शुक्रवार, 5 फ़रवरी 2010

जनवरी 2010 की दो विदेशी ग़ज़लें / 1

अस्लम इमादी / कुवैत
सुन्दर लहजा मीठे बोल, अनोखी बातें ।
हमने सुना है यू होती हैं तेरी बातें ॥

इसी तलब में हम भी तेरी बज़्म में आये,
हम भी सुन लें ख़ुशबू जैसी महकती बातें॥

शायद हम पर खुल जाये वो नूर दरीचा,
धुल जायें सब गर्द-आलूद अँधेरी बातें॥

कौन भला हम दुख वालों का हाल सुनेगा,
रूखी रूखी, बे-लज़्ज़त सी, फीकी बातें ॥

हमको तो इज़हारे-दुरूं से ही मतलब था,
अस्लम क्यों करते फिर सोची समझी बातें ॥

ज़ुबैर फ़ारूक़ी / अबूधाबी
दिल मेरा पछतावे की ज़ंजीर में उल्झा रहा ।
मैं ग़मे-माज़ी की इक तस्वीर में उल्झा रहा॥

झूट पर वो झूट बोला सच बनाने के लिए,
हर घड़ी, हर वक़्त वो तक़रीर में उल्झा रहा॥

ख़्वाब तो बस ख़्वाब है, उस की हक़ीक़त कुछ नहीं,
दिल ही पागल था सदा ताबीर में उल्झा रहा॥

उसके मेरे बीच हायल ही रहा इज्ज़े-बयाँ,
वो अधूरी बात की तामीर में उल्झा रहा॥

जो लिखा करती थी सतहे-आब पर हर दम हवा
रात-दिन फ़ारूक़ उस तहरीर में उल्झा रहा॥
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सोमवार, 1 फ़रवरी 2010

प्रोफ़ेसर क़ासमी को साहित्य अकादमी सम्मान : आग़ाज़ की शेरी-नशिस्त

ऊर्दू के विश्वसनीय आलोचक और मुस्लिम विश्वविद्यालय के उर्दू प्रोफ़ेसर अबुल कलाम क़ासमी को साहित्य अकादमी पुरस्कार 2009 के लिए चुने जाने पर आग़ाज़ साहित्यिक अंजुमन ने जिसके संरक्षक प्रो0 ज़ैदी जाफ़र रज़ा हैं, एक काव्य-गोष्ठी का आयोजन उनके आवास [एलीज़ा, अहमद नगर] पर किया। प्रो0 क़ासमी को यह पुरस्कार उनकी पुस्तक म'आसिर तन्क़ीदी रवैये पर दिया गया है।इस से पूर्व उत्तर प्रदेश, बिहार और पश्चिमी बगाल की उर्दू अकादमियाँ उन्हें पुरस्कृत कर चुकी हैं।इस वर्ष हिन्दी का साहित्य अकादमी पुरस्कार कैलाश वाजपेयी को उनके काव्य-संग्रह 'हवा में हस्ताक्षर' पर दिये जाने का निश्चय हुआ है। प्रो0 क़ासमी की आलोचना भारत और पाकिस्तान में पर्याप्त सम्मानित दृष्टि से देखी जाती है।'तख़लीक़ी तजरबा', मशरिक़ी शेरियात और उर्दू तनक़ीद की रिवायत',और शायरी की तन्क़ीद उनकी अन्य आलोचना पुस्तकें हैं। आग़ाज़ ने प्रो0 क़ासमी को बधाई देते हुए अलीगढ मुस्लिम विश्वविद्यालय के उर्दू विभागाधयक्ष प्रो0 ख़ुरशीद अहमद की अधयक्षता में शेरी- नशिस्त का प्रारभ किया।प्रो0 ज़ैदी ने प्रो0 क़ासमी को विशेष बधायी दी और कहा कि उर्दू एक भाषा से कहीं अधिक एक विकासोन्नत प्रगतिशील तहज़ीब है जिसके वक्ष मे हज़ारों वर्ष की भारत ईरानी विरासत है। गंगा-जमुनी तहज़ीब उर्दू के अतिरिक्त भारत की किसी भाषा में नहीं है। कव्य गोष्ठी में जिन कवियों की रचनाएं विशेष पसन्द की गयीं उनमें ज़ैदी जाफ़र रज़ा, महताब हैदर नक़वी, राशिद अनवर राशिद और शकेब की ग़ज़लें विशेष पसन्द की गयीं। प्रस्तुति : डा0 पर्वेज़ फ़ातिमा

तुम्हारा दिल मैं लेकर जा रहा हूँ कुछ ख़बर भी है

ये ग़ज़ल प्रसिद्ध अमेरीकी कवि ई ई कम्मिंग्स [14 अक्तूबर 1894-3 सितंबर 1962] की सुविख्यात नज़्म "आइ कैरी योर हार्ट विद मी" को केन्द्र में रख कर कही गयी है। कम्मिंग्स जो एस्टलिन के नाम से पुकारे जाते थे प्रोफ़ेसर एडवर्डऔर रेबेका के बेटे थे और कैम्ब्रिज में जन्मे थे।कवि होने के अतिरिक्त वो एक अच्छे पेन्टर, निबंध लेखक और नाटक कार भी थे। उन्होंने 2900 के लगभग कविताएं लिखीं।
ग़ज़ल
तुम्हारा दिल मैं लेकर जा रहा हूँ कुछ ख़बर भी है।
बग़ैर उसके मेरी ये ज़िन्दगी दुश्वार-तर भी है॥

करूँगा जो भी मैं, शिरकत तुम्हारी लाज़मी होगी,
के इस सूरत से कुछ करना बहोत ही मोतबर भी है॥

नहीं कुछ ख़ौफ़ मुझ को अब मुक़द्दर की शरारत का,
के तुम तक़दीर हो मेरी तुम्ही से मेरा घर भी है ॥

नहीं रखता किसी दुनिया की अब मैं कोई भी हाजत,
के तुम दुनिया हो मेरी तुमसे दुनिया का समर भी है॥

फ़लक के चान्द में ये ख़ूबियाँ हरगिज़ नहीं होतीं,
के तुमसे दिल भी रौशन है मताए-ख़ुश्को-तर भी है॥

वो नग़मा जिस को सूरज की ज़बाँ से सुनता आया हूं,
वो नग़म तुम हो, तुमसे साज़े-क़ल्बे बा-हुनर भी है॥

ये बातें राज़ की हैं जानता कोई नहीं इनको,
के तुम हो तो वुजूदे-नफ़्स का मुझमें शजर भी है॥
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तुम मुवर्रिख़ हो / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

तुम मुवर्रिख़ हो जिस तर्ह चाहो हमें
तल्ख़ियों से भरे
मस्ख़ औराक़ का एक हिस्सा बना दो।
हमारे सभी कारनामे मिटा दो।
हमें दफ़्न कर दो, सुला दो।
मगर याद रखना
के हम कल इसी ख़ाक से फिर उठेंगे।

हम इस मुल्क में आये थे,
ख़ुल्द की ख़ुश्बुओं का ज़ख़ीरा समझ कर इसे,
हमने इस को लगाया गले
बेशक़ीमत तराशा हुआ
नूर अफ़रोज़ हीरा समझकर इसे।
जब भी कोई ज़रूरत पड़ी
इसकी इज़्ज़त पे हमने कभी आँच आने न दी,
जानते थे मुहब्बत का पैकर इसे,
ख़ुश हुए सौंप कर सर इसे।
इसको रूहानी नग़मे सुनाते रहे
और रिशियों को इसके मुक़द्दस समझते हुए,
उनके हमराह
वहदानियत के तस्व्वुर की गुलकारियों से
चमन-दर-चमन
दौलते-इश्क़ खुलकर लुटाते रहे।
सारी बातें भुला कर तुम्हें
याद बस ये रहा
हमला आवर थे हम
यानी इन्साँ नहीं,
सिर्फ़ लश्कर थे हम्।
हम न हुजवैरी थे
और न चिश्ती, सुहर्वरदी या क़ादरी
अल्बेरूनी भी शायद न थे
सिर्फ़ हम ग़ज़नवी और ग़ोरी थे,
बाबर थे हम
नफ़रतों का समन्दर थे हम
तुम ने ज़िन्दा हक़ायक़ उठाकर सभी
ताक़ पर रख दिये
जितने बाग़ात हमने लगाये
तुम्हें वो भी शायद न अच्छे लगे
अम्न से सारी क़ौमें रहीं भाइयों की तरह
हुस्नो-इख़लाक़ के ख़ुशनज़र साहिलों की तरह
क़द्र कुछ भी मुहब्बत की तुमने न की
तुम मुवर्रिख़ हो जिस तर्ह चाहो हमें
तल्ख़ियों से भरे
मस्ख़ औराक़ का एक हिस्सा बना दो
हमारे सभी करनामे मिटा दो
हमें दफ़्न करदो, सुला दो
मगर याद रखना
के हम कल इसी ख़ाक से फिर उठेंगे।
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शनिवार, 30 जनवरी 2010

वो हब्से-दवामी है कहीं आज भी मौजूद

वो हब्से-दवामी है कहीं आज भी मौजूद ।
एहसासे-ग़ुलामी है कहीं आज भी मौजूद्॥

मसदूद हैं सब रास्ते इन्साँ की बक़ा के,
अफ़कार में ख़ामी है कहीं आज भी मौजूद्॥

अमवाजे-समन्दर में नहीं कोई तलातुम,
पर ख़ौफ़े-सुनामी है कहीं आज भी मौजूद ॥

इक दौड़ सी है इशरते-दुनिया की तलब में,
हर कूफ़िओ-शामी है कहीं आज भी मौजूद ॥

अहबाब को शिकवा है के अशआर में जाफ़र,
कुछ तुर्श कलामी है कहीं आज भी मौजूद ॥
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शुक्रवार, 29 जनवरी 2010

मिलती है शेर कहने से ज़हनी निजात कब

मिलती है शेर कहने से ज़हनी निजात कब ।
खुलते हैं हिस्सियात के सारे जिहात कब ॥

सच है रुसूमियाती तसव्वुर से इश्क़ के,
रौशन हुए किसी पे किसी के सिफ़ात कब ॥

आलूदगी के ज़ह्र से अरज़ो-समाँ हैं तंग,
आयेंगे एतदाल पे माहौलियात कब ॥

हैअत बदलती रहती है हर शै की आये दिन,
हासिल है इस जहाँ में किसी को सबात कब ॥

वहशत वो है के साँस भी लेना मुहाल है,
ख़दशा ये है के होगी नयी वारदात कब ॥

मसरूफ़ियात उसके कुछ ऐसे हैं इन दिनों,
करना भी चाहूँ बात तो होती है बात कब ॥

यूँ तो इनायतों से हैं सब उसकी फ़ैज़याब,
पूरी किसी की होती हैं पर ख़्वाहिशात कब ॥
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गुरुवार, 28 जनवरी 2010

हमारे घर की दीवारों पे कुछ चेहरे से उगते हैं

हमारे घर की दीवारों पे कुछ चेहरे से उगते हैं ।
न जाने क्यों ये रातों के उतर आने से उगते हैं ॥

वो पौदे जिनके बीजों से नहीं हम आज तक वाक़िफ़,
वो आँगन में हमारे किस क़दर दावे से उगते हैं ॥

कोई भी हादसा होता है जब तो ऐसा लगता है,
हमारे ज़ह्न में ख़दशे बहोत पहले से उगते हैं॥

शजर की तर्ह साया-दार हो जायेंगे कल हम भी,
कहीं अन्दर हमारे कुछ हरे पत्ते से उगते हैं ॥

न जाने कब हमारे दिल ने कोई चोट खाई थी,
तुम अब आये हो तो ये ज़ख़्म भी गहरे से उगते हैं॥
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हुकूमतों के है जूदो-करम की क्या क़ीमत् ।

हुकूमतों के है जूदो-करम की क्या क़ीमत् ।
कोई लगाये गा अहले क़लम की क्या क़ीमत्॥

जुनूने-इश्क़ की दौलत से सर्फ़राज़ हैं हम ,
हमारी नज़रों में जाहो-हशम की क्या क़ीमत्॥

ये दिल के दाग़ हैं गुलहाए-ताज़ा से बेहतर,
हमारे सामने बाग़े-इरम की क्या क़ीमत ॥

तेरे दिये हुए ग़म ज़ीस्त का हैं सरमाया,
ज़माना देता रहे ग़म, है ग़म की क्या क़ीमत्॥

समन्दरों ने कभी गिरिया तो किया ही नहीं,
समन्दरों के लिए चश्मे-नम की क्या क़ीमत्॥

जो अपनी ज़ात से बाहर निकल नहीं सकते,
सियासियात के उस पेचो-ख़म की क्या क़ीमत्॥

भरम ये है के मैं ज़िन्दा भी और ख़ुश भी हूं,
मैं ज़ब्ते-अश्क को दूं इस भरम की क्या क़ीमत्॥
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रविवार, 24 जनवरी 2010

दिल था ख़लीजे-ग़म की तरक़्क़ी से बेख़बर

दिल था ख़लीजे-ग़म की तरक़्क़ी से बेख़बर ।
आँखें थी चश्मे-दिल की ख़राबी से बेख़बर ॥

मैं तारे-अन्कुबूत के घेरों में आ गया,
तारीकियों में लिप्टी हवेली से बे ख़बर ॥

वैसे मैं अपनी ज़ात से बेज़ार तो नहीं,
फिरता हूं कूचा-कूचा मगर जी से बे ख़बर ॥

उसके जमालियात की जहतें न खुल सकीं,
तारे-निगह था शोला-परस्ती से बेख़बर ॥

इस क़ैदो-बन्दे इश्क़ से आज़ाद कौन है,
ख़ुद ये सुपुरदगी है रिहाई से बे ख़बर ॥
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गुरुवार, 21 जनवरी 2010

ज़ैदी जाफ़र रज़ा की दो नज़्में

1- यक़ीन


हवाएं लाई हैं कसरत से पत्तियाँ हमराह,
बिछा रही हैं जिन्हें वो तमाम राहों में,
हरेक सम्त जिधर भी उठा रहा हूं निगाह,
सिवाय पत्तियों के कुछ नहीं निगाहों में,
मगर यक़ीन है मुझको बदन की ख़ुश्बू से,
निशाने-मज़िले-जानाँ तलाश कर लूंगा ॥
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2-हमसफ़र

मैं उस रोज़ कश्ती में बिल्कुल अकेला सफ़र कर रहा था,
समन्दर था ख़ामोश
सन्जीदा नज़रों से लेकिन
मेरे ज़्ह्न में जो मज़ामीन थे, पढ रहा था।
उसी तर्ह जैसे-
वो घर जब भी आती थी,
ख़ामोश नज़रों से इक टक मुझे देखती थी,
मेरे ज़ह्न में जो मज़ामीन महफ़ूज़ थे,
उन को पढती थी,
हैरत-ज़दा हो के, मासूम लहजे में कहती थी,
सच जानिए, आप अच्छे बहोत हैं।
समन्दर से उस को मुहब्बत थी बेहद,
वो ख़ुद इक समन्दर थी जिस में
वो तनहा मेरी हमसफ़र थी॥
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मंगलवार, 19 जनवरी 2010

इमकान / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

इमकान

हवा के दोश पे उड़ते ये बादलों के गिरोह
घना सियाह अंधेरा है जिन के दामन में
न उड़ के जायें कहीं उन पहाड़ियों की तरफ़
नहा के ज़ुल्फ़ें वो अपनी सुखा रही होगी
चमकती धूप में कुछ गुनगुना रहि होगी
पहोंच गये ये अगर आके इनके घेरे में
न कर सकेगी हिफ़ाज़त वो घुप अँधेरे में।
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सोमवार, 18 जनवरी 2010

नयी ज़िन्दगी / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

नयी ज़िन्दगी

इसी तर्ह गर्मी की शफ़्फ़ाफ़ रातों में,
ऐ चान्द !
करता रहे तू अगर
रोज़ चान्दी की बारिश,
इसी तर्ह वो शोख़ लड़का
सुनाता रहे गर तुझे
रोज़ अपनी मुहब्बत के नग़मे,
इसी तर्ह निकलें वो जोड़े अगर
दूधिया रोशनी में
जवाँ आरज़ूओं के ख़ुशलह्न बोसे
तुझे नज़्र करते हुए
और इसी तर्ह गर वो ज़ईफ़ा
निकल कर शुआओं से लब्रेज़ आँगन में
अंगूर के सब्ज़ ख़ोशों को
ख़ुशरग यादों से भरती रहे,
मैं तुझे अपनी नज़्मों में ऐ चान्द !
देता रहूंगा नयी ज़िन्दगी।
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गुमशुदा बचपन / ज़ैदी जाफ़र रज़ा

गुमशुदा बचपन
हमारा बचपन रहा हो जैसा भी
ख़ूब्सूरत बहोत था शायद।
हमारे छोटे से शह्र में
कंकरों की कच्ची सड़क पे कुछ लैम्प पोस्ट होते थे,
जिनकी मद्धम सी रोशनी में भी
हमको दुशवारियों का अहसास कुछ नहीं था।
घरों में मिटटी के चूल्हे थे,
जिनको सुबह होते ही लीप कर ताज़ादम बना देती थीं
सुघड़ औरतें घरों की।
कभी हमें नाशते में मिलती थी
रोग़नी मीठी सुर्ख़ टिकिया,
कभी थी बेसन की प्याज़ आलूद, हल्की नमकीन
कोयले पर सिकी हुई ज़र्द-ज़र्द रोटी,
डुबो के घी की कटोरियों में हम अपने लुक़मे,
ख़ुशी-ख़ुशी, बैठ कर वहीं चूल्हे से ही लग कर,
मज़े से खाते थे।
पढ़ने-लिखने क शौक़ ऐसा था,
लालटैनों में या चराग़ों की रोशनी में भी,
कोई दिक़्क़त कभी न आयी।
सुलगती गर्मी की दोपहर में,
सुनाती थीं दादी जब कहानी,
तो शाहज़ादों की ज़िन्दगी के कई मसाएल,
हमें भी उल्झन में डाल देते थे,
और परियों का तख़्त पर बैठकर फ़लक से ज़मीं पे आना,
कुछ ऐसा लगता था,
गुदगुदी सी दिलों में होती थी,
हम भी परियों के साथ ख़ुद को,
बलंदियों पर फ़लक की महसूस करने लगते थे,
लू भरी दोपहर की गर्मी का
कोई अहसास तक नहीं था।
मगर उसी शह्र में गया मैं
जब एक मुद्दत पे,
शह्र दफ़नाय जा चुका था,
हमारा बचपन भी उसके हमराह
गुमशुदा था,
कहीं भी मदफ़न का उसके नामो-निशाँ नहीं था।
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शनिवार, 2 जनवरी 2010

अगर ऐसा हो / शेल सिल्वरस्टीन [1930- 1999]

अगर ऐसा हो ?

कल की शब जब यहाँ

मैं था लेटा हुआ सोंच में

मेरे कानों में गर ऐसा हो ? के सवालात कुछ

रेंगने से लगे ।

सारी शब मुझको सच पूछिए तो

परीशान करते रहे ।

और गर ऐसा हो का ये फ़रसूदा नगमा

कोई गुनगुनाता रहा ।

क्या हो गर ऐसा हो

के मैं स्कूल में

बहरा हो जाऊं पूरी तरह ?

क्या हो गर ऐसा हो

बन्द कर दें वो स्वीमिंग का पूल

कर दें पिटाई मेरी ?

क्या हो गर ऐसा हो

मेरे प्याले में हो ज़ह्र

मैं दमबख़ुद हो के रोने लगूं ?

क्या हो गर हो के बीमार मैं चल बसूं ?

क्या हो गर मुझको लज़्ज़त का एहसास कुछ भी न हो ?

क्या हो गर

सब हरे रग के बाल उग आयें सीने पे

मुझको पसन्दीदा नज़रों से

देखे न कोई कहीं ?

क्या हो गर कोई बिजली कड़कती हुई

मुझपे ही गिर पड़े ?

क्या हो गर मेरे इस जिस्म की

बाढ रुक जाये

सर मेरा छोटा स होता चला जाय

ज़ालिम हवा

सब पतगें मेरी फाड़ दे ?

क्या हो गर जंग छिड़ जाये

माँ बाप मांगें तलाक़

और हो जायें इक दूसरे से अलग ?

क्य हो गर

मेरी बस आये ताख़ीर से ?

क्या हो गर दाँत मेरे न सीधे उगें ?

फाड़ डालूं मैं अपने सभी पैन्ट

क़ासिर रहूं सीखने से कोई रक़्स ता ज़िन्दगी ?

यूं बज़ाहिर तो सब ठीक है

रात का वक़्त लेकिन अगर ऐसा हो

के सवालात की ज़र्ब से

करत रहता है मजरूह अब भी मुझे।

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शुक्रवार, 1 जनवरी 2010

ख़ुदा का पहिया / शेल सिल्वरस्टीन / तर्जुमा : ज़ैदी जाफ़र रज़ा

ख़ुदा का पहिया

मुहब्बत आमेज़ मुस्कुराहट के साथ मुझसे

ख़ुदा ने पूछा था

चन्द लमहों को तुम ख़ुदा बन के

इस जहाँ को चलाना चाहोगे ?

मैंने हाँ ठीक है मैं कोशिश करूंगा कहकर

ख़ुदा से पूछा था

किस जगह बैठना है ?

तनख़्वाह क्या मिलेगी ?

रहेंगे अवक़ात लच के क्या ?

मिलेगी कब काम से फ़राग़त ?

ख़ुदा ने मुझसे कहा

के लौटा दो मेरा पहिया,

समझ गया मैं

के तुम अभी अच्छी तर्ह

तैयार ही नहीं हो।"

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एक गन्दा कमरा / शेल सिल्वर्स्टीन / तर्जुमा ; ज़ैदी जाफ़र रज़ा

एक गन्दा कमरा

चाहे जिस का भी कमरा हो ये

शर्म लाज़िम है उस्के लिए

लैम्प पर झूलता है यहाँ

एक अन्डरवियर

रेनकोट उसका, पहले से बेहद भरी,

उस जगह

वो जो कुरसी है उस पर पड़ा है,

और कुरसी नमी,गन्दगी से है बोझल,

उसकी कापी दरीचे की चौखट पे औन्धी पड़ी है,

और स्वेटर ज़मीं पर पड़ा है अजब हाल में,

उसका स्कार्फ़ टी वी के नीचे दबा है

और पैन्ट उसके

दरवाज़े पर उल्टे-पुल्टे टंगे हैं,

उसकी सारी किताबें ठुंसी हैं यहाँपर ज़रा सी जगह में

और जैकेट वहाँ हाल में रह गयी है

एक बदरंग सी छिपकिली

उसके बिस्तर पे लेटी हुई सो रही है

और बदबू भरे उसके मोज़े हैं दीवार की कील पर

चाहे जिसका भी कमरा हो ये

शर्म लाज़िम है उसके लिए

वो हो डोनाल्ड, राबर्ट या हो विली ?

ओह ! तुम कह रहे हो ये कमरा है मेरा

मेरे दोस्त सच कहते हो

जानता था ये मैं

जाना-पहचाना सा मुझको लगता था ये।

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नया वर्ष 2010

नया वर्ष 2010

ये नया वर्ष आता है क्यों
पहले जैसी ही ठिठुरन भरी सूर्य की रश्मियाँ
धूप अलसाई अलसाई सी
ओढे कुहरे की चादर चली आती है
जाने पीड़ा है क्या
लेती है हिचकियाँ
भरती है सिस्कियाँ,
घर के चूल्हे से उठता था कल जिस तरह,
आज भी वैसा ही है
उठ रहा है धुआँ।
कुछ नया तो नहीं,
इस नये वर्ष के
आ धमकने से कुछ भी हुआ तो नहीं,
ये नया वर्ष आता है क्यों ?
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सभी पाठक मित्रों और उनके संपूर्ण परिवार को नव वर्ष की मंगल कामनाएं