इस तरह सोई हैं आँखें, जागते सपनों के साथ।
ख्वाहिशें लिपटी हों जैसे बंद दरवाजों के साथ।
रात भर होता रहा है उसके आने का गुमाँ,
ऐसे टकराती रही ठंडी हवा परदों के साथ।
मैं उसे आवाज़ देकर भी बुला सकता न था,
इस तरह टूटे ज़बां के राब्ते लफ़्जों के साथ।
एक सन्नाटा है, फिर भी हर तरफ़ इक शोर है,
कितने चेहरे आँख में फैले है, आवाज़ों के साथ।
जानी पहचानी हैं बातें, जाने-बूझे नक्श हैं,
फिर भी वो मिलता है सबसे, मुख्तलिफ चेहरों के साथ।
दिल धड़कता ही नहीं है उसको पाकर भी नसीम,
किस क़दर मानूस है ये नित नए सदमों के साथ।
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मंगलवार, 9 सितंबर 2008
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4 टिप्पणियां:
इफ़्तखार नसीम की इतनी सुन्दर नज़्म को बाँटने के लिए शुक़्रिया.
सुन्दर नज़्म को बाँटने के लिए शुक़्रिया.
दिल धड़कता ही नहीं है उसको पाकर भी नसीम,
किस क़दर मानूस है ये नित नए सदमों के साथ।
बहुत खूब।
इस तरह सोई हैं आँखें, जागते सपनों के साथ।
ख्वाहिशें लिपटी हों जैसे बंद दरवाजों के साथ।
रात भर होता रहा है उसके आने का गुमाँ,
ऐसे टकराती रही ठंडी हवा परदों के साथ।
पढ़ कर अच्छा लगा
कवि ने जो कहना चाहा वो स्पष्ट है
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