बुधवार, 10 सितंबर 2008

धूप का चाँदनी से मिलन


धूप का चाँदनी से मिलन, कब हुआ है जो हो पायेगा।
मांग में चाँद की मोतियाँ, कैसे सूरज पिरो पायेगा।
रात धरती से उगने लगी, फैल जायेगी कुछ देर में,
मन अभी से है उत्साह में, कितने सपने संजो पायेगा।
हर तरफ़ शोर ही शोर है, चैन शायद किसी को नहीं,
ख्वाब देखे कोई किस तरह, किस तरह कोई सो पायेगा।
उसके जैसा कोई भी नहीं, हाव में,भाव में, रूप में,
उसको पाना सरल है कहाँ, खुश बहुत होगा जो पायेगा।
कितनी संवेदनाएं कोई, मन की गागर में यकजा करे,
भरके गागर छलक जायेगी, इसमें क्या-क्या समो पायेगा।
लाख पथरीली बंजर ज़मीं, है तो क्या मैं भी ये मान लूँ,
प्यार का बीज इसमें कोई, बोना चाहे, न बो पायेगा।
कितनी चिंताओं में है घिरा,एक मिटटी का कच्चा घडा,
टूट जाए तो बिखराव हो, कोई अपना ही रो पायेगा।
मन में भूकंप आयें तो क्या, मन तो मन है समुन्दर नहीं,
ये सुनामी की लहरों में भी, बस स्वयं को डुबो पायेगा।
****************************

5 टिप्‍पणियां:

manvinder bhimber ने कहा…

bahut achacha or sachcha likha hai

संगीता पुरी ने कहा…

मन में भूकंप आयें तो क्या, मन तो मन है समुन्दर नहीं,
ये सुनामी की लहरों में भी, बस स्वयं को डुबो पायेगा.
बहुत अच्छा।

फ़िरदौस ख़ान ने कहा…

रात धरती से उगने लगी, फैल जायेगी कुछ देर में,
मन अभी से है उत्साह में, कितने सपने संजो पायेगा.

बेहद उम्दा...

Udan Tashtari ने कहा…

धूप का चाँदनी से मिलन, कब हुआ है जो हो पायेगा।
मांग में चाँद की मोतियाँ, कैसे सूरज पिरो पायेगा।


--वाह वाह!!
बहुत खूब!!

Bernabé IV de Tula ने कहा…

Increible, cada dia me impresiona ver bloggers en tantos idiomas y dialectos, no se de que va tu blogg pero enorabuena.