गुरुवार, 3 जुलाई 2008

मुख्यधारा के साहित्यिक ठेकेदारों की अलगाववादी राजनीति / प्रो.शैलेश ज़ैदी


साहित्य में मुख्य धारा का प्रश्न पहले भी उठाया गया और आज भी उठाया जा रहा है. उन्नीसवीं शताब्दी के सांस्कृतिक राष्ट्रीय आन्दोलन के गर्भ से जन्मी मुख्य धारा की अमूर्त्त कन्या, संघ परिवार की गोद में पलकर, अब पर्याप्त सयानी, मूर्त्त और मुखर हो गई है. निज-धर्म-वर्चस्व और ब्राह्मणवादी विचारधारा की तत्कालीन राष्ट्रीय समझ के पर्याय स्वरुप यह मुख्य धारा सिद्धों, नाथों और जैनियों द्बारा रचित साहित्य को अपने अनुकूल न पाकर, यह जानते हुए भी कि साहित्य की प्रकृति सिद्ध, नाथ, जैन नहीं होती, उसे इन्हीं नामों से याद करती रही.यह साहित्य के इस विपुल भण्डार को हाशिये पर डालने की एक सोची-समझी साज़िश थी. साहित्येतिहास के मोटे-मोटे ग्रन्थ लिखे गए जिनमें इन साहित्यकारों को अछूत की तरह ज़मीन के एक कोने में बैठने की बित्ता भर जगह तो दे दी गई, साहित्य की खाट पर बराबर से बैठने कि इजाज़त कभी नही मिली.
रोचक बात यह है कि साहित्य की मुख्य धारा वाले मठाधीशों ने, अछूतों की तरह बरतते हुए जैनियों, सिद्धों और नाथ साहित्यकारों को अपने स्वनिर्मित विशाल भव्य भवन में मामूली सी जगह देकर अपनी उदारता पंजीकृत करा ली और गर्व से गर्दन टेढी करके अपने वर्चस्व को भुनाते रहे. कबीर के रामनामी दुपट्टे में वैष्णववादी झालरें और गोटे लगाने की गुंजाइश पाकर, बच्चों को पढाई जाने वाली पुस्तकों में कंठी, माला, तिलक और मोर पंख से उनका चित्र सजाकर इस ढंग से परोसा गया कि मुख्य धारा के भीतर ही भीतर उन्हें व्याख्यायित किया जा सके. रसखान के सम्बन्ध में तो यह भी घोषणा कर दी गई कि वे जीवन के अन्तिम दिनों में इस्लाम छोड़कर वैष्णव धर्मावलम्बी हो गए थे.
अच्छा ही हुआ कि मीर तकी मीर और मोमिन खाँ मोमिन उर्दू में शायरी करते थे. यदि वे हिन्दी के रचनाकार होते तो मुख्य धारा के पंडितों को उनकी कविता से ऐसे अन्तःसाक्ष्य निकाल लेने में कोई कठिनाई न होती जिनके आधार पर वे सहज भाव से लिख सकते थे कि इन कवियों ने हिन्दू धर्म से प्रभावित होकर इस्लाम का परित्याग कर दिया था. कहा जाता कि मीर ने तो स्पष्ट लिखा है _ 'मीर के दीनो-मज़हब को, पूछते क्या हो इनने तो / कश्का खींचा, दैर में बैठे, कबका तर्क इस्लाम किया." अर्थात मीर तिलक लगाते थे, मन्दिर में बैठते थे और बहुत पहले ही इस्लाम का परित्याग कर चुके थे. इस व्याख्या के साथ मीर को तुरत मुख्य धारा में शामिल कर लिया जाता और रसखान की भांति उनपर भी वैष्णवत्व की मुहर लगा दी जाती.
अब मोमिन खाँ मोमिन को लीजिये. लिखते हैं - "अल्लह रे गुमराही बुतों-बुतखाना छोड़ कर / मोमिन चला है काबे को इक पारसा के साथ." अर्थात देखिये मोमिन कितना पथ-भ्रष्ट हो गया है कि देवालय और उसकी दिव्य मूर्तियों को छोड़कर एक 'पवित्रात्मा' के साथ काबे के लिए प्रस्थान कर रहा है. या फिर दूसरा शेर - 'उम्र तो सारी कटी इश्के-बुताँ में मोमिन / आखरी वक़्त में क्या ख़ाक मुसलमाँ होंगे.' कहा जाता कि मोमिन ने बुतों के इश्क में कुफ्र स्वीकार कर लिया था और जीवन का बड़ा हिस्सा इसी स्थिति में गुजार दिया.अब अन्तिम समय में मुसलमान होकर करेंगे भी क्या. वास्तव में इस प्रकार की व्याख्याएं वही लोग कर सकते हैं जिनकी दृष्टि स्थूल की परिधियाँ लांघकर सूक्ष्म तक पहुंचना नहीं जानती. जिस साहित्य या साहित्यकार के प्रति हमारी रागात्मकता नहीं होती, उसके साथ हम ऐसा ही खिलवाड़ करते हैं. आचार्य रामचंद्र शुक्ल रीतिकाल के कवियों से खुश नहीं थे. मुबारक की एक पंक्ति " काजर दे नहीं एरी सुहागन, आँगुरी तेरी कटेगी कटाछन' का मजाक उडाते हुए शुक्ल जी ने यहाँ तक कह दिया कि जब उसकी आँखें कटाक्ष हैं और काजल लगाते समय उंगली के कट जाने की संभावना है फिर उसे साग-सब्जी काटने के लिए हंसिये चाकू की क्या ज़रूरत.
खैर ! यह तो एक हल्की-फुल्की बात थी. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अब्दुर्रहमानकृत 'संदेश रासक' का संपादन किया. कवि ने अपना परिचय कराते हुए लिखा था "पच्चाएसि पहुओ पुव्व पसिद्धोय मिच्छ्देसोत्थि" द्विवेदी जी ने व्याख्या की 'पश्चिम दिशा में पूर्व काल से प्रसिद्द एक म्लेच्छ देश है." यह भी नहीं सोचा की कोई रचनाकार स्वयं अपने वतन को 'म्लेच्छ देश; क्यों कहेगा ?द्विवेदी जी के शिष्य विश्वनाथ त्रिपाठी ने रही सही कमी पूरी कर दी.तुक्के भिडाकर म्लेच्छ देश का 'ठौर-ठिकाना' तलाश कर लिया."अब्दुर्रहमान का आशय पश्चिमी पाकिस्तान या उसी के पास किसी प्रदेश से रहा होगा. कालांतर में म्लेच्छ की संज्ञा पाने वाली अनेक आर्येतर जातियों का आगमन उसी ओर से हुआ." 'मिच्छ-देसो-त्थि' शब्द को द्विवेदी जी 'मिच्छद-एसो-अत्थि' अर्थात मशहद देश है इसलिए नहीं पढ़ सके, क्योंकि उनके अवचेतन में म्लेच्छ शब्द पहले से घुसा हुआ था. यही खिलवाड़ अब्दुर्रहमान के पिता मीर हुसैन के नाम के साथ की गई. अब्दुर्रहमान ने लिखा था-"तह विसए सम्भूओ आरद्द मीरसेणस्स" अन्तिम शब्द को मीर हुसैन पढने के बजाय मीरसेन पढ़ा गया और इसमें धर्म परिवर्तन की गंध खोज ली गई. अब मार्क्सवादी कहे जाने वाले आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी ने ब्रह्मण ज्ञान की गंगा बहा दी "मीर मुस्लिम जातिवाचक शब्द है तो सेन हिन्दू धर्म बोधक. मीरसेन की ही भाँति मुसलमान 'कहे जाने वाले' प्रसिद्ध गायक तानसेन के नामांत में भी सेन है." पता यह चला कि मुख्य धारा के पंडितों को अपनी इच्छानुकूल तुक्के भिडाने में दक्षता प्राप्त है. म्लेच्छ रचनाकारों का साहित्यिक शुद्धिकरण करने का यह अच्छा तरीका है. इसके बाद वे पठनीय हो जाते हैं. 'पउमचरिउ' जैसी उच्च-स्तरीय साहित्यिक रचना इसलिए उच्च स्थान नहीं प्राप्त कर सकी, क्योंकि उसका शुद्धिकरण नहीं किया जा सका और उसे मुख्य धारा की आस्था के प्रतिकूल पाया गया. फिरभी दावा यह है कि मुख्य धारा में अपूर्व सहनशीलता है.
स्वधर्म-वर्चस्व की भावना से नियंत्रित, मुख्य धारा की ब्राह्मणवादी राष्ट्रीय समझ भाषा, राजनीति, साहित्य सभी स्तरों पर जिस अलगाववाद को बढ़ावा दे रही थी, उसके मठाधीश राष्ट्रवादी होने के भले ही दावेदार रहे हों, उन्होंने अपने धर्म-निरपेक्ष और प्रगतिशील होने का डंका कभी नहीं बजाया. बीसवीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक उन्हें इसकी आवश्यकता भी नहीं थी. स्वधर्म-वर्चस्व से नियंत्रित मुख्य धारा का नशा उनपर इतना गहरा था कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल जैसा गंभीर आलोचक भी जायसी का विवेचन करते हुए त्रिवेणी में लिखता है 'कुतुबन ने मुसलमान होते हुए भी अपनी मनुष्यता का परिचय दिया.' गोया मनुष्यता का मुसलामानों से कोई रिश्ता ही नहीं है.
पराधीन भारत के हिन्दी साहित्यकारों में अकेले एक प्रेमचंद थे जो चीख-चीख कर पूरी बेचैनी के साथ मुख्य धारा की इस मानसिकता पर प्रहार कर रहे थे. पर उनके ज़माने में उनकी आवाज़ नक्कारखाने में तूती की आवाज़ से अधिक नहीं थी. आश्चर्य आज के उन लेखकों पर होता है जो एक तरफ़ अपने प्रगतिशील और धर्म-निरपेक्ष होने के दावेदार हैं तो दूसरी तरफ़ उसी अलगाववादी मानसिकता को बढ़ावा दे रहे हैं, जो पहले किसी और भेस में हमारे भीतर धंसकर बैठी हुई थी. रामविलास शर्मा ने 'हिन्दी जाति' का झंडा उठाकर मुख्यधारा की इसी अलगाववादी मनोवृत्ति का साथ दिया. अन्य सुधी आलोचकों ने जैन साहित्य, सिद्ध साहित्य और नाथ साहित्य की तर्ज़ पर 'दलित-लेखन,' 'महिला-लेखन,' 'अल्पसंख्यक-लेखन' और 'मुस्लिम-लेखन' जैसे अलगाववादी शब्दों को जिस तेज़ी से उछाला और उछाल रहे हैं वह किसी से ढका-छुपा नहीं है. मतलब साफ़ है कि यह लेखन साहित्य के केन्द्र में बैठे एक विशिष्ट समाज की स्वकल्पित मुख्य धारा से मेल नहीं खाता, इसलिए इसकी अलग पहचान ज़रूरी है, ताकि उपयुक्त समय पर एक सोची-समझी साजिश के तहत इसे साहित्य के हाशिये पर रखते हुए हिन्दी साहित्य के भव्य भवन में उसी तरह दया पूर्वक बित्ता भर ज़मीन दे दी जाय, जिस तरह सिद्ध साहित्य, नाथ साहित्य और जैन साहित्य को दी गई.
खतरा इस बात का है कि जिस प्रकार उन्नीसवीं शताब्दी में अलग-अलग जातियों के अलग-अलग समाज बन गए और इन समाजों ने 'कायस्थ-समाचार,' जाट-समाचार, 'कुस्रेष्ठ-समाचार,' 'अग्रवाल-उपकारक,' भूमिहार-ब्राह्मण' आदि नामों से अपनी पृथक पत्रिकाएं छापनी शुरू कर दीं, उसी प्रकार आज कायस्थ-लेखन, अग्रवाल-लेखन आदि नामों से कहीं नई-नई खैमेबाजियाँ ण शुरू हो जाएँ ! पंकज बिष्ट का विचार है कि " आज के लेखन का आश्चर्यजनक रूप से मुख्य-स्वर महिलायें और अल्पसंख्यकों का वह वर्ग है जो पिछले पचास वर्षों में एक तरह उस दबा और मुख्य धारा से लगभग खदेडा गया है." इस मुख्य स्वर में पंकज बिष्ट दलित लेखन के स्वर को भी शामिल करने पर आमादा हैं. पर अभी उस लेखन में उन्हें मात्र सुगबुगाहट दिखायी देती है. उनका ख्याल है कि "यही सब कारक ( अर्थात पिछले पचास वर्षों में दबाया जाना और मुख्य धारा से खदेडा जाना ) दलितों पर भी लागू होते हैं, पर वहाँ अपनी पीड़ा और शोषण को रूप न दे पाने की कमी उस देरी के लिए जिम्मेदार है जो रचनात्मक अभिव्यक्ति के रूप में अभी आनी बाक़ी है. " हंस के जनवरी 1999 में छपा पंकज बिष्ट का यह सम्पादकीय, उस मुख्या धारा को स्पष्ट करने से कतार गया है जो पिछले पचास वर्षों से दलितों, अल्प-संख्यकों और महिलाओं को खदेड़ता रहा है. भारत की आबादी से यदि इन तीनों वर्गों को अलग कर दिया जाय, तो मुश्किल से तीन-चार प्रतिशत लोग बच पायेंगे. आश्चर्य यह है कि यही तीन-चार प्रतिशत बचे-खुचे लोग, पहले भी मुख्य धारा का प्रतिनिधित्व करते थे और आज भी कर रहे हैं.
विचारणीय यह है कि यह मुख्य धारा जो पिछले पचास वर्षों से दलितों, अल्पसंख्यकों और महिलाओं को खदेड़ती रही है, इसे संघ परिवार वाली मुख्य धारा से किन अर्थों में अलग किया जा सकता है ? वे कौन लोग हैं जिन्होंने मुख्य धारा की ठेकेदारी और महाजनी संभाल रखी है ? वे कौन लोग हैं जो अपने से इतर सभी वर्गों, समुदायों और विचारधाराओं को एक दर्जा नीचे का मानकर विजेताओं के अंदाज़ में समय-समय पर उनका एक अलग खांचा घोषित करके, सहानुभूति जताने का नाटक करते हैं ? नासिरा शर्मा का यह रेखांकन कि "लेखन को खांचों में बांटने का काम अक्सर सम्पादकों या प्रकाशकों द्वारा अंजाम पता है," बड़ी हद तक सार्थक प्रतीत होता है. इसके पीछे दरअस्ल साहित्य का मूल्यांकन अभीष्ट नहीं होता. अभीष्ट होता है किसी एक समय में किसी एक मुद्दे को बहस के केन्द्र में रखकर पत्रिका या पुस्तक को होट्केक की तरह बेचना. महिलाओं, दलितों और अल्पसंख्यकों के लेखन के फलक को उनके वर्ग की सीमित समस्याओं तक सिमटा देखने वाले हिन्दी आलोचक जहाँ अपने स्वकल्पित साहित्यिक वर्चस्व का सांकेतिक उद्घोष करते हैं, वहीं भारत जैसे विशाल देश में हिन्दी जाति के 'गंगा मेरी माँ का नाम, बाप का नाम हिमालय' वाले संकीर्ण दरबे में स्वयं को बंद रखते हैं और समझते हैं कि जब तक हम बांग नहीं देंगे समूचे देश में सवेरा नहीं होगा.
*************************************

कोई टिप्पणी नहीं: