रविवार, 15 जून 2008

किशवर नाहीद की दो ग़ज़लें

[ 1 ]
हसरत है तुझे सामने बैठे हुए देखूं
मैं तुझसे मुखातिब हो तेरा हाल भी पूछूँ
दिल में है मुलाक़ात की ख्वाहिश की दबी आग
मेंहदी लगे हाथों को छुपा कर कहाँ रक्खूँ
जिस नाम से तूने मुझे बचपन से पुकारा
इक उम्र गुजरने पे भी वो नाम न भूलूं
तू अश्क ही बन के मेरी आंखों में समा जा
मैं आइना देखूं तो तेरा अक्स भी देखूं
पूछूँ कभी गुन्चों से, सितारों से, हवा से
तुझसे ही मगर एक तेरा नम न पूछूँ
ऐ मेरी तमन्ना के सितारे तू कहाँ है
तू आये तो ये जसम शबे-गम को न सौंपूँ
[ 2 ]
कहानियाँ भी गयीं, किस्सा-ख्वानियाँ भी गयीं
वफ़ा के बाब की सब बेज़ुबानियाँ भी गयीं
वो बेज़याबिए-ग़म की सबील भी न रही
लुटा यूं दिल के सभी बेसबातियाँ भी गयीं
हवा चली तो हरे पत्ते सूख कर टूटे
वो सुब्ह आई तो हैराँनुमाइयां भी गयीं
ये मेरा चेहरा मुझे आईने में अपना लगे
इसी तलब में बदन की निशानियाँ भी गयीं
पलट-पलट के तुम्हें देखा पर मिले ही नहीं
वो अहदे-ज़ब्त भी टूटा, शिताबियाँ भी गयीं
मुझे तो आँख झपकना भी था गराँ लेकिन
दिलो-नज़र की तसव्वुर-शिआरियाँ भी गयीं
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