सोमवार, 2 फ़रवरी 2009

कितनी मासूम सी आवाज़ है, क्या लह्जा है.

कितनी मासूम सी आवाज़ है, क्या लह्जा है.
आबशारों सा है शफ़्फ़ाफ़, कोई अपना है.
ज़िन्दगी माहिए-बे-आब नहीं है फिर भी,
इस, ज़माने के समंदर में, बहोत खतरा है.
बे-ग़रज़ कोई, किसी से, कहीं, वाबस्ता नहीं,
एक का, दूसरे के साथ, अजब रिश्ता है.
हल इसे कर नहीं सकते हैं मुअम्मे की तरह,
मसअला ज़ीस्त का बे-इन्तेहा पेचीदा है.
चल पड़े जानिबे-मंजिल, तो हो कैसा भी सफर,
रहगुज़ारों में, कहीं बीच में, रुकना क्या है.
इसमें हर शै है तिलिस्मात की चादर ओढे,
गौर से देखिये, बे-मानी सी ये दुनिया है.
कब इस इंसान का हो जाय दरिन्दे का मिजाज,
कब फ़रिशतों सा लगे, किसने कभी सोचा है.
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मासूम=पाप-मुक्त, लह्जा=स्वर, आबशारों= झरनों, शफ़्फ़ाफ़=उज्ज्वल/ धवल/स्वच्छ, माहिए-बे-आब=बिना पानी की मछली, वाबस्ता=जुड़ा हुआ, ज़ीस्त=ज़िन्दगी, पेचीदा=घुमावदार, रहगुज़ारों=रास्तों, तिलिस्मात=मायाजाल, बे-मानी=अर्थहीन, दरिन्दे=फाड़ खाने वाले पशु, मिज़ाज=स्वभाव.

2 टिप्‍पणियां:

E Jafar ने कहा…

Aapke blogs hamesha hi parhti rehti hun. Kabhi bohot saara ilm, kabhi koi zehni kaifiyat, Kabhi Hausla, kabhi umeed.. Aapko hamesha bohot mazboot dekha aur paaya hai. Kuchh waise hi aur ashaar dekhna chaahungi... Yaqeen nahi aata kaise aap itni jaldi jaldi behtareen ghazlein keh dete hain. I am really proud of you.

गौतम राजऋषि ने कहा…

"मसअला ज़ीस्त का बे-इन्तेहा पेचीदा है" क्या खूब है सर...