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गुरुवार, 29 मई 2008

पाकिस्तानी शायरी : ग़ज़ल

[ 1 ] आसिफ़ इक़बाल
कोई तीर दिल में उतर गया, कोई बात लब पे अटक गई
ऐ जूनून तूने बुरा किया, मेरी सोच राह भटक गई
बढे रूहों-जिस्म के फ़ासले, यहाँ इज्ज़तों की तलाश में
जो कली नवेदे-बहार थी, वाही बागबाँ को खटक गई
जिसे नोचने थे चले सभी, यहाँ बाग्बानो-गुलो-समर
वो कली उमीदे-सेहर बनी, वो कली खुशी से चिटक गयी
मुझे ज़िंदगी की तलाश में, कई माहो-साल गुज़र गए
मेरी सोच तख्तए-दार पर, जो लटक गयी सो लटक गयी
[ 2 ] शबनम शकील
सूखे होंट, सुलगती आँखें, सरसों जैसा रंग
बरसों बाद वो देखके मुझको, रह जायेगा दंग
माजी का वो लम्हा मुझको, आज भी खून रुलाये
उखडी-उखडी बातें उसकी, गैरों जैसे ढंग
दिल को तो पहले ही दर्द की, दीमक चाट गयी थी
रूह को भी अब खाता जाए, तन्हाई का ज़ंग
उन्हीं के सदके यारब मेरी, मुश्किल कर आसन
मेरे जैसे और भी हैं जो, दिल के हाथों तंग
आज न क्यों मैं चूडियाँ अपनी, किर्ची-किर्ची कर दूँ
देखी आज एक सुंदर नारी, प्यारे पिया के संग
शबनम कोई तुझसे हारे, जीत पे मान न करना
जीत वो होगी जब जीतेगी, अपने आप से जंग
[ 3 ] नोशी गीलानी
मुहब्बतें जब शुमार करना, तो साजिशें भी शुमार करना
जो मेरे हिस्से में आई हैं वो, अज़ीयतें भी शुमार करना
जलाए रक्खूँगी सुब्ह तक मैं, तुम्हारे रस्ते में अपनी आँखें
मगर कहीं ज़ब्त टूट जाए, तो बारिशें भी शुमार करना
जो हर्फ़ लौहे-वफ़ा पे लिक्खे, हुए है उनको भी देख लेना
जो रायगां हो गयीं वो सारी, इबारतें भी शुमार करना
ये सर्दियों का उदास मौसम, के धड़कनें बर्फ़ हो गयी हैं
जब उनकी यखबस्तगी परखना, तमाज़तें भी शुमार करना
तुम अपनी मजबूरियों के किस्से, ज़रूर लिखना विज़ाहतों से
जो मेरी आंखों में जल-बुझी हैं, वो ख्वाहिशें भी शुमार करना
[ 4 ] असलम अंसारी
मैंने रोका भी नहीं और वो ठहरा भी नहीं
हादसा क्या था, जिसे दिल ने भुलाया भी नहीं
जाने क्या गुजरी के उठता नहीं शोर-ज़ंजीर
और सहरा में कोई नक्शे-कफ़े-पा भी नहीं
बेनियाज़ी से सभी कर्यए-जां से गुज़रे
देखता कोई नहीं है के तमाशा भी नहीं
वो तो सदियों का सफर कर के यहाँ पहोंचा था
तूने मुंह फेर के जिस शख्स को देखा भी नहीं
किसको नैरंगिए अय्याम की सूरत दिखलाएं
रंग उड़ता भी नहीं नक्श ठहरता भी नहीं
[ 5 ] अय्यूब रूमानी
जब बहार आई तो सहरा की तरफ़ चल निकला
सहने-गुल छोड़ गया, दिल मेरा पागल निकला
जब उसे ढूँढने निकले तो निशाँ तक न मिला
दिल में मौजूद रहा, आँख से ओझल निकला
इक मुलाक़ात थी, जो दिल को सदा याद रही
हम जिसे उम्र समझते थे, वो इक पल निकला
वो जो अफ्सानए-ग़म सुनके हंसा करते थे
इतना रोए हैं के सब आँख का काजल निकला
कौन अय्यूब परीशन है तारीकी में
चाँद अफ़लाक पे दिल सीने में बेकल निकला
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मंगलवार, 29 अप्रैल 2008

ग़ज़ल / शैलेश जैदी

ये दिल की धड़कनें होती हैं क्या, क्यों दिल धड़कता है ?
मिला है जब भी वो, बाकायदा क्यों दिल धड़कता है ?
बहुत मासूमियत से उसने पूछा एक दिन मुझसे ,
बताओ मुझको, है क्या माजरा, क्यों दिल धड़कता है ?
मुसीबत में हो कोई, टीस सी क्यों दिल में उठती है,
किसी को देख कर टूटा हुआ, क्यों दिल धड़कता है ?
किया है मैं ने जो अनुबंध उस में कुछ तो ख़तरा है,
मैं तन्हाई में जब हूँ सोचता, क्यों दिल धड़कता है ?
अनावश्यक नहीं होतीं कभी बेचैनियां दिल की,
कहीं निश्चित हुआ कुछ हादसा, क्यों दिल धड़कता है ?
तेरे आने से कुछ राहत तो मैं महसूस करता हूँ,
मगर इतना बता ठंडी हवा, क्यों दिल धड़कता है ?
अभी दुःख-दर्द क्या इस जिंदगी में और आयेंगे,
जो होना था वो सबकुछ हो चुका, क्यों दिल धड़कता है?
कहा मैं ने के अब दिल में कोई हसरत नहीं बाक़ी,
कहा उसने के बतलाओ ज़रा क्यों दिल धड़कता है ?
वो मयखाने में आकर होश खो बैठा है, ये सच है,
मगर क्या राज़ है, साकी ! तेरा क्यों दिल धड़कता है ?