तुमसे कैसा परिचय पाया
मैं अपनेको ही भूल गया।
अपना सर्वस्व तुम्हें देकर,
प्रतिदान वेदना का लेकर,
सपनों पर जीवन वार दिया
छाया से निर्भर प्यार किया
खिल जाने की आशा ही में
मुरझा जीवन का फूल गया।
पतवार स्नेह की थाम सबल,
बढ़ते रहना चाहा अविरल ,
जीवन की झंझा में पड़कर ,
तूफानों से पल-पल लड़कर,
जैसे तैसे जो पाया था
हाथों से वह भी कूल गया।
छूकर तेरी छाया चंचल
अबतक पीड़ित है अंतरतल
तेरी सुधि के रंगीन दिवस
नयनों में बन झरते पावस,
अनुकूल आज बनते-बनते
विधना क्यों हो प्रतिकूल गया.
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गुरुवार, 4 सितंबर 2008
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1 टिप्पणी:
पढ़वाने का आप को बहुत शुक्रिया.
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