कामयाबी तो हुई हासिल मगर इस दौर में।
क्या कहें, कितना रहे हम बे-असर इस दौर में।
देखिये सब मिल रहे हैं एक जैसी शक्ल में,
क्या सेहर, क्या शाम, कैसी दोपहर इस दौर में।
साज़िशें बाहर हुईं और हादसे घर में हुए,
आदमी फिर भी है कितना बे-ख़बर इस दौर में।
जंगलों की वह्शतें जब से शहर में आ गयीं,
दूर हम से हो गया जंगल का डर इस दौर में।
पत्थरों की बात क्या पत्थर तो पत्थर हैं 'मृदुल'
चोट करते मिल गए शीशे के घर इस दौर में।
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Tuesday, September 2, 2008
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