गुरुवार, 29 अक्तूबर 2009

न कोई क़िस्सा है अपना न दास्ताँ अपनी ।

न कोई क़िस्सा है अपना न दास्ताँ अपनी ।
के अब तो भूल चुकी है मुझे ज़ुबाँ अपनी॥

हुई थी मेरी कभी हुस्ने-लामकाँ को तलब,
जहाँ दिखायी थीं उसने निशानियाँ अपनी॥

निज़ामे-आतिशे इरफ़ाँ के गुलबदन अफ़्लाक,
सजा रहे हैं जबीनों पे कहकशाँ अपनी ॥

मेरा ही सर था जो काटा गया दरख्त के साथ,
जहाँ को रास नहीं आयीं खूबियाँ अपनी।

हवा में उड़ती फिरी ख़ाक मेरी चार तरफ़ ,
ज़माना ले गया ख़ुशबू कहाँ कहाँ अपनी॥
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मंगलवार, 13 अक्तूबर 2009

मैं यूसुफ़ के लिए जीता रहा याक़ूब की सूरत ।

मैं यूसुफ़ के लिए जीता रहा याक़ूब की सूरत ।
के हर लह्ज़ा मेरी आँखों में थी मह्बूब की सूरत ॥

हज़ारों बार सर कटता रहा पर दिल नहीं टूटा,
ज़मीं पर हर जगह उगता रहा मैं दूब की सूरत ॥

मिला इनआम दुनिया से यही बस हक़-पसन्दों को,
निज़ामे-अह्ले-दुनिया में रहे मातूब की सूरत्॥

जिन्हें कुछ मस्लेहत आती थी वो कहलाए दानिशवर,
जो दानिश्मन्द थे फिरते रहे मजज़ूब की सूरत ॥

निगाहे दुशमनाँ में सूरते-क़तिल नज़र आये,
मगर अहबाब की महफ़िल में थे यासूब की सूरत्॥

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