बुधवार, 25 जून 2008

कविता के हस्ताक्षर / जयशंकर प्रसाद [ 1889-1937 ]

[ 1 ] हिमाद्रि तुंग श्रृंग से
हिमाद्रि तुंग श्रृंग से
प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयं प्रभा समुज्ज्वला
स्वतंत्रता पुकारती
अमर्त्य वीर पुत्र हो, दृढ़-प्रतिज्ञ सोच लो,
प्रशस्त पुण्य पन्थ है, बढे चलो बढे चलो !

असंख्य कीर्ति-रश्मियाँ
विकीर्ण दिव्य दाह सी
सपूत मातृ-भूमि के
रुको न शूर साहसी !
अराति-सैन्य-सिन्धु में,सुवाडवाग्नि से जलो
प्रवीर हो, जयी बनो - बढे चलो बढे चलो !
[ 2 ] अरुण यह मधुमय देश हमारा
अरुण यह मधुमय देश हमारा.
जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा.

सरस तामरस गर्भ विभा पर नाच रही तरु शिखा मनोहर
छिटका जीवन हरियाली पर मंगल कुमकुम सारा.

लघु सुरधनु से पंख पसारे शीतल मलय समीर सहारे
उड़ते खग जिस ओर मुंह किए समझ नीद निज प्यारा.

बरसाती आंखों के बादल बनते जहाँ भरे करुणा जल
लहरें टकरातीं अनंत की पाकर जहाँ किनारा.

हेम कुम्भ ले उषा सवेरे भारती ढुलकाती सुख तेरे
मदिर ऊंघते रहते जब जगकर रजनी भर तारा.
[ 3 ] बीती विभावरी
बीती विभावरी जाग री.
अम्बर पनघट में डुबो रही, तारा घाट ऊषा नगरी.

खग कुल कुल कुल सा बोल रहा, किसलय का अंचल डोल रहा
लो यह लतिका भी भर लाई, मधु मुकुल नवल रस गागरी.

अधरों में राग अमंद लिए, अलकों में मलयज बंद किए
तू अब तक सोई है आली, आंखों में भरे विहाग री.
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