मैं यूसुफ़ के लिए जीता रहा याक़ूब की सूरत ।
के हर लह्ज़ा मेरी आँखों में थी मह्बूब की सूरत ॥
हज़ारों बार सर कटता रहा पर दिल नहीं टूटा,
ज़मीं पर हर जगह उगता रहा मैं दूब की सूरत ॥
मिला इनआम दुनिया से यही बस हक़-पसन्दों को,
निज़ामे-अह्ले-दुनिया में रहे मातूब की सूरत्॥
जिन्हें कुछ मस्लेहत आती थी वो कहलाए दानिशवर,
जो दानिश्मन्द थे फिरते रहे मजज़ूब की सूरत ॥
निगाहे दुशमनाँ में सूरते-क़तिल नज़र आये,
मगर अहबाब की महफ़िल में थे यासूब की सूरत्॥
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