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रविवार, 22 जून 2008

पसंदीदा शायरी / शहरयार

पाँच ग़ज़लें
[ 1 ]
जिंदगी जैसी तमन्ना थी, नहीं, कुछ कम है
हर घड़ी होता है एहसास कहीं कुछ कम है
घर की तामीर तसव्वुर ही में हो सकती है
अपने नक़्शे के मुताबिक़ ये ज़मीं कुछ कम है
बिछड़े लोगों से मुलकात कभी फिर होगी
दिल में उम्मीद तो काफ़ी है, यकीं कुछ कम है
अब जिधर देखिये लगता है कि इस दुनिया में
कहीं कुछ चीज़ ज़ियादा है कहीं कुछ कम है
आज भी है तेरी दूरी ही उदासी का सबब
ये अलग बात है पहली सी नहीं, कुछ कम है
[ 2 ]
अजीब सानेहा मुझ पर गुज़र गया यारो
मैं अपने साए से कल रात डर गया यारो
हर एक नक़्श तमन्ना का हो गया धुंधला
हर एक ज़ख्म मेरे दिल का भर गया यारो
भटक रही थी जो कश्ती वो गर्के-आब हुई
चढ़ा हुआ था जो दरया उतर गया यारो
वो कौन था, वो कहाँ का था, क्या हुआ था उसे
सुना है आज कोई शख्स मर गया यारो
[ 3 ]
हम पढ़ रहे थे ख्वाब के पुर्जों को जोड़ के
आंधी ने ये तिलिस्म भी रख डाला तोड़ के
इक बूँद ज़हर के लिए फैला रहे हो हाथ
देखो कभी ख़ुद अपने बदन को निचोड़ के
कुछ भी नहीं जो ख्वाब की सूरत दिखायी दे
कोई नहीं जो हम को जगाये झिंझोड़ के
इन पानियों से कोई सलामत नहीं गया
है वक़्त अब भी कश्तियाँ ले जाओ मोड़ के
[ 4 ]
जुस्तुजू जिसकी थी उसको तो न पाया हम ने
इस बहाने से मगर देख ली दुनिया हम ने
तुझ को रुसवा न किया ख़ुद भी पशेमां न हुए
इश्क़ की रस्म को इस तर्ह निभाया हम ने
कब मिली थी कहाँ बिछड़ी थी हमें याद नहीं
जिंदगी तुझ को तो बस ख्वाब में देखा हम ने
ऐ अदा और सुनाये भी तो क्या हाल अपना
उम्र का लंबा सफर तय किया तनहा हम ने
[ 5]
कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता
कहीं ज़मीं तो कहीं आसमाँ नहीं मिलता
जिसे भी देखिये वो अपने आप में गुम है
ज़ुबां मिली है मगर हम-ज़ुबां नहीं मिलता
बुझ सका है भला कौन वक्त के शोले
ये ऐसी आग है जिसमें धुआं नहीं मिलता
तेरे जहान में ऐसा नहीं कि प्यार न हो
जहाँ उमीद हो इसकी वहाँ नहीं मिलता
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बुधवार, 18 जून 2008

आंखों से जुड़ी कुछ ग़ज़लें / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

सावन की घटा बन के बरसती हुई आँखें
भीगा हुआ मौसम हैं ये भीगी हुई आँखें
ख़्वाबों में उतर आती हैं चुप-चाप दबे पाँव
दोशीज़ए-माजी की चमकती हुई आँखें
ये सोचके जाता नहीं मयखाने की जानिब
आजायें न फिर याद वो भूली हुई आँखें
इस दौर में क्या जाने कोई क़द्र गुहर की
दो बेश-बहा सीप हैं सोई हुई आँखें
रुक कर मेरी नज़रें किसे पहचान रही हैं
शायद हैं ये पहले कभी देखी हुई आँखें
सायल की तरह आई हैं दरवाज़ए-दिल पर
कश्कोले-तमन्ना लिए सहमी हुई आँखें
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दमकते चाँद से रुख पर बड़ी-बड़ी आँखें
बला का रखती हैं अंदाजे-दिलबरी आँखें
मैं जानता हूँ के होती हैं किस क़दर शीरीं
हसीन पलकों के शीशे में शरबती आँखें
किसी को नफ़रतें देती हैं प्यार के बदले
किसी से करती हैं इज़हारे-दोस्ती आँखें
गुलाबी शोख़ लिफ़ाफ़ों में है वफ़ा के खुतूत
छुपी हैं पर्दए-मिज़गाँ में प्यार की आँखें
सहर का नूर भी हैं, रात की सियाही भी
हयातो-मौत की तस्वीर खींचती आँखें
दिलों के बंद खज़ानों को खोल कर अक्सर
जवाहरात परखती हैं जौहरी ऑंखें
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गुफ्तुगू निगाहों की एतबार आंखों का
दिल पे हो गया आख़िर इख्तियार आंखों का
मय में आज साकी ने कोई शै मिला दी है
ढल गया है शीशे में सब खुमार आंखों का
आंसुओं के दरया में डूब-डूब जाता हूँ
ज़िक्र जब भी आता है अश्कबार आंखों का
मस्तिए-शराब इतनी देर-पा नहीं होती
नश'अ और ही कुछ है बावक़ार आंखों का
किस तरह मैं ठुकरा दूँ तुम ही कुछ कहो जाफर
दावतें हैं नज़रों की इन्केसार आंखों का
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आरजूओं का जहाँ हैं आँखें
तशना ख्वाबों की ज़बां हैं आँखें
भीग जाएँ तो समंदर कहिये
वरना साहिल की फुगाँ हैं आँखें
ये नहीं हैं तो जहाँ है तारीक
दौलते- माहवशां आँखें
जिनमें गुम हो गया माजी मेरा
कौन जाने वो कहाँ हैं आँखें
कैसे गम अपना छुपाये कोई
तर्जुमाने-दिलो-जाँ हैं आँखें
क्या हुआ आपको जाफर साहब
किस लिए अश्क-फ़िशां हैं आँखें
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अपने दामन में लिए शहरे तमन्ना ऑंखें
देखती रहती हैं दुनिया का तमाशा आँखें
यादें बादल की तरह ज़ेह्न पे छा जाती हैं
और अश्कों का बहा देती हैं दरया आँखें
दूर से इन पे समंदर का गुमाँ होता है
पास आने पे नज़र आती हैं तशना आँखें
इनमें सुर्खी भी, सियाही भी, सफेदी भी है
हू-ब-हू अक्स हैं तिरबेनी का गोया आँखें
आँखें मिलती हैं तो बढ़ जाता है कुछ और भी गम
लोग कहते हैं के होती हैं मसीहा आँखें
काम लेते हो हर इक लम्हा तुम इनसे जाफर
हो न जाएँ कहीं बाज़ार में रुसवा आँखें
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'चाँद के पत्थर' (1970) काव्य-संग्रह से साभार