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गुरुवार, 11 फ़रवरी 2010

मैं देखता रहूं ता-उम्र जी नहीं भरता

मैं देखता रहूं ता-उम्र जी नहीं भरता।

पियाला शौक़ का शायद कभी नहीं भरता॥

सुपुर्दगी के है जज़बे में बे-ख़ुदी का ख़मीर,

शुआए-ज़ीस्त में रंगे- ख़ुदी नहीं भरता ॥

सफ़ीना ख़्वाबों का ग़रक़ाब हो भी जाये अगर,

मैं आह कोई कभी क़त्तई नहीं भरता ॥

न रख के आता मैं सर मयकदे की चौखट पर,

तो आज साक़ी मेरा जाम भी नहीं भरता ॥

जो ज़र्फ़ ख़ाली है कितनी सदाएं देता रहे।

हवा भरी हो जहाँ कुछ कोई नहीं भरता॥

अना ये कैसी है जो कर रही है तनहा मुझे,

मैं अपनी ज़ात में क्यों सादगी नहीं भरता॥

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