अब क्या गिला करें की मुक़द्दर में कुछ न था।
हम गोता-ज़न हुए तो समंदर में कुछ न था।
दीवाना कर गई तेरी तस्वीर की कशिश,
चूमा जो पास जाके तो पैकर में कुछ न था।
अपने लहू की आग हमें चाटती रही,
अपने बदन का ज़ह्र था, सागर में कुछ न था।
यारो, वो बांकपन से तराशा हुआ बदन,
फ़नकार का ख़याल था, पत्थर में कुछ न था।
धरती हिली तो शहर ज़मीं-बोस हो गया,
देखा जो आँख खोलके, पल भर में कुछ न था।
वो रतजगे, वो जश्न जो बस्ती की जान थे,
यूँ सो गए कि जैसे किसी घर में कुछ न था।
जुल्फी हमें तो जुरअते परवाज़ ले उड़ी,
वरना हमारे ज़ख्म-जादा पर में कुछ न था।
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1 टिप्पणी:
वो रतजगे, वो जश्न जो बस्ती की जान थे,
यूँ सो गए कि जैसे किसी घर में कुछ न था।
जुल्फी हमें तो जुरअते परवाज़ ले उड़ी,
वरना हमारे ज़ख्म-जादा पर में कुछ न था।
bahut sunder
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