रविवार, 28 सितंबर 2008

मक्के की सरज़मीन पे

मक्के की सरज़मीन पे, काबा नहीं मिला।
देखा जो दिल में झाँक के, सब कुछ यहीं मिला।
गुम हो गया था मैं भी ज़माने की भीड़ में,
तनहा हुआ तो राज़े-दिले-हमनशीं मिला।
सजदे में सर झुकाया था मैंने खुलूस से,
लम्स उसके हाथ का मुझे जेरे-जबीं मिला।
इन मंजिलों से पहले था बिल्कुल मैं नाशानास,
निकला तो गरदे - राह में अर्शे - बरीं मिला।
देखा जो प्यार से, तो सभी थे मेरी तरह,
दुश्मन न पाया कोई, न कोई लईं मिला।
मुझको ही कर दिया था जहाँ ने सुपुर्दे-ख़ाक,
मैं ही था वो खज़ाना जो ज़ेरे-ज़मीं मिला।
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1 टिप्पणी:

Udan Tashtari ने कहा…

बहुत बढ़िया!