तितलियाँ दामन में, जुगनू मुट्ठियों में ले गया.
मेरा बचपन फिर मुझे हमजोलियों में ले गया.
हड्डियों पर थे टंगे, जिस गाँव में खस्ता लिबास,
ज़ह्न मेरा, फिर मुझे उन बस्तियों में ले गया.
इस से पहले मैं समंदर में कभी उतरा न था
चाँद अपने साथ मुझको पानियों में ले गया.
उसने आवारा ख़यालों को भटकने कब दिया,
क़ैद करके उनको, दिल की वादियों में ले गया.
हादसों का शह्र के, एहसास ही कब था उसे,
काँप उठा वो, जब उसे मैं ज़ख्मियों में ले गया.
कुछ तो कहना था उसे, वरना वो सबके सामने
क्यों मुझे उस बज़्म से, तनहाइयों में ले गया.
नक्श उसका फिर भी मुझसे नामुकम्मल ही रहा
गो मैं अपनी फ़िक्र सारे ज़ावियों में ले गया.
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मंगलवार, 2 सितंबर 2008
तितलियाँ दामन में / ज़ैदी जाफ़र रज़ा
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1 टिप्पणी:
सुभान अल्लाह...बेहतरीन ग़ज़ल
नीरज
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