शनिवार, 27 फ़रवरी 2010

शुभकामना

होली के सभी रगों में है प्यार की ख़ुश्बू
उत्साह भरे स्नेह की, सत्कार की ख़ुश्बू॥
घुल-मिल के हम आपस में हैं जब खेलते होली,
मिलती है हमें एक ही परिवार की ख़ुश्बू।।
सब ख़ुश हैं कि मन में नहीं कोई भी कलुशता,
नमकीन भी मीठी भी है त्योहार की ख़ुश्बू॥
वो भी कहीं रगों में नहाया हुआ होगा,
शामिल है हवाओं में मेरे यार की ख़ुश्बू॥
अन्तस से ये शुभकामना मैं भेज रहा हूं,
निश्चित हूं कि पाऊंगा मैं स्वीकार की ख़ुश्बू।।
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होली की शुभकामनाएं

गुरुवार, 25 फ़रवरी 2010

नारीजन्य-अनुभूति की उर्दू कवयित्री शाइस्ता जमाल / शैलेश ज़ैदी

नारीजन्य-अनुभूति की उर्दू कवयित्री शाइस्ता जमाल
शाइस्ता जमाल में शाइस्तगी यानी एक संतुलित गांभीर्य भी है और जमाल यानी सौन्दर्य भी।रूप का आकर्षण ऐसा कि उन्हें देख कर ग़ज़ल सार्थक हो उठती है।ग़ज़ल का शाब्दिक अर्थ भले ही महबूब से बातें करना हो।लेकिन महबूब जब स्वयं मुहिब बन जाये और अपने दर्द को शब्द देने लगे तो ग़ज़ल दोआतशा [काक्टेल] के आस्वादन से भर जाती है। शाइस्ता की ग़ज़लें ऐसी ही हैं। बशीर बद्र ने जब उनकी ग़ज़लोँ के हरम में झाँका तो अपना एक शेर ही उन्हें समर्पित कर बैठे।आप भी इस शेर का मज़ा लीजिए और इस में मानी की गहराइयाँ तलाश कीजिए-
चमकती है कहीं सदियों में आँसुओं से ज़मीं,
ग़ज़ल के शेर कहाँ रोज़-रोज़ होते हैं।
ख़ुमारे-ग़ज़ल[2007] शाइस्ता की ग़ज़लों का संग्रह है।शाइस्ता की ख़ूबी ये है के गहरी से गहरी बात बड़े सहज ढग से कह जाती हैं।अधिकतर तो ऐसा ही लगता है जैसे वो शेर कहने के बजाय ख़ुद से बातें कर रही हों।इस से पहले के मैं कुछ और कहूं आप भि उनके कुछ शेर देखिए-
ज़िन्दगी तेरी हदों में क्यों रहूं,
वक़्त की इन बन्दिशों में क्यों रहूं।
किन यादों में खो जाती हूं,
बैठे-बैठे सो जाती हूं।
सुकूं मुझको मयस्सर आ गया है नीली आँखों में,
जब उनको देख लेती हूं समन्दर याद आता है।
इक रोशनी सी फैल गयी जिस्म में तमाम,
आकर तेरे ख़याल ने क्या-क्या मज़ा दिया।
मेरी निगाह में जीने के ख़्वाब कब से हैं,
ये सारे ख़्वाब तेरे प्यार के सबब से हैं।
ज़माने भर के ग़मों से निजात मिल जाये,
क़रीब आओ के मुझको हयात मिल जाये।
शाइस्ता के अश'आर में बेबाकी है, किन्तु मर्यादाओं की सीमा पार करना उन्हें पसन्द नहीं।आग के दरिया की कई-कई तहें हैं जो मौजें मार रही हैं, लेकिन ये आग किसी दूरी का अह्सास नहीं देती।दर्द के वीरान गोशे हैं लेकिन निराशाओं के विकसित होने की कोई गुंजाइश नहीं।आस-पास के यथार्थ को भी एक पैनी नज़र से देखना उनका स्वभाव है और यही उनकी सहजता भी है।इस सिल्सिले के चन्द शेर देखिए-
सब कुछ फ़क़ीहे-शह्र ने मस्जिद में पा लिया,
अन्धा फ़क़ीर भूक की शिद्दत से मर गया।
वो जो थक के बैठा है लौट कर सराबों से,
उससे पूछ कर देखूँ तशनगी के बारे में।
रोज़ अख़बार में पढती हूं जली है दुलहन,
एक ये ज़ुल्म ही काफ़ी है बग़ावत के लिए।
जीना भी मेरा शह्र में दुश्वार रहेगा,
जबतक के यहाँ ज़ुल्म का बाज़ार रहेगा।
पहले शेर में इस्लामी धर्म-सहिता के आचार्य[फ़क़ीह] पर तीखा व्यंग्य किया गया है।वो मस्जिद में अपनी लोकप्रियता प्राप्त करके ख़ुश है और यह नहीं देखना चाहता के मस्जिद के ठीक बाहर एक फ़क़ीर जो अंधा है यानी कुछ भी जुटा पाने के योग्य नहीं है, भूक से दम तोड़ गया।उसका इस्लामी क़ानून जन-सपर्क से कितना कट गया है। दूसरे शेर में हर दरवाज़े से उम्मीदों का टूट जाना और अन्त में थक हार कर अभावों की दुनिया में लौट आने का सकेत है। दुल्हन के जलाए जाने की बात सभी करते हैं,लेकिन इन्क़लाब के लिए इसे एक ठोस आधार बना लेना शाइस्ता की सोच का मज़बूत पहलू है।इस परिचयात्मक लेख को अनावश्यक रूप से तवील करने के बजाय शाइस्ता की ग़ज़लों से कुछ शे र दर्ज कर रहा हूं-
तुम तो सूरज हो कहीं दिन में भटक जाओगे,
मुझको जीने के लिए रात के तारे दे दो॥
हसरतें अपनी जँ गँवा बैठीं,
आरज़ू मुद्दतों से प्यासी है॥
कौन कहता है उसे शह्र में आ जाने दो,
इक जगह रहते नहीं हैं कभी दीवाने दो॥
ज़िन्दगी तेरे लिए दर्द के सारे चेहरे,
अपने नग़मों के तबस्सुम में छुपाये हमने॥
ख़ुद को तामीर किया जोड़ के लमहा-लमहा,
नक़्श तहज़ीब के सदियों में बनाये हमने॥
अंधेरे नापना मुश्किल नहीं है,
मगर सूरज का इतना दिल नहीं है॥
काश वो मुझको दिखाये कभी ऐसा बनकर,
हर क़दम साथ रहे मेरी तमन्ना बनकर्॥
फ़ासला इतना ज़ियादा न रहे चाहत में,
टूट जाये न किसी रोज़ ये रिश्ता बनकर्॥
ज़िन्दगी पर मेरा यक़ीन तो हो,
साँप भी पालूं आस्तीन तो हो॥
तनहाई मेरे साथ गयी मैं जहाँ गयी,
मुझको मेरे वुजूद ने अच्छा सिला दिया॥
शाइस्ता उसके ग़म में जली हूं मैं बारहा,
लेकिन जब उसने छू लिया, सब आबले गये॥
अन्त में शाइस्ता के ही एक शेर पर अपनी बात ख़त्म करता हूं।उनकी शायरी का परिचय इस शेर से किसी हद तक हासिल किया जा सकता है-
फैल जाती हूं जहाँ तक भी नज़र जाती है,
मैं तो दरिया हूं कनारों पे कहाँ बहती हूँ॥
1978 में भोपाल में जन्मी शाइस्ता जमाल मुशाइरों की एक मशहूर शायरा हैं। बी0काम0 करने के बाद कम्प्यूटर साफ़्टवेयर में विशेष दक्षता प्राप्त कर चुकी हैं।
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हवा है तेज़ बहोत राह चलना मुश्किल है

हवा है तेज़ बहोत राह चलना मुश्किल है।
फ़िज़ा में आग है घर से निकलना मुश्किल है॥

अंधेरे आँखों की पुतली से माँगते हैं जगह,
उजालों के लिए पहलू बदलना मुश्किल है॥

हमारी क़दरें नयी नस्ल को पसन्द नहीं,
हमारा अब नये साँचे में ढलना मुश्किल है॥

हरेक दिल में है बाज़ार के तिलिस्म का साँप,
हज़ारों सर हैं हरेक सर कुचलना मुश्किल है॥

वो संग-दिल ही सही फ़िक्र मेरी रखता है,
मैं कैसे मान लूँ उसका पिघलना मुश्किल है॥

हमारे शह्र में ताज़ा हवा कहीं भी नहीं,
तुम्हारे साथ हमारा टहलना मुश्किल है॥
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युग-विमर्श की यात्रा के दो वर्ष

25 फ़रवरी 2008 को युग-विमर्श ने एक विशेष संक्ल्प के साथ अपनी यात्रा प्रारंभ की थी। आज इस यात्रा के दो वर्ष पूरे हो गये।विगत वर्ष की तुलना में यह वर्ष पर्याप्त शान्त था।क्षेत्रीयता की हलकी सी दुर्गध और उसका छुटपुट प्रभाव अवश्य दिखायी दिया। दहशतगर्दी की धूलमिश्रित हवाओं ने आँखों के सामने के दृष्य धुंधले ज़रूर कर दिए, लेकिन हमने अपना धैर्य कहीं नहीं खोया।युगविमर्श की नज़र से युगीन राजनीतिक दाव-पेच कभी ओझल नहीं रहे, किन्तु यह उसका मैदान नहीं था। इस वर्ष हमने साहित्य की ही चर्चाएं अधिक कीं।जिन मित्रों ने पत्र लिख कर जिज्ञासाएं व्यक्त कीं, हमने उनका अपनी सीमाओं को पहचानते हुए समाधान भी किया । हाँ इस बार युग-विमर्श की प्रविष्टियां बहुत कम रहीं।विगत वर्ष हमने 519 प्रविष्टियाँ दर्ज की थीं जिन्हेँ 5872 पाठकों ने 14563 बार पढा। इस वर्ष हर स्तर पर कमी आयी है। इस वर्ष कुल 138 प्रविष्टियाँ ही स्थान पा सकी हैं जिन्हें 4830 पाठकों ने 7630 बार पढा है।यह संख्या यदि और कम भी होती तो मेरे संतोष के लिए पर्याप्त थी।मुझे प्रसन्नता है कि युग-विमर्श के पाठकों ने मेरी ग़ज़लों में विशेष रुचि ली और जो शेर भी उन्हें पसन्द आये उनकी प्रशसाएं भी कीं।मेरे कुछ आलेखों को भी पसन्द किया गया।कम्प्यूटर का ज्ञान अधिक न होने के कारण और कुछ उम्र के तक़ाज़े से भी मैं उतना सब कुछ नहीं दे पा रहा हूं, जितना मुझे देना चाहिएं ।जाने कितनी चीज़ें आधी अधूरी रह गयी हैं जिन्हें पोस्ट नहिं कर पाया हूं।काश ये वक़्त साथ देता।
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बुधवार, 24 फ़रवरी 2010

हूं मैं रुस्वा तेरी मरज़ी क्यों है

हूं मैं रुस्वा तेरी मरज़ी क्यों है।
फिर ये इज़्ज़त हमें बख़्शी क्यों है॥

ख़त्म होती नहीं कितना भी पढें,
दास्ताँ उम्र की लम्बी क्यों है॥

किस ने पैदा किये मज़हब इतने,
तेरी ख़ामोशी खटकती क्यों है॥

तू ने हर सम्त उजाले बाँटे,
मेरी ही दुनिया अँधेरी क्यों है॥

ख़ुद नुमाई का है क्यों शौक़ इतना,
दिल के हर गोशे में तू ही क्यों है॥

कैसे रौशन हो मेरा मुस्तक़्बिल,
साथ मेरे मेरा माज़ी क्यों है॥

रिन्द कोई भी नहीं मेरे सिवा,
रँगे-मयख़ाना गुलाबी क्यों है॥
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ज़िन्दगी दी है तो ख़ुश रहना है

ज़िन्दगी दी है तो ख़ुश रहना है।
तेरी मरज़ी है तो ख़ुश रहना है॥

कभी तनहा नहीं करता महसूस,
साथ तू भी है तो ख़ुश रहना है॥

सख़्त-दिल होता तो शिकवा करता,
दिल में नरमी है तो ख़ुश रहना है॥

दीदए-नम है इनायत तेरी,
आँख भीगी है तो ख़ुश रहना है॥

जिस्मे-ख़ाकी में रगे-जान है तू,
जान तेरी है तो ख़ुश रहना है॥

मुझ में गोयाई तेरी ज़ात से है,
ये तसल्ली है तो ख़ुश रहना है॥
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मंगलवार, 23 फ़रवरी 2010

इस तर्ह इस जहाँ ने बनाया मकीं हमें

इस तर्ह इस जहाँ ने बनाया मकीं हमें।
हम हैं सफ़र में इसकी ख़बर तक नहीं हमें॥
करते हैं ख़्वहिशात के तामीर क्यों महल,
रहने को सिर्फ़ चाहिए दो गज़ ज़मीं हमें॥
पाले हैं हमने साँप हमे ये पता न था,
अब डस रही है अपनी ही ख़ुद आस्तीँ हमें॥
क़ातिल अदा है जानता हूं इसके बावजूद,
इस जाँ से भी अज़ीज़ है वो नाज़नीं हमें॥
अब हम कभी न आयेंगे इसके फ़रेब में,
बरबाद कर चुका है ये ख़्वाबे-हसीं हमें॥
क्या हुस्न है के ख़ुद पे नहीं मेरा अख़्तियार,
बे-साख़्ता झुकानी पड़ी है जबीं हमें॥
ग़मगीन मैं ज़रूर हूं मायूस मैं नहीं,
समझा रहा है कबसे ये क़ल्बे-हज़ीं हमें॥
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मकीं=मकान में रहने वाला ।, ख़्वाहिशात=इच्छाएं ।, तामीर=निर्माण ।क़ातिल-अदा=क़त्ल कर देने का हाव-भाव रखने वाला ।अज़ीज़=प्रिय।नाज़नीं=सुकुमारी।ख़्वाबे-हसीं=सुन्दर स्वप्न्।बेसाख़्ता=अनायास्।ग़मगीन=दुखी।क़ल्बे-हज़ीं=व्याकुल हृदय्।

पाँव में गरदिश है रुकना है मुहाल्

पाँव में गरदिश है रुकना है मुहाल्।
पर सफ़र हो जाये पूरा है मुहाल॥
हो चुका है दिल से वो बेहद क़रीब,
खींचना अब उसका ख़ाका है मुहाल्॥
रहगुज़ारे-इश्क़ पर जब चल पड़े,
रहगुज़ारे रस्मे-दुनिया है मुहाल्॥
उसका जलवा गर तसव्वुर में न हो,
शेर-गोई का करिश्मा है मुहाल्॥
ज़द में तूफ़ाँ की सफ़ीने हैं सभी,
पार कर पाना ये दरिया है मुहाल्॥
धूप अब ऊँचे मकानों में है क़ैद,
मेरे घर में आना-जाना है मुहाल्॥
क़र्ज़ लेकर मुझ से वो करता है ऐश,
मैं करूँ कोई तक़ाज़ा है मुहाल्॥
ख़ुद मिलूँ तो काम कुछ बनता नहीं,
ढूँढ लूँ मैं कोई ज़रिआ है मुहाल्॥
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सोमवार, 22 फ़रवरी 2010

दर्द गहरा हुआ, क़हक़हे बढ गये

दर्द गहरा हुआ, क़हक़हे बढ गये।
खोखलेपन के सब सिल्सिले बढ गये॥
इश्क़ की ये ज़मीनी रविश देखिए,
हुस्न बेज़ार है, मन चले बढ गये॥
जब घरों में भी बाज़ार दाख़िल हुआ,
नफ़अ नुक़्सान के मामले बढ गये ॥
मिलते अब भी हैं अहबाब अख़लाक़ से,
हाँ बस इतना हुआ फ़ासले बढ गये॥
लोग कहते हैं तहज़ीब का मरसिया,
पर सुनाएं किसे, सरफिरे बढ गये॥
हो गया ऐसा तब्दील तरज़े-सुख़न,
शायरी के लिए हौसले बढ गये॥
रफ़्ता-रफ़्ता ये दुनिया सिमटती गयी,
इल्मो-इदराक के दायरे बढ गये॥
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मैं मुसाफ़िर हूं ठहरने के लिए वक़्त कहाँ

मैं मुसाफ़िर हूं ठहरने के लिए वक़्त कहाँ।
इस बियाबान में मरने के लिए वक़्त कहाँ॥
सारा सहरा है मेरे साथ सफ़र में मसरूफ़,
शह्र से हो के गुज़रने के लिए वक़्त कहाँ ॥
तेज़ रफ़्तार हुई जाती है कुछ और ज़मीं,
अब इसे बनने-संवरने के लिए वक़्त कहाँ॥
आज सूरज की शुआएं भी फ़सुरदा हैं बहोत,
धूप का दर्द कतरने के लिए वक़्त कहाँ॥
कितने ही काम पड़े हैं जो ज़रूरी हैं बहोत,
पर किसी काम को करने के लिए वक़्त कहाँ॥
अपनी इस ख़ाना-ख़राबी में बहरहाल हूं ख़ुश,
वक़्ते-रुख़्सत है सुधरने के लिए वक़्त कहाँ॥
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रविवार, 21 फ़रवरी 2010

हिन्दी ग़ज़ल/ शैलेश ज़ैदी / मुझे इतिहास का पढना अनावश्यक सा लगता है

मुझे इतिहास का पढना अनावश्यक सा लगता है।
कि पग-पग पर यहाँ कोई कथावाचक सा लगता है॥
खरा खोटा नहीं उपयोगिता की दृष्टि से कुछ भी,
समय पर काम जो आये वही साधक सा लगता है॥
तुम्हारे रूप की कुछ रश्मियाँ जब साथ होती हैं,
उजाला ज़िन्दगी का मेरे संवाहक सा लगता है॥
कबीरी तेवरों में छुप के मेरे दिल की धड़कन में,
न जाने कौन है, पढता हुआ बीजक सा लगता है॥
सभी सौन्दर्य के प्रतिमान हैं निज स्वार्थ आधारित,
ये वो बाज़ार है जिसमें हरेक गाहक सा लगता है॥
नहीं होता कभी उन्मुक्त मन से सोचना संभव,
विचार अपना भी कुछ कुछ इन दिनों बंधक सा लगता है॥
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शाम से पहले : ज़ैदी जाफ़र रज़ा का ग़ज़ल-सग्रह / डा0 परवेज़ फ़ातिमा

शाम से पहले : ज़ैदी जाफ़र रज़ा का ग़ज़ल-सग्रह
डा0 परवेज़ फ़ातिमा
ज़ैदी जाफ़र रज़ा आज से पैंतीस-चालीस वर्ष पूर्व उर्दू शायरों में अपनी एक विशेष पहचान रखते थे। प्रो0 एह्तिशाम हुसैन जैसे प्रख्यात उर्दू आलोचक ने साहित्य अकादमी की पत्रिका इन्डियन लिटरेचर में उनके काव्य-सग्रह "चाँद के पत्थर" को केन्द्र में रखक्रर 1971 में एक महत्वपूर्ण आलेख भी लिखा था।प्रो0 करामत अली ने अपनी आलोचना पुस्तक "इज़ाफ़ी तनक़ीद" में ज़ैदी साहब की शायरी को समकालीन उर्दू शायरी की पहचान के रूप में देखा। उर्दू की पत्रिकाएं "तहरीक", "शायर", "सुबहे नौ""अवराक़" शब्ख़ून आदि उनकी रचनाएं सम्मान पूर्वक छापती थीं।किन्तु ज़ैदी जाफ़र रज़ा का कहना है कि उर्दू लेखन उनके कैरियर में बाधक था। हिन्दी में एम0ए0 पी-एच0डी0 करने और कई पुस्तकों के लेखक होने के बाद भी तत्कालीन विभागाधयक्ष ने उनकी तुलना में बिना पी-एच0डी, केवल द्वितीय श्रेणी में एम0ए0 करने वालों की नियुक्तियां कर लीं और ज़ैदी साहब नौकरी में बहुत पीछे हो गये।कहा जाता था कि वे उर्दू से विशेष मोह रखते हैं और उर्दू के लेखक हैं।उस ज़माने में हिन्दी वाले उर्दू के प्रति आजकी तरह स्नेह भाव नहीं रखते थ।हर स्तर पर उर्दू का विरोध ही उनका लक्ष्य था।
ज़ैदी जाफ़र रज़ा जो हिन्दी लेखन में शैलेश ज़ैदी के नाम से जाने जाते हैं, हिन्दुस्तानी त्रैमासिक, सम्मेलान पत्रिका, नागरी प्रचारिणी पत्रिका आदि में अपने उच्च-स्तरीय आलेखों के कारण 1963 से निरन्तर छप रहे थे। अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में अधिकतर अधयापकों की लेखन में कोई रुचि नहीं थी। कविता में रवीन्द्र भरमर की पहचान ज़रूर थी और शोध तथा आलोचना में प्रो0 कैलाश्चन्द्र भाटिया तथा डा0 अम्बाप्रसाद सुमान प्रख्यात थे। ज़ैदी साहब के शोधपूर्ण आलेखों से इन महानुभावों के अतिरिक्त किसी को प्रसन्नता नहीं होती थ॥और ये लोग मात्र प्रवक्ता थे , इसलिए विभागीय प्रशासन में इनकी विशेष भूमिका नहीं थी।भाटिया जी ने अलीगढ छोड़ दिया और पद तथा लेखन दोनों ही दृष्टियों से सम्मान प्राप्त करने में सफल हुए। अम्बाप्रसाद सुमन रीडर पद से आगे नहीं बढ सके और सेवामुक्त हो गये। 1966 में डा0 ज़ैदी ने यूजीसी की पोस्ट डाक्टरल फ़ेलोशिप के लिए जब अप्लाई किया तो तत्कालीन विभागाधयक्ष प्रो0 हरबंशलाल शर्मा ने ये कहक्र्र उनका फ़ार्म बिना हस्ताक्षर किये मेज़ से फेंक दिया कि यह फ़ेलोशिप आजतक अलीगढ में किसी को मिली है जो तुम्हें मिल जायेगी। इसके लिए चार फ़र्स्ट क्लास अपेक्षित हैं और तुम्हारे पास एक भी नहीं हैं ।ड़ा0 ज़ैदी से गुस्ताख़ी ये हुई कि उन्होंने अतिरिक्त निवेदन, याचना या आग्रह करने के बजाय उत्तर यह दिया की इसमें "आर स्टैन्डर्ड पब्लिश्ड वर्क " भी तो माँगा गया है।बहर हाल बिना विभागाधयक्ष के हस्ताक्षए के फ़ार्म डा0 ज़ैदी ने रजिस्टरार के हस्ताक्षरों से यूजीसी भिजवा दिया। इस फ़ेलोशिप के लिए डा0 नामवर सिंह ने भी उसी वर्ष आवेदन पत्र दिया था।किन्तु यूजीसी में वामपथ का वर्चस्व न होने के कारण यह फ़ेलोशिप शैलेश ज़ैदी को मिल गयी। धयान रहे कि पूरे भारत में यह फ़ेलोशिप विज्ञान, समाजशास्त्र और मानविकी में केवल तेईस लोगों को दी जाती थी। इतना सब होने पर भी 1969 से पूर्व डा0 ज़ैदी की नियुक्ति प्रवक्ता के रूप में न हो सकी। रोचक बात ये है कि फ़ेलो के रूप में डा0 ज़ैदी ने जिन छात्रों को 1962 से पढाया था, वे तक अधयापक हो चुके थे।
1971 में जब ज़ैदी साहब का उर्दू काव्य-सग्रह "चाँद के पत्थर" प्रकाशित हुआ तो उसकी प्रतिक्रिया डा0 ज़ैदी ने हिन्दी विभाग में बहुत अच्छी नहीं महसूस की।फलस्वरूप ज़ैदी साहब ने उर्दू में अपनी कोई चीज़ छपने के लिए भेजना बन्द कर दिया और वे उर्दू जगत से पूरी तरह कट गये। अड़तीस वर्षों के अन्तराल के बाद ज़ैदी जाफ़र रज़ा ने फिर से उर्दू पत्र-पत्रिकाओं में लिखना शुरू कर दिया है। उनका ग़ज़ल सग्रह "शाम से पहले" इसी की एक कड़ी है।यह संग्रह 2009 के अन्त में एजुकेशनल पब्लिशिंग हाउस, दिल्ली से प्रकाशित हुआ है। ज़ैदी साहब का मानना है कि हर भाषा के अपने संस्कार होते हैं, उर्दू के सस्कार अस्सलाम अलैकुम या राम-राम या प्रणाम के नहीं हैं, उर्दू के संस्कार आदाब अर्ज़ के हैं। यानी विशुद्ध गंगा-जमुनी संस्कार हैं।यह भाषा धर्म से नहीं, तहज़ीब से नियंत्रित होती है। और यह तहज़ीब एक दिन में नहीं बनती। धर्म के हस्तक्षेप से भाषा में कृत्रिमता आती है और उसकी सांस्कृतिक ऊर्जा धूमिल पड़ जाती है।ज़ैदी जाफ़र रज़ा की ग़ज़लें उर्दू संस्कार की ग़ज़लें हैं जिसका चेहरा ही नहीं आत्मा तक धर्म निर्पेक्ष है। ये ग़ज़लें कभी संवाद की स्थितियाँ बनाती हैं तो कभी समाज की ज़मीनी सच्चाइयों में गहरे उतर कर उनकी नब्ज़ पर धड़कती ज़िन्दगी को समेटने की कोशिश करती हैं। ये ग़ज़लें चूंकि मैंने ही संकलित की हैं और विगत अड़तीस वर्षों में ये कब कब कही गयीं यह निश्चय न हो पाने के कारण इन्हें उर्दू के अकारादिक क्रम में रखा गया है।आरा विश्वविद्यालय से शैलेष ज़ैदी के रचना संसार पर पी-एच0 डी0 करने के दौरान यह सब कार्य मैं ने किया था। सग्रह की पहली ही ग़ज़ल अन्तरात्मा में होने वाले संवाद को मुखर और गतिशील सप्रेष्णात्मक ऊर्जा से भर देती है। यह "सेल्फ़" और "नाट-सेल्फ़" के टकराव की स्थिति है। कवि सर्वत्र स्व से मुक्त रहता है।कुछ शेर द्रष्टव्य हैं
कहा था उसने हक़-गोई से अपनी बाज़ आ जाओ,
कहा था मैने मैं पत्थर को हीरा मान लूं कैसे॥
कहा उसने किसी मौक़े पे झुक जाना भी पड़ता है,
कहा मैं ने के सच्चाई को देखूं सर-नुगूं कैसे॥
कहा उसने के चुप रह जाओ कोई कुछ भी कहता हो,
कहा मैं ने के मैं इन्सान हूं पत्थर बनूं कैसे॥
कहा उसने के तुम दुश्मन बना लेते हो दुनिया को,
कहा मैं ने के दुनिया की तरह मैं भी चलूं कैसे॥
संवाद की यह स्थिति जब वैयक्तिक चरित्र का विस्तार करती है और सामाजिक परिवेश को उसमें समाहित कर देती है तो दायित्त्व का फलक आयाम और दिशाएं सहज ही तय कर लेता है।प्रस्तुत हैं चन्द अशआर-
कहा मैं ने वफ़ाओं का तुम्हारी क्या भरोसा है,
कहा उसने के सब कुछ रख के मुझपर देखते क्यों हो॥
कहा मैं ने किसानों की तबाही से है क्या हासिल,
कहा उसने तबाही का ये मंज़र देखते क्यों हो॥
कहा मैं ने के मेरे गाँव में सब फ़ाक़ा करते हैं,
कहा उसने के तुम उजड़े हुए घर देखते क्यों हो॥
कहा मैं ने त अल्लुक़ तुम से रख कर जाँ को ख़तरा है,
कहा उसने के नादानों के तेवर देखते क्यों हो॥
कहा मैं ने के लगता है कोई तूफ़ान आयेगा,
कहा उसने के तुम खिड़की से बाहर देखते क्यओं हो॥
उर्द के प्रबुद्ध आलोचक प्रो0 शाफ़े क़िदवाई का विचार है के ज़ैदी जाफ़र रज़ा ने विशेष धयान में रखे गये एह्सासों और अभिव्यक्तियों के सुपरिचित अनुभवों को एक ठोस धरातल प्रदान किया है। उनकी ग़ज़ल का सत इकहरे खयाल से नहीं उठा है, उनके लिए जगत का प्रत्येक दृष्य एक ही समय में आवरण में भी है और आवरण से मुक्त भी।उनकी चेतना उस शून्य में भी विचरण करना जानती है जो दैहिक जगत से परे है-
मेरे श ऊर को है नक़्शे-ला-मकाँ की तलाश,
जहाँ न अरज़ो-समाँ हैं न जिस्मे-ख़ाकी है॥
ज़ैदी जाफ़र रज़ा हरे-भरे पेड़ को सत्य और पारलौकिक ज्ञान का प्रतीक मानते हैं जिसने हज़रत मूसा के जीवन की दिशा और लक्ष्य को निर्धारित कर दिया।इस्के सान्निधय से अज्ञान का परदा हट जाता है-
सरसब्ज़ पत्तियों से निकलती हो जिसके आग,
मुद्दत से एक ऐसे शजर की तलाश है॥
अथवा
दिखलाई दी शजर की हरी पत्तियों में आग,
जब गुफ़्तुगू हुई तो जो परदा था हट गया॥
प्रो0 सैयद अमीन अशरफ़ ज़ैदी जाफ़र रज़ा की ग़ज़लों में एक ऐसा जादू देखते हैं जो पाठक की चेतना को वैचारिकता के लिए आमंत्रित करता है,मन को छूता हैं और दृष्टि को शीतलता प्रदान करता है।अधिक विस्तार में न जाकर मैं इस लेख को यहीं समाप्त करती हूं। ब्लाग जगत के पाठक प्रबुद्ध भी हैं और साहित्यिक प्रतिमानों से सपन्न भी। ज़ैदी जाफ़र रज़ की ग़ज़लें वो इस ब्लाग पर पढते ही रहते हैं।इसलिए उनके निर्णयों पर कुछ और थोपना समीचीन न होगा।
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शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

हिन्दी ग़ज़ल / शैलेश ज़ैदी / प्रशंसाओं से अपनी मुग्ध होकर बोल उठता है

प्रशंसाओं से अपनी मुग्ध होकर बोल उठता है।
पिघल जाती है प्रतिमा और पत्थर बोल उठता है॥

ये उजले-उजले कपड़ों वाले मीठे राजनेता सब,
कभी जब बात करते हैं निशाचर बोल उठता है॥

ग़ज़ल मेरी उड़ा देती है उनकी रात की नींदें,
मेरे शब्दार्थ का अन्तरनिहित स्वर बोल उठता है॥

कहाँ, किस घाट से लायेंगी अब ये गोपियाँ पानी,
कन्हैया तोड़ देते हैं तो गागर बोल उठता है॥

तुम्हारे रूप का लावन्य कर देता है स्तंभित,
मनोभावों का मेरे अक्षर-अक्षर बोल उठता है॥
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हिन्दी ग़ज़ल /तिमिर के बीच मैं जलते दियों को देखता हूं

तिमिर के बीच मैं जलते दियों को देखता हूं॥
मैं जिस से मिलता हूं केवल गुणों को देखता हूं॥
तुम्हारे रूप में फूलों की मुस्कुराहट है,
चलो जिधर भी उधर तितलियों को देखता हूं॥
तुम्हारे मुझसे हैं संबन्ध ये पता है मुझे,
सदैव स्वप्नों की कुछ धज्जियों को देखता हूं॥
जड़ों से मिलता है पेड़ों को नित नया जीवन,
मैं उन में उगती नयी कोपलों को देखता हूं॥
तुम्हारी मांग में रख कर गुलाब पंखुरियाँ,
भविष्य रचती हुई सरहदों को देखता हूं॥
तुम्हारी आँखों में संभावनाएं बोलती हैं,
तुम्हारे होंठों पे संचित सुरों को देखता हूं॥
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गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010

हिन्दी ग़ज़ल / शैलेश ज़ैदी

मैं कि था निःशब्द फिर भी कोई मुझमें था मुखर।
मेरे अन्तस में थी मेरी अपनी ही पीड़ा मुखर ॥
कल्पना मेरी बना लेती है आकृतियाँ कई,
रंग मैं जो भी भरूं रहता है वो मुखड़ा मुखर्॥
बस्तियाँ गोकुल की पल भर में बसा लेता हूं मैं,
कृष्ण , राधा, गोपियाँ हो जाते हैं सहसा मुखर्॥
मन में कोई भी महाभरत उभर आती है जब,
चेतना के मंच पर पाता हूं मैं गीता मुखर ॥
व्यावहारिक रूप संकल्पों को जब देता हूं मैं,
हो नहीं पाती मेरे मन में कोई दुविधा मुखर्॥
होती है नैराश्य में नीरव निशा की कालिमा,
रश्मियाँ सूरज की लेकर र्है सदा आशा मुखर्॥
घर की दीवारें सिमट कर घेर लेती हैं मुझे,
देखती हैं जब कि मुझ में है कोई विपदा मुखर्॥
कैसे कह दूं भीड़ में स्तब्ध सा रहता हूं मैं,
कैसे बतलाऊं कि है एकान्त में क्या क्या मुखर्॥
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बुधवार, 17 फ़रवरी 2010

ख़ून के रिश्तों में अब कोई कशिश कैसे मिले

ख़ून के रिश्तों में अब कोई कशिश कैसे मिले।

लोग हैं सर्द बहोत दिल में तपिश कैसे मिले॥

दुश्मनी दौरे-सियासत की दिखावा है फ़क़त,

मस्लेहत पेशे-नज़र हो तो ख़लिश कैसे मिले॥

बर्क़-रफ़्तार शबो-रोज़ हैं, ठहराव कहाँ,

वज़अदारी-ओ-मुहब्बत की रविश कैसे मिले॥

किस ख़ता पर हैं लगाये गये उसपर इल्ज़ाम,

राज़ खुलता नहीं रूदादे-दबिश कैसे मिले ॥

साहबे-रुश्दो-कमालात कहाँ से लायें,

मकतबे-दानिशो-इरफ़ानो-अरिश कैसे मिले॥

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मंगलवार, 16 फ़रवरी 2010

घी और गुड़ के रोटी के पोपे लज़ीज़ थे

घी और गुड़ के रोटी के पोपे लज़ीज़ थे ।
हाथों से माँ खिलाए तो लुक़्मे लज़ीज़ थे॥

लह्जे में उसके होता था यूं प्यार का नमक,
अल्फ़ाज़ उसके लब पे जो आये, लज़ीज़ थे॥

चटख़ारे ले के सुनते थे हम देर रात तक,
माँ ने सुनाये जितने भी क़िस्से लज़ीज़ थे॥

करते थे हम शरारतें कुछ ऐसी चटपटी,
पड़ते थे गाल पर जो तमाचे लज़ीज़ थे॥

होती थी ख़ान्दानों में उल्फ़त की चाशनी,
आपस की इस मिठास के रिश्ते लज़ीज़ थे॥
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तुम्हारे दिल में हैं लेकिन शरीके-ग़म हैं वहाँ

तुम्हारे दिल में हैं लेकिन शरीके-ग़म हैं वहाँ ।
उपनिषदों में तलाशो हमें के हम हैं वहाँ ॥

बलंदियाँ वो जिन्हें पाने की तमम्ना है।
हमारे जैसों के कितने ही सर क़लम हैं वहाँ ॥

न तुम से पार कभी होगा इश्क़ का दरिया।
के तश्नालब कई गिर्दाबे-चश्मे-नम हैं वहाँ॥

वो जंगलात जहाँ क़ैस का बसेरा है,
वहाँ न जाना, हज़ारों ही पेचो-ख़म हैं वहाँ॥

तलाश जारी है सी मुर्ग़ की परिन्दों में,
ये जानते हुए ख़तरात दम-ब-दम हैं वहाँ॥

बशर के रिश्ते से मेराजे-अब्दहू हैं हम,
रुबूबियत है जहाँ मिस्ले-नूर ज़म हैं वहाँ॥

सोमवार, 15 फ़रवरी 2010

फ़िरऔन मिलते रहते हैं मूसा कहीं नहीं

फ़िरऔन मिलते रहते हैं मूसा कहीं नहीं ।
इज़हारे-हक़ की आज तमन्ना कहीं नहीं॥

छोटी बड़ी हैं कितनी महाभारतें यहाँ,
तीरों से छलनी भीष्म पितामा कहीं नहीं॥

दुर्योधनों के क़ब्ज़े में है द्रोपदी का हुस्न,
मुश्किल-कुशाई के लिए कान्हा कहीं नहीं॥


लैलाएं महमिलों में हैं तस्वीरे-इज़्तेराब,
खोया है जिसमें क़ैस वो सहरा कही नही॥

मिट जाये उसके और मेरे दर्मियाँ का फ़र्क़,
मेरी हयात में ये करिश्मा कहीं नहीं ॥
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फ़िरऔन=मिस्र का अहंकारी सम्राट जिस् ने ख़ुदाई का दावा किया।मूसा= मुसलमानों और ईसाइयों के नबी और यहूदियों के पथ-प्रदर्शक जिन्होंने फ़िरऔन का सर्वनाश किया।,इज़हारे-हक़=सत्य की अभिव्यक्ति । मुश्किलकुशाई=सकट दूर करना । महमिलों=ऊँट पर बाँधने की वह डोली जिसमें स्त्रियाँ बैठती हैं। क़ैस=मजनूं । सहरा=जगल ।

रविवार, 14 फ़रवरी 2010

लौट कर आयी थी यूं मेरी दुआ की ख़ुश्बू

लौट कर आयी थी यूं मेरी दुआ की ख़ुश्बू ।

दिल को महसूस हुई उसकी सदा की ख़ुश्बू॥

रेग़ज़ारों में नज़र आया जमाले-रुख़े-यार,

कोहसारों में मिली रंगे-हिना की ख़ुश्बू॥

हम ने देखा है सराबों में लबे-आबे-हयात,

माँ की शफ़्क़त में है मरवाओ-सफ़ा की ख़ुश्बू॥

लज़्ज़ते-हुस्न की मुम्किन नहीं कोई भी मिसाल,

लज़्ज़ते-हुस्न में होती है बला की ख़ुश्बू॥

पलकें उठ जयें तो बेसाख़्ता बिजली सी गिरे,

पलकें झुक जायें तो भर जाये हया की ख़ुश्बू॥

हुस्ने-मग़रूर पे छा जाये मुहब्बत का ख़ुमार,

दामने-इश्क़ से यूं फूटे वफ़ा की ख़ुश्बू॥

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रेगज़ारों=मरुस्थलों, जमाले-रुखे-यार=महबूब का रूप-सौन्दर्य,

कोहसारों=पहाड़ों, रंगे-हिना=मेहदी का रग, लज़्ज़ते-हुस्न=सौन्दर्य का आस्वादन, बे-साख्ता=सहज,

हुस्ने-मगरूर=घमंडी सौन्दर्य,

नज़र में हर सम्त बस उसी की है जलवासाज़ी

नज़र में हर सम्त बस उसी की है जलवासाज़ी।
ये दुनिया इन्साँ की ज़िन्दगी की है जलवासाज़ी॥

फ़रेफ़्ता अपने हुस्न पर है वुजूद उसका,
निगारिशे-दोजहाँ, ख़ुदी की है जलवा साज़ी॥

तमाम अशया के सीनों से फूटते हैं नगमे,
किसी के हुस्ने-सुख़नवरी की है जलवासाज़ी॥

ख़याल-आरास्ता हैं नक़्शो-निगारे-ग़ालिब,
वो मीर हैं जिनमें सादगी की है जलवासाज़ी॥

सुनो ये आफ़ाक़-लब हक़ीक़त का है फ़साना,
उफ़क़-उफ़क़ साज़े-दिलबरी की है जलवासाज़ी॥
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हर सम्त=प्रत्येक दिशा, जलवसाज़ी=सौन्दर्यपूर्ण उपस्थिति, फ़रेफ़्ता=मुग्ध, वुजूद=अस्तित्त्व,अशया=वस्तुएं, हुस्ने-सुख़नवरी=काव्य-सौन्दर्य,ख़याल-आरास्ता=कल्पनासे सुसज्जित, नक़्शो-निगार=चित्रांकन, आफ़क़-लब-हक़ीक़त=विश्वमुखर सत्य,उफ़क़=क्षितिज, नायिकत्त्व-युक्त वाद्य

शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2010

सुना है उसके शबो-रोज़ उससे पूछते हैं

सुना है उसके शबो-रोज़ उससे पूछते हैं।
जहाँ में उसके हैं क्या क्या करिश्मे पूछते हैं॥

सुना है उसको ग़ुरूर अपने हुस्न पर है बहोत,
हमी नहीं, उसे दिन रात कितने पूछते हैं॥

सुना है उसके ही जलवे हैं सारे आलम में,
रुमूज़े-इश्क़ है क्या ज़र्रे-ज़र्रे पूछते हैं॥

सुना है रातों को भी नीन्द उसे नहीं आती,
जभी तो उसको हमेशा उजाले पूछते हैं॥

सुना है सारे गुनाहों को बख़्श देता है,
करीम है वो जभी उसको बन्दे पूछते हैं॥
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गुरुवार, 11 फ़रवरी 2010

सूरज की शुआएं शायद थीं आसेब-ज़दा

सूरज की शुआएं शायद थीं आसेब-ज़दा ।

डर था के न हम हो जायें कहीं आसेब-ज़दा॥

हम कुछ बरसों से सोच के ये बेचैन से हैं,

आते हैं नज़र क्यों मज़हबो-दीं आसेब-ज़दा ॥

ये वक़्त है कैसा गहनाया गहनाया सा,

फ़िकरें हैं सभी अफ़्सुरदा-जबीं आसेब-ज़दा ॥

तख़ईल के चूने गारे से तामीर किया,

हमने जो मकाँ, हैं उसके मकीं आसेब-ज़दा ॥

महफ़ूज़ नहीं कुछ द्श्ते-बला के घेरे में,

हैराँ हूँ के हैं अफ़लाको-ज़मीं आसेब-ज़दा ॥

नाहक़ हैं परीशाँ-हाल से क्यों जाफ़र साहब,

इस दुनिया में कुछ भी तो नहीं आसेब-ज़दा॥

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मैं देखता रहूं ता-उम्र जी नहीं भरता

मैं देखता रहूं ता-उम्र जी नहीं भरता।

पियाला शौक़ का शायद कभी नहीं भरता॥

सुपुर्दगी के है जज़बे में बे-ख़ुदी का ख़मीर,

शुआए-ज़ीस्त में रंगे- ख़ुदी नहीं भरता ॥

सफ़ीना ख़्वाबों का ग़रक़ाब हो भी जाये अगर,

मैं आह कोई कभी क़त्तई नहीं भरता ॥

न रख के आता मैं सर मयकदे की चौखट पर,

तो आज साक़ी मेरा जाम भी नहीं भरता ॥

जो ज़र्फ़ ख़ाली है कितनी सदाएं देता रहे।

हवा भरी हो जहाँ कुछ कोई नहीं भरता॥

अना ये कैसी है जो कर रही है तनहा मुझे,

मैं अपनी ज़ात में क्यों सादगी नहीं भरता॥

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सुना है नरग़ए-आदा है रेगज़ारों में

सुना है नरग़ए-आदा है रेगज़ारों में ।
ये कौन यक्कओ-तन्हा है रेगज़ारों में॥

छुपा है सहरानवर्दी में एक आलमे-इश्क़,
बरहना ख़ुश्बुए-लैला है रेगज़ारों में ॥

सुकून-बख़्श नहीं घर के ये दरो-सीवार,
हमार ज़ह्न भटकता है रेगज़ारों में ॥

वो फ़तहयाब हुआ फिर भी हो गया रुस्वा,
वो सर कटा के भी ज़िन्दा है रेगज़ारों में॥

हयात मौत का लुक़्मा बने तो कैसे बने,
कोई तो है जो मसीहा है रेगज़ारों में ॥

समन्दरों का सफ़र कर रहा है मुद्दत से,
वो इन्क़लाब जो प्यासा है रेगज़ारों में ॥

वो एक दरया है क्या जाने रेगे-गर्म है क्या,
उसे तो होके निकलना है रेगज़ारों में ॥

दरख़्त ऐसा है जिसकी जड़ें फ़लक पर हैं,
मगर वो फूलता फलता है रेगज़ारों में ॥
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बुधवार, 10 फ़रवरी 2010

जहान सिमटा हुआ है लफ़्ज़ों के दायरे में

जहान सिमटा हुआ है लफ़्ज़ों के दायरे में।
हक़ीक़तें मुनकशिफ़ हैं आंखों के दायरे में॥

न जाने क्या ख़ुबियाँ हैं उस में के वो हरेक को,
अज़ीज़तर है तमाम रिश्तों के दायरे में॥

हज़ारों तूफ़ान क़ैद होकर मचल रहे हैं,
फ़सुर्दा बे-ख़्वाब चन्द लमहों के दायरे में॥

वो हादसा कैस था के कोशिश के बाद भी मैं,
समेट पाया न उसको यादों के दायरे में,

फ़ज़ा में ज़र्रात आँधियों का सहारा ले कर,
हमें उड़ायेंगे कल हुयोलों के दायरे में॥

अजब ये मौसीक़ि कुर्सियों की है दौड़ जिसमें,
हुकूमतें आ गयी हैं बच्चों के दायरे में ॥
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लुत्फ़े-दर्दे-लादवा रानाइए-असरारे-ज़ीस्त्

लुत्फ़े-दर्दे-लादवा रानाइए-असरारे-ज़ीस्त्।
इश्क़ की जौलानियाँ हैं पर्तवे- पिन्दारे-ज़ीस्त्॥

शर्हे-मुश्ते-ख़ाक में सह्रा-नवर्दी का है शोर,
कुछ नहीं जोशे-जुनूं जुज़ मत्लए-अनवारे-ज़ीस्त्॥

बे सरोसामानियाँ जब तक रहेंगी हम-सफ़र,
दम-ब-दम होती रहेगी मौत से तकरारे-ज़ीस्त्॥

ख़्वाहिशों की कश्मकश में तय किये कितने पड़ाव,
मुख़्तसर है यूं तो कहने को बहोत मक़दारे-ज़ीस्त्॥

ख़ाके-ख़िर्मन बर्क़ से क्या मांगती नेमुलबदल,
आशनाए-उल्फ़ते-हस्ती न था गुल्ज़ारे-ज़ीस्त्॥

ज़िन्दगी से तोड़ कर रिश्ता जुनूँ के जोश में,
हम लुटा बैठे मताए-ताक़ते-दीदारे-ज़ीस्त्॥

किस भरोसे पर उठाएं ग़म की साँसों का ये बोझ,
इक तरफ़ जीने की ख़्वाहिश इक तरफ़ कुहसारे-ज़ीस्त्॥
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लुत्फ़=आनन्द, दर्दे-लादवा=वह पीड़ा जिसकी चिकित्सा सभव न हो, रानाइए-असरारे-ज़ीस्त=जीवन के रहस्यों का सौन्दर्य,जौलानियाँ=स्फूर्ति, पर्तवे-पिन्दारे-ज़ीस्त= जीवन परिकल्पना की छाया, शर्हे-मुश्ते-ख़ाक= एक मुटठी धूल की व्याख्या,सहरानवर्दी=जगल-जगल मारे फिरना, जोशे-जुनूं=दीवनगी का उत्साह, मतलए-अनवारे-ज़ीस्त=जीवनक्षितिज का प्रकाश, बे-सरो-सामनियाँ=अस्तव्यस्तताएं, तकरारे-ज़ीस्त=जीवन का टकराव, ख़ाके-ख़िर्मन=घोंसले की राख, बर्क़=बिजली, नेमुल-बदल=बदले में वैसा ही,आशनाए-उल्फ़ते-हस्ती=अस्तित्त्व के प्रेम से परिचित,मताए-ताक़ते-दीदारे-ज़ीस्त=जीवन से साक्षात्कार की पूंजी, कुह्सारे-ज़ीस्त=पहाड़ रूपी जीवन्।

सोमवार, 8 फ़रवरी 2010

फ़िज़ा शिकन-ब-जबीं है वहाँ न जाइयेगा

फ़िज़ा शिकन-ब-जबीं है वहाँ न जाइयेगा।

वहाँ ख़ुलूस नहीं है वहाँ न जाइयेगा ॥

बिछाए बैठे हैं बारूद लोग राहों में,

फ़साद ज़ेरे-ज़मीं है वहाँ न जाइयेगा॥

फ़सुर्दगी के बदन पर है बूए-गुल की नक़ाब,

फ़रेब तख़्त-नशीं है वहाँ न जाइयेगा॥

हरेक सम्त मिलेगा सुलगती राख का ढेर,

न अब मकाँ न मकीं है वहाँ न जाइयेगा॥

वो मैकदा है वहाँ रस्मे-इश्क़ का है चलन,

वहाँ न धर्म न दीं है वहाँ न जाइयेगा॥

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फ़िज़ा=वतावरण, शिकन-ब-जबीं=माथे पर सिल्वटें पड़ना, ख़ुलूस=आत्मीयता, फ़साद=उपद्रव, ज़ेरे-ज़मीं=ज़मीन के नीचे, फ़सुर्दगी=मलिनता, बूए-गुल=फूल की सुगंध, नक़ाब=आवरण, फ़रेब=धोका, तख़्त-नशीं=सिंहासन पर बैठा हुआ, मकीं=मकान में रहने वाला,मैकदा=मदिरालय, रस्मे-इश्क़=प्रेम-सहिता,दीं=एकेश्वरवाद में आस्था।

मुहब्बतों में खसारे नज़र नहीं आते

मुहब्बतों में खसारे नज़र नहीं आते .
ये आग वो है शरारे नज़र नहीं आते .

ज़रा सी तल्खियां क्या आ गयी हैं रिश्तों में,
जो वक़्त साथ गुज़ारे नज़र नहीं आते ..

हमारी कश्तियाँ गिर्दाब से हैं खौफ़-ज़दा,
हमें नदी के कनारे नज़र नहीं आते..

ये इन्तहाए-मुहब्बत नहीं तो फिर क्या है,
उसे गुनाह हमारे नज़र नहीं आते..

सियाह बादलों की ज़द में है फ़लक का निज़ाम,
कहीं भी चाँद सितारे नज़र नहीं आते ..

हम अपनी धुन में कुछ ऐसे हुए हैं नाबीना,
के मौसमों के इशारे नज़र नहीं आते ..
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खसारे=घाटे, शरारे=चिंगारी, तल्ख़ियाँ=कड़वाहटें, गिर्दाब=भंवर, खौफ़-ज़दा=भयभीत,फ़लक-आसमान, निज़ाम=व्यवस्था नाबीना=अंधे ।

रविवार, 7 फ़रवरी 2010

हिस्सियाती आबशारों का नुमायाँ माहसल

हिस्सियाती आबशारों का नुमायाँ माहसल ।
मुख्तसर नज़मों का मजमूआ है ऐवाने-ग़ज़ल्॥

तेज़ रफ़तारी पे नाज़ाँ हैं शुआएं मेह्र की,
पर ग़ुबार-आलूद मौसम है सलीबे-जाँ गुसल्॥

वक़्त हिकमत-साज़ है नब्ज़ों पे रखता है निगाह,
ये बदल लेता है पहलू देख कर मौक़ा महल ॥

संग-पैकर बुत की आँखों से रवाँ है सैले-आब,
दामने-कुहसार पर हैं दाग़हाए-ला यज़ल्॥

ये ज़मीं, अशजार,हैवानो-बशर मैं ही तो हुं,
मैं ही अव्वल, मैं ही आखिर, मैं अबद, मैं ही अज़ल॥
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शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010

जनवरी 2010 की दो विदेशी ग़ज़लें / 1

अस्लम इमादी / कुवैत
सुन्दर लहजा मीठे बोल, अनोखी बातें ।
हमने सुना है यू होती हैं तेरी बातें ॥

इसी तलब में हम भी तेरी बज़्म में आये,
हम भी सुन लें ख़ुशबू जैसी महकती बातें॥

शायद हम पर खुल जाये वो नूर दरीचा,
धुल जायें सब गर्द-आलूद अँधेरी बातें॥

कौन भला हम दुख वालों का हाल सुनेगा,
रूखी रूखी, बे-लज़्ज़त सी, फीकी बातें ॥

हमको तो इज़हारे-दुरूं से ही मतलब था,
अस्लम क्यों करते फिर सोची समझी बातें ॥

ज़ुबैर फ़ारूक़ी / अबूधाबी
दिल मेरा पछतावे की ज़ंजीर में उल्झा रहा ।
मैं ग़मे-माज़ी की इक तस्वीर में उल्झा रहा॥

झूट पर वो झूट बोला सच बनाने के लिए,
हर घड़ी, हर वक़्त वो तक़रीर में उल्झा रहा॥

ख़्वाब तो बस ख़्वाब है, उस की हक़ीक़त कुछ नहीं,
दिल ही पागल था सदा ताबीर में उल्झा रहा॥

उसके मेरे बीच हायल ही रहा इज्ज़े-बयाँ,
वो अधूरी बात की तामीर में उल्झा रहा॥

जो लिखा करती थी सतहे-आब पर हर दम हवा
रात-दिन फ़ारूक़ उस तहरीर में उल्झा रहा॥
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