शुक्रवार, 26 सितंबर 2008

खामोश होगी कब ये ज़ुबाँ


खामोश होगी कब ते ज़ुबाँ कुछ नहीं पता।

बदलेगा कब निज़ामे-जहाँ कुछ नहीं पता।

कब टूट जाए रिश्तए-जाँ कुछ नहीं पता।

कुछ कारे-खैर कर लो मियाँ कुछ नहीं पता।

चेहरों पे है सभीके शराफ़त का बांकपन,

मुजरिम है कौन-कौन यहाँ कुछ नहीं पता।

सबके माकन फूस के हैं, फिर भी सब हैं खुश,

उट्ठेगा कब कहाँ से धुवां कुछ नहीं पता।

मंज़िल की सम्त दौड़ रहे हैं सभी मगर,

ले जाये वक़्त किसको कहाँ कुछ नहीं पता।

ओहदे मिले तो अपना चलन भी भुला दिया,

छिन जाये कब ये नामो-निशाँ कुछ नहीं पता।

कल आसमान छूती थीं जिनकी बलंदियाँ,

कब ख़ाक हो गए वो मकाँ कुछ नहीं पता।

सीकर भी होंट हो न सके लोग नेक नाम,

फिर क्यों है फ़िक्रे-सूदो-ज़ियाँ कुछ नहीं पता।

शाखें शजर की कल भी रहेंगी हरी-भरी,

कैसे कोई करे ये गुमाँ कुछ नहीं पता।

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1 टिप्पणी:

नीरज गोस्वामी ने कहा…

मंज़िल की सम्त दौड़ रहे हैं सभी मगर,
ले जाये वक़्त किसको कहाँ कुछ नहीं पता।
बेहतरीन ग़ज़ल..सीधे साधे लफ्जों में गहरी बात...वाह.
नीरज