घटाओं में उभरते हैं कभी नक्शो-निगार उसके।
कभी लगता है जैसे हों गली-कूचे, दयार उसके।
मेरे ख़्वाबों में आ जाती हैं क्यों ये चाँदनी रातें,
हथेली पर लिये रंगीन खाके बेशुमार उसके।
मैं था हैरत में, आईने में कैसा अक्स था मेरा,
गरीबां चाक था, मलबूस थे सब तार-तार उसके।
ज़माना किस कदर मजबूर कर देता है इन्सां को,
सभी खामोश रहकर झेलते हैं इंतेशार उसके।
फ़रिश्ता कह रही थी जिसको दुनिया, मैंने जब देखा,
बजाहिर था भला, आमाल थे सब दागदार उसके।
मुहब्बत का सफर 'जाफ़र' बहोत आसां नहीं होता,
रहे-पुरखार उसकी, आबला-पाई मेरी,गर्दो-गुबार उसके।
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2 टिप्पणियां:
घटाओं में उभरते हैं कभी नक्शो-निगार उसके।
कभी लगता है जैसे हों गली-कूचे, दयार उसके।
bahi hi badhiya abhivyakti poorn rachana . dhanyawad.
एक अच्छी गजल पढ़वाने के लिए धन्यवाद
गजल की क्लास चल रही है आप भी शिरकत कीजिये www.subeerin.blogspot.com
वीनस केसरी
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