बुधवार, 5 मार्च 2008

पसंदीदा शायरी : ग़ज़ल

खामोश होगी कब ये ज़बाँ कुछ नहीं पता ।

बदलेगा कब निज़ामे- जहाँ कुछ नहीं पता ॥

कब टूट जाए रिश्तये-जां कुछ नहीं पता।

कुछ कारे-खैर कर लो मियाँ कुछ नहीं पता..

चेहरे पे है सभी के शराफत का बांकपन ।

मुजरिम है कौन - कौन यहाँ कुछ नहीं पता ॥

सबके मकान फूस के हैं फिर भी सब हैं खुश ।

उटठेगा कब कहाँ से धुआं कुछ नहीं पता ॥

मंजिल की सम्त दौड़ रहे हैं सभी, मगर ।

ले जाये वक़्त किसको कहाँ कुछ नहीं पता ॥

ओहदे मिले तो अपना चलन भी भुला दिया ।

छिन जाये कब ये नामो-निशाँ कुछ नहीं पता ॥

कल आसमान छूती थीं जिन की बलान्दियाँ ।

कब ख़ाक हो गये वो मकाँ कुछ नहीं पता ॥

सीकर भी होंट हो न सके लोग नेक-नाम।

फिर क्यों है फिक्रे-सूदो-ज़ियाँ कुछ नहीं पता ॥

शाखें शजर की, कल भी रहेंगी हरी -भरी।

कैसे करे कोई ये गुमाँ कुछ नहीं पता ॥

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