न कोई क़िस्सा है अपना न दास्ताँ अपनी ।
के अब तो भूल चुकी है मुझे ज़ुबाँ अपनी॥
हुई थी मेरी कभी हुस्ने-लामकाँ को तलब,
जहाँ दिखायी थीं उसने निशानियाँ अपनी॥
निज़ामे-आतिशे इरफ़ाँ के गुलबदन अफ़्लाक,
सजा रहे हैं जबीनों पे कहकशाँ अपनी ॥
मेरा ही सर था जो काटा गया दरख्त के साथ,
जहाँ को रास नहीं आयीं खूबियाँ अपनी।
हवा में उड़ती फिरी ख़ाक मेरी चार तरफ़ ,
ज़माना ले गया ख़ुशबू कहाँ कहाँ अपनी॥
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