सत्य संबल है सहज अंतःकरण का।
मूक दर्पण है ये भाषा व्याकरण का।
जब अहेरी बेधते मृग शावकों को
प्रश्न क्यों उठता नहीं है आचरण का।
फूल क्यों अपनी महक खोने लगे हैं
व्यक्ति का है दोष या पर्यावरण का ?
शक्ति की पूजा युगों से चल रही है,
बन गया इतिहास अंगद के चरण का।
सभ्यता सब को सुलभ होने न पाये ,
बढ़ रहा है लोभ स्वर्णिम आवरण का।
नित्य ही हम राजपथ पर देखते हैं,
एक पावन दृश्य सीता के हरण का।
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गुरुवार, 4 सितंबर 2008
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2 टिप्पणियां:
कमल किशोर 'श्रमिक' जी को पढ़ना सुखद रहा.
आपका प्रयास सराहनीय है। कमल किशोर जी को पढना अच्छा लगा। आशा है आगे भी आप इसी प्रकार नए नए रचनाकारों की कविताओं से हमें रसास्वादन कराते रहेंगे।
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