बुधवार, 30 जुलाई 2008

आवारा सज्दे / कैफी आज़मी

इक यही सोज़े-निहां कुल मेरा सरमाया है
दोस्तों मैं किसे ये सोजे-निहां नज़्र करूँ
कोई क़ातिल सरे-मक़तल नज़र आता ही नहीं
किसको दिल नज़्र करूँ और किसे जां नज़्र करूँ

तुम भी महबूब मेरे तुम भी हो दिलदार मेरे
आशना मुझसे मगर तुम भी नहीं, तुम भी नहीं
ख़त्म है तुम पे मसीहा नफसी चारागरी
महरमे-दर्दे-जिगर तुम भी नहीं तुम भी नहीं

अपनी लाश आप उठाना कोई आसन नहीं
दस्तो-बाजू मेरे नाकारा हुए जाते हैं
जिन से हर दौर में चमकी है तुम्हारी देहलीज़
आज सज्दे वही आवारा हुए जाते हैं

दूर मंजिल थी मगर ऐसी भी कुछ दूर न थी
लेके फिरती रही रस्ते ही में वहशत मुझ को
एक ज़ख्म ऐसा न खाया कि बहार आ जाती
दार तक एके गया शौके-शहादत मुझ को

राह में टूट गया पाँव तो मालूम हुआ
जुज़ मेरे और मेरा राहनुमा कोई नहीं
एक के बाद खुदा एक चला आता था
कह दिया अक्ल ने तंग आके खुदा कोई नहीं
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मंगलवार, 29 जुलाई 2008

परवेज़ फ़ातिमा की एक ग़ज़ल

उदास, सहमे हुए लोग, खामुशी हर सू
सदाएं सुनती हूँ क्यों आज मौत की हर सू
तड़पते ख्वाबों की उरियां-बदन इबारत से
सदाए-मर्सिया मिलती है गूंजती हर सू
चुभो के खंजरे-नफ़रत की नोक सीनों में
बरहना नाच रही है दरिंदगी हर सू
हमारे ख्वाब भी महफूज़ रह न पायेंगे
कि हमने ख़्वाबों की ताबीर देख ली हर सू
कहा किसी ने कि इस शहर से चली जाओ
यहाँ मिलेगी तुम्हें सिर्फ़ बेकली हर सू
समझ में कुछ नहीं आता मैं क्या करूँ 'परवेज़'
लगा रही है मुझे ज़ख्म, बेहिसी हर सू
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सोमवार, 28 जुलाई 2008

धमाके ये हर सिम्त क्यों हो रहे हैं ?/ मिश्कात आबिदी

बताये कोई लोग क्यों सो रहे हैं
ये बेचारगी किस लिए ढो रहे हैं
पड़ोसी को बस कोस कर रो रहे हैं
धमाके ये हर सिम्त क्यों हो रहे हैं

हुआ क्या जो इस दर्जा मजबूर हैं हम
क़दम क्यों उठाने से माजूर हैं हम
हकीकत से क्यों इस कदर दूर हैं हम
धमाके ये हर सिम्त क्यों हो रहे हैं

कहाँ से हैं आते ये जानों के दुश्मन
अमन शांती के तरानों के दुश्मन
हैं क्यों ये हमारे ठिकानों के दुश्मन
धमाके ये हर सिम्त क्यों हो रहे हैं

हुकूमत ने होंटों को सी क्यों लिया है
तकल्लुफ का आख़िर ये क्यों सिलसिला है
सही बात कहने में खतरा ही क्या है
धमाके ये हर सिम्त क्यों हो रहे हैं ?

तबाही का ये दौर कब तक चलेगा
इसी तर्ह क्या खून बहता रहेगा
या कोई कभी खुल के भी कुछ कहेगा
धमाके ये हर सिम्त क्यों हो रहे हैं ?

ज़रा जा के दहशत-पनाहों से पूछो
तशद्दुद-पसंदी के शाहों से पूछो
गला थाम कर कम-निगाहों से पूछो
धमाके ये हर सिम्त क्यों हो रहे हैं ?

ये उजड़े हुए घर ये जिस्मों के टुकड़े
कभी थे जो माँओं की आंखों के टुकड़े
हुए बेखता, बेगुनाहों के टुकड़े
धमाके ये हर सिम्त क्यों हो रहे हैं ?

हैं कातिल मेरे मुल्क के राहबर भी
जो करते नहीं कुछ, ये सब देख कर भी
कभी दहशतें पहोंचेंगी उनके घर भी
धमाके ये हर सिम्त क्यों हो रहे हैं ?
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नोशी गीलानी की ग़ज़लें

[ 1 ]
महताब रुतें आयें, तो क्या-क्या नहीं करतीं
इस उम्र में तो लड़कियां सोया नहीं करतीं
किस्मत जिन्हें का दे शबे-ज़ुल्मत के हवाले
आँचल वो किसी नाम का ओढा नहीं करतीं
कुछ लड़कियां अंजामे-नज़र होते हुए भी
जब घर से निकलती हैं तो सोचा नहीं करतीं
यां प्यास का इज़हार मलामत है गुनह है,
फूलों से कभी तितलियाँ पूछा नहीं करतीं
जो लड़कियां तारीक मुक़द्दर हों, कभी भी
रातों को दिए घर में जलाया नहीं करतीं.
[ 2 ]
तुमने तो कह दिया कि मुहब्बत नहीं मिली
मुझको तो ये भी कहने की मुहलत नहीं मिली
नींदों के देस जाते, कोई ख्वाब देखते
लेकिन दिया जलने से फुर्सत नहीं मिली
तुझको तो खैर शहर के लोगों का खौफ था
मुझको ख़ुद अपने घर से इजाज़त नहीं मिली
बेजार यूँ हुए कि तेरे उह्द में हमें
सब कुछ मिला सुकून की दौलत नहीं मिली
[ 3 ]
कोई मुझको मेरा भरपूर सरापा लादे.
मेरे बाजू, मेरी आँखें, मेरा चेहरा लादे
कुछ नहीं चाहिए तुझ से ऐ मेरी उम्रे-रवां
मेरा बचपन, मेरे जुगनू, मेरी गुडिया लादे.
जिसकी आँखें मुझे अन्दर से भी पढ़ सकती हों
कोई चेहरा तू मेरे शह्र में ऐसा लादे
कश्तीए-जां तो भंवर में है कई बरसों से
या खुदा अब तू डुबो दे या किनारा लादे
*****************

बस करता रहूँगा कर्म / गौरव अवस्थी

आज मैंने सोचा
क्यों न कर लिया जाय धर्म परिवर्तन !
परिवर्तित कर लेने से धर्म
सफल हो सकता है जीवन ।

हिंदू धर्म में मज़ा नही है ,
देवी देवताओं का पता नही है!
कितने यक्ष हैं कितने देवता ,
इनकी तो कोई थाह नही है !

कॉलेज की किताबें कम नही ,
फिर वेद पुराण पढने का समय कहाँ ?
ब्रह्मचर्य का पालन कर के
बनना नहीं है मुनिदेव !

फ़िर सोचा क्यों न मुस्लिम बन जाऊँ ,
महीने भर रोजा रक्खूं
और खूब बकरे खाऊन
रोज़ सुबह से शाम पाँच बार ,
अल्लाह अल्लाह पुकारूं !

न जाने कितनी बार ,
ताजियों के साथ मातम मनाऊंगा !
कहीं गलती से शिया बन गया,
तो सुन्नियों के हाथों मारा जाऊंगा!

फ़िर सोचा की सिक्ख बन जाऊंगा,
दाढ़ी अपनी लम्बी करूँगा,
और मूछें भी नही कटवाऊंगा !
पंजाब के अमृतसर में जा कर,
मक्के दी रोटी और सरसों का साग खाऊँगा!

तभी एक मोटे अकाली ने कहा,
हड्डियाँ तो हैं इसमें, पर मांस कहाँ है सारा?
कहीं दोबारा मरी कोई इंदिरा,
तो बेमौत मारा जाएगा बेचारा!

तभी एक ईसाई धर्म प्रचारक बोले,
की बन जाओ ईसाई!
जिंदा बच गए बेटा,
तो करोगे खूब कमाई!

बने ईसाई तो धन कमाओगे खूब सारा,
लेकिन गए गुजरात और उडीसा,
तो कोई रक्षक नही तुम्हारा!
हम घबराए, कुछ सकुचाये,
बोले, काहे डराते हो भाई?
वो बोला, गुजरात और उडीसा में
क्रिश्चियंस की होती है पिटाई!

तो बैठे-बैठे ही हमने सोच लिया,
कि नही बदलूँगा धर्म!
चिंता नही करूँगा फल की,
बस करता रहूँगा कर्म!
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रविवार, 27 जुलाई 2008

पसंदीदा ग़ज़लें / अदीम हाशमी

[ 1 ]
गम के हर इक रंग से मुझको शनासा कर गया
वो मेरा मोहसिन मुझे पत्थर से हीरा कर गया
हर तरफ़ उड़ने लगा तारीक सायों का गुबार
शाम का झोंका, चमकता शह्र मैला कर गया.
चाट ली किरनों ने मेरे जिस्म की सारी मिठास
मैं समंदर था वो सूरज मुझको सहरा कर गया.
एक लम्हे में भरे बाज़ार सूने हो गए,
एक चेहरा सब पुराने ज़ख्म ताज़ा कर गया.
रात भर हम रौशनी की आस में जागे 'अदीम'
और दिन आया तो आंखों में अँधेरा कर गया.
[ 2 ]
फासले ऐसे भी होंगे ये कभी सोचा न था.
सामने बैठा था मेरे, और वो मेरा न था.
ख़ुद चढा रक्खे थे तन पर अजनबीयत के गिलाफ
वरना कब इक दूसरे को हमने पहचाना न था.
ये सभी वीरानियाँ उसके जुदा होने से थीं,
आँख धुंधलाई हुई थी, शह्र धुंधलाया न था
सैकड़ों तूफ़ान लफ़्जों के दबे थे ज़ेरे-लब
एक पत्थर था खामोशी का कि जो हिलाता न था.
याद करके और भी तकलीफ होती थी 'अदीम'
अब सिवाए भूल जाने के कोई चारा न था.
[ 3 ]
शोर सा एक हर एक सिम्त बपा लगता है.
वो खमोशी है कि लम्हा भी सदा लगता है.
कितना सकित नज़र आता है हवाओं का बदन
शाख पर फूल भी पथराया हुआ लगता है.
चीख उठती हुई हर घर से नज़र आती है
हर मकां शह्र का, आसेब-ज़दा लगता है.
आँख हर रह से चिपकी ही चली जाती है,
दिल को हर मोड़ पे कुछ खोया हुआ अगता है.
सोचता हूँ, तो हर इंसान पुतानी सूरत
देखता हूँ तो हर इक शख्स नया लागता है.
देर से ढूंढ रहा हूँ फ़क़त इक शब् की पनाह
साफ़ इनकार हर इक दर पे लिखा लगता है.
जान तू किसके लिए अपनी गंवाता है 'अदीम'
खूबसूरत है वो, लेकिन तेरा क्या लगता है.
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पसंदीदा नज़्में / साहिर लुधियानवी

1. तुम चली जाओगी
तुम चली जाओगी परछाइयां रह जायेंगी
कुछ न कुछ हुस्न की रानाइयां रह जायेंगी
तुम इसी झील के साहिल पे मिली हो मुझसे
जब भी देखूंगा यहीं मुझको नज़र आओगी
याद मिटती है न मंज़र कोई मिट सकता है
दूर जाकर भी तुम अपने को यहीं पाओगी.
2. सनाख्वाने-तकदीसे-मशरिक कहाँ हैं ?

ये कूचे ये नीलाम घर दिलकशी के
ये लुटते हुए कारवां जिंदगी के
कहाँ हैं कहाँ हैं मुहाफिज़ खुदी के
सनाख्वाने-तकदीसे-मशरिक कहाँ हैं ?

ये पुर-पेच गलियाँ, ये बे-ख्वाब बाज़ार
ये गुमनाम राही, ये सिक्कों की झंकार
ये इस्मत के सौदे, ये सौदों पे तकरार
सनाख्वाने-तकदीसे-मशरिक कहाँ हैं ?

तअफ़्फ़ुन से पुर, नीम-रौशन ये गलियाँ
ये मसली हुई अधखिली ज़र्द कलियाँ
ये बहकी हुई खोखली रंग-रलियाँ
सनाख्वाने-तकदीसे-मशरिक कहाँ हैं ?

वो उजले दरीचों में पायल की छन-छन
तनफ़्फ़ुस की उलझन पे तबले की धन-धन
ये बे-रूह कमरों में खांसी की ठन-ठन
सनाख्वाने-तकदीसे-मशरिक कहाँ हैं ?

ये गूंजे हुए क़ह्क़हे रास्तों पर
ये चारों तरफ़ भीड़ सी खिड़कियों पर
ये आवाज़े खिंचते हुए आंचलों पर
सनाख्वाने-तकदीसे-मशरिक कहाँ हैं ?

ये फूलों के गजरे ये पीकों के छींटे
ये बेबाक नज़रें ये गुस्ताख फिक़रे
ये ढलके बदन औ ये मद्कूक चेहरे
सनाख्वाने-तकदीसे-मशरिक कहाँ हैं ?

ये भूकी निगाहें हसीनों की जानिब
ये बढ़ते हुए हाथ सीनों की जानिब
लपकते हुए पाँव जीनों की जानिब
सनाख्वाने-तकदीसे-मशरिक कहाँ हैं ?

यहाँ पीर भी आ चुके हैं जवां भी
तनू-मंद बेटे भी, अब्बा मियाँ भी
ये बीवी भी है और बहेन भी है मां भी
सनाख्वाने-तकदीसे-मशरिक कहाँ हैं ?

मदद चाहती है ये हौवा की बेटी
यशोदा की हमजिंस राधा की बेटी
पयम्बर की उम्मत जुलेखा की बेटी
सनाख्वाने-तकदीसे-मशरिक कहाँ हैं ?

ज़रा मुल्क के रहबरों को बुलाओ
ये गलियां, ये कूचे, ये मंज़र दिखाओ
सनाख्वाने-तकदीसे-मशरिक कहाँ हैं ?

3. रह्बराने कौम के नाम

आओ कि आज गौर करें इस सवाल पर
देखे थे हमने जो वो हसीं ख्वाब क्या हुए
दौलत बढ़ी तो मुल्क में अफ्लास क्यों बढ़ा
खुश-हालीए-अवाम के असबाब क्या हुए
जो अपने साथ-साथ गए कूए-दार तक
वो दोस्त, वो रफीक, वो अहबाब क्या हुए
क्या मोल लग रहा है शहीदों के खून का
मरते थे जिन पे हम वो सजायब क्या हुए
बेकस बरहनगी को कफ़न तक नहीं नसीब
जम्हूरियत-नवाज़,बशर-दोस्त, अम्न-ख्वाह
ख़ुद को जो ख़ुद दिए थे वो अलकाब क्या हुए
मज़हब का रोग आज भी क्यों ला-इलाज है
वो नुस्खाहाए नादिरो-नायाब क्या हुए
हर कूचा शोला-ज़ार है हर शहर क़त्ल-गाह
यक्जह्तिए-हयात के आदाब क्या हुए
सहराए-तीरगी में भटकती है जिंदगी
उभरे थे जो उफक पे वो महताब क्या हुए

मुजरिम हूँ मैं अगर तो गुनाहगार तुम भी हो
ऐ रह्बराने कौम, खतावार तुम भी हो
******************

जोश मलीहाबादी की ग़ज़लें

[ 1 ]
क़दम इन्सां का राहे-दह्र में थर्रा ही जाता है.
चले कितना ही कोई बच के, ठोकर खा ही जाता है.
नज़र हो ख्वाह कितनी ही हक़ाइक़-आशना, फिर भी,
हुजूम-कशमकश में आदमी घबरा ही जाता है.
खिलाफे-मसलेहत मैं भी समझता हूँ, मगर वाइज़
वो आते हैं तो चेहरे पर तगैयुर आ ही जाता है.
हवाएं ज़ोर कितना ही लगाएं आंधियां बनकर
मगर जो घिर के आता है, वो बादल छा ही जाता है.
शिकायत क्यों इसे कहते हो ये फितरत है इन्सां की
मुसीबत में खयाले-ऐशे-रफ्ता आ ही जाता है.
[ 2 ]
जहन्नम सर्द है, जन्नत के दर खुलवाये जाते हैं.
सरे-महशर पुजारी हुस्न के बुलवाए जाते हैं.
गज़ब है ये अदा उनकी दमे-आराइशे-गेसू,
झुकी जाती हैं आँखें ख़ुद-बखुद शर्माए जाते हैं.
शबे-वादा ये कैसी तीरगी है,वक्त क्या होगा
तमन्नाओं के गुंचे हमनफस कुम्हलाये जाते हैं.
कोई हद ही नहीं इस इह्तरामे-आदमीयत की
बदी करता है दुश्मन और हम शर्माए जाते हैं.
बहोत जी खुश हुआ ऐ हमनशीं कल 'जोश' से मिलकर,
अभी अगली शराफत के नमूने पाये जाते हैं.
[ 3 ]
पहचान गया, सैलाब है, इसके सीने में अरमानों का.
देखा जो सफीने को मेरे, जी छूट गया तूफानों का.
ये शोख फिजा, ये ताज़ा चमन,ये मस्त घटा, ये सर्द हवा,
काफिर है अगर इस वक्त भी कोई रुख न करे मैखानों का.
ये किसकी हयात-अफरोज नज़र ने छेड़ दिया है आलम को,
हर ख़ाक के अदना ज़र्रे में, हंगामा है लाखों जानों का.
हाँ जुल्मो-सितम से भी क़दरे, पड़ती हैं खराशें सीने में,
सबसे मुह्लिक है ज़ख्म मगर, ऐ हुस्न तेरे एहसानों का.
कमबख्त जवानी सीने में, नागन की तरह लहराती है,
हर मौजे-नफस इक तूफां है, कुनैन-शिकन अरमानों का.
ऐ 'जोश' जुनूं की शामो-सहर में वक्त की ये रफ़्तार नहीं,
दानाओं की तूलानी सदियाँ,और एक नफस दीवानों का.
**************************

शनिवार, 26 जुलाई 2008

इस्लाम की समझ / क्रमशः 1.5

इस्लाम दीन है, धर्म या मज़हब नहीं
श्रीप्रद कुरआन ने जबतक यह कहा कि 'आज्ञापालन करो अल्लाह का और आज्ञापालन करो उसके रसूल का' मुस्लिम धर्माचार्यों को इस्लामी सल्तनत का कोई आधार नहीं मिल सका. यह और बात है कि मक्के के मुशरिकों का अनुमान था कि हज़रत मुहम्मद (स.) दीन के माध्यम से अरब की सल्तनत स्थापित करना चाहते हैं. मुशरिकों के प्रतिनिधि अत्बा ने कुरैश को यह सुझाव भी दिया था कि 'मुहम्मद (स.) को उसके हाल पर छोड़ दो. यदि अरब वालों ने उसका अंत कर दिया तो तुम सस्ते छूट गए और यदि उसे आधिपत्य प्राप्त हुआ तो उसकी सल्तनत तुम्हारी सल्तनत होगी." इतना ही नहीं, आगे चलकर मक्का विजय के समय जब अब्बास इब्ने-अब्दुलमुत्तलिब (र.) अबूसुफियान को, जिसने दबाव में आकर अभी कुछ क्षणों पूर्व ही इस्लाम को दीन के रूप में स्वीकार किया था, इस्लामी सेना के संयमित पंक्तिबद्ध दस्तों का मुआइना करा रहे थे, उसके मुंह से अचानक निकल गया था, "ऐ अब्बास ! (र.) तुम्हारा भतीजा तो बड़ी सल्तनत वाला हो गया." अब्बास ने तत्काल उसके मुंह पर हाथ रख दिया और कहा "धिक्कार हो तुझ पर. यह सल्तनत नहीं नबूवत है."
बात स्पष्ट है कि मक्के के मुशरिकों को ही यह आभास नहीं था, नबीश्री (स.) के जीवन काल में ही, मुसलामानों के बीच यह मानसिकता विकसित हो चुकी थी कि नबूवत का उद्देश्य इस्लामी हुकूमत स्थापित करना है. वस्तुतः यही वह बीज-बिन्दु है जिसने नबीश्री (स.) के निधनोपरांत अल्लाह के प्रिय दीन इस्लाम को, सुन्नी और शीआ जैसे दो बड़े समूहों में विभाजित करके, मज़हब में तब्दील कर दिया. और यही वह स्थल है जहाँ से इस्लाम में ‘हिकमत’ के स्थान पर राजनीति ने प्रवेश किया.
श्रीप्रद कुरआन में मुसलमानों को जब आदेश हुआ "या अयियुहल्लज़ीन आमनू अतीउल्लाह व अतीउर्रसूल व ऊलिल'अम्रि मिन्कुम" तो यद्यपि अनेक सहाबियों ने जिज्ञासावश इस आयत का वास्तविक अर्थ नबीश्री से मालूम कर लिया था, किंतु सत्ता लोलुप मुसलमानों ने, इस अर्थ को दबाकर, इसका अर्थ इस प्रकार करना प्रारंभ किया 'ऐ ईमान वालो ! अल्लाह का आदेश मानो और रसूल का आदेश मानो और उनका जो तुम में साहिबे-हुकूमत (शासक) हैं.''ऊलिल'अम्र' का ‘हुक्मरां’ या ‘शासक’ अर्थ करके मुसलमानों ने अपनी नीयत स्पष्ट कर दी. शासक तो भ्रष्ट-से-भ्रष्ट व्यक्ति भी हो सकता है. फिर अल्लाह उसके आदेशों का पालन करने के लिए ईमान वालों को क्यों आदेशित करेगा. यदि ऐसा ही था तो नबियों द्बारा मार्ग-दर्शन की आवश्यकता ही क्या थी. शीआ समुदाय ने आयत का अर्थ और उसकी व्याख्या यद्यपि पर्याप्त सीमा तक सही की, किंतु व्यवहार में वह भी, नबीश्री (स.) के सर्वप्रिय सहाबी इमाम अली (र.) में ही सही, सांसारिक सत्ता देखने के पक्षधर हैं.
ऊलिल'अम्र का अर्थ शब्द कोशों में तलाश करने से ही मेरी दृष्टि में यह ज़िदें पैदा हुईं. श्रीप्रद कुरआन में जहाँ-जहाँ 'अम्र' शब्द का प्रयोग हुआ है एक दृष्टि उसपर अवश्य कर लेनी चाहिए. जहाँ तक हुकूमत और सल्तनत का प्रश्न है श्रीप्रद कुरआन ने साफ़ शब्दों में घोषित कर दिया है"इनिल हुक्मु इल्लल्लाहि" (12/40). अर्थात अल्लाह के सिवा किसी की हुकूमत नहीं है.
श्रीप्रद कुरआन में कहा गया है "युदब्बिरुल'अम्र मिनस्समाइ इलल'अर्ज़ि" (32/5). अर्थात वह आकाश से धरती तक आदेशों की व्यवस्था करता है. यहाँ अम्र का अनुवाद कार्य भी किया गया है. किंतु यदि अम्र का अनुवाद कार्य किया जाय तो 'अल-अम्र' होने के कारण उन कार्यों की विशिष्टता रेखांकित होती है. और यह विशिष्टता अल्लाह से सम्बद्ध है. यानी यह कार्य सामान्य, रोज़मर्रा के या हमारे प्रशासनिक कार्य नहीं हैं. एक अन्य आयत में कहा गया है "यतनज़्ज़लुल'अमरु बैनहुन्न" (65/12) अर्थात उनके बीच (धरती और आकाश के बीच) उसके 'आदेश' (अम्र) उतरते रहते हैं. ऊपर की आयत को इस आयत से मिलाकर देखा जाय तो स्पष्ट हो जाएगा कि वह धरती और आकाश के बीच कार्यों की नहीं, अपने आदेशों की व्यवस्था करता है जिसके नतीजे में सारे कार्य संपन्न होते हैं. किंतु यही 'अम्र' शब्द जब श्रीप्रद कुरआन में अल्लाह के किसी प्रिय गुण से संपन्न व्यक्तियों के लिए या किसी नबी के सन्दर्भ में आता है तो इससे अभिप्राय उसके कार्य ही होते हैं. उदाहरणस्वरूप श्रीप्रद कुरआन में सात्विक (मुत्तकी) व्यक्तियों के सन्दर्भ में कहा गया है "व मयींयत्तक़िल्लाह यज'अल्लहू मिन अम्रिही युस्रन" (65/4). अर्थात जो अल्लाह के लिए तक़वा रखते हैं (सात्विकता बनाए रखते हैं), अल्लाह उनके कार्यों में सहूलत पैदा कर देता है. एक अन्य स्थल पर हज़रत लूत (अ.) के सन्दर्भ में कहा गया "व क़ज़यना इलैहि ज़ालिकल अम्र" अर्थात ‘और हमने उसके (हज़रत लूत (अ.) के) कार्यों/मामले में अपना निर्णय उसकी ओर भेजा.'
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि 'ऊलिल अम्र' का अनुवाद ‘शासक’ अथवा ‘हुक्मरां’ करना तर्क-संगत नहीं है. फिर श्रीप्रद कुरआन की इस आयत को यदि ध्यान पूर्वक देखा जाय तो और भी तथ्य सामने आते हैं. आज्ञापालन के आदेश तीन हैं.अल्लाह का आज्ञा पालन,रसूल का आज्ञा पालन और ऊलिल अम्र का आज्ञा पालन. किंतु अल्लाह को पृथक् श्रेणी में रखा गया है और रसूल तथा ऊलिल अम्र को पृथक् किंतु एक ही श्रेणी में रखकर आज्ञा पालन का आदेश दिया गया है. रसूल के गुणों से ऊलिल अम्र के गुण यदि कुछ भी भिन्न होते तो उसके लिए पृथक रूप से 'अतीऊ' (आज्ञा पालन करो) शब्द प्रयुक्त होता. ज़ाहिर है कि यह विभाजन गुणों के आधार पर है. जो गुण अल्लाह के हैं वह निश्चित रूप से रसूल और ऊलिल अम्र के नहीं हैं. किंतु रसूल (स.) और ऊलिल अम्र के गुणों में समानता है. इसलिए इनके प्रसंग में आज्ञा पालन का आदेश एक साथ हुआ है.यह ऐसा ही है जैसे आप अपने किसी अधिकारी और सहयोगियों को घर पर निमंत्रित करने के लिए कहें 'सर ! आप आज शाम को घर पर पधारने की कृपा करें और आप और आप और आप भी पधारें. इस वाक्य में एक निमंत्रण तो अधिकारी के लिए विशिष्ट है दूसरे निमंत्रण में तीन लोग शामिल हैं जो गुण और पद की दृष्टि से समान हैं. स्पष्ट यह हुआ कि ऊलिल अम्र में वैसे ही गुण होने चाहियें जो नबीश्री (स.) में हैं और अल्लाह को और उसके रसूल को भी वह उसी प्रकार प्रिय हो जिस प्रकार नबीश्री (स.) अल्लाह को प्रिय हैं, अन्यथा अल्लाह उसकी आज्ञा पालन का आदेश ही क्यों देगा.
नबीश्री के भेजे जाने का उद्देश्य यदि इस्लामी सल्तनत स्थापित करना होता और श्रीप्रद कुरआन में नबीश्री के कामों में इसकी गणना की गई होती, तो ऊलिल अम्र का भी यह दायित्व होता कि वह इस्लामी हुकूमत की व्यवस्था करे. नबीश्री के निधनोपरांत कुछ गिने-चुने सहाबियों द्वारा खलीफा का निर्वाचित किया जाना एक राजनीतिक व्यवस्था की शुरूआत तो कही जा सकती है, किंतु इस प्रक्रिया को दीन से जोड़कर नहीं देखा जा सकता. मैं बार-बार यह दुहराना पसंद करूँगा कि नबीश्री जीवन-पर्यंत 'हिकमत' से काम लेते रहे, 'राजनीति' से नहीं. ऊलिल अम्र को उसके चारित्रिक गुणों,अल्लाह और रसूल से उसके नैकट्य,सद्कर्मों के प्रति उसकी प्रतिबद्धता और सच्चाइयों पर डटे रहने के जीवट के आधार पर पहचाना जा सकता है, खलीफा जैसे किसी सांसारिक पद के आधार पर नहीं. सांसारिक पद मैं इसलिए कह रहा हूँ कि श्रीप्रद कुरआन में जहाँ यह पद सांसारिक नहीं है, मुझे ऐसा कोई सन्दर्भ नहीं मिलता जहाँ किसी क़ौम ने अपने लिए खलीफा का निर्वाचन किया हो. खलीफा अल्लाह का प्रतिनिधि होता है और अल्लाह को ही अपना प्रतिनधि चुनने का अधिकार भी है. खलीफा का निर्वाचन करके नबीश्री के कुछ सहाबियों ने यह साबित कर दिया कि यह पद अल्लाह प्रदत्त न होकर जनता प्रदत्त है. और जनता प्रदत्त पदों को दीन से नहीं जोड़ा जा सकता.
नबीश्री ने अपने रिश्तेदारों और सहाबियों के बीच में अपनी बातचीत में जहाँ भी खलीफा शब्द का प्रयोग किया है वह 'वसी,' 'वज़ीर,''नाइब,' 'वली' आदि अर्थों में किया है. रिसालत और नबूवत नबीश्री पर समाप्त हो गई.और जब यह पद ही समाप्त हो गया फिर उत्तराधिकार का क्या प्रश्न. वैसे भी नबूवत और रिसालत का कोई स्थानापन्न नहीं हो सकता.नबी अल्लाह की खबरें उसके बन्दों तक पहुंचाता है और रसूल अल्लाह के संदेशों से अवगत कराता है. हज़रत मुहम्मद (स.) का अन्तिम नबी होना इस तथ्य को उद्घाटित करता है कि मानव जाति तक अल्लाह की सभी खबरें और सभी संदेश पहुँच चुके. वसी, वजीर, नाइब, वली इत्यादि शब्द सहयोगी के अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं, शासक या हुक्मरां के अर्थ में नहीं. वजीर वह होता है जो दायित्व के बोझ को हल्का करे.
हज़रत मूसा (अ.) ने अल्लाह से प्रार्थना की "वज'अल्ली वज़ीरम्मिन अहली. हारून अखी" (श्रीप्रद कुरआन,20/29-30) अर्थात (मेरे रब) मेरे 'अह्ल' (अल्लाह की दृष्टि में सद्कर्म करने वाला सुयोग्य पात्र) में से एक को मेरा वज़ीर नियुक्त कर. मेरे भाई हारुन को.' यहाँ श्रीप्रद कुरआन के अनेक व्याख्याताओं ने 'अहली' शब्द का अनुवाद 'मेरे घर वाले' या 'मेरे परिवार वाले' किया है, जो उचित नहीं है. अपनी बात की पुष्टि में मैं श्रीप्रद कुरआन से हज़रत नूह (अ.) का उद्धरण देना चाहूँगा. प्रलय आने पर जब हज़रत नूह (अ.) का बेटा पिता के कहने पर भी कश्ती पर नहीं बैठा और पानी में डूबने लगा तो हज़रत नूह (अ.) ने अल्लाह से प्रार्थना की " व नादा नूहुंर्रब्बहू फ़क़ाल रब्बि इन्न अब्नी मिन अहली" (11/45). अर्थात 'और नूह ने अपने रब को पुकारा और कहा ऐ मेरे रब ! यह मेरा बेटा है और मेरा अह्ल है.' नूह (अ.) को अल्लाह का उत्तर मिला "या नूहु लैस मिन अह्लिक इन्नहू अमलुन गैरु सालिहिन." (11/46).अर्थात 'नूह वह तेरे अह्ल में से नहीं है. वह सदाचारी नहीं है." यहाँ बेटा होने का खंडन नहीं किया गया किंतु अहल होना स्वीकार नहीं किया गया और तर्क यह दिया गया कि उसके (नूह (स.) के बेटे के) कर्म सालिह नहीं हैं अर्थात भ्रष्ट हैं. स्पष्ट हो जाता है कि कोई भी व्यक्ति केवल घर का होने के आधार पर अल्लाह की दृष्टि में ‘अह्ल’ नहीं है. अह्ल होने के लिए उसका सदाचारी होना अनिवार्य शर्त है. सदाचारी शब्द का प्रयोग मैं यहाँ 'अमलि-सालिह; अर्थात नेक कर्म या सद्कर्म करने वाले के अर्थ में कर रहा हूँ.
यहाँ मैं एक और प्रसंग की चर्चा करना चाहूँगा जिसके सन्दर्भ सुन्नी और शीआ समुदाय की प्रामाणिक पुस्तकों में साधारण से अन्तर के साथ समान रूप से उपलब्ध हैं. सन 09 हिजरी में जब श्रीप्रद कुरआन की सूरः बराअत का अवतरण हुआ, तो नबीश्री ने सूरः की आयतों को लेकर, हज के अवसर पर हज़रत अबूबक्र (र.) को मक्का जाने का आदेश दिया. किंतु उसके बाद ही नबीश्री को अल्लाह का संदेश प्राप्त हुआ कि आप उन्हें वापस बुला लीजिये और इन आयतों को लेकर या तो आप स्वयं जायिए या अपने किसी ‘अह्ल’ को भेजिए. अल्लाह के इस संदेश के बाद नबीश्री ने इमाम अली (र.) को आदेश दिया कि वे हज़रत अबू बक्र (र.) से सूरः बराअत लेकर मक्के तशरीफ़ ले जाएँ और हाजियों के समक्ष उसकी प्रस्तुति स्वयं करें. स्पष्ट है कि अल्लाह की दृष्टि में हज़रत अबू बक्र (र.) नबीश्री के ‘अह्ल’ नहीं थे और हज़रत अली (र.) नबीश्री के भाई या दामाद होने के कारण नहीं भेजे गए बल्कि वे इसलिए भेजे गए कि वे नबीश्री के अह्ल थे और आमालि सालिह (सद्कर्म) की तराजू पर वे ही ऐसे थे जो नबीश्री का स्थान ले सकते थे. श्रीप्रद कुरआन ने ऐसी ही विभूतियों के लिए ‘ऊलिल अम्र’ शब्द का प्रयोग किया है।
ऊपर मैंने यह लिखा है कि नबीश्री (स.) ने अपने रिश्तेदारों और सहाबियों के बीच जब भी खलीफा शब्द का प्रयोग किया है उसका अर्थ कहीं भी हुक्मरान या शासक नहीं है. मैं जानता हूँ कि मेरी यह अवधारण सुन्नी और शीआ समुदायों के अनेक धर्माचार्यों को अच्छी नहीं लगेगी. किंतु मेरी दृष्टि में तथ्य यही है. मैं यहाँ दावते-ज़ुल-अशीरा का सन्दर्भ देना चाहूँगा.यह सन्दर्भ सुन्नी समुदाय की अनेक प्रामाणिक पुस्तकों में उपलब्ध है जिनमें से कुछ के नाम इस प्रकार है.1. शेख अलाउद्दीन अली बिन मुहम्मद बिन इब्राहीम अल-बग्दादीकृत लुबाबुत्तावील फी म'आलिमुत्तन्जील जो तफसीरे-खाज़िन बगदादी के नाम से प्रसिद्ध है 2.अबीबक्र इब्नल्हुसैन अल-इमाम अल-हाफिज़ अली अल-बैहकीकृत दलाइलुन्नबूवह 3.इब्ने जरीर तबरीकृत तारीखुर्रसुल वल-मुलूक 4. इब्ने असीर जज़रीकृत तारीखे-कामिल 5. सुयूतीकृत जमउल जवामे इत्यादि.
प्रारम्भ में तीन वर्षों तक नबीश्री ने गोपनीय रूप से इस्लाम का प्रचार किया. किंतु इसके बाद जब श्रीप्रद कुरआन की यह आयत उतरी कि 'अपने निकट सम्बन्धियों को अल्लाह के अजाब से डराओ’ तो नबीश्री ने बनीहाशिम को खाने पर निमंत्रित किया जिसमें चालीस लोग आए. यद्यपि भोजन देखने में बहुत कम था पर अल्ल्लाह की कृपा से सभी ने सेर होकर खाया. भोजनोपरांत जब नबीश्री ने कुछ कहना चाहा तो अबूलहब ने उनकी बात प्रारम्भ होने से पहले सबकुछ मजाक में उड़ा दिया. दूसरे दिन फिर उन लोगों को निमंत्रित किया गया. आज वे लोग पहले की अपेक्षा कुछ नर्म थे. इसलिए नबीश्री को अपनी बातें कहने का अवसर मिल गया. नबीश्री ने कहा "ऐ बनी अब्दुल्मुत्तलिब ! मैं तुम्हारे पास कुछ लोक परलोक की नेकियाँ लाया हूँ. और अल्लाह ने मुझे इस बात के लिए आदेशित किया है कि मैं तुम्हें उसकी ओर बुलाऊं. तुम में से जो भी मेरा सहयोग देगा वह मेरा भाई, मेरा वसी और मेरा खलीफा होगा. नबीश्री ने तीन बार अपना यह वाक्य दुहराया किंतु तीनों बार अली (र.) के अतिरिक्त कोई भी तैयार नहीं हुआ. अंत में नबीश्री ने सभी को संबोधित करके कहा कि ऐ लोगो ! अली (र.) मेरा भाई, मेरा वसी और मेरा खलीफा है. तुम इसके आदेश सुनोगे और इसकी अता'अत (आज्ञा पालन) करोगे. लोगों ने यह सुनकर ठहाका लगाया और अबूलहब ने इमाम अली (र.) के पिता और नबीश्री के संरक्षक हज़रत अबूतालिब (र.) पर चोट की 'लो तुम्हें आदेश दिया गया है कि तुम अपने बेटे के आदेशों का पालन करो."
ध्यान रखना चाहिए कि यह प्रारंभिक दिनों की बात है जब कुछ गिनती के लोगों ने ही इस्लाम दीन स्वीकार किया था. उस समय न कोई सत्ता थी, न कोई फौज थी न कोई प्रशासन. ऐसी स्थिति में खलीफा का अर्थ हुक्मरान या शासक किस प्रकार किया जा सकता है. स्पष्ट है कि यहाँ खलीफा का अर्थ सहयोगी, सहकर्मी या आज की शब्दावली में स्पोक्समैन से है. शासक हुकमरान या उत्तराधिकारी से नहीं.
********************क्रमशः

गुरुवार, 24 जुलाई 2008

पसंदीदा शायरी / शकील बदायूनी

तीन ग़ज़लें
[ 1 ]
गमे-आशिकी से कह दो, रहे-आम तक न पहोंचे
मुझे खौफ है ये तुहमत, मेरे नाम तक न पहोंचे.
मैं नज़र से पी रहा था, तो ये दिल ने बद-दुआ दी
तेरा हाथ जिंदगी भर, कभी जाम तक न पहोंचे.
नई सुब्ह पर नज़र है, मगर आह ये भी डर है,
ये सहर भी रफ़ता-रफ़ता, कहीं शाम तक न पहोंचे.
वो नवाए-मुज़महिल क्या, न हो जिसमें दिल की धड़कन
वो सदाए-अहले-दिल क्या, जो अवाम तक न पहोंचे.
उन्हें अपने दिल की खबरें, मेरे दिल से मिल रही हैं,
मैं जो उनसे रूठ जाऊं, तो पयाम तक न पहोंचे
ये अदाए-बेनियाज़ी, तुझे बे-वफ़ा मुबारक
मगर ऐसी बे-रुखी क्या, कि सलाम तक न पहोंचे.
जो नक़ाबे-रुख हटा दी, तो ये क़ैद भी आगा दी,
उठे हर निगाह लेकिन, कोई बाम तक न पहोंचे.
वही इक ख़मोश नगमा, है शकील जाने-हस्ती,
जो जुबान तक न आए, जो कलाम तक न पहोंचे.
[ 2 ]
मेरी जिंदगी पे न मुस्कुरा, मुझे जिंदगी का अलम नहीं.
जिसे तेरे गम से हो वास्ता, वो खिज़ाँ बहार से कम नहीं
मुझे रास आयें खुदा करे, यही इश्तिबाह की सा'अतें
उन्हें एतबार-वफ़ा तो है, मुझे एतबार-सितम नहीं.
वही कारवां वही रास्ते, वही जिंदगी वही मरहले,
मगर अपने अपने मुकाम पर, कभी तुम नहीं कभी हम नहीं.
न वो शाने-जब्रे-शबाब है, न वो रंगे क़ह्रो-इताब है,
दिले-बेकरार पे इन दिनों, है सितम यही कि सितम नहीं.
न फ़ना मेरे न बका मेरी, मुझे ऐ शकील न ढूँडिए,
मैं किसी का हुस्नो-ख़याल हूँ, मेरा कुछ वुजूदो-अदम नहीं.
[ 3 ]
शायद आगाज़ हुआ फिर किसी अफ़साने का.
हुक्म आदम को है जन्नत से निकल जाने का.
उनसे कुछ कह तो रहा हूँ मगर अल्लाह न करे
वो भी मफहूम न समझें मेरे अफ़साने का.
देखना देखना ये हज़रते-वाइज़ ही न हों,
रास्ता पूछ रहा है कोई मयखाने का.
बे त'अल्लुक़ तेरे आगे से गुज़र जाता हूँ,
ये भी इक हुस्ने-तलब है तेरे दीवाने का.
हश्र तक गर्मिए-हंगामए-हस्ती है शकील
सिलसिला ख़त्म न होगा मेरे अफ़साने का.
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