शुक्रवार, 11 अप्रैल 2008

ग़ज़ल : ज़ैदी जाफ़र रज़ा

उसकी आंखों की इबारत साफ थी।
मैं नहीं समझा, शिकायत साफ थी॥
क्या गिला करता मैं उसके ज़ुल्म का।
उसकी जानिब से तबीअत साफ थी ॥
छुप के तन्हाई में क्यों मिलते थे हम ?
जबके हम दोनों की नीयत साफ थी.
क़त्ल करके भी, वो बच निकला जनाब।
जानते हैं सब, शहादत साफ़ थी.
गुफ्तुगू में उसकी, थीं हमदर्दियां ।
उसके चेहरे पर मुरव्वत साफ थी॥
रुख नमाज़ों में उसी की सम्त था।
मेरी तफ़सीरे-इबादत साफ थी॥
मुफलिसी अपनी छुपाता किस तरह।
सब पे ज़ाहिर मेरी हालत साफ थी॥
वो मेरा आका था, मैं क्या टोंकता।
जो भी करता था, हिमाक़त साफ़ थी.
वो हमेशा खुश रहा मेरे बगैर।
हाँ मुझे उसकी ज़रूरत साफ थी॥

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