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गुरुवार, 26 जून 2008

पसंदीदा शायरी / अख्तरुल-ईमान [ 1915-1995 ]

तीन नज़्में
[ 1 ] ओहदे-वफ़ा
यही शाख तुम जिसके नीचे किसी के लिए चश्म-नम हो
अब से कुछ साल पहले
मुझे एक छोटी सी बच्ची मिली थी
जिसे मैंने आगोश में ले के पूछा था, 'बेटी
यहाँ क्यों खड़ी रो रही हो ?
मुझे अपने बोसीदा आँचल में फूलों के गहने दिखाकर
वो कहने लगी
मेरा साथी उधर, उसने उंगली उठाकर बताया,
उधर उस तरफ़ ही,
जिधर ऊंचे महलों के गुम्बद, मिलों की सियह चिमनियाँ
आस्मां की तरफ़ सर उठाये खड़ी हैं,
ये कह कर गया है
कि मैं सोने चांदी के गहने तेरे वास्ते
लेने जाता हूँ - रामी.

[ 2] आख़िरी मुलाक़ात
आओ कि जश्ने-मर्गे-मुहब्बत मनाएँ हम

आती नहीं कहीं से दिले-जिंदा की सदा
सूने पड़े हैं कूच'ओ-बाज़ार इश्क के
है शमए-अंजुमन का नया हुस्ने-जां-गुदाज़
शायद नहीं रहे वो पतंगों के वलवले
ताज़ा न रख सकेगी रिवायाते-दश्तो-दार
वो फ़ितनासर गये जिन्हें कांटे अज़ीज़ थे
अब कुछ नहीं तो नींद से आँखें जलाएं हम
आओ कि जश्ने-मर्गे-मुहब्बत मनाएँ हम

सोचा न था कि आएगा ये दिन भी फिर कभी
इक बार हम मिले हैं ज़रा मुस्कुरा तो लें
क्या जाने अब न उल्फ़ते-देरीना याद आए
इस हुस्ने-इख्तियार पे आँखें झुका तो लें
बरसा लबों से फूल तेरी उम्र हो दराज़
संभले हुए तो हैं पे ज़रा डगमगा तो लें
आओ कि जश्ने-मर्गे-मुहब्बत मनाएँ हम

[ 3] बे-तअल्लुकी
शाम होती है सहर होती है ये वक़्ते-रवां
जो कभी सर पे मेरे संगे-गरां बन के गिरा
राह में आया कभी मेरी हिमाला बन कर
जो कभी उक़दा बना ऐसा कि हल ही न हुआ
आज बे-वास्ता यूँ गुज़रा चला जाता है
जैसे मैं कश्मकशे-ज़ीस्त में शामिल ही नहीं
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मंगलवार, 24 जून 2008

पसंदीदा शायरी / मजाज़ लखनवी [ 1911-1955 ]

दो नज़्में
[ १ ] एतराफ़
अब मेरे पास तुम आई हो तो क्या आई हो ?

मैंने माना कि तुम इक पैकरे-रानाई हो
चमने-दहर में रूहे-चमन-आराई हो
तलअते-मेह्र हो,फिरदौस की रानाई हो
बिन्ते-महताब हो गर्दूं से उतर आई हो
मुझसे मिलने में अब अंदेशए-रुसवाई है
मैंने ख़ुद अपने किए की ये सज़ा पाई है

ख़ाक में आह मिलाई है जवानी मैंने
शोला-ज़ारों में जलाई है जवानी मैंने
शहरे-खूबां में गंवाई है जवानी मैंने
ख्वाब-गाहों में जगाई है जवानी मैंने
हुस्न ने जब भी इनायत की नज़र डाली है
मेरे पैमाने-मुहब्बत ने सिपर डाली है

उन दिनों मुझपे क़यामत का जुनूं तारी था
सर पे सरशरीओ-इशरत का जुनूं तारी था
माहपारों से मुहब्बत का जुनूं तारी था
शहरयारों से रक़ाबत का जुनूं तारी था
बिस्तरे-मख्मलो-संजाब थी दुनिया मेरी
एक रंगीनो-हसीं ख्वाब थी दुनिया मेरी

जन्नते-शौक़ थी बेगानए- आफ़ाते-सुमूम
दर्द जब दर्द न हो, काविशे-दरमाँ मालूम
ख़ाक थे दीदए-बेबाक में गर्दूं के नुजूम
बज़्मे-परवीं थी निगाहों में कनीज़ों का हुजूम
लैलिए-नाज़ बरअफ़्गंदा-नक़ाब आती थी
अपनी आंखों में लिए दावते-ख्वाब आती थी

संग को गौहरे-नायाबो-गरां जाना था
दश्ते-पुर-खार को फ़िर्दौसे-जिनां जाना था
रेग को सिलसिलए-आबे-रवां जाना था
आह ये राज़ अभी मैंने कहाँ जाना था
मेरी हर फ़तह में है एक हज़ीमत पिनहाँ
हर मसर्रत में है राज़े-ग़मो-इशरत पिनहाँ

क्या सुनोगी मेरी मजरुह जवानी की पुकार
मेरी फर्यादे-जिगर-दोज़, मेरा नालए-ज़ार
शिद्दते-करब में डूबी हुई मेरी गुफ़्तार
मैं कि ख़ुद अपने मजाके-तरब-आगीं का शिकार
वो गुदाज़े-दिले-मरहूम कहाँ से लाऊं
अब मैं वो जज्बए- मौसूम कहाँ से लाऊं

मेरे साए से डरो तुम मेरी गुरबत से डरो
अपनी जुरअत की क़सम अब मेरी जुरअत से डरो
तुम लताफ़त हो अगर मेरी लताफ़त से डरो
मेरे वादों से डरो मेरी मुहब्बत से डरो
अब मैं अल्ताफो-इनायत का सज़ावार नहीं
मैं वफ़ादार नहीं हाँ मैं वफ़ादार नहीं

अब मेरे पास तुम आई हो तो क्या आई हो ?
[ २ ] नन्ही पुजारन
इक नन्ही मुन्नी सी पुजारन
पतली बाहें पतली गर्दन
भोर भये मन्दिर आई है
आई नहीं है, माँ लाई है
वक़्त से पहले जाग उठी है
नींद अभी आंखों में भरी है
ठोडी तक लट आई हुई है
यूँ ही सी लहराई हुई है
आंखों में तारों की चमक है
मुखड़े पर चांदी की झलक है
कैसी सुंदर है क्या कहिये
नन्ही सी इक सीता कहिये
धूप चढ़े तारा चमका है
पत्थर पर इक फूल खिला है
चाँद का टुकडा फूल की डाली
कमसिन, सीधी, भोली भाली
दिल में लेकिन ध्यान नहीं है
पूजा का कुछ ज्ञान नहीं है
कैसी भोली और सीधी है
मन्दिर की छत देख रही है
माँ बढ़कर चुटकी लेती है
चुपके चुपके हंस देती है
हँसना रोना उसका मज़हब
उसको पूजा से क्या मतलब
ख़ुद तो आई है मंदर में
मन उसका है गुडिया घर में
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