गुरुवार, 27 मार्च 2008

ग़ज़ल : ज़ैदी जाफ़र रज़ा

मेरे मकान में थोडी सी रौशनी कम है ।

के आफताब की आमद यहाँ हुयी कम है ॥

मैं उसको चाहता हूँ और उससे दूर भी हूँ।

कभी भरोसा है उसपर बहोत , कभी कम है ॥

लबों पे उसके शहद की मिठास है अब भी,

मगर ज़बान में हलकी सी चाशनी कम है ॥

सवाल मैं ने किया, चेहरा मुज्महिल क्यों है ?

जवाब उसने दिया, आज ताजगी कम है ॥

पिला रहा है वो भर-भर के जाम क्यों सब को,

उसे ख़बर है कि रिन्दों में तशनगी कम है।

उसे बताओ वो महफ़िल में सबसे अच्छा है,

मगर मिजाज में उसके शगुफ्तगी कम है ॥

जदीदियत ने हमारे दमाग बदले हैं ,

जभी तो आज बुजुर्गों की पैरवी कम है।।

चलो यहाँ से, के घुटता है दम यहाँ मेरा,

यहाँ पे शोर बहोत, कारकर्दगी कम है॥

कहाँ मैं आ गया , ये बस्तियां अजीब सी हैं,

यहाँ हयात की चादर अभी खुली कम है॥

तुम्हारी बातों से मायूसियां झलकती हैं,

तुम्हारे जुम्लों में तासीरे-ज़िंदगी कम है ॥

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