तुम सुधि बन-बन कर बार-बार
क्यों कर जाती हो प्यार मुझे।
फिर विस्मृति बन तनमयता का ,
दे जाती हो उपहार मुझे।
मैं करके पीड़ा को विलीन,
पीड़ा में स्वयं विलीन हुआ।
अब असह बन गया देवि,
तुम्हारी अनुकम्पा का भार मुझे।
माना वह केवल सपना था,
पर कितना सुंदर सपना था।
जब मैं अपना था और सुमुखि,
तुम अपनी थीं, जग अपना था।
जिसको समझा था प्यार, वही
अधिकार बना पागलपन का।
अब मिटा रहा प्रतिपल तिल-तिल,
मेरा निर्मित संसार मुझे।
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Wednesday, September 10, 2008
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3 comments:
बहुत अच्छी कविता। धन्यवाद।
"अब मिटा रहा प्रतिपल तिल-तिल,
मेरा निर्मित संसार मुझे। "
पुनर्निमाण में लग जायें!!
-- शास्त्री जे सी फिलिप
-- हिन्दी चिट्ठा संसार को अंतर्जाल पर एक बडी शक्ति बनाने के लिये हरेक के सहयोग की जरूरत है. आईये, आज कम से कम दस चिट्ठों पर टिप्पणी देकर उनको प्रोत्साहित करें!! (सारथी: http://www.Sarathi.info)
भगवती चरण वर्मा को पढ़वाने का आप को बहुत शुक्रिया.
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