सोमवार, 23 जून 2008

सूरदास के रूहानी नग़मे / भूमिका

सोई रसना जो हरि गुन गावै
आचार्य वल्लभ के भक्ति-दर्शन को केन्द्र में रख कर सूर-काव्य को व्याख्यायित एवं विवेचित करने की अपनी एक समृद्ध परम्परा है. किंतु यह परम्परा सूर के अध्ययन को इतना सीमित कर देती है कि विशुद्ध काव्य-सौन्दर्य के अनेक महत्त्वपूर्ण आयाम पाठक की दृष्टि से न केवल छूट जाते हैं, अपितु सूर की प्रासंगिकता पर भी अनेक प्रश्न-चिह्न लगा देते हैं. मैं समझता हूँ कि सूर के जो अध्येता वल्लभ सम्प्रदाय के पुष्टिमार्ग में दीक्षित नहीं हैं, और जिन्होंने आचार्यश्री की कृतियों का अपेक्षित अध्ययन नहीं किया है, उन्हें भी सूर-काव्य न केवल अपने सशक्त चुम्बकीय गुणों के साथ आकृष्ट करता है, अपितु अपनी प्रभावक अभिव्यक्ति, नाटकीय प्रस्तुति, गतिशील चित्रात्मकता, सूक्ष्म अवलोकन दृष्टि, रंगों, बिम्बों, ध्वनियों और आकारों की अंतरंग एकस्वरता और उनकी अर्थ-विस्तार क्षमता के कारण अपना अदभुत प्रशंसक बना देता है.
मध्ययुगीन इतिहास के विवादास्पद बिन्दुओं को गहराकर सूर के विभिन्न आलोचकों ने एक विशेष दृष्टिकोण को जिस प्रकार बारम्बार रेखांकित करने का प्रयास किया है, उससे मध्ययुगीन हिन्दी काव्य की सौहार्दपूर्ण वैचारिकता लगभग लड़खड़ा सी जाती है. जीव, जगत और ब्रह्म के अंतर्संबंधों को विवेचित करने की प्रत्येक जाति, धर्म और देश में एक लम्बी परम्परा रही है. सिद्ध और नाथ कवियों ने इस परम्परा को केवल बौद्धिकता के स्तर पर मूल्यांकित करने का प्रयास किया. सूफी संतों के प्रादुर्भाव से विशुद्ध ज्ञान की इस परम्परा में प्रेम के रस की चाशनी कुछ इस प्रकार घुल-मिल गई कि सम्पूर्ण चिंतन जीवंत हो उठा. लौकिक प्रेम के माध्यम से अलौकिक प्रेम को शब्द और अर्थ देने की सूफी परम्परा ने सगुण ब्रह्म की उपासना के लिए न केवल उर्वर भूमि तैयार कर दी अपितु वैष्णव चिंतन को लोकप्रिय बनाने में सशक्त भूमिका का निर्वाह किया. आचार्य रामचंद्र शुक्ल की यह मान्यता यदि स्वीकार कर ली जाय कि श्री वल्लभाचार्य ने अपने पुष्टिमार्ग का प्रदर्शन बहुत कुछ देश काल देख कर किया तो इस तथ्य को सहज ही नकारा नहीं जा सकता कि ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती (बारहवीं-तेरहवीं शताब्दी ई0) तथा उनके शिष्यों द्वारा स्थापित एवं प्रचारित समा (सूफियों का आध्यात्मिक गायन-वादन) की गोष्ठियों में निरंतर गहराते प्रेम-मूलक भक्ति के भाव से श्री वल्लभाचार्य प्रभावित अवश्य हुए. पुष्टिमार्ग में लौकिकता को अलौकिकता का साधन, माध्यम या प्रतीक मानने के पीछे कहीं-न कहीं परंपरागत सूफी भावना काम कर रही थी, जो प्रेमी, प्रेम और प्रेय को एक दूसरे से पृथक नहीं मानती.
मध्ययुग तक आते-आते कबीर का निर्गुण राम, सूफी प्रेम-मूलक भक्ति की मर्यादित परम्परा का प्रभावगत कोमल स्पर्श पाकर सगुण ब्रह्म के रूप में मर्यादा-पुरुषोत्तम राम की रामानंदीय छवि के साथ प्रतिष्ठित हो गया.किंतु रामकाव्य की परम्परा ब्राह्मणवादी चिंतन की सिद्धान्तगत संकीर्ण परिधियों को लांघकर अन्य धर्मावलम्बियों के मध्य अपने लिए स्थान नहीं बना सकीं. इसके विपरीत कृष्ण के रूप में सगुण ब्रह्म की स्वछन्द लीलाओं का गुणगान, क्षेत्र और धर्म की परिधियों से निकलकर सम्पूर्ण भारतीय जनमानस में इस प्रकार रच-बस गया कि हिन्दुओं से इतर अनेक प्रतिष्ठित मुस्लमान कवियों ने कृष्ण के रूप-सौंदर्य के विवेचन में स्वयं को पूरी तरह निमज्जित पाया. इसका एक कारण यह भी था कि सूफियों की सौंदर्यमूलक प्रेमाभक्ति, जिसकी आधारशिला ही इस हदीस पर थी कि परमात्मा सौन्दर्यशील है और वह सौंदर्य को प्रिय रखता है, कृष्ण-भक्ति-काव्य में अपनी पर्याप्त गूँज महसूस कर रही थी.
शास्त्रीय चिंतन जहाँ अपने सैद्धांतिक पक्ष के कारण छोटे-छोटे खेमों में बटा दिखाई देता है, वहीँ आध्यात्मिक विचारधारा एक निरंतर प्रवाहित सरिता की भांति अपना विस्तार नापती रहती हैं. भक्ति-काव्य के मूल में यही सौंदर्यमूलक आध्यात्मिक वैचारिकता है जो न केवल इसे अर्थ प्रदान करती है, अपितु जाति, धर्म, देश,काल और भाषा से ऊपर उठकर, इसके आस्वादन के लिए प्रेरित करती है. कदाचित यही कारण है कि सूर के विनय के गीति पदों में और सूफियों की नातिया रचनाओं में अनेक स्थलों पर जो भाव-साम्य दिखाई देता है वह धर्मगत आस्थाओं की विभाजन रेखाओं को मेरे लिए तोड़ देता है. सूफी चिंतकों ने हज़रात मुहम्मद के जन्म के बहुत पूर्व,सृष्टि के आरम्भ के ही उनकी दिव्य-ज्योति के अस्तित्व को स्वीकार किया है. इसास्था की बुनियाद में नबी श्री की दो हदीसें 1. 'परमात्मा ने सबसे अफल मेरी ज्योति पैदा की" तथा 2. "मैं उस समय भी था जब आदि पुरूष आदम अस्तित्व धारण करने की स्थिति में थे." स्वीकार की गई हैं. इस प्रकार सभी नबी हज़रात मुहम्मद के ही अंशभूत हैं.फ़ारसी के प्रसिद्द कवि एवं सूफी चिन्तक महमूद शाबिस्त्री (मृ0 1320 ई0) के अनुसार अहमद (नबीश्री) तथा अहद (परब्रह्म) में केवल एक मीम अक्षर का अन्तर है और इसी एक मीम के भीतर सम्पूर्ण जगत समाहित है –
ज़ 'अहमद' ता 'अहद', यक 'मीम' फ़र्क़ अस्त
जहाने अन्दराँ यक 'मीम', ग़र्क़ अस्त

'अहमद' और 'अहद' के इसी ऐक्य को शेख अब्दुलकुद्दूस गंगोही (ज0 1456 ई0) ने इन शब्दों में व्यक्त किया है -"महमद महमद जग कहै, चीन्है नाहीं कोय / अहमद मीम गँवाइया, कह क्यों दूजा होय." पदमावत (1540 ई0) में सम्पूर्ण सृष्टि की रचना को नबीश्री मुहम्मद की प्रीती का परिणाम बताया गया है-"प्रथम ज्योति बिधि तेहि कै साजी / औ तेहि प्रीती सिस्टि उपराजी."
सूफी चिंतन नबीश्री के गुणतत्त्वों के प्रकाश में उन्हें पूर्ण पुरूष (इन्साने-कामिल) मानता है. पुष्टिमार्ग में इसी उच्चतम तत्त्व को पुरुषोत्तम स्वीकार किया गया है. ब्रह्मवाद, समस्त देवों सहित जगत का पुरुषोत्तम से प्रकट होना स्वीकार करता है. सूर ने "कृशनहि ते यह जगत प्रकट है, हरि में लय ह्वै जावै" के माध्यम से इसी तथ्य का संकेत किया है. मुहम्मद अव्वल भी हैं, आख़िर भी और इस दृष्टि से अनंत, अनुपम और अविनाशी भी हैं. सूरदास श्रीकृष्ण के पुरुषोत्तम रूप का निरूपण इन्हीं शब्दों में करते हैं -"अविगत, आदि, अनंत, अनुपम, अलख,पुरूष, अविनाशी"
नबीश्री को श्रीप्रद कुरआन में 'मुदस्सिर' (चादर ओढ़ने वाला) और 'मुज़म्मिल' (कमली ओढ़ने वाला) कहा गया है. सूर के आराध्य कृष्ण पीताम्बर धारी भी हैं और कमली धारी भी. नबीश्री 'हिरा' पर्वत के भीतर प्रवेश करके और श्रीकृष्ण गोवर्धन पर्वत को धारण कर के अपने विराट रूप से साक्षात्कार करते हैं. मुहम्मद का सौन्दर्य अद्वितीय है. सभी नबियों में जो सौन्दर्य पृथक-पृथक था वह सब का सब नबीश्री में एक साथ एकत्र हो गया है. सूर के आराध्य कृष्ण का सौन्दर्य अनुपम और अदभुत है. वे सुन्दरता के ऐसे सागर हैं जिन का विवेचन बुद्धि-बल और विवेक-बल के आधार पर नहीं किया जा सकता. उस सौन्दर्य का आनंद मन-ही-मन लिया जा सकता है.
मैं ने 1984 ई0 में जिस समय राम-काव्य (अब किसे बनवास दोगे) की रचना की, मेरे चिंतन के मूल में राम के सम्पूर्ण चरित्र को एक सांस्कृतिक किरणबिन्दु के भीतर से विकसित करने का उद्देश्य था. मैं अपने प्रयास में कितना सफल हुआ इसका अनुमान मैं इस तथ्य के प्रकाश में सहज ही कर सकता हूँ कि पण. बद्री नारायण तिवारी अबतक मानस संगम कानपुर से इसके तीन संस्करण प्रकाशित कर चुके हैं. वस्तुतः यह सांस्कृतिक किरण बिन्दु वैष्णव अथवा गैर वैष्णव न होकर मिली-जुली संस्कृति का विशुद्ध भारतीय किरण-बिन्दु था जिसके कथा-बीज में मेरी सौन्दर्य-मूलक चेतना अपना विस्तार तलाश रही थी.
मैं विगत तीस-पैंतीस वर्षों से सूर-काव्य का स्वान्तः सुखाय अद्ययन करता रहा हूँ. मुझे सूर काव्य में भारतीय ओके-संस्कृति की जिस भीनी-भीनी कस्तूरी सौगंध का बोध हुआ उसपर मैं पूरी तरह मुग्ध हो उठा. सूर द्वारा प्रतिपादित श्रीकृष्ण का गुणातीत, निर्विशेष, कर्त्ता, निर्विकार एवं संसार के सब धर्मों से रहित स्वरुप मुझे मेरी आस्था के साथ एकस्वर दिखायी दिया. कदाचित इसीलिए मुझे रूपांतर करते समय भी मूल रचना के आनंद की प्रतीति हुई. मुझे महसूस हुआ कि सूर वास्तव में अंधे नहीं थे. उनका अंधापन उस सांसारिकता के प्रति था जो आराध्य से दृष्टि हटाकर भक्त को भटकाव की स्थिति में छोड़ देती है. जगत की परिणति निश्चय ही ब्रह्म से भिन्न नहीं है. सूर के पदों का अनुवाद मेरे लिए श्रीकृष्ण के लौकिक प्रेम के माध्यम से अलौकिक ब्रह्म को पहचानने और उसके प्रति समर्पित हो जाने का एक प्रयास है.
मुझे इस बात का दुःख है कि भारत में मुसलामानों के प्रवेश को मुस्लिम शासकों की आक्रामक पृष्ठभूमि में ही सदैव मूल्यांकित किया गया. जबकि तथ्य यह है कि गोरी और ग़ज़नवी से बहुत पहले उत्तरी भारत में मुस्लिम सूफी साधक एक बड़ी संख्या में आ चुके थे और सौम्य स्वाभाव एवं सौहार्दपूर्ण व्यवहार के कारण पर्याप्त लोकप्रिय भी हो चुके थे. दक्षिण भारत में तो व्यापारिक संबंधों के कारण भाईचारे का वातावरण बहुत पहले से बनने लगा था. वहाँ किसी मुस्लिम शासक का कोई आक्रमण कभी नहीं हुआ. स्पष्ट है कि दक्षिण भारत में भक्ति का प्रचार-प्रसार किसी मुस्लिम साम्राज्य द्बारा हिन्दुओं पर किए गए अत्याचार, आतंक अथवा दबाव का परिणाम नहीं था. भक्ति की स्वच्छंद धारा किसी आतंक अथवा अत्याचार के वातावरण में स्वच्छ शीतल निर्झर की भांति प्रवाहित भी नहीं हो सकती थी.
मध्ययुगीन मानसिकता में रूढिवादिता और जड़ता को देखना आंशिक सत्य को उजागर करता है. मुस्लिम शास्त्रचार्यों अथवा पंडितों की रूढिवादिता के समानान्तर नाथपंथियों, संतों और सूफ़ियों के प्रगतिशील असहमतिमूलक आक्रोश को जड़ता का नाम नहीं दिया जा सकता. भारतीय जनमानस मुल्लाओं और पंडितों की अपेक्षा नाथपंथियों, सूफ़ियों और संतों से कहीं अधिक निकट से जुड़ा हुआ था. कृष्णभक्त कवियों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि उन्होंने अपने युग के सभी प्रेममूलक रंगों को अपने भीतर समाहित किया. फलस्वरूप सूफी संतों ने भी विष्णुपदों के लालित्य के साथ एकरंगता महसूस की, जिसकी ध्वनि अकबरकालीन सूफ़ी चिन्तक मेरे अब्दुलवाहिद बिलग्रामीकृत 'हक़ायक़े -हिन्दी' नामक ग्रन्थ में अनुभव की जा सकती है, जिसमें लेखक ने विष्णुपदों की शब्दावली की सूफ़ीपरक व्याख्या प्रस्तुत की है (यह ग्रन्थ नगरी प्रचारिणी सभा वाराणसी से प्रकाशित हो चुका है). सैयद गुलाम अली 'रसखान' और बरकतुल्लाह 'पेमी' की रचनाओं को इसी के प्रकाश में व्याख्यायित किया जाना उपयुक्त है. सच पूछा जाय तो कृष्णभक्ति काव्य भारतीय जनमानस को विभिन्न स्तरों पर एक-दूसरे से जोड़ने का कार्य कर रहा था. सूरदास का इस दिशा में अविस्मरणीय योगदान स्वीकार किया जाना चाहिए.
सूर का काव्य कथ्य और शिल्प दोनों ही दृष्टियों से अदभुत है. उसमें उन्मेषशालिनी प्रतिभा भी है और बिम्ब-संयोजन की कलात्मक क्षमता भी. सूर के सौन्दर्य-बोध को मानसिक और कल्पनाशील स्वीकार करना और तुलसी के सौन्दर्य-बोध को लौकिक और जीवन-सापेक्ष समझाना सूर के साथ अन्याय करना है. द्रष्टव्य यह है कि सूर का काव्य-लोक जीवन से किसी स्टार पर भी कटा हुआ नहीं है. बल्कि यह कहना अनुपयुक्त न होगा कि तुलसी की तुलना में सूर की लोकजीवन-दृष्टि कहीं अधिक पैनी है. उसका फलक ग्रामीण जीवन के सहज क्रिया-कलापों से ऊर्जा प्राप्त करता है, मथुरा से सम्बद्ध कृष्ण की समस्त गतिविधियों का शांत मन से अवलोकन करता है, उद्धव और गोपियों के संवाद के माध्यम से युगीन सामाजिक, दार्शनिक, राजनीतिक और आस्थागत मुद्दों का जायज़ा लेता है और काव्य-संगीत के लयात्मक आरोह-अवरोह से जन्मी प्रकाशयुक्त जीवन तरंगों पर तैरता है.
सूर युगीन फ़ारसी ग़ज़ल अपनी कोमल मधुर शब्दावली, अद्भुत कल्पनाशीलता,सहज दो-टूक संप्रेषण क्षमता और सूक्ष्म युगबोध की कलात्मक प्रस्तुति के कारण भारतीय भाषाओं के लिए एक चुनौती बनी हुई थी. दोहे की कविता में ग़ज़ल के शेरों का गुण अवश्य था जो उसे जन सामान्य में लोकप्रिय बनाए हुए था, किंतु ग़ज़ल की विभिन्न रागों में ढल जाने वाली आकर्षक लयात्मकता से वे पूरी तरह वंचित थे.सूर ने विभिन्न भरतीय रागों पर आधारित गीति-पदों की रचना कर के ब्रज भाषा काव्य को फ़ारसी ग़ज़ल के सामानांतर खड़ा कर दिया. मुल्ला दाऊद, कुतुबन, मंझन, जायसी, तुलसी आदि फ़ारसी की मसनवी के समकक्ष अवधी कथा-काव्य परम्परा को समृद्ध कर चुके थे. सूर काव्य में भक्ति की चाशनी के साथ ग़ज़ल का लालित्य सहज ही इस प्रकार समाविष्ट हो गया कि उसका प्रभाव निरंतर गहराता गया और सूर युगीन फ़ारसी कवि भी गीति-पद की ओर आकृष्ट हुए बिना न रह सके.
सूर के काव्य में रूप-सौन्दर्य की मूर्त्त रमणीय अभिव्यक्ति है. नैसर्गिकता, स्वच्छन्दता, असाधारणता और कल्पनाशीलता का अनुकूल सहयोग पाकर, यह अभिव्यक्ति और भी स्पन्दनशील हो उठती है. आचार्य रामचंद्र शुक्ल का मर्यादा-ग्रस्त पैमाना सूर द्वारा प्रस्तुत राधा-कृष्ण प्रेम प्रसंगों को मूल्यांकित करने के लिए छोटा पड़ जाता है. उनकी स्थूल दृष्टि बाह्यार्थ-निरूपक तत्त्वों से टकराकर वापस लौट आती है. वे लीला-प्रसंगों में अंतर्मुखी-अनुभूति की तरलता और तीव्रता को महसूस करने में असमर्थ हैं. कवि और पात्रों की अनुभूति, अभिव्यंजना के औचित्य का स्पर्श पाकर ऐन्द्रिय-सौन्दर्य जगत से आत्मिक-सौन्दर्य जगत में कब और किस समय अनायास चली जाती है, शुक्ल जी इस तथ्य का आभास नहीं कर सके हैं. सूर का रूप-सौन्दर्य केवल भौतिक ऐन्द्रिय-सौन्दर्य नहीं है, उसमें सौन्दर्य के बाह्य एवं अभ्यंतर पक्षों के बारीक-से-बारीक पहलुओं की स्थिति-जन्य गतिशील अभिव्यंजना सहज ही देखी जा सकती है.
सूर काव्य के सांस्कृतिक पक्ष का सूर के अध्येताओं ने सविस्तार विवेचन किया है, किंतु सूर की सामाजिक एवं राजनीतिक जागरूकता को पूरी तरह नज़र अंदाज़ कर दिया गया है. कारण शायद यह है कि विद्वानों ने यह पहले से ही स्वीकार कर लिया है कि सूर की वैचारिक परिधियों में सामाजिक एवं राजनीतिक विषयों के लिए कोई स्थान नहीं है. किंतु ध्यान पूर्वक देखने पर सूर काव्य में जहाँ वाक्चातुर्य से लैस संवादों की प्रभावक प्रस्तुति है, बाल सुलभ चेष्टाओं की विनोदपूर्ण नट-खट सजीव अभिव्यंजना है, ममत्व का परिस्थिति-जन्य आह्लादमय आस्वादन है, नन्द और यशोदा के संवेदनशील मन की वात्सल्य रस से सिक्त छटपटाहट है, रूठना, मनाना, खीझना-रीझाना, नाचना-झूमना,उलाहने देना, ताने कसना, बात से मुकर जाना आदि अनेक मानव मनोविज्ञान से जुड़े प्रसंग हैं, वहीं युग, समाज और व्यवस्था पर कहीं हलकी, कहीं तीखी चोट करते रहना सूर के गीति-पदों की एक विशिष्ट पहचान है.
उद्धव के साथ गोपियों के संवाद का फलक, यदि बारीकी से देखा जाय, तो राजनीतिक स्थितियों के व्यंग्यात्मक चित्रों से भरा हुआ मिलेगा. सूर युगीन दुर्बल प्रशासनिक व्यवस्था पर गोपियाँ उद्धव को संबोधित कर के पैनी चोट करती हैं -
ऊधौ ! तुम्हारा तौर तरीका भी खूब है
राजा भी खूबतर है, रिआया भी खूब है
तुम जैसा उनका अफ़्सरे-आला भी खूब है
आमों को काट कर के लगाते हो तुम बबूल
चंदन को ख़त्म कर के उडाते हो सिर्फ़ धूल
तुम शाह को पकड़ते हो चोरों को छोड़ कर
नज़रों में हैं तुम्हारी चुगलखोर मोतबर
ऐ 'सूर' कैसे होगा भला इस तरह निबाह
सरकार बेलगाम है, जनता है सब तबाह.

सूर की दृष्टि में 'अंधाधुंध' सरकार के साथ निर्वाह कर पाना बड़ा ही कष्टसाध्य कार्य है. और वह भी ऐसी स्थिति में, जब चुगली करने वाले विश्वसनीय समझे जाएँ और अपराधियों को मुक्त कर के सीधे-सच्चे लोगों को अपराधी ठहराकर बंदी बनाया जाय. राजा को तो वास्तव में ऐसा होना चाहिए कि उसकी प्रजा हर प्रकार के अन्याय और अत्याचार से मुक्त हो -
राजा का 'सूर' फ़र्ज़ तो होता है बस यही
जौरो-सितम से उसकी रिआया न हो दुखी

किंतु सूर के युग की विचित्र विडम्बना है -
ऐ 'सूर' हैं ये सिर्फ़ ज़माने की खूबियाँ
मिलाता है शातिरों को ही फ़िल्फ़ौर फल यहाँ

सच पूछिए तो "सूरदास यह जग की महिमा, कुटिल तुरत फल पावत" की स्थिति सूर युगीन समाज की तुलना में आज कहीं अधिक प्रासंगिक है. प्रेमचन्द ने जिस समय महाजनी सभ्यता पर निबंध लिखा और महाजनों तथा साहूकारों क्र अत्याचार के चित्र कथा-साहित्य के माध्यम से प्रस्तुत किए, वामपंथी आलोचकों ने उनकी प्रगतिशीलता को एक ख़ास नज़रिए से मूल्यांकित किया. सूर महाजनी सभ्यता के इस रुख से अच्छी तरह परिचित थे. स्थिति यह थी कि महाजन क़र्ज़ का पैसा वापस न मिलने के बदले में मवेशी तो खोल ही ले जाता था, घर में बचे-खुचे चारा-पानी को भी हज़म कर जाने की इच्छा उसमें पर्याप्त बलवती थी -
पहले तो 'सूर' खोले महाजन ने जानवर
अब चारा हज़्म करने पे आमादा है लईं

ज़मीनदारों और पटवारियों के अत्याचार की कथाएं प्रेमचंद साहित्य में पर्याप्त महत्त्व रखती हैं. सूर का किसान प्रेमचंद के किसान से कुछ कम पीड़ित नहीं है. गाँव की ऊसर ज़मीन पर खेती करने से कितनी उपज हो सकती है यह सहज ही महसूस किया जा सकता है. पंचजन यदि कारकुन से मिलकर मन-ही-मन षड़यंत्र रचें और ज़मीनदार खेत के कागजात माँगने लगे,तो बेचारे किसान की कितनी दयनीय स्थिति होगी ( विस्तार के लिए देखिये सीताराम चतुर्वेदी संपादित सूर ग्रंथावली, खंड 4, पद 4491 )
सूरदास के पदों का काव्यानुवाद करते समय मैंने इस बात का विशेष ध्यान रक्खा है कि कवि का प्रतिनिधि साहित्य पाठकों तक पहुँचा सकूँ. विनय, वात्सल्य और श्रृंगार से इतर, अनेक ऐसे प्रसंगों को भी मैं ने समेटने का प्रयास किया है, जिन से सूर के काव्य-फलक की सीमाएं समझी जा सकें. सूर सागर के विभिन्न संपादित संस्करणों में जो पाठ भेद हैं उन से मुझे बड़ी कठिनाई हुई है. फिर भी मैं ने स्तरीय पाठ को ही आधार बनाया है.
प्रारंभ में जब मैं ने कुछ पदों के अनुवाद किए तो मेरे वरिष्ठ विभागीय सहयोगी प्रो. गोवर्धन नाथ शुक्ल ने उनकी जिन शब्दों में प्रशंसा की उस से मुझे कल्पनातीत प्रोत्साहन मिला. उन्हीं दिनों मित्रवर लल्लन प्रसाद जी व्यास ने कुछ काव्यानुवाद 'विश्व हिन्दी दर्शन' में प्रकाशित किए जिन्हें पाठकों ने बहुत अधिक सराहा. किंतु अनेक पारिवारिक परीशानियों से घिरा होने के कारण मैं वर्षों इस कार्य की ओर ध्यान न दे सका. इधर मेरे अग्रज प्रो. कैलाशचंद्र भाटिया ने मुझे बार-बार टोक कर इस कार्य के लिए पुनः प्रेरित किया. मुझे प्रसन्नता है कि मैं सूरदास के एक सौ एक पदों का काव्यानुवाद करने के अपने संकल्प को पूरा कर सका. वैसे तो मैं ने बहुत ही ईमानदारी से मनोयोग पूर्वक इस कार्य को संपन्न करने का प्रयास किया है, फिर भी कहीं मैं यदि सूर जैसे महान कवि की भावनाओं को यथावत रूपांतरित नहीं कर सका हूँ, तो इसका कारण मेरी अपनी काव्य-प्रतिभा की कमी ही हो सकती है. मुझे विशवास है कि सूर के पाठक मेरे दोषों के लिए मुझे क्षमा कर देंगे
10 जून, 1998 प्रो. शैलेश ज़ैदी
पूर्व अध्यक्ष, हिन्दी विभाग
अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय

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