बुधवार, 21 जनवरी 2009

तत्काल कोई बीज भी पौदा नहीं बना.

तत्काल कोई बीज भी पौदा नहीं बना.
दुख क्या अगर प्रयास सफलता नहीं बना.
माना कि लोग उससे न संतुष्ट हो सके,
फिर भी वो इस समाज की कुंठा नहीं बना.
वो है सुखी कि उसके हैं ग्रामीण संस्कार,
वो अपने गाँव-घर में तमाशा नहीं बना.
बारिश भिगो न पायी हो जिसके शरीर को,
कोई पुरूष कबीर के जैसा नहीं बना.
बे पर के भी उडानें ये भरता है रात दिन,
अच्छा हुआ मनुष्य परिन्दा नहीं बना.
श्रद्धा से उसके सामने रहता हूँ मैं नामित,
पर उसके सर के नीचे का तकिया नहीं बना.
कैसा भी हो प्रकाश, है उम्र उसकी मुख्तसर,
स्थायी रह सके, वो उजाला नही बना.
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नदी के जल से वंचित थे, नदी के पास रहकर भी.

नदी के जल से वंचित थे, नदी के पास रहकर भी.
मगर व्यक्तित्व से उनके, उमड़ता था समुन्दर भी.
नहीं बस कर्बला ईराक़ के भूगोल का हिस्सा,
ये है बलिदान के इतिहास का जीवित धरोहर भी.
झुका पाया न सर सच्चाइयों के उन प्रतीकों का,
यज़ीदी सैन्य-दल आतंकवादी मार्ग चुनकर भी.
मुसलमाँ थे मुहम्मद के नवासे के सभी क़ातिल,
मुसलामानों की दहशतगर्दियों का है ये मंज़र भी.
किसी समुदाय की संवेदनाएँ ही जो मर जाएँ,
तो फिर सच-झूठ का बाक़ी न रह जायेगा अन्तर भी.
हुसैनी दार्शनिकता ताज़ियों से है प्रतीकायित,
ये भारत है, हुसैनीयत का इस धरती पे है घर भी.
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मुहर्रम और इमाम हुसैन की कर्बला में शहादत को केन्द्र में रख कर यह ग़ज़ल कही गई है.

करूँ अर्ज़े-तमन्ना वो इजाज़त दे अगर मुझको।

करूँ अर्ज़े-तमन्ना वो इजाज़त दे अगर मुझको।

अता की उसने आख़िर क्यों तमीजे-खैरो-शर मुझको।

उसूलों पर रहा क़ायम तो क़ीमत भी चुकाई है,

मिली है कैदखानों में अज़ीयत किस कदर मुझको।

ग़लत राहों पे ले जाने की कोशिश सबने कर डाली,

मिले वक़्तन-फ़वक़्तन कैसे-कैसे राहबर मुझको।

किसी के साथ रिश्तों में दरारें पड़ नहीं पायीं,

न कस पाये शिकंजों में किसी पल मालो-ज़र मुझको।

मैं चाहूँगा तुम्हारी हसरतें तशना न रह जाएँ,

कोई साज़िश करो ऐसी चढ़ा दो दार पर मुझको।

ज़मीनों ने दिये इखलास से तखलीक के जौहर,

समंदर ने अता कीं वुसअतें दिल खोलकर मुझको।

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मंगलवार, 20 जनवरी 2009

जिगर में ज़ख्म साँसों में चुभन महसूस करता हूँ।

जिगर में ज़ख्म साँसों में चुभन महसूस करता हूँ।

मैं इस कुहरे के जंगल में घुटन महसूस करता हूँ।

मैं अपने नफ़्स को पाता हूँ रौशन चाँद की सूरत,

मगर कुछ रोज़ से उसमें गहन महसूस करता हूँ।

मिला है मुझसे कोई हमज़ुबां जब गैर मुल्कों में,

मैं उस मिटटी में भी बूए-वतन महसूस करता हूँ।

बहोत ठंडी हवाएं जब भी उसका जिस्म छूती हैं,

समंदर में निराला बांकपन महसूस करता हूँ।

मेरी फिकरें मेरे एहसास को बेदार करती हैं,

मैं दिल में सुब्ह की ताज़ा किरन महसूस करता हूँ।

सभी फ़ितरी मनाजिर दर-हक़ीक़त शायराना हैं,

मैं उनमें नकहते-शेरो-सुख़न महसूस करता हूँ।

कहाँ तक मैं सफ़र में साथ दे पाऊंगा ऐ हमदम,

अंधेरों से उलझकर, कुछ थकन महसूस करता हूँ।

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क्या ग़म है जो सिमट से गए हैं घरों में हम।

क्या ग़म है जो सिमट से गए हैं घरों में हम।

ढल जाएँ एक दिन न कहीं पत्थरों में हम।

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तह्ज़ीब की ये करवटें बेसूद तो न थीं,

शामिल हैं आज वक़्त के शीशागरों में हम।

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तामीरे-नौ के ख़्वाबों का इज़हार क्या किया,

हर एक की नज़र में हुए ख़ुदसरों में हम।

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क्यों आज हमसे लेता नहीं कोई मशविरा,

कल तक बहोत नुमायाँ थे क्यों रहबरों में हम।

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मरकज़ से हाशिये पे खिसक कर हैं आ चुके,

मुमकिन है कल मिलें भी न दानिशवरों में हम।

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ये ठीक है कि हम हैं बनाते हुकूमतें,

ये भी दुरुस्त है कि नहीं खुश्तरों में हम।

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हर गाम पर वफाओं का देते हैं इम्तेहां।

हर लहजा फिर भी रहते हैं क्यों ठोकरों में हम।

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सोमवार, 19 जनवरी 2009

यही मौसम वहाँ होगा, यही क़िस्से वहाँ होंगे।

यही मौसम वहाँ होगा, यही क़िस्से वहाँ होंगे।

कहीं बेचैनियाँ होंगी, कहीं आतश-फिशां होंगे।

हमारी अम्न की बातें, महज़ झूठी तसल्ली हैं,

न गुज़रेंगे अगर जंगों से कैसे शादमां होंगे।

तरक्की-याफ़ता कौमों की बातों का भरोसा क्या,

अभी हमसे हैं मिलते, कल खुदा जाने कहाँ होंगे।

ख़याल इस बात का रखना भी हमको लाज़मी होगा,

वही कल होंगे दुश्मन आजके जो राज़दाँ होंगे।

हमें अंजाम भी मालूम है अक़दाम का अपने,

यहाँ कुछ खूँ-चकां होंगे, वहाँ कुछ खूँ-चकां होंगे।

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लग जाय कोई दाग़ न दामन समेट लो।

लग जाय कोई दाग़ न दामन समेट लो।

विद्रोह से भरा हुआ चिंतन समेट लो।

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कुछ होश भी है तुमको कड़कती हैं बिजलियाँ,

अच्छा यही है अपना नशेमन समेट लो।

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देखो उमड़ रहा है घटाओं का सिल्सिला,

आँगन में भीग जायेगा ईंधन समेट लो।

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आभास दुख का औरों को होने न दो कभी,

आंखों में तैरता हुआ सावन समेट लो।

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बेटों को जब विदेश में ही मिल रहा हो सुख,

तुम भी ये अपने मोह का बंधन समेट लो।

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सम्भव है आँधियों का न कर पाये सामना,

हल्का बहुत है फूस का छाजन समेट लो।

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रविवार, 18 जनवरी 2009

शान्ति मिल जाती है जब सहमति जताता है विपक्ष.

शान्ति मिल जाती है जब सहमति जताता है विपक्ष.
सोचता कोई नहीं. क्यों मुस्कुराता है विपक्ष.
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पहले मीठी-मीठी बातों से किया करता है खुश,
आक्रामक बनके फिर बिजली गिराता है विपक्ष.
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कोई भी ऐसा नहीं अच्छा लगे जिसको विरोध,
टूटता है धैर्य, जब तेवर दिखाता है विपक्ष.
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ध्यान से देखें तो इसमें ख़ुद हमारा लाभ है,
टिपण्णी करके हमें फिर से जगाता है विपक्ष।

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पक्षधर हो जाएँ हम चाहे किसी सिद्धांत के,
मन के भीतर कुछ टहोके से लगाता है विपक्ष.
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शनिवार, 17 जनवरी 2009

संवारते थे मेरे स्वप्न मशवरे देकर.

संवारते थे मेरे स्वप्न मशवरे देकर.
चले गए वो सभी मित्र हौसले देकर.
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ये बात सच है कि मैं दो क़दम बढ़ा न सका,
खुशी मिली मुझे औरों को रास्ते देकर.
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दुखों का काफ्ला ठहरा था मेरे घर आकर,
बिदा हुआ तो गया मुझको रतजगे देकर.
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ये सरहदों का तिलिस्मी स्वभाव कैसा है,
ये हँसता रहता है मुद्दे नये-नये देकर.
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वो लेके आया बसंती हवाओं की खुशबू,
जुदा हुआ वो मुझे ज़ख्म कुछ हरे देकर.
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खुली है खिड़कियाँ उतरेगा चाँद कमरे में,
मैं उसको रोकूंगा कुछ ख्वाब चुलबुले देकर.
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मक़सद इस दुनिया में आने का है क्या, पूछूं कहाँ.

मक़सद इस दुनिया में आने का है क्या, पूछूं कहाँ.
ज़िन्दगी की चाह इतनी क्यों है, ये समझूँ कहाँ.
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क्या तअल्लुक़ है मेरा, क्यों क़ैद हूँ इस जिस्म में,
देखना चाहूँ अगर खुदको तो मैं देखूं कहाँ.
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जानता हूँ नफ़्स का महकूम है अज़वे-बदन
नफ़्स है महकूम किसका, राज़ ये पाऊं कहाँ.
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मैं जिसे कहते हैं क्या उसकी भी कोई शक्ल है,
कुछ समझ पाता नहीं, इस मैं को मैं ढूँढूं कहाँ.
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इस जहाँ में किस कदर अदना सा है मेरा वुजूद,
मैं हिफाज़त इसकी करना चाहूँ तो रक्खूं कहाँ.
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निस्फ़ हिस्सा मेरा कहलाया अगर सिन्फे-लतीफ़,
मैं मुकम्मल क्यों नहीं पैदा हुआ, जानूँ कहाँ.
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मक़सद=उद्देश्य. तअल्लुक़=सम्बन्ध. नफ़्स=आत्मा। महकूम=अधीन/पाबन्द/आदेशित। अज़वे-बदन=शारीरिक अवयव. राज़=रहस्य. अदना=तुच्छ. निस्फ़ हिस्सा=अर्ध-भाग. सिंफे-लतीफ़=नारी. मुकम्मल=सम्पूर्ण.