बे-नियाजी में तेरे दोनों जहाँ छोड़ चले।
हमको कुछ याद नहीं ख़ुद को कहाँ छोड़ चले।
ये तो मालूम है भटकेगा सफ़ीना तनहा,
नाखुदा फिर भी कनारों का जहाँ छोड़ चले।
चाहे जो रंग भरे कल ये ज़माना उनमें
हम तो कागज़ पे लकीरों के निशाँ छोड़ चले।
इसको बुतखाना कहो, काबा कहो या कुछ और
तेरी देहलीज़ पे सजदों के निशाँ छोड़ चले।
साकिया हैं ये मेरी आखरी यादों के नुकूश
हम जो पैमानों पे होंटों के निशाँ छोड़ चेले।
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मंगलवार, 2 सितंबर 2008
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