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रविवार, 28 सितंबर 2008

अब क्या गिला करें / सैफ़ जुल्फी

अब क्या गिला करें की मुक़द्दर में कुछ न था।

हम गोता-ज़न हुए तो समंदर में कुछ न था।

दीवाना कर गई तेरी तस्वीर की कशिश,

चूमा जो पास जाके तो पैकर में कुछ न था।

अपने लहू की आग हमें चाटती रही,

अपने बदन का ज़ह्र था, सागर में कुछ न था।

यारो, वो बांकपन से तराशा हुआ बदन,

फ़नकार का ख़याल था, पत्थर में कुछ न था।

धरती हिली तो शहर ज़मीं-बोस हो गया,

देखा जो आँख खोलके, पल भर में कुछ न था।

वो रतजगे, वो जश्न जो बस्ती की जान थे,

यूँ सो गए कि जैसे किसी घर में कुछ न था।

जुल्फी हमें तो जुरअते परवाज़ ले उड़ी,

वरना हमारे ज़ख्म-जादा पर में कुछ न था।

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