें हम भी, दुआ करते हैं.


शीरीं दहनाँ उह्द बिपायाँ न बुरंद.
साहिब-नज़रां ज़ि-आशिकी जाँ न बुरंद.
माशूक चू बर मुरादों-राय तू बूद,
नामे-तू मियानि-इश्क्बाजाँ न बुरंद. [4]


शीरीं-लब जितने हैं, वादा नहीं पूरा करते.
जो नज़र रखते हैं, जानें हैं लुटाया करते.
मक्सदो-राय में जब आशिको-माशूक हों एक,
इश्क्बाजों में नहीं नाम गिनाया करते.

********************

मंगलवार, 3 फ़रवरी 2009

सच मानिए, ये बात, अजूबे से कम नहीं.

सच मानिए, ये बात, अजूबे से कम नहीं.
वो अजनबी, मेरे किसी अपने से कम नहीं.
आता है ज़ह्न में वो समंदर के पार से,
लह्जा भी उसका एक फ़रिश्ते से कम नहीं.
नापैद हो रहे हों जब आदाबे-ज़िन्दगी,
इस दौर में खुलूस भी तोह्फ़े से कम नहीं.
दो जानू बैठता है वो आलिम के सामने,
ये खुद्सुपुर्दगी किसी सजदे से कम नहीं.
सरकार ने किया है जो वादा अवाम से,
महबूब के, किये गये वादे से, कम नहीं.
********************

दिल्ली तबाह क्या हुई, बस इन्तेहा हुई.

दिल्ली तबाह क्या हुई, बस इन्तेहा हुई.
गालिब को भी ज़रूरते-हाजत-रवा हुई.
काबे को पीछे छोड़ गया वक़्त का ज़मीर,
राहे-कलीसा अपनी कशिश में सिवा हुई.
रखते हैं क्यों गुलामी के तमगे अज़ीज़ हम,
कैसे तबीअतों को ये पस्ती अता हुई.
इंसान को मआश की फिकरें निगल गयीं,
मजबूरियों की बस यही क़ीमत अदा हुई.
दहशतगारी को हाकिमों ने ही दिया उरूज,
जितने थे बे-कुसूर उन्हीं को सज़ा हुई.
क्यों जीना चाहते हैं रिआया की तर्ह लोग,
सरकार के ही हक़ में हमेशा दुआ हुई.
*****************************

विशेष : 1857 की महाक्रान्ति की विफलता के बाद की स्थिति से प्रभावित, मिर्जा गालिब की कुछ ग़ज़लों को केन्द्र में रखकर यह ग़ज़ल कही गई है.

तबाह=विनष्ट, ग़ालिब=उर्दू तथा फ़ारसी के प्रख्यात भारतीय कवि मिर्जा असदुल्लाह खाँ ग़ालिब [दिस.27, 1796-फ़र.15, 1869], ज़रूरते-हाजत-रवा=कामनाएं पूरी करने वाले की आवश्यकता, ज़मीर=अंतरात्मा, राहे-कलीसा= चर्च का मार्ग, ईसाईयत, तम्गे=पदक, अज़ीज़-प्रिय, पस्ती=गिरावट, अता=प्रदान, उरूज=ऊंचाई.

आराइशे-ख़याल भी हो दिल-कुशा भी हो. / नासिर काज्मी

आराइशे-ख़याल भी हो दिल-कुशा भी हो.
वो दर्द अब कहाँ जिसे जी चाहता भी हो.
ये क्या कि रोज़ एक सा गम एक सी उमीद,
इस रंजे बे-खुमार की अब इन्तेहा भी हो.
ये क्या कि एक तौर से गुज़रे तमाम उम्र,
जी चाहता है अब कोई तेरे सिवा भी हो.
टूटे कभी तो ख्वाबे-शबो-रोज़ का तिलिस्म,
इतने हुजूम में कोई चेहरा नया भी हो.
दीवानागीए-इश्क को क्या धुन है इन दिनों,
घर भी हो और बे-दरो-दीवार सा भी हो.
जुज़ दी, कोई माकन नहीं देहर में जहाँ,
रहज़न का खौफ भी न रहे, दर खुला भी हो.
हर ज़र्रा एक मह्मिले-इबरत है दश्त का,
लेकिन किसे दिखाऊं, कोई देखता भी हो.
हर शय पुकारती है पसे-परदए-सुकूत,
लेकिन किसे सुनाऊं कोई हमनवा भी हो.
फुर्सत में सुन शगुफ़्तगिए-गुंचा की सदा,
ये वो सुखन नहीं जो किसी ने कहा भी हो.
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चयन एवं प्रस्तुति : डॉ. परवेज़ फ़ातिमा

काटा गया दरख्त, कलेजा सिमट गया.

काटा गया दरख्त, कलेजा सिमट गया.
आरे से कट के, सर भी, दो टुकडों में बंट गया [1]
दिखलाई दी शजर की हरी पत्तियों में आग,
जब गुफ्तुगू हुई, तो जो परदा था हट गया.[2]
फेंका गया जो दरिया में, मछली निगल गई,
जिंदा रहा, हयात की जानिब पलट गया. [3]
फ़ौलाद उसकी उँगलियों के सामने था मोम,
मोडा जहाँ से चाहा, जहाँ चाहा कट गया. [4]
कूएँ में फेका उसको, हसद भाइयों को थी,
पायी ख़बर जो बाप ने, सीना ही फट गया. [5]
गायब जो हो चुकी थी, वो बीनाई आ गई,
बेटे का कुरता आंखों से जिसदम लिपट गया. [6]
शोले दहकती आग के सब फूल बन गए,
बातिल परस्त ताक़तों का ज़ोर घट गया. [7]
********************

विशेष : श्रीप्रद कुरआन में नबियों से सम्बद्ध जो कथाएँ उपलब्ध हैं, उन्हें अलग-अलग शेरों में संदर्भित किया गया है. [1] हज़रत ज़कारिया [2] हज़रत मूसा [3] हज़रत युनुस [4] हज़रत दाऊद [5] तथा [6] हज़रत याकूब और उनके बेटे हज़रत युसूफ [7] हज़रत इब्राहिम [अ.]

सोमवार, 2 फ़रवरी 2009

कितनी मासूम सी आवाज़ है, क्या लह्जा है.

कितनी मासूम सी आवाज़ है, क्या लह्जा है.
आबशारों सा है शफ़्फ़ाफ़, कोई अपना है.
ज़िन्दगी माहिए-बे-आब नहीं है फिर भी,
इस, ज़माने के समंदर में, बहोत खतरा है.
बे-ग़रज़ कोई, किसी से, कहीं, वाबस्ता नहीं,
एक का, दूसरे के साथ, अजब रिश्ता है.
हल इसे कर नहीं सकते हैं मुअम्मे की तरह,
मसअला ज़ीस्त का बे-इन्तेहा पेचीदा है.
चल पड़े जानिबे-मंजिल, तो हो कैसा भी सफर,
रहगुज़ारों में, कहीं बीच में, रुकना क्या है.
इसमें हर शै है तिलिस्मात की चादर ओढे,
गौर से देखिये, बे-मानी सी ये दुनिया है.
कब इस इंसान का हो जाय दरिन्दे का मिजाज,
कब फ़रिशतों सा लगे, किसने कभी सोचा है.
**************************

मासूम=पाप-मुक्त, लह्जा=स्वर, आबशारों= झरनों, शफ़्फ़ाफ़=उज्ज्वल/ धवल/स्वच्छ, माहिए-बे-आब=बिना पानी की मछली, वाबस्ता=जुड़ा हुआ, ज़ीस्त=ज़िन्दगी, पेचीदा=घुमावदार, रहगुज़ारों=रास्तों, तिलिस्मात=मायाजाल, बे-मानी=अर्थहीन, दरिन्दे=फाड़ खाने वाले पशु, मिज़ाज=स्वभाव.

चराग़ बुझने का एहसास कुछ हुआ ही नहीं.


चराग़ बुझने का एहसास कुछ हुआ ही नहीं।
सभी थे नींद में गाफिल, उन्हें पता ही नहीं।
वो ज़र्फ़ जिसमें कि आबे-हयात था लब्रेज़,
लुढ़क के हो गया खाली, हुई सदा ही नहीं।
चहार सिम्त है बस एक आहनी दीवार,
निकलने के लिए कोई भी रास्ता ही नहीं।
उठा के लाये उसे अस्पताल में कुछ लोग,
कहीं भी पास अज़ीज़ और अक़रुबा ही नहीं।
मैं अपनी यादों को आवाज़ अब नहीं दूँगा,
कहेंगी साफ़, कि हमने तो कुछ सुना ही नहीं।
**************************

दोस्तों से राब्ता रखना बहोत मुश्किल हुआ.

दोस्तों से राब्ता रखना बहोत मुश्किल हुआ.
कुछ खुशी, कुछ हौसला रखना बहोत मुश्किल हुआ.
वक़्त का शैतान हावी हो चुका है इस तरह,
दिल के गोशे में खुदा रखना बहोत मुश्किल हुआ.
किस तरफ़ जायेंगे क्या-क्या सूरतें होंगी कहाँ,
ज़ह्न में ये फैसला रखना बहोत मुश्किल हुआ.
हो चुके हैं फ़िक्र के लब खुश्क भी, मजरूह भी,
उन लबों पर अब दुआ रखना बहोत मुश्किल हुआ.
मान लेना चाहिए सारी खताएं हैं मेरी,
आज ख़ुद को बे-खता रखना बहोत मुश्किल हुआ,
कब कोई तूफाँ उठे, कब हो तबाही गामज़न,
मौसमे-गुल को जिला रखना बहोत मुश्किल हुआ.
**************

रविवार, 1 फ़रवरी 2009

ख़ुद से जो भी किए, रास आये न वादे मुझको.

ख़ुद से जो भी किए, रास आये न वादे मुझको.
दिल है मगमूम, कोई छीन ले, मुझ से, मुझको.
तेरे चहरे से, हुई हैं मेरी आँखें रौशन,
तेरी चौखट से मिले फ़िक्र के सांचे मुझको.
मेरे अश्कों में झलकते हैं लहू-रंग गुहर,
चाक कर दे कोई परदों को तो देखे मुझको.
अब न वो दर्द है सीने में, न अब है वो तबीब,
बोझ समझे न जहाँ, अब तो उठा ले मुझको.
जाने क्यों होता है हर लहज़ा ये एहसास मुझे,
दूर से जैसे कहीं कोई सदा दे मुझको.
देख ! बस नाम को बाक़ी है फ़क़त मेरा वुजूद,
मेरे हालात चुभो देते हैं नैज़े मुझको.
सामने बच्चों के रक्खीं नहीं क़द्रें अपनी,
रह गई दिल में तमन्ना कोई समझे मुझको.
कितने शमशीर-बकफ लम्हों से रहता हूँ घिरा,
क़त्ल कर दें न कहीं वक़्त के गुर्गे मुझको।

****************

खनक हँसी की न गूंजी, न गुनगुनाया कभी।

खनक हँसी की न गूंजी, न गुनगुनाया कभी।

वो चाँद घर के दरीचों में फिर न आया कभी।

कई शताब्दियाँ आयीं और बीत गयीं,

कृषक न अपना मुक़द्दर संवार पाया कभी।

भरोसा उसपे करूँ भी, तो किस तरह मैं करूँ,

कभी वो लगता है अपना, तो है पराया कभी।

अछूत ज़ात में जन्मा, अछूत बनके जिया,

मुझे किसी ने, गले से नहीं लगाया कभी।

सहारा देती जो, ऐसी न थी कोई दीवार,

किसी दरख्त की मुझको मिली न छाया कभी।

वो पहले मेरे ही घर में था, अब पड़ोसी है,

मैं क्या कहूँ, न मेरा साथ उसको भाया कभी।

ज़मीन छत की बहुत जल रही थी, धूप थी सख्त,

सुनहरा वक़्त वहाँ, हमने था बिताया कभी।

किसी को जाने की उसके, कोई भनक न लगी,

किसी भी आँख ने आंसू नहीं बहाया कभी।

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सुनाओ कोई कहानी कि रात कट जाए.

सुनाओ कोई कहानी कि रात कट जाए.
इसी तरह से है मुमकिन हयात कट जाए.
तुम्हारी बज़्म से उठ जाऊँगा अचानक मैं,
किसी की, बीच में ही जैसे बात कट जाए.
हमारे बच्चों की क़दरें बहोत हैं हमसे जुदा,
वुजूद से न किसी दिन ये ज़ात कट जाए.
पकड़ के रखते हैं मुहरों को लोग इस डर से,
जगह-जगह से न दिल की बिसात कट जाए.
फ़क़त वो ठूंठ सा होगा सभी की नज़रों में,
किसी शजर का अगर पात-पात कट जाए.
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